आदर्श महिला/१ सीता/२

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आदर्श महिला  (1925) 
द्वारा नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा

[ १९ ]बदला लेना चाहती हूँ; बदला लेने के लिए मेरी छाती जल रही है।तुम तुच्छ राम-लक्ष्मण को मारकर उस सुन्दरी सीता को ले आओ। सीता तुम्हारे विलास-वन में, खिले हुए स्थल-कमल की तरह, शोभा देगी।

अभिमानी रावण आज बदहवास है। एक ओर बहन का अप- मान और दूसरी ओर पाप-वासना। अभागा आज दो धाराओं में डूब रहा है। रावण अपनी मर्यादा को भूलकर रूप-अग्नि के आकर्षण से पतंग की तरह दौड़ा।

मायावी मारीच को साथ ले, आकाश में उड़नेवाले अपने पुष्पक विमान पर चढ़कर, रावण तुरन्त दण्डक वन में पहुँचा। दुर्बुद्धि रावण आत्म-शक्ति को भूलकर चोरी से अपनी पापवासना पूर्ण करने पर तैयार हुआ। रावण के हुक्म से मारीच एक सुनहरे मृग का रूप धरकर रामचन्द्र के आश्रम के पास फिरने लगा।

सुनहरे मृग को देखकर सीता ने रामचन्द्र से कहा—"नाथ! आप इस सुन्दर मृग को जीता पकड़ लावें, तो मैं इसको आश्रम में रखकर पालुँगी। अगर जीता न आ सके तो मार कर ही लावें। उसका सुन्दर चमड़ा हम लोगों के आश्रम में रहेगा।

आज रामचन्द्र की बुद्धि भी गड़बड़ा गई। वे देवताओं के पूज्य होकर आज धोखे में आ गये।‌ उनकी आँखों में धूल पड़ गई। हाथ में धनुष लेकर रामचन्द्र, लक्ष्मण को सीता की रखवाली का भार देकर, आश्रम से निकल पड़े।

रामचन्द्र ने ज्योंही स्वर्ण मृग का पीछा किया त्योंही वह अचा- नक गायब हो गया। रामचन्द्र इस माया को नहीं समझ सके। वे मृग के पीछे-पीछे दौड़ने लगे। दुर्भाग्यरूपी रात जैसे आफ़त में पड़े हुए बटोही की विद्यु त-हास्य करके दिल्लगी उड़ाती है, वैसे ही माया[ २० ]मृग भी एक-एक बार रामचन्द्र के सामने आकर उनकी दिल्लगी उड़ाने लगा। उन्होंने उस अनोखे मृग को जीता पकड़ने की आशा न देखकर उस पर बाण चलाया। निशाना था अचूक, माया-मृग घायल होकर रामचन्द्र की सी आवाज़ में यह कहता हुआ मर गया- "राक्षस के हाथ से मेरा प्राण जाता है। हे सीता! हे लक्ष्मण! तुम कहाँ हो, आकर मुझे बचाओ।" माया-मृग के मुँह से ऐसी असम्भव बात सुनकर रामचन्द्र अचरज से सोचने लगे कि यह क्या मामला है। माया-मृग की इस उक्ति में कोई न कोई रहस्य अवश्य छिपा हुआ है—यह सोचकर रामचन्द्र तेज़ी से आश्रम की ओर चले।

कुटी में बैठी हुईं सीता, दूर से रामचन्द्र के गले की आवाज़ सुनकर, घबरा गईं और लक्ष्मण से बोलीं—"लक्ष्मण! तुम शीघ्र अपने बड़े भाई की सहायता को जाओ।" स्थिर-बुद्धिवाले लक्ष्मण रामचन्द्र की शक्ति को और वहाँ के राक्षसों की चालबाजी को अच्छी तरह जानते थे। इससे वे सीता की घबराहट देखकर भी रामचन्द्र की आज्ञा भङ्ग कर सीता को कुटी में अकेली छोड़कर जाने से हिचकने लगे।

लक्ष्मण को निश्चिन्त देखकर स्वामी की विपद से घबराई हुई सीताजी क्रोध से कटु वचन बोलीं। लक्ष्मण के स्वभाव और कार्रवाई को कोई गुप्त चाल समझकर सीता ने शेरनी की तरह गरजकर कहा—अरे दुष्ट लक्ष्मण! मैं समझ गई, तू बुरे मतलब से मेरे साथ आया है। तेरा भ्रातृ-प्रेम कोरा बहाना है।

विपद के समय मनुष्य की बुद्धि स्थिर नहीं रहती। सीता का भी यही हाल हुआ। लक्ष्मण के स्वार्थ-त्याग, भ्रातृ-प्रेम, संयम, उच्चहृदयता और पर-स्त्री के प्रति मातृ-भाव को आज सीता ने सन्देह की दृष्टि से देखा। आज कोई शैतान आकर सीता के सरल हृदय में विष [ २१ ]बुझा गया, उनकी सदा शान्त रहनेवाली प्रकृति में अशान्ति की आग फूँक गया। सीता का मातृ-भाव से उन्नत हृदय आज व्यर्थ के सन्देह से झुक गया। सीता के उस अतर्कित भावान्तर और भयङ्कर मूर्ति को देखकर लक्ष्मण विस्मित और क्रुद्ध होकर डबडबाई आँखों से झटपट कुटी से चल पड़े।

अवसर पाकर दुराचारी रावण ने, संन्यासी के वेष में, सीता के पास जाकर भीख माँगी। कुटीर-वासिनी असहाया सीता ने अतिथि- सत्कार में त्रुटि होने के भय से, अपना परिचय देकर, संन्यासी के लिए आसन और पाद्द दिया। किन्तु रावण ने इस सत्कार की ओर ध्यान नहीं दिया। उसने छूटते ही अपना अभिप्राय प्रकट किया। सीता ने झिड़ककर घृणा-पूर्वक कहा—अरे दुष्ट राक्षस! तू ऐसी दुष्ट आशा क्यों रखता है? मेरे स्वामी देवताओं के पूज्य, मूर्तिमान् धनुर्वेद, चरित्र में समुन्नत पर्वत की तरह विराट हैं। तू किस साहस से पाप की ऐसी बात बोलता है? तेरा यह असम्भव प्रयत्न देखकर मुझे विस्मय होता है। क्या तू नहीं जानता कि मैं सत्य-प्रतिज्ञ, आदर्शचरित्र, पुरुष-श्रेष्ठ रामचन्द्र की सहधर्मिणी हूँ? मैं महासागर छोड़कर गढ़ैया को क्यों चाहने लगी? अरे गीदड़! तू क्या पुरुष-सिंह रामचन्द्र के अतुल पराक्रम को नहीं जानता? धूर्त! तू गीदड़ होकर सिंहिनी की अभिलाषा करता है? क्षुद्र गढ़ैया होकर असीम महासागर को गोद में लेना चाहता है? जो तुझे प्राण प्यारा है तो पाप-वासना छोड़कर शीघ्र यहाँ से भाग। तेरी पाप की बात से यह स्वाभाविक सौम्य वन-भूमि और शान्त शीतल सन्ध्या कलुषित हुई है। अरे पापी, तेरी पाप की बात से वृक्ष के पत्ते ठिठक गये हैं; सन्ध्या का सूर्य्य लाल आँखें करके तेरे सत्यानाश की ओर देख रहा है। तू यहाँ से काला मुँह कर। एक बार इन्द्राणी का अपमान करके [ २२ ]तू बच भी सकता है पर मेरा अपमान करके, मेरे महाबली स्वामी के क्रोधानल से, कभी निस्तार नहीं पावेगा।

दुष्ट रावण ने एक न सुनी। वह न जाने किस ख़याल में था। पाप-वासना उसको न जाने किस कालसमुद्र की ओर ढकेल रही थी! रावण ने सुध-बुध भूलकर मानो बिजली को गले लगाने की चेष्टा की; उसने मानो काली नागिन को छाती पर रखने की इच्छा की। पर यह नहीं देखा कि आँखों में चकाचौंध लगानेवाली बिजली के भीतर प्राण का नाश कर डालनेवाली शक्ति है; उसने यह नहीं समझा कि काली नागिन के हलाहल से मेरे वंश भर का नाश हो जावेगा।

रावण ने देखा कि सीता साधारण स्वभाव की स्त्री नहीं। यहाँ बातों से कोई काम नहीं होगा, यह सोचकर उसने एक हाथ से सीता की चोटी और दूसरे हाथ से कमर पकड़कर रथ पर चढ़ा लिया और आकाश को ले उड़ा। सीता के रोदन से दशों दिशाओं में शोक छा गया। पञ्चवटी की शोभा मारी गई। वृक्ष मानो उदास भाव से खड़े होकर काँपने लगे।


"हा राम हा रमण हा जगदेकवीर, हा नाथ हा रघुपते किमुपेक्षसे माम्?
इत्थं विदेहतनयां बहुधालपन्तीमादाय राक्षसपतिर्नभसा जगाम॥"

सीता का आर्त्तनाद सुनते ही दण्डक वन-वासी वृद्ध जटायु ने आकर रावण से कहा—अरे दुष्ट! मैं तुझे जानता हूँ। आज फिर तूने किसके घर में आग लगाई है? तेरा यह अन्याय मुझसे नहीं सहा जायगा। सताई हुई सती का विलाप सुनकर मेरा खून खौल रहा है। पापी! आज तू मेरे हाथ से बच नहीं सकता।

रावण ने सुनकर इसकी कुछ परवा नहीं की। तब बूढ़े जटायु ने अपनी सारी शक्ति लगाकर रावण पर हमला किया। किन्तु अपनी रक्षा करने में वह समर्थ नहीं हुआ। घायल होने पर उसने सती को [ २३ ]सम्बोधन करके कहा—मा जानकी! मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर सका। जिसने तुम्हारी लता-सदृश देह में बिजली की शक्ति दी है, जिसने तुम्हारे वीणा को लजानेवाले स्वर में वज्र की क्षमता दी है, जिसने तुम्हारी स्त्री-स्वभाव-सुलभ लज्जा में विजय-श्री दी है; वही विधाता तुम्हारा मङ्गल करे; उसका स्नेहाशीर्वाद अक्षय कवच की भाँति तुम्हारी रक्षा करे। मेरे जीवन का दिया बुझने पर है। इस बीच में अगर तुम्हारे भुवनों को जीतनेवाले स्वामी रामचन्द्र तुम्हें ढूँढ़ते हुए यहाँ आ पहुँचे तो मैं उनसे सब हाल कह दूँगा। जाओ सती, सतीत्व ही आज से तुम्हारा रक्षा-मन्त्र हो।

सीताजी ऊँचे स्वर से रोने लगीं, किन्तु आत्मरक्षा का कोई उपाय न देख कनेर का वन सामने पाकर बोलीं—"हे कनेर! तुम तुरन्त रामचन्द्र से कहना कि रावण सीता का हरे लिये जाता है।" वे गोदावरी नदी को देखकर बोलीं—हे तरङ्गिणी! मैं तुम्हारे किनारे बैठकर हताशा में बहुत कुछ ढाढ़स पाती थी; सखी! तुम इस विपद की बात आर्य्य रामचन्द्र से अवश्य कहना। "फिर वे दिगङ्गनाओं को सम्बोधन करके बोलीं—"हे दिगङ्गनाओ! तुम जगत् के पहरुए के रूप से सदा सजग रहती हो; देखो, दुष्ट रावण मुझे हर कर लिये जाता है। आर्य्य रामचन्द्र को यह समाचार कह सुनाना।" किन्तु इतना विलाप करने पर भी और कोई उस पाप-मुर्ति रावण के सामने आकर उपस्थित नहीं हुआ। सती सीता का रोना सचमुच अरण्य-रोदन हुआ।

सीता ने और कोई उपाय न देखकर सोचा कि अब इस सिंगार- पटार से क्या काम! यह तो आर्य्य रामचन्द्र कं आनन्द के लिए था। जब वे यहाँ से दूर हैं, तब मेरे ये भूषण आदि सदा वन्दनीय पति देवता के ऊपर न्योछावर हों। इससे सौभाग्यवती सीता भूषणादि निकाल-निकालकर फेकने लगीं। शोक-विह्लला सीता के, सुध-बुध [ २४ ]भूल कर, फेंके हुए वस्त्र मानो रथ के बाहर के जगत् को इशारे से कहते थे कि दुष्ट रावण सीता को हरकर लिये जाता है, यह बात रामचन्द्र से कहना।

सीता को लेकर रावण सीधा लङ्का में पहुँचा। ऐश्वर्य के गर्व से फूली हुई लङ्का सती के पद-भार से विचलित हो गई। उस स्वप्नमयी स्वर्ण की लङ्का का ऐश्वर्य देखकर रावण ने सीता से प्रेम-प्रार्थना की। सीता ने क्रोध से काँपते हुए स्वर से कहा—अरे अभागे का-पुरुष! क्या बकता है? दूसरे का पैर चाटनेवाला कुत्ता होकर तू यज्ञ का हवि लेना चाहता है? पापी! तेरी पाप-वासना से चिरपवित्र प्रकृतिधर्म कलङ्कित हुआ है। मैं, दिव्य नेत्र से, तेरा सवंश नाश देख रही हूँ।

यह कहकर सीता ने घृणा-सहित रावण की ओर से मुँह फेर लिया। उस तेजस्विनी सती मूर्ति से मानो क्रोधाग्नि की लपट पापिष्ठ को भस्म करने के लिए निकलने लगी। उद्धत रावण ने, उपाय न देखकर, सीता को पाप-मार्ग में बहकाने के लिए राक्षसियों के साथ अशोक-वन में भेज दिया।

[ ५ ]

प्राकृतिक सौन्दर्य से भरे-पूरे अशोक वन में सीता देवी का मुख- कमल आँसुओं से भीगा हुआ है। पहरा देनेवाली राक्षसियों को देखने से जान पड़ता है कि वे मानो प्रेत-भूमि में विचरनेवाली पिशाचिनियाँ हैं। मानो भयङ्करता ने स्वयं वेष धारण कर लिया है। ऐसा मालूम होता है कि अशोक-कानन में सीता देवी "विष-लताओं से घिरी हुई महौषधि" हैं। दुष्ट राक्षसियों की पापभरी बातों से सीता देवी की आँखें, बिजली भरे बादल की तरह, जल बरसाने लगीं। निठुर राक्षसियाँ, भूख-प्यास से दुर्बल बनी हुई, सीता को कभी [ २५ ]ललचाकर और कभी डराकर मालिक का मतलब साधने का उपाय करने लगीं।

एक दिन उदास-वदन सीता देवी अशोक-वृक्ष के नीचे, बादल छाई हुई रात्रि के आकाश में क्षोण चन्द्र-किरण की तरह, शोभा पा रही हैं। इतने में पाप-बुद्धि-मदान्ध रावण ने वहाँ आकर कहा-हे कटीली नज़रवाली! एक बार मेरी ओर नज़र फेरकर मेरे तड़पते हुए कलेजे को ठण्डा करो। सुन्दरी! अभी तक तुमने इस सुन्दर शरीर में धूल भरा कपड़ा क्यों लपेट रक्खा है? कमल को लजानेवाले इन नेत्रों को आँसुओं के जल से क्यों विगाड़ रही हो? तुम्हारे विलास के लिए लङ्का के राज-भण्डार का द्वार खुला हुआ है। त्रिलोकविजया दशानन तुम्हारे चरणों में राज-मुकुट रखता है।

सीता ने रावण के रक्खे हुए राज-मुकुट को लात मारकर कहा—पापी! अगर जीने की इच्छा है तो अभी मेरे सामने से दूर हो! सुनहरी चोटोवाली लङ्का की राजश्री तेरे जैसे का-पुरुष के आश्रय में रहने से धूल में क्यों नहीं मिल जाती? वसुन्धरा अभी तक तेरे पाप-बोझ को क्यों ढो रही है? अगर धर्म कोई वस्तु है तो तेरी यह असंयत जीभ ऐसी पापभरी बातों के कारण अवश्य ही गिद्ध-गीदड़ों के पेट में जायगी। पापिष्ट! मेरे अमित तेजवाले स्वामी के क्रोधाग्नि में तरी पाप से पैदा की हुई लङ्का की यह धन-राशि अवश्य भस्म होगी। अभागे! यदि प्राण प्यारा है तो तुरन्त यहाँ से चला जा।

कोमल स्वभाववाली सीता देवी की देह से वीरता का तेज निक- लने लगा। उनके कण्ठ से वज्र के समान कठोर शब्द निकलने लगे। उस लावण्य-लतिका ने मानो आज रण-चण्डी का वेष धारण कर लिया। पापात्मा रावण उस रुद्र-मूर्त्ति से सहमकर रनिवास में चला गया। [ २६ ]रावण के चले जाने पर सीता देवी बिजली-भरे बादलों की तरह काँपने लगीं। उनके नेत्रों से निकला हुआ अश्रु-जल मानो रावण की ऐश्वर्यमयी लङ्का को बहा ले जाकर काल-समुद्र में डाल देने का उद्योग करने लगा। इस प्रकार, सती सीता राक्षस-वंश के सत्यानाश का महामन्त्र जपते-जपते दिन काटने लगीं।

एक दिन वे सोचने लगीं कि आर्य्यपुत्र ने क्या अब तक मेरा पता नहीं पाया! जिस समय दुष्ट पापी मुझे हरकर ले चला उस समय का मेरा आर्त्तनाद क्या, मुँह खोलकर कहनेवाले, किसी प्राणी को नहीं सुन पड़ा? मेरे फेंके हुए भूषण क्या आर्य्य रामचन्द्र को नहीं मिले? दुखियों को शरण देनेवाला वृद्ध जटायु क्या आर्य्य- पुत्र से भेंट होने के पहले ही अपना शरीर छोड़कर नित्यधाम को चला गया? इस प्रकार के चिन्तास्रोत में डूबती-उतराती सीताजी दिन बिताने लगीं।

[ ६ ]

रामचन्द्र स्वर्ण-मृग को मारने के बाद राक्षस के मुँह उलटा शब्द सुनकर बड़ी तेज़ी से आश्रम को लौटे। अचानक मार्ग में लक्ष्मण को देखकर वे बोले—"भाई लक्ष्मण! राक्षस की चालबाज़ी से हम लोग ठगे गये हैं। आज स्वर्ण-मृग के कपट से रघुकुल की वधू राक्षस के हाथ में पड़ गई है। भाई लक्ष्मण! सब चौपट हुआ। अवश्य ही दुष्ट राक्षस ने माया करके सीता को हर लिया है।" इस तरह कहते-कहते दोनों भाइयों ने बड़ी तेज़ी से आकर देखा कि अँधेरे घर की रोशनी सीता कुटी में नहीं हैं। सीता बिना वह कुटी मानो काटने दौड़ती थी। "हाय सीता! कहाँ गई, हाय सीता! कहाँ गई," कह-कहकर रामचन्द्र क्षण ही क्षण मूर्छित होने लगे। लक्ष्मण बड़ी कठिनाई से रामचन्द्र को सचेत करके तरह-तरह से समझाने लगे। [ २७ ]लक्ष्मण ने कहा—आर्य्य! शोक विपद को और बुलाता है; आप जैसे महान् पुरुष को शोक करना उचित नहीं। कर्त्तव्य सोचिए। विपद में धैर्य धारण करना चाहिए। चलिए, हम लोग सीताजी का पता लगावें। तब,

प्रति वन प्रति तरु के तले प्रति गिरि-गह्वर मांहि।
खोजि थके सब ठौर जब मिली जानकी नांहि॥
सहि न सके रघुनाथ तब दुःसह सीय-वियोग।
विकल भये लखि आपको दुखी भये सब लोग॥

इस तरह सीता को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उन्होंने पंखकटे, लहू से लथपथ एक अधमरे गिद्ध को देखा। उसका जीवन बुझते हुए दीपक की तरह टिमटिमा रहा है। इतने में उसने रामचन्द्र को देखकर प्रणाम करते हुए क्षीण-कण्ठ से कहा—"वत्स! तुम आ गये। मैं तुम्हारे पिता का मित्र, जटायु, हूँ। रघुकुल-कमलिनी सीता को लङ्का का राजा रावण हर ले गया है। उस दुष्ट के हाथ से उसका उद्धार करने जाकर मेरी यह दशा हुई है। मेरा जीवन-प्रदीप बुझने पर है। मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा रहा है—तुम्हारी पवित्र-मूर्त्ति दिखाई नहीं देती।" इसके साथ ही जटायु की, मृत्यु-मुख में समाई हुई, आँखें सदा के लिए बन्द हो गईं। जटायु की मृत्यु से राम-लक्ष्मण का पितृ-शोक नया हो गया।

लक्ष्मण की तत्परता से रामचन्द्र जटायु को अन्त्येष्टि-क्रिया करके क्रौंचारण्य में[१] पहुँचे। वहाँ कबन्ध नाम का एक भयानक राक्षस रहता था। रामचन्द्र के तीखे बाण से वह मारा गया। कबन्ध ने ऋष्यमूक-बासी सुग्रीव की सहायता से, सीता-उद्धार की सलाह देकर प्राण छोड़ा। [ २८ ]

धीरे-धीरे दोनों भाई पम्पातीर*[२] पहुँचे। रामचन्द्र पम्पा का मनोहर दृश्य देखकर अपने को भूल गये। सीता का विरह उनके हृदय को व्याकुल कर रहा था। इतने में, एक दिन, सुग्रीव के भेजे हुए हनुमान् ने आकर रामचन्द्र को प्रणाम किया। हनुमान के उस सुजनता-भरे अभिवादन से लक्ष्मण का हृदय सहानुभूति पाने की आशा से बलवान हो गया। लक्ष्मण ने हनुमान् का आदर करके कहा—हे वीर! तुम कृपा करके अपने राजा से कहो कि हम विपद-ग्रस्त किष्किन्धा-पति से सहायता माँगते हैं।

सुग्रीव से रामचन्द्र की भेंट हुई। सुग्रीव ने ऋष्यमूक पर्वत पर मिले हुए भूषण आदि दिखाये। रामचन्द्र उन भूषण आदि को छाती से लगाकर रोने लगे। उनके रोने से पत्नी से बिछुड़े हुए सुग्रीव की विरहाग्नि भभक उठी। रामचन्द्र ने सुग्रीव के मुँह से उसके पत्नीहरण का वृत्तान्त सुनकर प्रतिज्ञा की—मैं बाली को मारकर पापी को दण्ड दूँगा।

रामचन्द्र के बाण से बाली मारा गया। सुग्रीव का पत्नी के शोक से आतुर हृदय रामचन्द्र को मित्रता से बैर का बदला चुकने पर आनन्दित हुआ। सुग्रीव ने मित्र के काम में जी-जान होम करके बन्दरों की सारी सेना को सीता की खोज में भेज दिया। इसी समय विभीषण ने आकर रामचन्द्र की शरण ली।

एक दल बन्दरों की सेना-सहित हनुमान् ने दक्षिण समुद्र के किनारे जाकर सुना कि यहाँ से बारह योजन पर लङ्का टापू है। हनुमान् ने एक बार सोचा कि यह बारह योजन समुद्र लाँघने का [ २९ ]क्या उपाय है। बहुत सोच-विचार के बाद हनुमान एक ही छलाँग, में लङ्का जा पहुँचे। रात में सीता को ढूँढ़ने में सुभीता समझकर वह रात की बाट देखने लगे। जब रात हुई तब हनुमान् घूम-घूमकर सीता को खोजने लगे, किन्तु उन्हें कहीं सीता का पता नहीं मिला। कितने ही प्रमोद-घरों में स्त्रियों को देखा किन्तु कोई स्त्री उस महा-महिमावाली सीता की सी नहीं देख पड़ी।

अन्त को हनुमान ने अशोक वन में जाकर देखा कि एक वृक्ष की डाली पकड़कर एक दुबली-पतली-सी स्त्री उदास-मन से खड़ी है; उसके शरीर से तेज निकल-निकलकर उस घोर अँधरे से ढके हुए वन के अन्धकार को दूर कर रहा है। उस पवित्र स्त्री को देखकर हनुमान् के मुँह से झट माँ शब्द निकल आया और उन्होंने विरह से दुबली उस मातृ-मूर्ति को सुनाकर "रामचन्द्र की जय" शब्द का उच्चारण किया।

सीताजी मन को प्रसन्न करनेवाले राम-नाम को अचानक सुनकर चौंक पड़ीं। उन्होंने सोचा कि मैं जागती हुई सपना देख रही हूँ या यह मेरे सदा आराध्य राम-नाम की आप से आप निकली हुई प्रति-ध्वनि है! इतने में फिर वह, अमृत-समान, मधुर राम-नाम सुन पड़ा; मानो सूखते हुए धान के खेत में जल-धारा पड़ गई। सीता ने डवडवाई हुई आँखों से वृक्ष की डाली की ओर ताका, देखा कि उस वृक्ष की एक शाखा पर एक छोटासा बन्दर बैठा है। उसी के मुँह से राम-नाम निकल रहा है। विरहिणी सीता देवी से भयानक प्रेतपुरी में, मानो शरीरधारी जीव की भेट हुई।

हनुमान् ने डाली से उतरकर प्रणाम करते हुए कहा—आप क्या रामचन्द्र की सहधर्मिणी रघु-कुल-कमलिनी जानकीजी हैं? आप कृपा कर बेखटके मुझे अपना परिचय दीजिए। मैं सीता देवी को [ ३० ]ढूँढ़ता हुआ समुद्र पार होकर यहाँ आया हूँ। माताजी! मैं आप का पुत्र हूँ। कृपा करके पुत्र की प्रार्थना पूरी कीजिए।

यह सुनकर सीता पहले कुछ कह नहीं सकीं। वे सोचने लगीं—यह क्या सपना है? यह छोटासा बन्दर उस डरावने लमुद्र को पार कर यहाँ आ सकता है? क्या यह भी सम्भव है? यह किसी मायावी का कपट तो नहीं है? फिर माता के सम्बोधन की याद आने से उनके मन में ख़याल आया कि अगर यह मायावी का कपट है तो इसके मुँह से "माता" शब्द क्यों निकला! यह सोच- कर, सीताजी ने सन्देह को दूर करके कहा—बेटा! तुम कौन हो? तुम इस दुस्तर समुद्र को पार कर यहाँ कैसे आये?

हनुमान् ने संक्षेप में सब हाल बताकर सन्देह मिटाने के लिए सीताजी को रामचन्द्रजी की दी हुई अँगूठी दी।

विरह से मरती हुई सीता आर्य रामचन्द्र की अँगूठी पाकर पुल- कित हुई। वह अँगूठी उनकी दुर्भाग्यरात्रि में चन्द्र की क्षीण ज्योति- सी मालूम होने लगी और उसने उनके पूर्व जीवन की सारी सुख- स्मृति की याद दिला दी। सीताजी की आँखें भर आईं। उन्होंने कहा—"वत्स! आर्य-पुत्र कैसे हैं?" हनुमान ने कहा-माता! पर्वत को तरह विराट् गम्भीर रामचन्द्र आपके विरह से पागल-से हो रहे हैं। आपके विरह में फूलों की सुगन्ध, शीतल मन्द बयारि का स्पर्श और प्राकृतिक शोभा उनके लिए दुःखदायी हो रही है। और तो क्या, उनको भोजन तक नहीं रुचता।

सीताजी हनुमान के मुँह से यह सब सुनकर रोने लगीं। उन्हें अपने जीवन की, एक-एक करके, सब बातें याद आ गई। हनुमान् ने ककहा-"माँ! आप कहें तो मैं आपको पीठ पर चढ़ाकर श्रीरामचन्द्र के [ ३१ ]पास पहुँचा दे सकता हूँ।" सीता ने राक्षसों के डर से, और अपनी इच्छा से पर-पुरुष को छूना सती-धर्म के विरुद्ध समझकर, ऐसा करने की आज्ञा नहीं दी।

तब हनुमान् ने कहा—"अच्छा, तो मैं स्वामी रामचन्द्र से जाकर आपका हाल कहूँगा। उनके लिए एक-एक घड़ी युग के समान बीतती है। अब मैं विलम्ब नहीं करूँगा।" सीता ने कहा—अच्छा बेटा! जाओ। तुम्हारी अभिलाषा पूरी हो, तुम चिरजीवी हो।

हनुमान् ने सीता से बिदा होकर सोचा कि ज़रा लङ्का की शोभा और राक्षसों का बल तो देखता चलूँ। यह सोचकर हनुमान् रावण के बाग़ में घुस गये। बन्दर के उपद्रव से फले हुए वृक्षों की डालियाँ टूटने लगीं। वन के रखवालों ने तुरन्त रावण के पास जाकर ख़बर दी। एक छोटे से बन्दर के हाथ से उपवन की दुर्दशा होते सुनकर रावण ने आज्ञा दी कि जैसे बने उस बन्दर को पकड़ लाओ।

राक्षसों ने बड़ी कठिनाई से हनुमान् को पकड़कर रावण के पास हाज़िर किया। रावण ने क्रोध से बन्दर की ओर देखकर कहा—"इस दुष्ट की पूँछ में तेल से भिगोया हुआ कपड़ा लपेटकर आग लगा दो।" राक्षसों ने ऐसा ही किया। "रामचन्द्र की जय" कहकर हनुमान् लङ्का में एक घर से दूसरे घर पर उछल-उछलकर घूमने लगे। अब क्या था, सोने की पुरी लङ्का के महल जलने लगे। राक्षस देखकर हाय हाय करने और कहने लगे कि यह हम लोगों की मूर्खता का ही फल है। सीताजी के आशीर्वाद से हनुमान को आग की लपट बर्फ़ के समान ठण्डी मालूम होने लगी।

इधर अशोक-कानन में करुणा-मूर्त्ति सीता देवी राक्षसों को चिल्लाहट को सुनकर और अग्नि की भयानक लपटों को देखकर डर गईं। उन्होंने सोचा कि यह क्या हुआ। अग्निदेव के इस प्रचण्ड कोप से [ ३२ ]क्या नहीं भस्म होता? सुख की कौनसी सामग्री जलकर ख़ाक नहीं होती? सोचकर सीता बड़ी उत्कण्ठा से समय बिताने लगीं।

सीता की दुर्भाग्य-रूपी रात्रि में एक-मात्र तारा, विभीषण की पत्नी, इसी समय वहाँ गई। सीता ने लङ्का की ओर दृष्टि करके पूछा—"सखी! इतना हल्ला क्यों मचा हुआ है? आग क्यों लगी है?" तब सरमा ने सीता से सब हाल कहा। सीताजी सुनकर हनुमान् के लिए चिन्ता रने लगीं। सरमा ने कहा—"सखी! उनके लिए कुछ डर नहीं। वे तो आग लगाकर फुर्ती के साथ समुद्र पार कर गये।" यह सुनकर सीता की चिन्ता दूर हुई।

[ ७ ]

सुग्रीव आदि बन्दरों की सेना के साथ रामचन्द्र उदास मन से दिन बिता रहे हैं। इतने में हनुमान "रामचन्द्र की जय" कहते हुए हर्षपूर्वक रामचन्द्र के पास पहुँच गये। रामचन्द्र ने हड़बड़ाकर पूछा—"क्यों हनुमान्! सीता देवी का कुछ समाचार ले आये?" हनुमान् ने सीता का दिया हुआ चूड़ामणि रामचन्द्र के हाथ पर रक्खा। उस चिह्न को देखकर रामचन्द्र रोने लगे। उन्होंने व्याकुल होकर पूछा—हनुमान्, तुमने मेरी सीता को किस अवस्था में देखा? तुमने जब मेरी बात बताई तब उस सती ने क्या कहा?

हनुमान ने कहा—देव! मैंने पहले लङ्का में बहुत ढूँढा पर कहीं भी रघुकुल-कमलिनी सीता देवी का दर्शन नहीं पाया। अन्त में निराश होकर घूमते-घूमते मेरी दृष्टि अचानक अशोक-वन की हरी

शोभा पर पड़ी। देखते ही मेरे जी में आप से आप यह वाणी निकली कि यहीं मेरी माता, बादलों से घिरी हुई चन्द्रकला के समान, विराजमान हैं। मेरा मन उत्साहित हुआ। अशोक-वन में घुसकर मैंने देखा कि भूख-प्यास से दुर्बल बनी हुई एक दुखिया स्त्री वृक्ष के नीचे खड़ी [ चित्र ]

अशोक वन में सीता और सरमा—पृष्ठ ३२

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग। [ ३३ ]है। उसे देखकर मैंने अपना सब परिश्रम सार्थक समझा। साधना पूरी होने की आशा से मेरा हौसला बढ़ गया। उस स्त्री के शरीर पर गहने नहीं थे। उसको चारों ओर से घेरे हुए भयानक चेहरेवाली राक्षसियाँ बैठी थीं। हे रघुवीर! मैंने देखा कि मेरी माता ने, इस प्रकार घोर शत्रुओं से घिरी हुई होने पर भी, धैर्य को नहीं छोड़ा। पति के प्रेम का मधुर ढाढ़स ही मानो उन साध्वी का महिमान्वित किये हुए है। राक्षसियों की कड़ाई से उनके धैर्य का पुल टूटा जाता है, वे रो-रोकर बेज़ार हो रही हैं। उनके गालों पर से बहते हुए आँसुओं से मानो स्वर्गीय-ज्योति निकल रही है। मैंने पेड़ की आड़ से उस पवित्र मूर्त्ति को देखकर समझा कि यही मेरी माँ हैं। लङ्का में इतनी सुन्दर स्त्रियाँ देखीं किन्तु किसी को माँ कहने की इच्छा मुझे नहीं हुई। उनको देखकर मेरी मातृभक्ति जाग उठी। पेट भरकर 'माँ' 'माँ' पुकारा। देखा कि देव दाहिने हुए। शराब पीकर मतवाली बनी हुई, पहरवाली राक्षसियाँ न जाने क्यों वहाँ से टल गईं। अवसर पाकर मैं वृक्ष की डाली पर बैठे-बैठे गुनगुनाकर आपकी कीर्ति गाने लगा। अचानक आपकी कीर्ति से आकृष्ट होकर उन्होंने सिर उठाकर वृक्षशाखा की ओर दृष्टि की। मैंने प्रणाम करके उन्हें अपना परिचय दिया। सरल स्वभाववाली माता राक्षसों से ठगी जाकर हर बात में सन्देह करती हैं। इसी से पहले मुझे राक्षसी माया समझ कर घबराती थीं। यह ताड़कर मैंने उनको आपकी दी हुई मुंदरी दी। उन्होंने मानो खोया हुआ धन पाया। उनके मुख-मण्डल पर आनन्द की झलक दीख पड़ी। उन्होंने डबडबाई आँखों से और गद्गद कण्ठ से आपका और लक्ष्मण का कुशल-मङ्गल पूछा। मैंने आपका समाचार कहा तो उदास बनी हुई माँ को मानो अपार दुर्भाग्य-समुद्र में किनारा मिल गया।

[ ३४ ]यह कहते-कहते हनुमान्, रामचन्द्र की उत्कण्ठा देख कर, आँसू गिराने लगे। रामचन्द्र ने हनुमान् के आँसू देखकर सँभलते हुए कहा—"वत्स हनुमन्! आज सीता का समाचार देकर तुमने मेरे मृत शरीर में प्राण डाला है। मेरे पास ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसे, तुम्हारे इस अलौकिक कार्य्य के लिए, पुरस्कार में दे दूँ। आओ वत्स! तुम्हें एक बार इस विरह से जलती हुई छाती से लगा लूँ।" हनुमान् ने उस देवदुर्लभ श्रेष्ठ शरीर का आलिंगन पाकर अपने को धन्य माना।

[ ८ ]

श्रीरामचन्द्र हनुमान के मुँह से सीता का समाचार पाकर बन्दरों की सेना-सहित लङ्का जाने की तैयारी करने लगे। लालसा पूरी होने में क्षण भर का विलम्ब उनके लिए युग समान बीतने लगा। निदान वे इस प्रकार व्यग्र हृदय से समुद्र के किनारे आ पहुँचे। अब यह चिन्ता हुई कि इस अपार समुद्र को कैसे पार करें। समुद्र की कृपा पाने के लिए रामचन्द्र ने तपस्या आरम्भ कर दी। उनकी तपस्या का उद्देश था—या तो सेना-सहित समुद्र लाँघना या प्राण दे देना। रामचन्द्र की तपस्या से जब समुद्र प्रसन्न नहीं हुआ तब उन्होंने अधीर होकर धनुष-बाण सँभाला। सङ्कट देखकर समुद्र प्रार्थनापूर्वक उन्हें सेतु बाँधने का उपाय बता गया।

वानरी सेना के आनन्द की सीमा नहीं थी। बन्दर पेड़, पत्थर उखाड़-उखाड़ समुद्र में डालने लगे। वानरी सेना की तत्परता से और नील नामक वार्नर की कारीगरी से सेतु-बन्धन बहुत जल्द पूरा हो गया।

रामचन्द्र वानरी सेना लिये हुए लङ्का में सहर्ष पहुँचे। वीरों के पद-भार से गढ़-त्रिकूट पर बसी हुई लङ्का काँप उठी।

समुद्र पर सेतु-बन्धन की, और वानरी सेना-सहित रामचन्द्र के [ ३५ ]लंका में आ जाने की, बात सुनकर रावण क्रोध से अन्धा हो गया। उसने युद्ध की तैयारी की तुरन्त आज्ञा दी। सती की उसास से सुलगी हुई आग लपट फैलाकर लङ्कापुरी को निगलने दौड़ी।

सदा न्याय-मार्ग पर चलनेवाले रामचन्द्र राक्षसी धोखे को धर्म से दबाकर राक्षस-वंश के हृदय में कँपकँपी पैदा करने लगे। भयानक विपत्ति पड़ने से रावण की मति स्थिर नहीं थी, इससे वह छल-कपट करने लगा। विभीषण और उनकी साध्वी पत्नी सरमा-द्वारा, राक्षस के फैलाये हुए, कपट-जाल का भेद खुलने लगा। विधाता ने मानो कृपा कर गुप्त समाचार देने और मायाजाल मिटाने के लिए उक्त धर्मात्मा स्त्री-पुरुष को विपन्न सीता-राम के पास भेजा था।

घोर युद्ध आरम्भ हुआ। एक ओर दैव प्रभाव है और दूसरी ओर राक्षसीय बल। दोनों दलों की बल-परीक्षा से रण-भूमि भयानक हो गई। इस संग्राम में और कुछ चाह नहीं है; सिर्फ़ एक दूसरे का ख़ून देखना चाहता है। इससे दोनों प्रबल शक्तियाँ आज साक्षात् महाकाल बनकर संमर-भूमि में खड़ी हैं। सीता के विरह से इधर रामचन्द्र उदास हैं, उधर अभिमानी रावण अपने पक्ष के अगणित योद्धाओं के मारे जाने से शोकार्त्त है। इस भीषण युद्ध में पृथ्वी बारम्बार काँपने लगी। धनुष की टंकार से रणभूमि ने करालभाव धारण किया। आकाश-मार्ग से जानेवाले बाण मानो अट्टहास कर भय उत्पन्न करने लगे। अचानक रामचन्द्र ने दुष्ट रावण को मारने के लिए विश्व का विनाश करनेवाले अपने धनुष पर ब्रह्मास्त्र चढ़ाँया।

रावण ने देखा कि मृत्यु निकट है। उसे जान पड़ा कि अस्त्र-मुख में यमराज आकर उसके लिए बाट देख रहे हैं, और धरती उसके पैरों के नीचे से खिसक गई है। स्वपक्ष और विपक्ष के अगणित वीरों से भरा हुआ युद्ध का मैदान उसे प्रेतपुरी जैसा मालूम होने लगा। अस्त्रों [ ३६ ]की झंकार और चलाये हुए बाणों की ज्योति, उसे यमराज की भीषण हुंकार तथा हास्य के समान मालूम होने लगी। रामचन्द्र ने ब्रह्मास्त्र चलाकर उस दुष्ट को मार डाला।

युद्ध के अन्त में रामचन्द्र ने मृत रावण की अन्त्येष्टि करने के लिए विभीषण को आदेश दिया। ढेर का ढेर चन्दन इकट्ठा किया गया। विभीषण ने त्रिभुवन को जीतनेवाले रावण के विशाल शरीर को घी और मधु से लपेटकर तथा कौशेय वस्त्र से ढककर चिता पर रक्खा और उसकी आत्मा की शान्ति मनाकर चिता में आग लगा दी। चिता दहक-दहककर जलने लगी। उसका धुआँ आकाश में छा गया। घी, धूप और चन्दन की सुगन्ध में सम्मिलित होकर रावण की आत्मा मानो धुएँ की सीढ़ी द्वारा सदा आनन्दमय स्वर्गलोक में चली गई*[३]

रामचन्द्र ने शोकार्त्त लंका की प्रजा में शृंखला और शान्ति स्थापित करने के लिए विभीषण को लङ्का के राज-सिंहासन पर तुरन्त बिठाया। सहस्रों अनाथ स्त्रियों का रोदन और पुत्र खोई हुई माताओं का विलाप पत्नी से बिछुड़े हुए राम को व्यथित करने लगा। रामचन्द्र के स्मरण-पट पर सीता की मोहिनी मूर्त्ति नये भाव में देख पड़ी। रामचन्द्र की आज्ञा से हनुमान् ने अशोक वन में जाकर जानकी को यह सब समाचार सुना दिया।

[९]

सीताजी इतने दिन तक जिसकी मृत्यु मना रही थीं, आज उसका मृत्यु-समाचार सुनकर आनन्द से अधीर हो गईं। उनकी आँखे आनन्दाश्र से, ओस पड़े हुए कमल-दल की तरह, शोभा देने [ ३७ ]लगीं। भूख-प्यास और शोक से दुर्बल उनकी देह-लता आज लहलहा उठी। सीता ने कहा—वत्स हनुमन्! मैं किन शब्दों में आज हृदय का आनन्द प्रकट करूँ, कुछ समझ में नहीं आता। मेरे पास ऐसा कोई लौकिक धन नहीं जिसे देकर मैं अपने जी का सन्तोष प्रकट करूँ।

हनुमान् उन पहरा देनेवाली राक्षसियों को मारने पर उद्यत हुए। यह देखकर करुणारूपिणी सीता देवी ने कहा—बेटा! इनका कुछ अपराध नहीं। इन्होंने अपने मालिक की आज्ञा से मेरे साथ बुरा बर्ताव किया है, इसलिए इन्हें मत मारो।

सीता देवी का यह महत्त्व देखकर हनुमान् पुलकित हो गये। उन्होंने सोचा कि यह साधारण स्त्री की बात नहीं है। यह धरती पर कोई देवी है। दुर्दैव ने इसकी पवित्रता और मधुरता को और भी बढ़ा दिया है। हनुमान् सीता देवी के मातृभाव और देवीभाव पर भोले-भाले बालक की तरह घुल गये। उनको अपनी माता अञ्जना की स्नेह-युक्त दृष्टि याद आ गई। आज वे मातृभाव से, बालक की तरह, विमुग्ध हो गये।

बहुत देर बात-चीत करने के बाद हनुमान् ने बिदा माँगी। सीता देवी ने कहा—बेटा! मैं इतने दिन से जिन पति-देवता की पवित्र-मूर्त्ति का मानस-नेत्र से ध्यान करती हूँ, जिनका विरह मुझे बहुत दुःख दे रहा है, जिन महा बलवान् की दुर्द्धर्ष शक्ति से राक्षस-वंश को उचित दण्ड मिला है, अपने जीवन-आकाश के उन एक-मात्र पूर्ण चन्द्र आर्यपुत्र को देखने के लिए मैं व्याकुल हो रही हूँ।

हनुमान् ने तुरन्त जाकर रामचन्द्र से सीता देवी की बात कही। रामचन्द्र के मन में सहसा एक दूसरा भाव उत्पन्न हुआ। कई तरह की चिन्ताएँ उनको व्याकुल करने लगीं। उन्होंने दुःखित हृदय से

  1. * जनस्थान से तीन कोस के फ़ासले पर एक वन।
  2. * ऋष्यमूक पर्वत पर चन्ददुर्ग के पत्थरों से घिरा हुआ सरोवर है। उस सरोवर से निकली हुई नदी पम्पा कहलाती है। वह उड़ीसा में तुङ्गभद्रा से जा मिली है।
  3. *अध्यात्मविद्या के पण्डितों की राय है कि पार्थिव माया-बद्ध प्राणियों की मृत्यु के बाद भी उनकी आत्मा अपनी लाश के आसपास मँडराती रहती है। अन्त्येष्टि के बाद आत्मा दूसरी जगह चली जाती है।