आदर्श महिला/३ दमयन्ती

विकिस्रोत से
आदर्श महिला  (1925) 
द्वारा नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा
[ तीसरा-आख्यान ]
 

तीसरा आख्यान

दमयन्ती

[ ११५ ]
तीसरा आख्यान
दमयन्ती

[ १ ]

र्फ के मुकुट को पहननेवाले हिमालय के नीचे का वर्तमान कमायूँ प्रदेश पहले समय में निषध देश कहलाता था। वहाँ वीरसेन नामक एक प्रतापी राजा थे। उनके बड़े बेटे का नाम नल था और अलका उनकी राजधानी थी।

महाराज नल एक दिन, आखेट करते-करते, घने वन में चले गये। शिकार के लिए बहुत घूमने से, थकावट और प्यास से हैरान होकर वे एक मनोहर तालाब के तट पर जा पहुँचे। नल ने देखा कि एक विचित्र पंखोंवाला हंस वहाँ आँखें बन्द किये सोया हुआ है। राजा ने धीरे-धीरे पास जाकर हंस को पकड़ लिया। हंस ने आँखें खोली तो देखा कि मैं पकड़ा गया। उसने पकड़े जाने से और साथियों का संग छूटने से बहुत दुःखित होकर नम्रता से कहा---राजन्! कृपा करके मुझे छोड़ दीजिए। मैं पक्षी की योनि में जन्म लेकर आपसे आप उपजी हुई जलज आदि वस्तुओं को खाता हूँ। मैं कभी मनुष्य से वैर नहीं करता। हे महानुभाव! मुझे क़ैद करने में आपकी क्या बड़ाई होगी?

राजा ने हंस के इन नम्रता-पूर्ण वाक्यों को सुनकर उसे छोड़


  • किसी-किसी की राय में वर्तमान मध्य-प्रदेश का जबलपुर प्रान्त। [ ११६ ]दिया। तब हंस ने सन्तुष्ट होकर कहा---"महाराज! आपने दया

करके मुझे छोड़ दिया है, मैं भी एहसान का बदला चुकाने का भरसक उपाय करूँगा। महाराज! आप अब तक क्वाँरे हैं।गृहस्थाश्रम-वाले पुरुषों के लिए विवाह बड़ा बढ़िया काम है। स्त्री के हृदय की शीतलता से पुरुष का कर्तव्य-कठोर हृदय मुलायम हो जाता है। स्त्री का आत्मदान, स्त्री की सुन्दरता संसार-युद्ध में पुरुष को बलवान् बना देती है। महाराज! आपको शीघ्र विवाह कर लेना चाहिए, किन्तु आपके लायक स्त्री तो संसार में दुर्लभ है। महाराज! मैं उत्तर में मानसरोवर से लेकर दक्षिण में महासमुद्र के किनारे भगवती कुमारी देवी के मन्दिर तक समूचे भारतवर्ष में घूमा करता हूँ। मैंने देखा है कि विदर्भराज की कन्या दमयन्ती ही आपकी रानी होने के योग्य है।" यह कहकर हंस, अचरज से चुपचाप बैठे हुए, राजा के सामने दमयन्ती के रूप और गुण की प्रशंसा करने लगा। महाराज नल के चित्त पर स्त्री के मधुर हृदय की छाया पड़ी। उन्होंने सोचा कि विधाता ने न जाने कैसी अपूर्व सुन्दरता से उस सुन्दरी दमयन्ती की रचना की है।

महाराज नल का गुण गाता हुआ हंस तुरन्त आकाश में उड़कर दक्षिण की ओर चला गया! यह हाल देखकर राजा को बड़ा अचरज हुआ।

[ २ ]

जकल जिस स्थान का नाम बरार है वह पहले समय में विदर्भ कहलाता था। वहाँ भीम नाम के एक राजा राज्य करते थे। कुण्डिननगरी उनकी राजधानी थी।

राजा भीम प्रजा को प्राण से भी प्यारी समझते थे। उनकी ममता से और सुविचार से प्रजा को ज़रासा भी कष्ट नहीं होने पाता था। [ ११७ ]महाराज भीम के यहाँ अपार सम्पत्ति थी। उनका आकाश को चूमनेवाला महल और विविध रत्नों से भरा हुआ ख़ज़ाना संसार में बेजोड़ था, परन्तु कोई सन्तान न होने से राजा को सभी सूना लगता था।

महाराज भीम ने सन्तान पाने के लिए बहुतेरे देवी-देवताओं की उपासना की, किन्तु कुछ फल नहीं हुआ।

एक दिन राजा भीम दरबार में बैठे हुए थे कि महर्षि दमन वहाँ आये। राजा ने बड़े आदर से स्वागत करके उनको सिंहासन पर बिठाया। महर्षि ने राजा की सेवा और आव-भगत से विशेष प्रसन्न होकर उनको मनचाही सन्तान पाने का वरदान दिया। कोई सन्तान न होने से उनका जो हृदय रात-दिन जलता रहता था उस हृदय में आज महर्षि के वरदान से ढाढ़स की शीतल बयार बहने लगी।

क्रम से रानी के तीन पुत्र और एक कन्या उत्पन्न हुई। महर्षि दमन के वर से होने के कारण राजा भीम ने बेटों के नाम दम, दान्त, और दमन तथा बेटी का नाम दमयन्ती रक्खा। उन भोले-भाले बालकों की सुन्दर कान्ति से राज-महल शोभने, हँसी से गूँजने और खेलने-कूदने से गुलज़ार रहने लगा। राजा और रानी बेटा-बेटियों के फूल-से कोमल सुन्दर शरीर देखकर तृप्त हो गये।

उम्र बढ़ने के साथ-साथ दमयन्ती के रूप की शोभा भी बढ़ने

लगी। सब लोग देखते थे कि उस फूल-सी बालिका की देह में कैसी बढ़ियाँ शोभा है। यौवन के आरम्भ में तो दमयन्ती का रूप उछल सा उठा। वसन्त की सुगन्धित बयार लगने से जैसे फूलों की कलियाँ चटक उठती हैं वैसेही दमयन्ती के हृदय में नये यौवन की मीठी पुकार से कर्तव्य के ज्ञान का अंकुर उपजा। दमयन्ती ने कल्पना की दीवार [ ११८ ]
११८
[ तीसरा
आदर्श महिला


पर भविष्य जीवन की कितनी ही अच्छी-अच्छी तसवीरें खींचीं। उसने सोचा कि नारीत्व ही नारी का प्राण है। भगवती लोपामुद्रा, रघुकुलवधू इन्दुमती और लक्ष्मी-स्वरूपिणी रुक्मिणी ने जिस वंश को धन्य किया है, मैं भी उस वंश की कीर्ति को बढ़ा सकती हूँ।

एक दिन वसन्त में प्रातःकाल दमयन्ती राज-महल के बग़ीचे में सखियों के साथ घूम रही थी। इतने में एक सखी बोल उठी―“यह देखो, यह लता किस तरह अपनी भुजा से एक श्यामसलोने वृक्ष को लिपटाये हुए है!” दूसरी सखी ने कहा―यह देखो, तालाब के जल में खिले हुए कमल को नये सूर्य्य को सुनहरी किरणें कैसे चूम रही हैं। सखी! इस प्यारे प्रभात में सभी जगह प्रीति की बहार है। केवल आनन्द―केवल उच्व्छास मिलन का मज़ा है।

दमयन्ती ने कहा―“सखी! भगवान् के राज्य में ग्रहों और नक्षत्रों से लेकर पशु-पक्षी, कीट-पतंग, और जड़-चेतन तक सभी पदार्थ प्रीति के अटूट धागे में बँधे हुए हैं। इस बन्धन के काटने का उपाय नहीं। सखी! इसी से स्त्री और पुरुष के हृदय एक-दूसरे से मिलना चाहते हैं। उनके इस परस्पर के मेल से ही मिलन का आनन्द बढ़ जाता है। सखी! यह जो कुसुमकली देखती हो, इस पर जिस दिन भौर गूँँजेंगे उसी दिन इसका खिलना सफल होगा। स्त्री भी जिस दिन स्त्रीत्व का गौरव पाकर पति-देवता के प्रेम-पवित्र सोहाग से पुल- कित हो जाय उस दिन धन्य होगी।” पास की एक सहेली बोल उठी―“हाँ सखी! हम तुमको किस दिन उस रूप में देखेंगी?” दमयन्ती लज्जित हुई।

इस प्रकार बातचीत करते-करते बग़ीचे में घूम-घामकर दमयन्ती

ने, पोखर के किनारे जाकर, देखा कि एक बर्फ़ के समान सफ़ेद हंस [ चित्र ]
दमयन्ती ने देखा कि एक बर्फ़ के समान सफ़ेद हंस उसके पास आकर महाराज नल के गुण गाने लगा —पृ॰ ११८

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग। [ ११९ ]नाचता-कूदता उसके पास आकर निषध देश के राजा महाराज नल के गुण गाने लगा। दमयन्ती ने हंस के मुँह से नल के अलौकिक गुण सुनकर सोचा कि वह भाग्यवान् कौन है। मनुष्य की तो बात ही क्या है, जिस पुरुष का गुण पक्षी तक गाता है वह नररूपी देवता न जाने कौनसी स्वर्गीय महिमा प्रकट करने के लिए पृथिवी पर उपजा है।

दमयन्ती को इस प्रकार अचम्भे में देखकर हंस ने कहा--- "राजकुमारी! अगर तुम मंजूर करो तो मैं अभी निषध देश को जाऊँ।" दमयन्ती मुँह से तो कुछ नहीं बोली, परन्तु उसने जैसा कुछ भाव दिखाया उससे मालूम हुआ कि वह महाराज नल के रूप और गुणों पर मोहित हो गई है।

तब वह हंस वहाँ से नीले आकाश की ओर उड़ा। उसके तालाब से निकलते समय जल ऐसा उछला मानो उसने हंस के दोनों पैर छूकर सिफ़ारिश की हो कि दमयन्ती के मन की बात अवश्य कह देना। हंस प्रसन्न-चित्त से, मधुर शब्द बोलता हुआ, उत्तर को जाने लगा। दमयन्ती उसकी ओर टकटकी लगाये देखती ही रही। इस प्रकार, हंस को दूत बनाकर और सम्मिलन-देवता का स्मरण करके दमयन्ती ने नल के चरणों में अपने-आपको सौंप दिया।

खिलवाड़ और फूल चुनने के कारण सखियाँ दमयन्ती से कुछ दूर हो गई थीं। इससे वे नहीं सुन सकीं कि हंस ने दमयन्ती से क्या कहा, किन्तु हंस को उड़ते, और राजकुमारी को टकटकी लगाये, देखकर उन्हें कुछ अचरज अवश्य हुआ। सखियाँ जब पास आ गईं तब दमयन्ती ने पूछा---"तुम सब इतनी देर तक कहाँ थीं?" एक हँसोड़ सखी ने उत्तर दिया---गोइयाँ! हम सब फूल चुन रही थीं [ १२० ]और अपनी सखी के गले में डालने के लिए मालती की उम्दा माला गूँथती थीं।

दमयन्ती ने सोचा, कहीं इन्होंने हंस के साथ की मेरी बात-चीत को न सुन लिया हो। ये क्या निषध देश के राजा पुरुष-श्रेष्ठ नल की बात जानती हैं? दमयन्ती ने सखियों से पूछा---"निषध देश कहाँ है? और तुम लोगों ने राजा नल की भी कोई बात सुनी है?" एक सखी बोल उठी---"हाँ, उस दिन सुना था कि वे रूप में कामदेव, विद्या में बृहस्पति, बल में कार्त्तिकेय और न्याय करने में साक्षात् धर्म हैं। यदि विधाता की कृपा से वे हमारी सखी के--"इतना सुनते ही दमयन्ती ने उस सखी का मुँह दबाकर नक़ली कोप प्रकट किया, किन्तु उसके कोप में भी नज़र तिरछी थी; आँख की पुतली आनन्द से नाच रही थी और उसके कुँदरू से सुन्दर अोठों पर मुसकुराहट की झलक थी। असल बात यह है कि दमयन्ती सखियों से अपने को छिपा नहीं सकी।


[ ३ ]

क दिन राजा खा-पीकर आराम-कोठरी में पलँग पर लेटे थे कि रानी आकर उनके चरणों के पास बैठ गई। रानी ने स्वामी के दोनों पैर अपनी गोद में लेकर हाथ फेरते-फेरते कहा--महाराज! आज आपसे एक बात पूछनी है।

राजा--बताओ रानी! क्या पूछना है?

रानी--महाराज! दमयन्ती इतनी सयानी हो गई। आप उसके विवाह का कुछ बन्दोबस्त क्यों नहीं करते, यही मैं जानना चाहती हूँ।

राजा--रानी! मैं बहुतेरे राजपुत्रों को जानता हूँ, किन्तु कोई भी दमयन्ती के योग्य नहीं जँचता। [ १२१ ]रानी---और महाराज नल कैसे हैं? सुना है कि वह अब तक क्वाँरे ही हैं। मेरी इच्छा है कि आप निषध देश के राजा के पास मन्त्री के द्वारा इस पैग़ाम को जल्दी भेजिए।

राजा---रानी! है तो यह सम्बन्ध बड़ा उत्तम, किन्तु कौन जानता है कि नल इस सम्बन्ध को मंजूर करेंगे या नहीं। रानी! तुम यह नहीं जानती कि नल नर के रूप में देवता हैं। वे बड़े भारी राज्य के मालिक हैं। मुझे हिम्मत नहीं होती कि उनसे यह प्रस्ताव करूँ। मेरी दमयन्ती का ऐसा भाग्य कहाँ कि वह निषध देश की रानी हो।

रानी---क्यों महाराज! आप इसको अनहोनी क्यों समझते हैं? मेरी दमयन्ती जैसी सुशीला और सिखाई-पढ़ाई हुई है, स्त्रियों में रत्नस्वरूप वैसी कन्या के लिए सब तरसते हैं। मेरा विश्वास है कि आप निषध देश के राजा से यह प्रस्ताव करेंगे तो वे कभी नामंजूर नहीं करेंगे। फिर महाराज! फूल की सुगन्ध की तरह यश और सद्गुण की बातें तो आपसे आप फैल जाती हैं। नहीं तो कहाँ विदर्भ और कहाँ निषध! निषध-नरेश की आपने जो कीर्त्ति बतलाई है उसे आपके राज्य में कौन ले आया? इसी प्रकार, महाराज! कौन कह सकता है कि मेरी दमयन्ती के गुणों की प्रशंसा निषध-राज के सिंहासन तक न पहुँची होगी?

राजा ने कुछ अचम्भे में आकर कहा---रानी! मैं निषध-राज के निकट यह प्रस्ताव करने में सकुचाता हूँ।

रानी---महाराज! आप संकोच मत कीजिए। नाथ! कीचड़ में उत्पन्न होने से कमल क्या देवता के चरणों में स्थान नहीं पाता? महाराज! गुण ही सब में प्रधान है। मेरी दमयन्ती रूप में रति, ऐश्वर्य में लक्ष्मी और गुणों में सरस्वती है। महाराज! वस्तु का [ १२२ ]विचार जन्मस्थान से नहीं होता। जो वस्तु का विचार जन्मस्थान से ही किया जाता तो मणि का आदर जगत् में कैसे होता? सम्भव है, निषध देश आपके राज्य से बढ़-चढ़कर हो, किन्तु इसमें भी सन्देह नहीं कि नारीत्व और देवीत्व गुण की एकमात्र मिलनभूमि आपकी बेटी दमयन्ती से आपका ऐश्वर्य बहुत बढ़ गया है। निषध देश के राजा को आपकी दमयन्ती का रूप और गुण अवश्य ही अच्छा लगा है। महाराज! मैं दिव्य दृष्टि से देखती हूँ, हमने जिस प्रकार नल पर मन गड़ाया है उसी प्रकार नल के हृदय में भी विदर्भ-देश और विदर्भ-राजकुमारी की छाया पड़ी है।

राजा---रानी! तुम्हारी बात से मुझे हिम्मत होती है। अच्छा, नल यदि दमयन्ती के रूप और गुण को पसन्द करते हैं तो फिर उनके पास मंत्री को भेजने की ज़रूरत ही क्या है? कन्या के स्वयंवर की चाल हम लोगों में वंश-परम्परा से चली आती है। मैं दमयन्ती के स्वयंवर करने का ढिंढोरा पिटवाता हूँ। मेरा दूत निषध-राज्य में जाकर दमयन्ती के स्वयंवर की बात कहेगा। अगर नल इस सम्बन्ध को चाहते होंगे तो वे स्वयंवर-सभा में अवश्य आवेंग; और फिर हम लोगों का संकल्प सिद्ध हो जावेगा।

रानी---अच्छा, ऐसा ही कीजिए।

राजा की आज्ञा से राजकुमारी के स्वयंवर की बड़ी भारी तैयारी तुरन्त होने लगी। थोड़े ही समय में स्वयंवर का समाचार विदर्भ- राजधानी में फैल गया।

[ ४ ]

राजकुमारी के स्वयंवर की खबर सुनकर प्रजा के आनन्द की सीमा न रही। पुरवासी प्रसन्न होकर अपना-अपना घर-द्वार सजाने और सब लोग स्वयंवर के दिन की बाट देखने लगे। [ १२३ ]स्वयंवर की बात सुनकर अनेक राज्यों के राजा और राज-सेवक कुण्डिनपुरी में आने लगे। धीरे-धीरे उस नगरी की अपूर्व शोभा हो गई। नगरी के बाहर अनगिनत ख़ोमे खड़े किये गये। आये हुए राजाओं के अपार ठाट-बाट, हाथी-घोड़ों की चिग्घाड़ और हिनहिनाहट तथा सेना के कोलाहल से कुण्डिननगरी में, पर्व समय के समुद्र की भाँति हर्ष की तरङ्ग उठने लगी। नये-नये बन्दनवारों से सड़कें सजाई गईं। अनगिनत ध्वजा-पताकाएँ राजधानी के महलों के ऊपर फहराने क्या लगी मानो हवा में सिर उठाकर स्वयंवर का समाचार और विदर्भ देश का आनन्द-समाचार प्रकट करने लगी। सारांश यह कि राजा भीम ने बेटी के स्वयंवर के समय तैयारी करने में कोई बात उठा नहीं रक्खी। धीरे-धीरे वह दिन आ गया जिस दिन कि स्वयंवर होने को था।

दमयन्ती के स्वयंवर का न्यौता पाकर महाराज नल बड़े ठाट-बाट से आ रहे थे। बहुत ही बढ़िया रूपवाली दमयन्ती को पाने की लालसा से इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम भी स्वर्ग से आ रहे थे। रास्ते में उनसे नल की भेंट हुई। नल ने सोचा कि मनुष्य की बेटी के स्वयंवर में देवताओं का आगमन! ऐसे आश्चर्य की बात तो पहले कभी नहीं देखी गई। न जाने विदर्भ की राजकुमारी कितनी सुन्दर है। राजा नल मन रूपी कूँची से उस राज-दुलारी का सुन्दर चित्र खींचने लगे।

देवता लोग भी नल के अनोखे रूप और साज-बाज को देखकर अपने ऐश्वर्य का तुच्छ समझने लगे। उन्होंने अपने मन में यह पक्का विश्वास कर लिया कि स्वयंवर-सभा में नल जायँगे तो उस राजकुमारी के हाथ की जयमाल इसी भाग्यवान् के गले में पड़ेगी। यह सोचकर देवताओं ने एक चालाकी की। [ १२४ ]इन्द्र ने अग्नि, वरुण और यम को सम्बोधन करके कहा---"नल की सुन्दरता और वैभव को देखने से जान पड़ता है कि दमयन्ती नल को ही जयमाल पहनावेगी। मैं चाहता हूँ कि किसी तरह, नल को स्वयंवर-सभा में न जाने दूँ। ऐसा होने से ही हम लोगों का काम बनेगा।" जब सब देवताओं को यह बात पसन्द हुई तब इन्द्र ने कहा---"देवताओ! नल विनयी और साधु पुरुष हैं। इसके सिवा वे बात के बड़े धनी हैं। अगर हम लोगों के दबाव डालने से नल दूत बनकर राजकुमारी के पास जाय और हम लोगों के इरादे को प्रकट करें तो राजकुमारी हम चारों में से किसी एक को अवश्य वर लेगी।" मनुष्य की बेटी पर अन्धे बने हुए देवताओं ने यह नहीं सोचा कि सूर्य की किरण से ही कमलिनी खिलती है; वसन्त की वायु बहने से ही प्रकृति के हृदय में प्रेम का अंकुर उगता है, और चन्द्रमा की किरण से ही चकोरी की प्यास बुझती है।

देवताओं ने अपना परिचय देकर नल से कहा---हे निषधराज! तुम हम लोगों को बहुत प्यारे हो। आशा है कि तुम हम लोगों की एक बात ज़रूर मानोगे।

नल ने नम्रता से कहा---देवताओं की आज्ञा पालने का मौक़ा मिलने से यह अधम धन्य होगा। कहिए, आप लोगों का कौन-सा प्यारा काम करूँ?

इन्द्र---हे प्रिय बोलनेवाले नल! तुम्हारी सुजनता पर हम लोग बहुत प्रसन्न हुए। हम लोग महासुन्दरी दमयन्ती को पाने के लिए स्वर्ग से आ रहे हैं। तुम दूत बनकर दमयन्ती से यह समाचार कहो और ऐसी कोशिश करो जिससे दमयन्ती हम चारों में से किसी एक के गले में जयमाल डाले। [ १२५ ]यह सुनकर नल के हृदय में एकाएक महा खेद छा गया। उन्होंने सोचा कि मैंने इतने दिनों से जिसकी मोहनी मूर्त्ति को हृदय के सिंहासन पर बैठा रक्खा है---सोते-जागते और सपने में भी जो मेरे जीवन की संगिनी है, इस जीवन-रूपी संग्राम में जिसकी ढाढ़ांस युक्त वाणी मुझको हिम्मत दिलावेगी, जिसको मैंने भविष्य-जीवन की एकमात्र सहेली मान रक्खा है उससे मैं कैसे कहूँगा कि तू दूसरे पर प्रेम कर; और ऐसा करने की कोशिश ही मैं कैसे करूँगा? यह तो अनहोनी बात है! यह तो सजीव देह से शक्ति को अलग करने का निष्फल उपाय है, यह तो अपने हाथ से सरासर अपना नाश करना है। कामदेव को लजानेवाले उस मुख पर खेद की काली छाया पड़ती देखकर देवताओं ने कहा--नल तुम अपने वचन को याद करो। तुम्हीं ने पहले मंज़ूर किया है। हम लोग तुम्हारे मन का भाव समझ गये, किन्तु हे निषधपति! पुरुष का प्राण सत्य ही है, आशा है कि तुम इस बात को नहीं भूलोगे।

नल को एकाएक होश हुआ। उन्होंने सोचा---पुरुष का प्राण तो सचमुच में सत्य ही है। कुछ भी हो, मुझे सत्य की रक्षा करनी ही पड़ेगी। चाहे जितना बड़ा स्वार्थ क्यों न हो, सत्य के सामने उसको नीचा देखना ही पड़ेगा।

सत्यसन्ध नल का मुँह खिल गया। नल ने कहा---देवताओ! मैं विदर्भ-राजकुमारी के पास अभी जाता हूँ, किन्तु मुझे कृपा करके इसका उपाय बता दीजिए कि राज-महल के भीतर मैं कैसे पहुँचूँगा; और राजकुमारी से भेट किस प्रकार होगी।

नल की यह बात सुनकर देवता बहुत खुश हुए। उस समय, इन्द्र ने नल को माया से छिपने का वर दिया। उस वरदान के प्रभाव से दूसरों की आँखें बचाकर, नल चाहे जहाँ आ-जा सकेंगे। [ १२६ ]देवताओं का काम करने के लिए नल राजकुमारी के महल की ओर चले। अब नल के हृदय में दो ज़बर्दस्त पक्ष आकर लड़ने लगे। एक सत्य और दूसरा प्रेम।

[ ५ ]

ज दमयन्ती का स्वयंवर है। स्वयंवर के लायक श्रृंगार से सज-धजकर दमयन्ती, रसीली सहेलियों की बातचीत से प्रसन्न होती हुई, स्वयंवर-सभा में जाने की बाट देख रही है। इतने में किसी के ढकेलने से कमरे का दरवाज़ा अचानक खुल गया। दमयन्ती ने देखा कि सुन्दर वेषवाला एक जवान उस कमरे में आकर खड़ा हो गया है। सखियाँ और दमयन्ती उस बहुत सुन्दर जवान को अचानक आते देखकर अकचका गई। राजकुमारी दमयन्ती उठकर खड़ी हो गई; खाली आसन मानो आग्रह से अतिथि का आदर करने लगा।

हँसमुख सखियों के चेहरे पर भयभरे अचरज की छाया देखकर दमयन्ती ने विधाता को प्रणाम किया और कहा---सदाचार में चतुर महात्मानों ने नियम कर दिया है कि रनिवास में किसी बेजान-पहचान के पुरुष का जाना बेजा है; तो भी जो आप छिपकर मेरे मकान में घुस आये हैं तो आप मेरे अतिथि हैं। कृपा कर मेरे नमस्कार को स्वीकार कीजिए। महाशय! यह महल का बाहरी कमरा है। इसलिए यहाँ आपके योग्य आसन का इन्तज़ाम नहीं है। देखिए, मेरी सखियाँ भी आपके एकाएक आ जाने से डर गई हैं और अचरज में डूबी हुई हैं। महाभाग! आपके हाथ-मुँह धोने के लिए जल आदि देने में देर हो रही है। इस कारण आप इस बिना सहाय की बालिका पर नाराज़ न हूजिएगा।

बिना सहाय की बालिका! तुमने चुपचाप अपने जीवन के स्वामी [ १२७ ]का जो स्वागत किया है वह मधुर, शान्त और उदार है। प्रेम से भरा हुआ तुम्हारा यह वचनरूपी अमृत ही इस मेहमान के लिए बहुत कुछ है। तुम्हारे हर्ष की साँस ही आज मेहमान के आदर के लिए जल आदि है; तुम्हारा हृदय-सिंहासन ही अतिथि के लिए आज आसन है। हृदय मानो कह रहा था---बालिका! तू ने हृदय के इस स्वागत को नहीं समझा!

दमयन्ती ने कहा--"हे बड़भागी! यहाँ और किसी आसन का इन्तज़ाम नहीं है। यद्यपि यह आसन आपके लायक़ नहीं है, तो भी कृपा कर आप इसी पर बैठ करके मुझे कृतार्थ कीजिए।" दमयन्ती का रूप देखकर नल अपनी सुध-बुध भूल रहे थे। उन्होंने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया।

दमयन्ती ने पुरुष को चुपचाप खड़ा देखकर नम्रता से कहा--- महोदय! कृपा करके कहिए कि आप कौन हैं और यहाँ क्यों आये हैं। यह तो ज़ाहिर ही है कि आप कोई साधारण आदमी नहीं। यदि आप मामूली आदमी होते तो हज़ारों प्रतिहारियों और दासियों से रक्षित इस ज़नाने महल के कमरे में आप कैसे आ सकते? आपकी देह की सुन्दरता वीरता के साथ कैसी लुभावनी है! आपके अङ्ग की सुन्दरता देखने से तो यही जान पड़ता है कि आप साक्षात् कामदेव हैं। किन्तु कामदेव तो अनङ्ग है---उसके तो कोई भी अङ्ग नहीं है; तो क्या आप अश्विनीकुमार हैं? यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि अश्विनीकुमार का तो युगल-जोड़ा है। महाशय! आप कौन हैं? आप किस देश के हैं और आज इस स्वयंवर-सभा में जाने को तैयार बैठी हुई राजकुमारी के कमरे में आप क्यों आये हैं--यह बताकर मेरे अचरज को दूर कीजिए।

नल ने अपने बिना शान्ति के हृदय को कुछ स्थिर करके कहा--[ १२८ ]राजकुमारी! मैं देवताओं का दूत हूँ और आपको देवताओं की इच्छा सुनाने के लिए यहाँ आया हूँ।

दमयन्ती---बताइए, देवताओं ने मुझे क्या आज्ञा की है?

नल---सुन्दरी! आपके स्वयंवर के लिए इन्द्र, अग्नि, वरुण, और धर्मराज यम आकर नगर के बाहर एक जगह ठहर गये हैं। वे आपके रूप और गुणों पर एकदम लट्टू हैं। उन लोगों की इच्छा है कि आप उनमें से किसी एक को वर लीजिए।

दमयन्ती--हे भाग्यवान्! आप उन लोगों के चरणों में मेरा प्रणाम निवेदन करके कहिएगा कि मैं उन लोगों की इस आज्ञा का पालन नहीं कर सकूँगी। क्योंकि मैं अपना हृदय एक और मनुष्य को सौंप चुकी हूँ। देवता लोग ही धर्म की रक्षा करते हैं। उन लोगों से, नम्रता-सहित मेरी प्रार्थना है कि वे मुझ पर ऐसी कृपा करें जिससे मैं स्वयंवर-सभा में अपने चाहे हुए वर को पहचान सकूँ और उनके गले में माला पहना सकूँ।

नल---चन्द्र के से मुखड़ेवाली राजकुमारी! आप यह क्या कर रही हैं? देवताओं के राजा इन्द्र, जगत् को पवित्र करनेवाले अग्नि-देवता, जल के स्वामी वरुण और मृत्यु के पति धर्म आपका पाणिग्रहण (विवाह) करने के लिए सभा में हाज़िर हैं। तीनों लोकों में पूज्य इन सब श्रेष्ठ देवताओं को छोड़कर क्या आप साधारण मनुष्य के गले में जयमाल डालेंगी?

दमयन्ती--महाशय! यह आप क्या कह रहे हैं? इस जगत् में जिसके लायक़ जो चीज़ है, उसको उसी पर सन्तुष्ट रहना चाहिए। मैं आदमी हूँ। मैं नर-देवता को ही पति बनाकर धन्य हूँगी। मैं देवी नहीं बनना चाहती। [ १२९ ]नल--देवी! देवता लोग सदा गुणों ही का आदर करते हैं। इन्द्र ने देवता होकर भी पुलोमा राक्षस की बेटी शची को और भगवान् अग्निदेवता ने माहिष्मती के राजा नीलध्वज की बेटी स्वाहा को अपनी स्त्री बनाया है। मनुष्य के लिए सबसे उत्तम देवी का पद आज आपको अपने आप बुला रहा है। मैं आशा करता हूँ कि आप उसे ज़रूर मंज़ूर करेंगी।

दमयन्ती---हे देवताओं के दूत! आचरण के बल से ही स्त्री और पुरुष धन्य होते हैं। पुरुषों के लिए आदर्श-स्वरूप मेरे वे होनहार पति बल के लिए तीनों लोकों में मशहूर हैं, इसलिए मैं उनको देवता से घटकर कैसे कहूँ? देखिए, वे इन्द्र भी---जिनके बायें भाग में सदा जवान बनी रहनेवाली इन्द्राणी शोभायमान हैं-आज मनुष्य की साधारण बेटी के रूप पर मोहकर उसके स्वयंवर में आये हैं। सबको शुद्ध रखनेवाले अग्निदेव भी आज स्वाहा देवी की सुन्दरता को भूलकर एक हीना नर-कन्या को चाह रहे हैं। बहुत ही शान्त वरुण देवता अपनी रूपवती वरुणानी की प्रेम से कोमल भुजाओं की शीतल भेट को भूलकर तुच्छ मानवी के रूप पर लुभा गये हैं; और धर्मराज भी, आज न्याय की मर्यादा भूलकर, नारी के जीवन को देवी बनाने के लाभ से शोक के अथाह समुद्र में डुबोना चाहते हैं। मैं इन लोगों का भली भाँति आदर कैसे करूँगी? महाभाग! दूसरे के दिये हुए धन से किसी की इज़्ज़त नहीं बढ़ती! अपने पैदा किये हुए धन से असली मान होता है। इसी से मैं देवताओं का पसन्द किया हुआ, देवीत्व नहीं चाहती। मैं उन लोगों की सिर्फ़ कृपा चाहती हूँ। दया करके उनसे कह दीजिएगा कि ऐसी कृपा वे मुझ पर बनाये रक्खें जिससे मेरा नारीत्व बना रहे। अपनी पसन्द के मनुष्य-पति को पाने से ही मेरा मनोरथ सफल होगा। [ १३० ]विदर्भ---राजकुमारी के चरित्र के इस बल को देखकर नल बहुत खुश हुए और उन्होंने बिदा माँगी। दमयन्ती ने कहा---महात्मन्! आपका यह व्यवहार सराहना करने लायक़ नहीं। आप बिना पह- चान कराये ही क्यों जाना चाहते हैं? शास्त्रों में कहा है कि दो बातें करने से ही मित्रता हो जाती है। आपसे जब मेरी इतनी बातचीत हुई है तब आपके साथ मेरी मित्रता ज़रूर हो गई; मेरी समझ में देवताओं के दूत के सामने यह कोई नई बात न होगी।

नल ने कहा--सुन्दरी! मेरा और कुछ परिचय नहीं। मैं देवताओं का दूत हूँ, सिर्फ़ इतना ही परिचय काफ़ी है।

दमयन्ती---बड़े खेद की बात है कि राजकन्या के महल में आये हुए सज्जन, न्याय की मर्यादा को तोड़कर, बिना परिचय दिये ही यहाँ से खिसकना चाहते हैं।

अब नल असमञ्जस में पड़े। उन्होंने सोचा कि अपना परिचय बिना दिये कैसे जाऊँ! नल ने कहा---राजकुमारी! साधु लोग अपने मुँह से अपना नाम कभी नहीं लेते। बतलाओ, मैं अपना नाम कैसे लूँ? और आप यह जानकर ही क्या करेंगी? अगर आपको जानने की बड़ी इच्छा ही हो तो यही जानियेगा कि मैं विदर्भ-राजकुमारी के स्वयंवर में आया हुआ एक राजकुमार हूँ।

दमयन्ती के चित्त में अचानक आशा की रेखा दीख पड़ी। उसने हंस के मुँह से महाराज नल के अलौकिक गुणों की और रूप की जो बात सुनी थी, वह आज इस अजनबी की मूर्त्ति में दिखाई दी। दमयन्ती सोचने लगी कि इस समय अगर हंस से एक बार और भेट हो जाती तो आँख-कान का यह झगड़ा मिट जाता। अचानक उसके चित्त पर निषध-राज का चित्र खिंच गया। दमयन्ती ने देखा कि मेरी आँखें इस पुरुष के सामने ताकने से लजाती क्या हैं, मानो [ १३१ ]संकोच चित्त को दबा रहा है। वह सोच रही है कि ये सुघड़ युवक अगर निषध-राजकुमार होते---

कुछ देर के बाद हृदय के वेग को रोककर नल ने दमयन्ती से कहा---राजकुमारी! मैं देवताओं का दूत हूँ, इसलिए मुझसे कुछ पूछ-ताछ करना नियम के विरुद्ध है। क्या मैं यह पूछ सकता हूँ कि आपके मन को किस पुरुष ने चुरा लिया है?

दमयन्ती ने कहा---कुमार! यह तो बड़े अचम्भे की बात है! आप अभी तक मुझसे अपने को तो छिपाते ही जाते हैं किन्तु चतुराई से अपने प्रश्न का उत्तर मुझसे चाहते हैं। क्या आप नहीं जानते कि जो जैसा व्यवहार करता है उससे वैसा ही व्यवहार किया जाता है!

नल ने कहा---हे प्रिय बोलनेवाली! दूत के लिए अपना परिचय देना मना है, इसलिए मैं अपना परिचय नहीं दे सकता। दिल्लगी करने का मेरा इरादा बिलकुल नहीं है, किन्तु आप अपने मेहमान का निरादर कर रही हैं।

यह सुनकर दमयन्ती बहुत लजा गई। हृदय तो प्रकट करना चाहता था, किन्तु दोनों ओंठ दबा देते थे। किसी भी तरह मुँह से वह बात नहीं निकली।

तब दमयन्ती का इशारा पाकर पास की एक सखी ने कहा--- हे देवताओं के दूत! हमारी सखी ने निषध-राजकुमार नल को अपना मन दे दिया है। हमारी सखी सदा उन्हीं महापुरुष के ध्यान में मग्न रहती है। देवता लोग ऐसी कृपा करें, जिससे स्वयंवर-सभा में राजकुमारी अपने मन-चाहे के गले में जयमाल डाले।

"हे अच्छे स्वभाववाली! क्या तुम लोगों ने निषध देश के राज-कुमार को कभी देखा है? शायद देखा नहीं है; नहीं तो तुम लोगों के सामने यह पहेली दरपेश ही न होती। मैं ही निषध देश [ १३२ ]का राजकुमार हूँ--"यह कहने के साथ ही देवदूत अन्तर्धान हो गये।

नल के मुँह से यह बात सुनकर कि 'मैं ही निषध देश का राज- कुमार हूँ' दमयन्ती पुलकित हो गई; किन्तु, तुरन्त ही, नल के साथ किये हुए अपने बर्ताव की याद करके वह दुःखित मन से बोली---सखी! तब तो मैंने निषध-राजकुमार के साथ अन्याय किया है।

सखी---नहीं सखी! तुमसे इसमें कुछ भी अन्याय नहीं हुआ, बल्कि तुमने बेजान-पहचान के अजनबी के साथ काफ़ी भला बर्ताव किया है। मनुष्य तो किसी के भीतर की बात जानता नहीं! यदि मनुष्य अन्तस् की भी बात को जानता होता तो फिर देवता और मनुष्य में भेद ही क्या रह जाता? सखी! खेद मत करो; दूत का वेष धारण कर आये हुए निषधपति तुम्हारे सदाचार से तृप्त हुए हैं।

इतने में स्त्रियों को साथ लिये हुए रानी वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने स्वयंवर के लायक श्रृंगार से सजी हुई लड़की के सिर पर दूब और अक्षत छिड़ककर आशीर्वाद देते हुए कहा--'बेटी दमयन्ती! तुम्हारी कामना पूरी हो, देवता लोग तुम्हारे सहायक हों।" इसके बाद राजधानी की स्त्रियों ने एक-एक करके दमयन्ती के सिर पर दूब-अक्षत छिड़ककर आशीर्वाद दिया। माता के चरणों में दमयन्ती प्रणाम करके धाई के साथ स्वयंवर-सभा की ओर चली।

[ ६ ]

राजमहल के सामने ही स्वयंवर की सभा है। संगमरमर के बने ऊँचे खम्भों पर चँदोवा टँगा है। तरह-तरह के फूलों और पत्तों से खम्भे सजाये गये हैं। तरह-तरह के सुगन्धित फूलों की मालाएँ चारों और खुशबू फैला रही हैं। स्वयंवर की सभा के चारों ओर चार नई मेहराबें बनी हैं। उनमें तरह-तरह के फूल-पत्ते और फल लगाये गये हैं। [ १३३ ]भारत के अनेक राज्यों से आये हुए राजकुमार लोग अलग-अलग आसनों पर बैठे हैं। ऐसा जान पड़ता है मानो नीले आकाश में चमकनेवाले तारे उगे हुए हों। बढ़िया पोशाक पहने हुए खूबसूरत नौकर-चाकर सभा में सफ़ेद चँवर डुलाकर राजकुमारों का पसीना दूर कर रहे हैं। बीच-बीच में गुलाब-जल का फ़व्वारा चलता है। हवा फ़व्वारों के छींटों से ठण्डी होकर स्वयंवर-सभा को शीतल करती है। दर्शकों के बैठने के लिए सभा के चारों ओर मचान बनाये गये हैं।

शुभ मुहूर्त पर दमयन्ती ने स्वयंवर-सभा में प्रवेश किया। उसी समय राजमहल से स्त्रियों के गीत सुन पड़े। मेहराबों के पास ऊँचे मचान पर शहनाई बजने लगी।

जब दमयन्ती सभा में पहुँची तो हज़ारों पुरुषों की आँखें उस पर पड़ीं। उस भरी सभा में लोगों के ताकने से दमयन्ती का कलेजा धड़कने लगा। वह मन ही मन इष्टदेवता का स्मरण करके, सिर नीचा किये हुए, धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी।

सभा के सब राजकुमारों और दर्शकों ने आज राजकुमारी दमयन्ती के स्वयंवर के लायक श्रृंगार को देखकर सोचा कि यह विधाता की अनोखी कारीगरी का नमूना है। जान पड़ता है कि विधाता ने अपनी सृष्टि की सारी सुन्दरता मिलाकर इस शोभा की खानि को बनाया है। सभी राजपुत्र सोचने लगे कि देखें इस सुन्दरी के हाथ की जयमाल आज किस भाग्यवान के गले में पड़ती है।

राजपुरोहित की आज्ञा से तुरन्त शोर-गुल और बाजे बन्द हो गये। वैतालिकों (नक़ीबों) ने आकर राजकुमारों का परिचय देना और उनके गुणों का बखान करना शुरू कर दिया, किन्तु दमयन्ती के कान में नक़ीबों की एक भी बात नहीं जाती थी। दमयन्ती जिस देवता को ढूँढ़ती थी उस देवता का पता न पाकर वह राजकुमारों [ १३४ ]को यथायोग्य प्रणाम करती हुई स्वयंवर-सभा के दूसरे भाग में चली गई।

यह बड़ा कठिन स्थान है। यह स्थान प्रीति की दो धाराओं के मिलाप से पवित्र होगा। गंगा और यमुना के समान प्रीति की दो धाराओं के संगम-स्थान पर एक विकट उलझन आ पड़ी।

जब दमयन्ती वहाँ पहुँची तो वैतालिक बोल उठा---राजकुमारी! ये जो सामने चक्रवर्ती राजा के लक्षणोंवाले कुमार दिखाई देते हैं, और जिनकी विशाल भुजाएँ हैं, वे निषध देश के स्वामी महाराज नल हैं। इनमें नाम लेने के लिए भी आलस्य नहीं है। शास्त्रों का इन्हें खूब ज्ञान है और धनुर्वेद में तो ये अपना सानी नहीं रखते। ये दोनों की रक्षा करते हैं, इन्होंने इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है और ये प्रजा को भी खूब चाहते हैं। राजकुमारी! अगर आप चाहें तो इनको वर सकती हैं।

दमयन्ती का हृदय अभी तक इसी देवता को तो ढूँढ़ रहा था। आज, वैतालिक की यह मीठी बात सुनकर, हृदय की उछलती हुई प्रीति को शान्त करके दमयन्ती ने लजाती और मुसकुराती हुई नज़र उठाकर सामने देखा। अरे! यह क्या मामला है? स्वयंवर-सभा में नल की पाँच ऐसी मूर्त्तियाँ हैं जो कि आग के समान उजली हैं। भीम की कन्या यह देखकर चकराई और ठिठककर डर गई। उसके हाथ में जो फूलों की माला थी वह काँप उठी। माथे पर पसीना आ गया। देवताओं की चाल समझ दमयन्ती गिड़गिड़ाकर बोली---"हे देवताओ! आप लोग धर्म के रक्षक हैं; ऐसी कृपा कीजिए जिसमें मेरे सतीधर्म पर दाग न लगे और मैं अपने मन से वरे हुए पति निषध-राजकुमार को पहचान लूँ। हे देवताओ! मैं मनुष्य की तुच्छ बेटी हूँ। मुझे धर्मभ्रष्ट करके आप लोग देवता के ऊँचे पद