आदर्श महिला/३ दमयन्ती/२

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आदर्श महिला  (1925) 
द्वारा नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा
[ चित्र ]
दमयन्ती गिड़गिड़ा कर बोली—"हे देवताओं! आप लोग धर्म के रक्षक हैं; ऐसी कृपा कीजिए कि जिसमें मेरे सतीधर्म पर दाग़ न लगे"—पृ॰ १३४

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग। [ १३५ ]से नीचे न गिरिए।" यह बात कहते-कहते, वर्षा के जल से धुली हुई कमलिनी की भाँति, सुन्दरी दमयन्ती की बड़ी-बड़ी आँखें आँसुओं से भर गईं। उस सती के आँसुओं की छवि से इन्द्र आदि देवताओं के गले की मन्दार-वृक्ष के फूलों की मालाएँ फीकी पड़ गईं।

दमयन्ती को एकाएक याद आया कि देवताओं के पैर धरती से कुछ ऊपर उठे रहते हैं और उनकी आँखों की पलकें भी नहीं गिरतीं। दमयन्ती ने हिम्मत करके उन एक ही से रूपवाली पाँच मूर्त्तियों पर नजर गड़ाकर जान लिया कि उनमें से चार के नेत्रों की पलकें नहीं गिरती और उनके पैर भी भूमि से ऊपर हैं।

दमयन्ती ने इस फ़र्क़ को समझकर पाँचवें के गले में, भगवान् का पवित्र नाम लेकर, जयमाल पहना दी। देखा कि इन्द्र आदि चारों देवता तुरन्त ही अपना असली रूप धरकर उसे आशीर्वाद दे रहे हैं---"धन्य दमयन्ती! तुम्हारी यह पवित्र कथा भारत के इतिहास में सुनहरे अक्षरों से सदा लिखी रहेगी।" यह कहकर देवता लोग गुप्त हो गये।

दमयन्ती ने जिस समय नल को जयमाला पहनाई उसी समय उस शान्त स्वयंवर-संभा में स्त्रियाँ मङ्गल-गीत गाने लगी; शंख बजने लगे; लोगों का गुल-गपाड़ा मच गया और भाँति-भाँति के बाजे बजने लगे।

सभी कहने लगे---दमयन्ती धन्य हैं, उन्होंने अपने मन के बल से देवताओं की एक नहीं चलने दी--उनकी छलना को व्यर्थ कर दिया। निषध-राजकुमार धन्य हैं, जिन्होंने ऐसा स्त्रीरूपी रत्न पाया है।

राजा भीम ने धूमधाम के साथ दमयन्ती का ब्याह कर दिया। आये हुए राजकुमार लोग दमयन्ती की इस अद्भुत निष्ठा से प्रसन्न होकर नये दम्पती (दूलह-दुलहिन) को धन्यवाद देते हुए अपने-

अपने राज्य को लौट गये। [ १३६ ]

[ ७ ]

न्द्र, वरुण, अग्नि और धर्मराज स्वर्ग को जा रहे हैं। रास्ते में कलियुग और द्वापर से भेट हुई। इन्द्र ने पूछा---क्यों कलि! इधर कहाँ जाते हो?

कलि---सुना है कि आज विदर्भ-राजकुमारी मशहूर सुन्दरी दम- यन्ती की स्वयंवर-सभा में देवताओं और मनुष्यों का अजीब जमाव हुआ है। इस नये दृश्य को देखने के लिए आज मैं वहीं जाता हूँ।

इन्द्र---कलि! लौट चलो। हम लोग उसी स्वयंवर-सभा से लौट रहे हैं। विदर्भ-राज की परम सुन्दरी बेटी ने हमलोगों के सामने ही निषध देश के राजा नल को जयमाला पहना दी। हम लोग नये दूलह-दुलहिन को आशीर्वाद देकर आ रहे हैं।

कलि---जो दिक्पालों के सामने अदन मनुष्य के गले में जय- माला डाल सकती है उस गर्वीली राज-कन्या को आशीर्वाद! आप लोग क्या कह रहे हैं?

इन्द्र--कलि! तुम क्या यह नहीं जानते कि सती समूचे ब्रह्माण्ड को भी जीत लेती है? विदर्भ-राजकन्या देवताओं के हज़ार लोभ दिखाने पर भी अपने सती-धर्म से ज़रा भी नहीं डिगी। यह तो हर एक के लिए गौरव की बात है। तुम उसके ऊपर इतने क्यों रूठे हो?

कलि---उसे इतना घमण्ड है कि उसने देवताओं को तुच्छ समझा। अच्छा, मैं उसका यह घमण्ड तोड़ूँगा।

इन्द्र आदि देवताओं ने कहा--"कलि! वृथा कोप करना बेजा है। तुम अपने घर जाओ और यदि चाहो तो निषध-राज्य में जाकर नये दम्पती को देखकर आँखें ठण्ढी कर आओ।" यह कहकर ने लोग सुरलोक को चले गये।

देवताओं की बात पर ऊपरी मन से शान्त-भाव दिखाकर कलि[ १३७ ]युग अपने स्थान को चला गया, किन्तु देवताओं के अपमान से वह आग में जलने सा लगा। फिर उसने द्वापर को सम्बोधन करके कहा---मैं देखूँगा कि दमयन्ती सुख से कैसे रहती है।

नल और दमयन्ती दोनों, ब्याह हो जाने पर, निषध देश को लोट आये। लक्ष्मी के समान दमयन्ती रानी को देखकर प्रजा की खुशी का ठिकाना न रहा। दमयन्ती ने प्रजा को मातृत्व की छाया से शीतल किया। विपद में फँसे हुए की विपद दूर कर, आश्रित की रक्षा कर और भूखे को अन्न देकर दमयन्ती लोक-माता धरती के समान शोभा पाने लगी।

समय पाकर दमयन्ती के एक लड़का और एक लड़की पैदा हुई। बेटे का नाम इन्द्रसेन और बेटी का नाम इन्द्रसेना रक्खा गया। मातृभाव से भरपूर दमयन्ती सुख की गृहस्थी में, स्वामी के किये हुए पुण्यकर्म की सहेली होकर, दिन बिताने लगी।

पृथ्वी पर कोई लगातार सुख नहीं भोग सकता। इसी से विधाता दुःख का प्रश्न आदमीयत की जाँच करता है। जो लोग इस जाँच में पूरे उतरते हैं वे सच्चे मनुष्य हैं। दमयन्ती इस जाँच में सोलहो आने पूरी उतरी थी, इससे वह इतनी पुनीत हो गई है कि भारत भर में सभी उसकी वाहवाह करते हैं।

नल के ऊपर कलि पहले ही से नाराज़ था, इससे वह सदा इस घात में रहता था कि कौनसा छिद्र पाऊँ कि नल की देह में घुस जाऊँ। एक दिन महाराज नल अशुद्ध अवस्था में सन्ध्या करते थे। इसी अवसर पर कलि उनके शरीर में घुस गया।

महाराज नल का एक छोटा भाई था। इसका नाम था पुष्कर। राजा नल जैसे मनुष्यता के पूरे अवतार थे, वैसे ही उनका भाई पुष्कर नरक के पिशाच का भद्दा ढाँचा था। ऐसा कोई बुरा काम न [ १३८ ]था जो पुष्कर से न हो सके। स्वार्थ के लिए वह सब कुछ कर सकता था।


[ ८ ]

पुष्कर जूआ खेलने में बड़ा चतुर था। वह बड़े भाई की अपार कीर्ति, राज्य के विस्तार और प्रजा के वश में रहने आदि को देखकर मन ही मन जलता रहता था। नल की देह में घुसे हुए कलियुग ने एक दिन पुष्कर से कहा---"पुष्कर! तुम नल के साथ जूआ खेलो। हम और द्वापर, दोनों तुम्हारी सहायता करेंगे। हम लोगों की सहायता से तुम नल को हराकर निषध का राज्य ज़रूर पा जाओगे।" कलि के बहकाने से पुष्कर ने, कुमति के चक्कर में पड़कर, बड़े भाई को जूआ खेलने के लिए लाचार किया।

पहले क्षत्रिय राजाओं में एक यह रीति थी कि युद्ध में हो चाहे जूए में हो, ललकारने से उतरना ही पड़ता था। महाराज नल क्षत्रियों की उसी रीति के कारण पुष्कर से जूआ खेलने लगे और कलि जूए के भीतर रहकर नल का सर्वनाश देखने लगा।

जूए की धुन सिर पर सवार होने से महाराज नल की बुद्धि भ्रष्ट हो गई। रात-दिन, खाना, पीना, सोना सब भूलकर वे सिर्फ़ जूआ ही जूआ खेलने लगे। धीरे-धीरे वे राज-पाट सब हार बैठे। अब सिर्फ़ वे रह गये और रह गई उनकी स्त्री रानी दमयन्ती।

पुष्कर ने जब देखा कि धीरे-धीरे बड़े भाई का सब कुछ मेरे हाथ में आ गया तब उसने प्रसन्न होकर कहा---मैंने तुम्हारा सब कुछ जीत लिया; अब तुम दाव पर दमयन्ती को रक्खो।

अब राजा नल को होश हुआ। वे सिंह की तरह गरजकर बोले-- अरे मनुष्यरूपी पिशाच! तेरी क्या यही भलमंसी है? तू जूए में अन्धा होकर, माता-समान भौजाई के ऊपर बुरा भाव रखता है! [ १३९ ]नल झटपट खेल छोड़कर उठ खड़े हुए। राजा की दीनता देखकर कलियुग हँसने लगा, किन्तु उसने यह नहीं समझा कि साधना भाग्य की गति को फेर सकती है। साधना भले कामों की माता है। महाराज नल के जी में आज साधना की ज़बर्दस्त इच्छा जाग उठी। इतने दिन वेपर्वाही की ठोकर से जिस मङ्गल-कलश को फोड़ डाला था आज साधना की उमङ्ग से उसमें फिर प्राण आ गये।

जब राजा ने देखा कि नगर में अब मेरे लिए जगह नहीं है, तब उन्होंने विपन्न-शरण वन में जाने की इच्छा की। क्योंकि जिसे कहीं भी आसरा नहीं उसको वन में ठौर ज़रूर मिलेगा, और जो शोकों से व्याकुल हो गया है, उसे वन में कुछ न कुछ चैन भी मिल ही जावेगा। राजा ने दमयन्ती से कहा---प्यारी! मुझ पर खोटे ग्रह की दशा है। प्राणसमान प्यारे इन्द्रसेन और इन्द्रसेना को लेकर तुम कुछ दिन नैहर में जा रहो। तब तक मैं अपने भाग्य को आज़माने के लिए जगह-जगह घूमूँगा। मुझे भाग्य से लड़ाई करके विजय पाना होगा।

दमयन्ती ने आँखों में आँसू भरकर कहा---महाराज! क्या आपको याद है कि जब आप जुए के नशे से पागल हो रहे थे तब मैंने कितने आँसू बहाकर आपका नशा दूर करने की कोशिश की थी? महाराज! याद है कि नहीं, प्रिय इन्द्रसेन और इन्द्रसेना के कोमल हाथों से आपको बाँध रखने का उपाय भी किया था? आप जिस दिन फूल से कोमल बच्चों के प्रेम को भूलकर चले गये थे, उसी दिन मैं समझ गई थी कि किसी बुरे नशे से आपकी बुद्धि मारी गई है। महाराज! मैंने उसी दिन इन्द्रसेन और इन्द्रसेना को, विश्वासपात्र सारथि, वार्ष्णेय के साथ अपने पिता के घर भेज दिया और मैं विपद के समुद्र में डूबते हुए आपका साथ देने के लिए तैयार हूँ। महाराज! अगर आपका वह नशा उतर गया हो तो आपको इस [ १४० ]समय भी सहारा मिल सकता है। आपके बग़ल में, केवल एक आप ही का भरोसा रखनेवाली स्त्री का हृदय आपकी सारी विप- दाओं से भिड़ जाने के लिए तैयार है।

राजा ने कहा---दमयन्ती! मैं जानता हूँ कि स्त्री ही, दिशा भूले हुए, अभागे स्वामी की दुर्भाग्यरूपी रात के घने अँधेरे में मङ्गलकिरण बरसानेवाली अचल तारा है। सती स्त्री ही विपद के समुद्र में एकमात्र आसरे की नौका है। मेरे सैकड़ों जन्मों की तपस्या का इनाम दमयन्ती! अभागे को छोड़ मत देना। प्यारी! भाग्य के फेर में पड़कर मैं कुछ दिन देश-देश में घूमकर देखूँगा कि मेरा भाग्य पलटता है या नहीं। इसी लिए मेरी बहुत-बहुत प्रार्थना है कि तुम कुछ दिन नैहर में जाकर रहो।

दमयन्ती का चित्त व्याकुल हो उठा। उसने रोकर कहा---क्यों महाराज! दासी ने इन चरणों में ऐसा क्या अपराध किया है कि आप इसको छोड़ना चाहते हैं? आप मुझे अपना साथ छोड़कर, नैहर जाने को न कहें। आपके साथ रहकर ही मैं दुःख को भूलूँगी। वन में घूमते-घूमते जब आप थक जायँगे तब मैं पत्ते से हवा करके आपकी थकावट को दूर करूँगी। हे नाथ! साध्वी स्त्री के लिए पति के वियोग से बढ़कर कोई दूसरी सज़ा नहीं है। मैं छाती रोपकर वज्र की चोट सह सकती हूँ, मैं बिना मुँह बिचकाये चुपचाप हलाहल विष भी पी सकती हूँ; किन्तु आपके पवित्र संग को त्यागकर किसी तरह नहीं जी सकती। हे नाथ! दया करके मुझे अपने पवित्र चरणों से दूर न कीजिए।

नल ने कहा---अच्छा दमयन्ती! तुम मेरे साथ चलो। मुझ अभागे के जीवन में, उजेले की महीन किरण की तरह, मार्ग भूले हुए बटोही के लिए ध्रुव तारे की तरह, तुम सदा मेरे साथ रहना। [ १४१ ]

[ ९ ]

गहरी रात में स्वामी और स्त्री दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर राजधानी से बाहर निकले। इस बात का कोई निश्चय नहीं कि कहाँ जायँगे और यह भी मालूम नहीं कि वन है किस तरफ़ को! भगवान् का नाम लेकर बिना किसी ठिकाने को जाने ही चल पड़े।

वे नगर छोड़कर एक मैदान में आये। घना अँधेरा है, कुछ भी दिखाई नहीं देता। वे दोनों उस रात के गाढ़े अँधेरे के भीतर से चलकर एक सघन वन में घुसे। वन में अँधेरा और भी गहरा मालूम होने लगा। नल और दमयन्ती ने, किसी प्रकार, उसी वन में रात बिताई।

धीरे-धीरे पूर्व दिशा में ललाई छा गई। धरती ने मानों रात का सब विरह भूल कर प्रभात के सूर्य को आदर से वर लिया। पृथ्वी पर जाग जाने की धूम मच गई।

एक दिन नल ने वन में, सोने के से पंखोंवाली कुछ चिड़ियों को देखकर, उन्हें पकड़ने के इरादे से अपनी धोती खोलकर फेंकी। कलियुग की माया से रचे हुए वे पक्षी नल की धोती लेकर आकाश में उड़ गये। नल अचरज करके सोच ही रहे थे कि उन पक्षियों को यह कहते सुना---"हे नल! जिनके कोप से तुम्हारा राज-पाट छूटा और तुम भूखे-प्यासे होकर वन-वन भटक रहे हो, जिनके प्रभाव से निषध की राजभक्त प्रजा ने विपत्ति के समय तुम्हारा साथ तक नहीं दिया, हम वे ही पासे हैं; तुमको वन में लजवाने और सताने के लिए ही हमलोगों ने पक्षी बनकर तुम्हारी धोती छीन ली है।" महाराज नल किसी तरह पत्तों से अपना शरीर छिपाकर दमयन्ती के पास आये। जिस राज-शरीर पर रेशमी कपड़ा शोभा पाता था, [ १४२ ]उस पर आज पत्तों को लिपटा देख दमयन्ती अाँसुओं की धारा बहाने लगी।

नल ने कहा---रानी शोक करने से क्या होगा? भाग्य में जो लिखा है उसे तो भोगना ही होगा। ऐसी विपत्ति में पहले के सुख-चैन को भूलकर, वर्तमान समय की दुःख-दुर्दशा को ही अख़्त्यार कर लेना होगा। वर्तमान में जो काम किया जायगा उसी का फल भविष्य में भोगने को मिलेगा। ज्ञानियों का यही उपदेश है। पहले के बड़प्पन की बातों को याद कर तुम्हारी जैसी ऊँचे हृदयवाली स्त्री को दुःख न मानना चाहिए।

दमयन्ती ने आँसू पोंछकर कहा---हे निषध देश के राजा! मैं सब जानती हूँ और सब समझती हूँ, किन्तु महाराज! धूल से लिपटी हुई आपकी इस देह को देखकर जब आपकी चन्दन लगी हुई उस देह की याद आती है, जिस कोमल देह में कुंकुम लगाने में भी मुझे डर लगता था, उसको जब कंकड़-पत्थरों पर सोया हुआ देखती हूँ तब महाराज! मुझसे धीरज नहीं धरा जाता---हृदय में अशान्ति आप ही से उमड़ आती है।

नल ने प्रेम से कहा---"प्यारी! भगवान् के राज्य में सुख या दुःख कुछ नहीं है। भगवान् के राज्य में तो सभी सुख से भरा हुआ है। उन्होंने मनुष्य के लिए अपना अटूट भाण्डार खोल दिया है। हम लोगों के जीवात्मा को जब जिस चीज़ की ज़रूरत होती है तब वह उसे ले लेता है, इसलिए सुख-दुःख जो कुछ है सभी भगवान् का दान है। रानी! जिस दिन देखोगी कि सुख के साथ दुख का भेद-रहित ज्ञान हो गया है उस दिन हृदय में ज़रासी भी अशान्ति नहीं रहेगी; उस दिन देखोगी कि हृदय में स्वर्ग की वीणा बज रही है; प्रेम-मय विश्व की निडर वाणी जीवन को ढाढ़स दे रही है" दमयन्ती अपने [ १४३ ]नेत्रों से नल का हँसता हुआ चेहरा और आनन्द देखकर सारा दुःख भूल गई।

महाराज नल, पत्नी को इस प्रकार उपदेश देते थे किन्तु उनके हृदय में चिन्ता की जो चिता जलती थी वह कहने योग्य नहीं। वह तेजस्वी बड़ा डीलडौल चिन्ता-रूपी घुन के लगने से हड्डी-हडी हो गया। महाराज नल को अपने लिए उतनी चिन्ता नहीं थी। जब वे देखते कि दमयन्ती के दोनों कोमल चरण वन में घूमने से लाल हो गये हैं, जब वे देखते कि वन की धूल लगने से दमयन्ती के काले-काले केश सफ़ेद से लगते हैं, और जब वे देखते कि उस मृगनयनी के नेत्रों में आँसू भर आये हैं तब उनकी छाती फटने लगती। वे सोचते कि हाय! जो राजरानी राजमहल में संगमर्मर के फ़र्श पर घूमा करती थीं, रनिवास में जिनके केशों को सैकड़ों दासियाँ सुगन्धित तेल से सँवारती थीं, और जिनके कान तक फैले हुए बड़े-बड़े नयनों में स्वर्ग की शोभा दिखाई देती थी, अहो दुर्दैव! आज वही वन में मारी-मारी फिरती हैं! किसी तरह हृदय के दुःख को भीतर ही दबाकर महाराज नल पत्नी को ढाढ़स दिया करते थे।

एक दिन नल ने सोचा कि दुष्ट कलियुग की कुटिलता से आज हमारी यह दुर्दशा है! मैं असहाय वन-वासी हूँ। सुना है कि अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण पासा खेलने में बड़े चतुर हैं। हमें, जैसे बने वैसे, राजा ऋतुपर्ण के पास जाकर पासा खेलना सीखना चाहिए, किन्तु मेरे काम में दमयन्ती बाधक है।

यह सोचकर नल ने कहा---रानी! तुम इस प्रकार वनवासिनी होकर क्यों अपने मन से कष्ट भोगती हो? मैं चाहता हूँ कि तुम नैहर चली जाओ। कुछ दिन तक ग्रह की दशा भोग लेने के बाद मैं फिर तुमसे आ मिलूँगा। प्यारी! मेरी इस दुर्दशा में तुम क्यों कष्ट [ १४४ ]सहोगी? और फिर भी सोचा कि प्राण-समान प्यारे इन्द्रसेन और इन्द्रसेना हम लोगों के बिना न जाने कितना कष्ट पाते होंगे। इस अवस्था में यदि तुम अपने पिता के घर जाओगी तो वे बहुत प्रसन्न होंगे। उनका उदास चेहरा अानन्द से खिल उठेगा।

दमयन्ती ने कहा---स्वामी! आपके साथ में मुझे ज़रा भी दुःख नहीं मालूम होता। दुःख की अवस्था में ही मनुष्य को हित-नाते की ज़रूरत होती है। प्यास लगने पर ही पानी अच्छा लगता है। नाथ! आपके दुःख का समय क्या सिर्फ़ आप ही का है? तो क्या आप मुझको अपने से जुदा समझते हैं? महाराज! स्त्री क्या पति के सुख की ही हिस्सेदार है---दुःख की नहीं? स्वामी के दुःख का बोझ उठाने में जो स्त्री बड़प्पन समझती है और जो ऐसा करने में समर्थ होती है वही धन्य है। महाराज! मेरी यही प्रार्थना है कि आप मुझे नैहर जाने की आज्ञा न दें और जो जाना ही हो तो, चलो दोनों आदमी साथ ही विदर्भ चलें। मेरे पिता के घर आप बड़े आदर-मान से रहेंगे।

नल बोले---यह नहीं हो सकता। शास्त्रों में कहा है कि दिन बिगड़ने पर कभी अपने हितैषी या नातेदारों के घर नहीं जाना चाहिए। इसलिए तुम्हारी इस बात को मैं नहीं मान सकता। इसके सिवा, मैं जिस जगह खूब ठाट-बाट से दल-बल लेकर गया था, वहाँ आज कौनसा मुँह लेकर पत्नी की आधी सारी पहने हुए जाऊँगा? रानी! यह मुझसे न होगा।

रानी---नाथ! इस बात को मैं बख़ूबी समझती हूँ, किन्तु क्या कीजिएगा? इस वन में आपके मुँह में कड़ुए, तीते, कषैले वन-फल कैसे दिया करूँ? क्या कहूँ महाराज! जिनको सोने की थाली में अमृत-समान खीर देते हुए भी जी हिचकता था उनको जब पत्तों के [ १४५ ]दोनों में जंगली फल देना पड़ता है और जब आपकी प्यास बुझाने के लिए तालाब से कमल के पत्तों में पानी लाना पड़ता है तब मेरा कलेजा फटने लगता है।

नल---नहीं रानी! इसमें मुझे रत्ती भर भी दुःख नहीं। यदि दुःख है तो पराधीनता के अन्न में। रानी! वन में विचरनेवाले पक्षी को सोने के पींजरे में बन्द करके राज-भोग देने से कहीं वह प्रसन्न रह सकता है? प्यारी! मुझे ऐसा करने को मत कहना।

दमयन्ती और कुछ नहीं कह सकी। उसने राजा की उदास सूरत देखकर एक बूँद आँसू ढलका दिया।

नल ने सोचा कि इस अवस्था में कुछ दिन के लिए दमयन्ती को छोड़ने के सिवा और कोई उपाय ही नहीं है, किन्तु दमयन्ती मुझे इस तरह छोड़ेगी थोड़े ही; वह तो मुझे छोड़कर नैहर भी नहीं जाना चाहती। तब मेरी इच्छा कैसे पूरी होगी? इस प्रकार सोच-विचार-कर नल ने स्थिर किया कि दमयन्ती को ही छोड़ जाना होगा; बिना इसे छोड़े इस अपार विपत्ति-सागर से किसी तरह पार नहीं हो सकूँगा। उनके मन में एकाएक यह बात आई कि ख़ूँखार जानवरों से भरे जंगल में दमयन्ती को अकेली छोड़ जाय तो वह अपनी रक्षा कैसे करेंगी! फिर उन्होंने सोचा कि 'विपत्ति में फँसे हुए की रक्षा धर्म ही करता है।' हिम्मत से छाती को पक्की कर महाराज नल ने अपना कर्तव्य स्थिर करते हुए कहा-दमयन्ती! यह जो जंगल दिखाई देता है इसके उत्तर तरफ़ से एक रास्ता पूर्व को गया है। वही विदर्भ जाने का रास्ता है। बहुतसे व्यापारी और तीर्थ के यात्री उस रास्ते से आया-जाया करते हैं।

दमयन्ती ने घबड़ाकर कहा---"क्यों महाराज! दासी से ऐसी बात क्यों कहते हैं? क्या आप मुझको छोड़कर चले जायँगे? क्या [ १४६ ]आप मेरे किसी व्यवहार से दुःख पाते हैं? महाराज! मैंने जान-बूझकर तो कोई अपराध किया नहीं है, अगर भूल से कुछ कुसूर हो गया हो तो क्षमा कीजिए। मुझे चरणों से अलग मत कीजिए, मैं आपके ही आसरे में हूँ। इस पतलीसी बेल को तरुवर से अलग करके धूल में मत मिलाइए।" तदनन्तर दमयन्ती आँसुओं की धारा बहाने लगी।

नल चुप हैं। घोर चिन्ता से पागल हो रहे हैं। फूलसी कोमल दमयन्ती उनके चरणों में गिरकर रोने लगी।

नल ने कुछ सँभलकर कहा---प्यारी! तुम घबराती क्यों हो? मैं तुम्हें छोड़ना नहीं चाहता। मैं आत्मा को त्यागकर जीता भले रह जाऊँ, पर तुमको छोड़कर मैं जीता नहीं रह सकता।

दमयन्ती ने कहा---महाराज! अगर आप मुझे छोड़ना नहीं चाहते तो फिर आपने विदर्भ का रास्ता क्यों बताया? मैं आपकी उदासीनता देखकर घबरा रही हूँ। जान पड़ता है कि आप मुझे छोड़कर चले जायँगे।

नल ने किसी तरह दमयन्ती को ढाढ़स दिया।

[ १० ]

क दिन गहरी रात को नल ने देखा कि दमयन्ती सोई हुई है। दमयन्ती की नींद से अलसाई हुई भुजाएँ नल के शरीर से अलग हो पड़ी हैं। भागने का यही अच्छा मौका है। नल ने इधर-उधर दृष्टि घुमाई तो सामने एक छुरी नज़र आई। उसे देखकर नल ने सोचा कि दमयन्ती को छोड़ देना ही विधाता को मंजूर है। नहीं तो इस घने वन में छुरी कहाँ से आ गई। यह सोचकर, नल ने उस छुरी से रानी की आधी सारी फाड़ ली। आज महाराज नल मानो बन्धन से छूट गये हैं। वे सोचने लगे, कहाँ जाऊँ। इस अँधेरी रात में, तरह [ १४७ ]तरह के भयानक जन्तुओं से भरे हुए घने वन में, दमयन्ती को अकेली छोड़कर कैसे जाऊँ? एक बार उन्होंने सोचा, नहीं जाऊँगा। फिर सोचा नहीं, ऐसी असहाय अवस्था में दमयन्ती को छोड़ जाने के सिवा भाग्य के साथ लड़ाई करने का और कोई उपाय नहीं है। इसलिए दमयन्ती को छोड़कर जाना ही पड़ेगा। फिर सोचा---यह बेचारी मेरे विरह में चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा देखेगी और मेरी प्यारी भूखों मरकर या फाँसी लगाकर प्राण अवश्य ही तज देगी। मुझे राजपाट से कुछ काम नहीं। देवी के समान यह स्त्री ही मेरा सर्वस्व है। इसको छोड़कर मैं इन्द्रासन भी नहीं चाहता। मेरे लिए तो यही पारस पत्थर है। मेरी दरिद्रता के अँधेरे में ऐश्वर्य का प्रकाश दमयन्ती से अवश्य ही चमक उठेगा। हृदय! शान्त हो; सारी दुनिया एक तरफ़ और अकेली दमयन्ती एक तरफ़। दमयन्ती को नहीं छोड़ सकूँगा।

आशा की सन्तोष देनेवाली एक शक्ति अचानक फिर जाग उठी मानो कोई वाणी हृदय में लगातार गूँजने लगी कि 'सामने तुम्हारा भयंकर कर्तव्य है, पत्नी के प्रेम में फँसकर अपने कर्तव्य को मत भूलो। तुम राजा हो, तुम्हारे लिए हज़ारों प्राणी रोते हैं। एक आदमी को रुलाई के पीछे हज़ारों आदमियों की रुलाई को बिसारना राजनीति नहीं।' नल ने सोचा कि मेरी सन्तान-समान प्रजा दुष्ट भाई के अत्याचार से दुखी होकर ज़रूर कलपती होगी; यदि ऐसा न होता तो मेरे चित्त में आज ऐसा भाव उठता ही क्यो? यह सोचकर नल उठ बैठे। उन्होंने हाथ जोड़कर पत्नी को सम्बोधन करते हुए मन ही मन कहा---"देवी! मेरा अपराध न मानना। कठिन कर्तव्य की पुकार से ही मैं तुमको छोड़ता हूँ। हे धर्म! तुम मेरी दमयन्ती की रक्षा करना। हे वन-देवी! मैं तुम्हारी पवित्र गोद में अपनी प्यारी प्राण-सम्पत्ति को रक्खे जाता हूँ; दरिद्र की इस थाती को हिफ़ाज़त से [ १४८ ]रखना। हे भगवन्! तुम्हारे चरणों में दमयन्ती को सौंपे जाता हूँ। आज तुम्हारे ही पवित्र बुलावे से मेरा मोह-जाल कट गया है। मैं सुनता हूँ कि हज़ारों प्राण मेरे लिए रोते हैं। प्रभो! यह मेरे मनुष्यत्व की परीक्षा है। यह तुम्हारा ही पवित्र बुलावा है। इसलिए मेरी दमयन्ती का मंगलमय भविष्य तुम्हारे ही मंगल-पूर्ण हाथ में है।" अब नल चलने लगे। वे एक पग चलकर फिर पीछे देखते हैं; फिर दो-तीन पग बढ़कर पीछे उलटकर देखते हैं कि दमयन्ती ज्यों की त्यों सोई है कि नहीं!

इस संसार में प्रीति का खिंचाव ऐसा बलवान् है कि वह किसी तरह नहीं हटता। महाराज नल सब समझ-बूझकर भी फिर दम- यन्ती की ओर लौटे। फिर सोचा---यह क्या? कहाँ जाता हूँ? मेरे जाने का रास्ता तो पीछे है। फिर दो-तीन पग बढ़े। अब उन्होंने सोचा कि मुझे इस खिंचाव को तोड़ना ही चाहिए। हृदय! शान्त हो जाओ, तुम्हारे इस भयङ्कर कर्म के भरोसे ही मेरा भविष्य और सैकड़ों प्रजाओं का सुख-दुख है। धीरे-धीरे नल अँधेरे में छिप गये। जहाँ तक नज़र पहुँचती है वहाँ तक वे एक-एक बार पीछे फिरकर देख लेते हैं कि दमयन्ती मेरे पीछे-पीछे तो नहीं चली आती है। पैरों के तले पेड़ों के जो पत्ते दबते थे उनकी आवाज़ से वे समझते थे कि दमयन्ती, नींद टूटने पर, मुझे न देख घबड़ाकर मुझे पकड़ने के लिए दौड़ी आ रही है, किन्तु कुछ ही देर बाद उन्होंने सामने से एक जंगली जानवर को जाते देखा।

घोर अँधेरा है, कुछ भी दिखाई नहीं देता। नल ने उसी अँधेरी रात में आकाश की ओर आँखें उठाकर सात-ऋषियों के मण्डल को देखा और ध्रुव तारे को पहचानकर, जिधर को जाना था, उधर जाने लगे। एक और पत्नी की हालत की और दूसरी और हज़ारों प्रजाओं [ १४९ ]के रोने की याद आने से महाराज नल का धीरज जाता रहा। परोपकारी मनुष्य का हृदय दूसरे के दुःख में अपने सुख और शान्ति को---दुनिया को भी---लात मारकर कर्तव्य के मार्ग में दौड़ता है। इस गति को रोकना विधाता के लिए भी कठिन-सा जान पड़ता है। गङ्गाजी की जोरदार धारा रोकने में मतवाले गजराज के भी छक्के छूट जाते हैं। जिस काम में भरपूर मङ्गल है वह ज़रूर पूरा होगा, विधाता के राज्य में, इसमें तिल भर भी इधर-उधर नहीं हो सकता। इसी से आज नल का हृदय खुला हुआ है, इसी से आज उनका चित्त जीत के पागलपन से मतवाला हो रहा है, इसी से वे प्राण से भी प्यारी पत्नी के प्रेम-बन्धन को तोड़कर परोपकार के मार्ग में सुध-बुध भूले हुए एक असहाय राहगीर हैं।

नल ने धीरे-धीरे एक भयङ्कर वन में घुसकर देखा कि एक जगह दावाग्नि जल रही है। उस आग के भीतर से कोई जीव गिड़-गिड़ाकर उनसे सहायता माँग रहा है। परोपकारी नल का हृदय इससे दुखी हुआ। उन्होंने देखा कि एक बड़ा भारी अजगर आग के बीच में पड़ा है, उससे चला नहीं जाता। अगर वह तुरन्त वहाँ से न हटा लिया जाय तो जलकर राख हो जायगा। यह समझकर, नल झटपट उस आग में घुसकर उस साँप को बाहर निकाल लाये। बाहर निकलते समय आग की लपट उनकी देह में लग गई। एक जीव की रक्षा करने से उनको जो सन्तोष हुआ था उसके सामने आग की लपट किसी गिनती में नहीं थी, किन्तु हाय रे दुर्दैव! निठुर साँप ने उनको काट लिया, तो भी महाराज नल ने उसको फेंक नहीं दिया, वे उसे ऐसे स्थान में ले आये जहाँ वह अाफ़त से बचा रहे। नल ने देखा कि साँप के काटने से प्राण जाने का डर नहीं है, किन्तु उनकी देह उस साँप के विष से तुरन्त भद्दे रंग की और टेढ़ी हो [ १५० ]गई। उन्होंने सोचा कि वेष बदलते वक्त मेरे शरीर की यह हालत मेरे लिए बहुत अच्छी है।


इतने में महाराज नल ने सुना---हे नल! चिन्ता छोड़ो। मेरे विष से तुमको कोई दुःख न होगा। मैं कर्कोटक हूँ। हे राजन्! मैं तुमको ये दो कपड़े देता हूँ; इनसे बदन ढकने पर तुम अपनी पहले की कान्ति फिर पा जाओगे। तुम कोशल-पति महाराज ऋतुपर्ण के जल्दी सारथि बनो। तुम्हारा यह कुरूप चेहरा और कूबरपन वेष बदलने का बड़ा उम्दा ज़रिया है। हे राजा नल! मेरे काटने को विधाता की ही शुभ आज्ञा समझना।" यह कहकर कर्कोटक एकाएक ग़ायब हो गया।

नल दोनों कपड़ों को लिये हुए राजा ऋतुपर्ण के पास पहुँचे और राजा से सारथि की जगह देने के लिए प्रार्थना करते हुए बोले--- "राजन्! मैं घोड़ों को चाल सिखाने में बड़ा चतुर हूँ। मैं निषध- नरेश नल का सारथि रह चुका हूँ।" ऋतुपर्ण ने खुशी से उनको सारथि की जगह पर भर्ती कर लिया।

[ ११ ]

धर दमयन्ती ने नींद टूटने पर देखा कि पूर्व दिशा में उषा की लाली छा रही है, किन्तु बग़ल में घोर अँधेरा है! महाराज कहाँ हैं? वे कहाँ गये? एक बार सोचा कि पास ही कहीं गये होंगे, अभी आते होंगे, किन्तु बहुत देर हो गई, अभी तक नहीं आये! तब क्या वे मुझे छोड़कर कहीं चले गये? हाय! हाय! ऐसा भी कही हो सकता है? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। वे अभी आवेंगे, आशा तो उसे ढाढ़स देने लगी, किन्तु हृदय साफ़ कहने लगा कि नल तुम्हें छोड़कर चले गये। [ १५१ ]धीरे-धीरे जब बहुत समय बीत गया, तब दमयन्ती घबराकर उसी वन में नल को ढूँढ़ने लगी। जल्दी-जल्दी चलने से, उसके सिर के बाल खुल गये। वह इधर-उधर भटकने और ज़ोर-ज़ोर से कहने लगी---"हे नाथ! आपके प्रताप से डरकर शत्रु हथियार रख देते हैं, आपके बर्ताव से मित्र का हृदय शीतल होता है, फिर आप मुझको इतना क्यों सताते हैं? मैंने आपके चरण-कमलों में ऐसा क्या अपराध किया है जिसके लिए आपने मुझे छोड़ दिया? हे शास्त्रों के जानकार! आपने बहुतसे धर्म शास्त्र पढ़े हैं, किन्तु उनमें क्या कहीं पति की भक्त स्त्री को छोड़ देने की बात देखी है? आप जिसको इतना प्यार करते थे उसे ही अकेली छोड़कर क्यों चले गये?" दमयन्ती रोने लगी।

दमयन्ती रोती-राती समझ गई कि निठुर देवता की कठिन आज्ञा से महाराज नल ने ऐसा किया है। यह भी उसी की चाल है। यह सोचकर दमयन्ती कहने लगी---हे पापी प्राण! तू अब किस लिए पड़ा है? तेरे जीवन की सब साध तो पूरी हो चुकी। तू जल्द निकल जा। सब गुणों के जाननेवाले मेरे देवता-समान स्वामी तेरे कारण दुःख की आग में झुलस रहे हैं। हे राजन्! तुम तो दुखिया को सहारा देते हो। किसी के आँसू देखने से तुम्हारा धीरज छूट जाता है। आज तुम्हारी दमयन्ती रो-कलप रही है। क्या तुम मन की आँखों से यह नहीं देखते हो?

इस प्रकार विलाप करती-करती दमयन्ती पगली की तरह वन में चारों ओर घूमने लगी। कहीं मृग को देखकर वह पूछती है---"हे हिरन! तुम लोग वन में चारों ओर घूमते हो, तुमने कहीं मेरे हृदय-नाथ को तो नहीं देखा है?" वह एक अशोक के पेड़ के नीचे पहुँच कर बोली---हे अशोक! तुम स्त्रियों को बहुत प्यारे हो; देखो, मैं [ १५२ ]अभागिनी पति के वियोग में बहुत दुःख पा रही हूँ; दया करके मेरा शोक तो मिटाओ। मुझे बता दो कि मेरे प्राणप्यारे कहाँ हैं।

शोक से व्याकुल दमयन्ती इस प्रकार विलाप करते-करते एक भयानक अजगर के मुँह में जा पड़ी। साँप को मुँह फैलाकर निगलने के लिए आते देखकर दमयन्ती का प्राण सूख गया। उस बेचारी ने सोचा कि हाय! हाय! मनुष्यों में देवतारूप प्राणनाथ की प्रेमभरी गोद से अलग होकर अन्त को साँप के मुँह में जाना पड़ा! महाराज के प्रति मेरा कर्तव्य अभी पूरा नहीं हुआ। इस प्रकार सोचकर वह जान लेकर भागी, किन्तु लगातार तीन दिन तक भूखी रहने से उसकी देह धीरे-धीरे बेक़ाबू हो गई थी। इससे दमयन्ती और भाग नहीं सकी। वह दुष्ट अजगर के मुँह के सामने जा पड़ी। अचानक एक व्याध ने वहाँ पहुँचकर, अजगर के मुँह में एक तेज़ हथियार मारा। साँप मारा गया। जान बचानेवाले के प्रति दमयन्ती एहसान प्रकट करने लगी।

अब दमयन्ती एक और नई आफ़त में पड़ी। दुष्ट बहेलिया दम- यन्ती को साँप के मुँह से बचाकर, उसके अनोखे रूप को देखते ही, बोला---अजी! मैं तुमको देखकर लट्टू हो गया हूँ। तुम मेरे ऊपर कृपा करो।

दमयन्ती ने कहा---तुमने मेरा प्राण बचाया है, तुमने मुझे साँप के मुँह से बचाकर नया जन्म दिया है, इसलिए तुम मेरे पिता-समान हो। तुम ऐसी बुरी बात क्यों कहते हो? मेरे आदर्श-चरित्र स्वामी मुझको छोड़कर चले गये हैं, उनके लिए मैं मौत से बढ़कर कष्ट पा रही हूँ। दया करके बताओ कि इस वन में तुमने उनको कहीं देखा है?

शिकारी चुप था। दमयन्ती की सुघड़ाई उसको मारे डालती थी। उसने कहा---अरी सुन्दरी! मैं नहीं समझता कि तुम क्या कहती [ १५३ ]हो; तुम मेरे घर चलो, अपने निर्दयी स्वामी को भूल जाओ। मैं प्राण देकर तुम्हारी पूजा करूँगा।

यह बात सुनकर दमयन्ती के क्रोध की आग भड़क उठी। क्रोध के मारे सती का शरीर थर-थर काँपने लगा।

उसके दोनों नेत्र अग्नि की तरह चमक-चमककर, महिषासुर के युद्ध में देवी के नेत्रों की तरह, नाचने लगे। सती दमयन्ती की देह से निकली हुई क्रोध की अग्नि में जलकर शिकारी भस्म हो गया।

इस प्रकार, व्याध के हाथ से बचकर, दमयन्ती सोचने लगी कि अब कहाँ जाऊँ, कहाँ जाने से प्राणनाथ को पाऊँगी। यह सोचकर वह रोते-रोते वन के उत्तरी हिस्से में गई। वहाँ उसने देखा कि एक सीधा रास्ता सामने से चला गया है और उसी रास्ते से कई व्यापारी व्यापार करने जा रहे हैं। दमयन्ती उन व्यापारियों के साथ हो गई। बनियों के मुखिया ने उसको ढाढ़स दिया और दूसरे बनियों ने उसका आदर किया।

धीरे-धीरे रात हुई। सब लोगों ने आराम करने के लिए एक तालाब के किनारे बैलों का बोझा उतार दिया और माल को बीच में रखकर सब लोग सो गये। दमयन्ती एक तरफ़ धूल में लेट रही। जब आधी रात को सब व्यापारी सो गये तो कुछ जङ्गली हाथी तालाब में पानी पीने आये। किनारे पर लदे हुए बैलों और बनियों को देखकर वे क्रोध से गरजने लगे। बँधे हुए बैलों से जंगली हाथियों की लड़ाई छिड़ गई। बहुतेरे व्यापारी उन लड़ते हुए पशुओं के पैरों तले कुचलकर मर गये। नादान बनियों ने सोचा कि बुरे लक्षणोंवाली इस स्त्री के साथ रहने से ही देवता लोग नाराज़ हो गये हैं। इसलिए, इसको तुरन्त मार डालना चाहिए; नहीं तो हम लोग देवता के कोप से छुटकारा नहीं पावेंगे। दमयन्ती ने उन लोगों की यह सलाह सुन ली। बस, वह