आदर्श हिंदू १/१४ ब्रजयात्रा की झलक और कृष्णचरित्र
प्रकरण―१४
ब्रजयात्रा की झलक और कृष्णचरित्र।
"क्यों चौबे जी महाराख? कल वहाँ से भाग गयों आए?"
"भाजि का आयो जजमान? न भाजि आतो तो तुम्हारी न्याँईं मेरी हू गत बनाई जाती! डरिके भाजि आयो। मार के आगे तो भूत हू भाजै है! तामें मेरी सुलच्छनी के तो मैं एक ही हूँ!"
"और औरों की सुलक्षणियों के (प्रियंवदा की ओर मुस- कराकर) क्या बीस बीस होते हैं? क्यों सुलक्षणी?"
"हाँ! सुलक्षणी वही जो पति की झाडू से पूजा करे। (पति की ओर हँसती हुई) बस ये ही सुलक्षणी के लक्षण हैं।"
"और बीस बीस रक्खे!"
"काला मुँह ऐसी सुलक्षणी का!"
"नहीं माई? सवेरे ही सवेरे वाको कारो मुँह मति करो। मेरो तो वही अन्नदाता है। वाही के भाग तें अन्न मिलै है।"
"तब ही तो वह तड़के ही तड़के झाडू से खबर लेती है। (पति से चार नजरें होते ही होठों ही होठो मैं) आप भी एक ऐसी सुलक्षणी रखिए।
"तू ही (प्यारी की ओर हँसकर उसी तरह से) वन जा। आज दिन भी अच्छा है! अभ्यास न हो तो चौबायिन से सीख ले।"
इसका पंडितायिन ने कुछ उत्तर न दिया। आँखों ही आँखों में पति को उलहना देकर कुछ हँसते और कुछ लजाते हुए सिर झुका लिया। तब फिर पंडित जी ने चौबे जी से कहा―
"क्यों बंदर महाराज? कल आपने हमको पिटवा तो दिया परंतु यहाँ कहीं के दर्शन नहीं करवाए। यहाँ के समस्त मुख्य मुख्य मंदिरों के, श्री कृष्ण भगवान के लीलास्थलों के और सबही तीर्थों के दर्शन करवाओ। फिर आपको साथ लेकर वनयात्रा भी करेंगे।"
"अच्छो जजमान! पर हमारी बूटी की याद रखियो।"
"बूटी एक बार नहीं, नित्य तीन बार छानियो और सो भी मीठी और खूब मसाला डालकर?"
"जमुना मैया तुम्हारो भलो करै। याते विसेख हमें कछू नहीं चाहिए।"
इसके अनंतर मथुरा, वृंदाबन, गोकुल, महाबन, दाऊजी, गोवर्द्धन, नंदगाँव, बरसाने आदि भगवान के लीलास्थलों के दर्शन में जो जो इन्हें अनुभव हुआ उसे यहाँ लिख कर इस पोथी को पोथा बना देने की मेरी इच्छा नहीं। ब्रजमंडल की चौरासी कोश की बनयात्रा में कौन कौन से स्थान दर्शनीय है, किस किस स्थान पर भगवान ने कौन कौन लीला की है और किस किस जगह क्या क्या करना होता है, इत्यादि बातें जानने के लिये मथुरा में "बनयात्रा" की अनेक छोटी मोटी पुस्तकें मिल सकती हैं। इन्होंने यहाँ के गुण दोषों का जैसा कुछ अनु- भव पाया वैसा प्राप्त करने का काम या तो यात्रा ही करने से हो सकता है अथवा इस विषय पर कोई स्वतंत्र पुस्तक लिखी जाय तो हो सकता है। मुझे अभी इन्हें बहुत दूर तक ले जाकर घर पहुँचाना है और भी कई एक घर गृहस्थी की बातें दिखलानी हैं इसलिये पाठक महाशय क्षमा करें।
इन्हें इस यात्रा में भले और बुरे सब तरह के मनुष्य मिले। भले मिले तो यहाँ तक कि जिन्हें भगवती मार्तंडतनया में स्नान कर, यमुना की रेणुका में लोटने, भगवान श्री कृष्णचंद का भजन करने और दो मुट्ठी चना चबा कर लोटा भर जल पीने के सिवाय कुछ काम नहीं, पैसा, दो पैसा और रुपया दो रुपया तो क्या यदि हजार रुपये भी कोई देने को तैयार हो जाय तो उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखें। और बुरे मिले तो ऐसे कि एक एक पाई के लिये मूड़ चीरनेवाले, चोरी और उठाई- गीरी में उस्ताद "मुख में राम बगल में छुरा" वाले ढ़ोगी साधु। इन्हें यदि संतोषी मिले तो ऐसे कि तीन मील तक आपके इक्के के साथ दौड़े जाने के अनंतर आपने जो एक पैसा फेंका उसकी तीन पाइयाँ बाँट कर चचप हो जानेवाले और असंतुष्ट, उचक्के मिले तो यहाँ तक कि यदि आप पैसा न दो तो गालियाँ दें और जो कहीं आप उन्हें आँखें दिखाना चाहो तो आप की पगड़ी उतार लें! खैर! इन सब बातों का इन्होंने बह परिणाम निकाला कि―
"मथुरा में आज कल के जमाने की सी जितनी बनावट है गाँवों में उतना ही सीधापन है। वास्तव में यह श्रीकृष्ण का लीलाकेंद्र है। ब्रजवासी अवश्य ही धन्य हैं जो यहाँ जन्मते और यहीं मरते हैं। ब्रजभूमि में जन्म लेने में भी आनंद और मरने में भी आनंद। यमुना मैया की रेणुका में लोटने से वस्तुतः दैविक, भौतिक और दैहिक ताप दूर होते हैं। भगवान बलदाऊ जी के दर्शन कैसे अलौकिक हैं! उनकी मूर्ति में आहा! कैसी आकर्षिणो शक्ति है? गिरिराज के दर्शन करते ही जब गोवर्द्धन धारण का दृश्य मेरी आँखों के सामने आ खड़ा हुआ तब जैसा आह्लाद हुआ है वह मेरे वर्णन करने की शक्ति से बाहर है! अहा! वृंदावन के हरि मंदिर! बस कमाल हैं। इस उमर में यदि श्रीकृष्ण की लीला का सच्चा चित्र देखना हो तो वृंदावन! कुसुम सरोवर पर महात्मा उद्धव जी के दर्शन! बलिहारी! वहाँ के कदंबकुंजों में पहुँचते ही मेरा मन मोहित हो गया। चित्त ने चाहा कि बस यहीं सब तज और हरि भज। यदि कोई संसार से विरागी होकर बनों में विचरना चाहे तो यह स्थान मेरी लघुमति में हरिद्वार से भी श्रेष्ठ है। हरिद्वार में चाहे और स्थलों से कम ही क्यों न हो किंतु थोड़ा बहुत आज काल के तीर्थों का सा प्रपंच है और यहाँ प्रपंच का लेश नहीं। इसके अतिरिक्त चीर घाट और रासलीला, ये दोनों स्थल तो मुझे आजीवन स्मरण रहेंगे? मेरी तो यही इच्छा होती है कि बस हो गई तीर्थयात्रा! इससे बढ़कर क्या होगा। अब कुछ नहीं चाहिए। अब चाहिए केवल बन- वारीलाल शोला के शब्दों में―
गजल―
"अफसोस भरी नाथ सुनो मेरी भी हालत,
पापी हूँ मुझे अर्ज से आती है खिजालत,
कैदी की तरह उम्र कटी मोह के बस में
पावद किया लोभ ने बेदाना कफस में,
हरेक धड़ी गुजरती है दुनिया की हबस में,
हरेक दिन भी नहीं काम का हर माह बरस में॥१॥
एक वक्त का तोशा नहिं औ सर पै सफर है,
पापों का बड़ा बोझ है व शिकस्ता कमर है,
हूँ आपके चरणों से लगा जान लो इतना,
कुछ और नहीं चाहता पर मान लो इतना॥२॥
जिस दम मेरी उम्मेद से घरवालों को हो यास,
सब दूर हों सरकार ही सरकार ही इक पास,
फैली हुई श्रृंगार के फूलों की हो बू बास,
मुरली की सदा कान में आती हो चपो रास॥३॥
हो जाउँ फना पाऊँ जो इतना मैं सहारा,
जब बंद हो आँखें तो मुकुट का हो नज़ारा,
दम लव पै हो सीने में तसव्वुर हो तुम्हारा,
मिट कर भी जुदाई न हो चरणों की गवारा॥४॥
जो ब्रज की रज है वही खाके कफे पा है,
मिट्टी यहाँ रह जाय तो वैकुंठ में क्या है?
रोशन है कि यह सिजदह गहे अहले यकीं है,
जो जर्रा है याँ खातमे कुदरत का नगीं है॥५॥
उठा है यहीं आके नकाबे रुखे तौहीद,
हर वक्त नज़र आता है यां जलवरा जावीद,
जो खाक में याँ मिल गए किस्मत है उन्हीं की,
जो मिट गए याँ आके हकीकत है उन्हीं की,
गलियों में याँ घिसटते हैं जिन्नत है उन्हीं की,
जो भीख का याँ खाते हैं दौलत है उन्हीं की,
यो ताज शाही पर भि कभी हाथ न मारैं,
दुनिया को मिलै तख्त तो इक लात न मारैं॥७॥
कह सक्ता हूँ क्या ब्रज की खूबी व लताफत,
वह आँख नहीं जिसमें हो नज्जारे की ताकत,
मैं यह भी नहीं चाहता बिगड़ी को बनाओ,
मैं यह भी नहीं चाहता तकलीफ उठाओ॥८॥
पर कुछ तो मेरे वास्ते तदबीर बताओ,
इतना भी नहीं हूँ जिसे चरणों से लगाओ,
नक्शे कफे पा फूँक निकलने को तो मिल जाय,
दो हाथ जमी ब्रज मैं जलने को तो मिल जाय॥९॥
देखो न खुदाई की करामात बिगड़ जाय,
ऐसा न हो शोले की कहीं बात बिगड़ जाय*॥१०॥
- रागरत्नागर से। क्यों ठीक है ना? उनके भाग्य धन्य हैं। उनको अवश्य
महात्मा ही कहना चाहिए जिन्हें इस पवित्र ब्रज भूमि में मरना नसीब हो। यहाँ ऐसे भी लोग हो गए हैं जिन की इच्छा से उनका शव वैकुंठी बनाने के बदले इस गोलोक में टाँग पकड़ कर घसीटा गया है। भगवान ऐसा नसीब दे तब जन्म लेना सार्थक है, क्यों?"
"आपका कहना सब ही यथार्थ है परंतु ऐसी कड़ुवी बात कहकर मेरा कलेजा न छेदो। हाँ! इतनी मेरी भी इच्छा होती है कि अभी नहीं, बुढ़ापे में ब्रजभूमि का निवास और आपके चरणों की सेवा। नाथ! वैष्णव मुक्ति नहीं माँगते। उनके लिये इस ब्रजभूमि के आगे स्वर्ग भी तुच्छ है―मोक्ष भी रद्दी है। उनका सिद्धांत है कि कहा करो बैकुंठे जाय, वहाँ नहीं बंशीवट, यमुना, गिरिगोबर्द्धन, नंद की गाय।"
"वास्तव में यथार्थ है। तेरा कहना सत्य है। जो आनंद जन्म जन्मांतर तक इस ब्रजभूमि में विचर कर भगवत् स्मरण करने में है वह स्वर्ग में कहाँ! था तो मुसलमान परंतु नब्बाब खानखाना (रसखान) भी कैसा कह गया है? उसका "एक एक बोल लाख लाख का मोल" है। उसने कहा है―
सवैया―
"मानुष होहुँ वही रसखान
बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पशु होऊँ कहा बश मेरो,
चरौं पुनि नंद की धेनु मझारन।
पाहन होहुँ वही गिरि को
जो कियो व्रज छत्र पुरंदर धारन।
जो खग होऊँ बसेरो करौं
वाहि कालिंदि कूल कदंब की डारन।*"
"बेशक ठोक है! यही चाहिए परंतु नाथ मेरे ओछे चित्त में एक बड़ा भारी संदेह है। एक, नहीं दो? दासी का अपराध क्षमा करना! बहुत दिनों से पूछने की इच्छा थी। संदेह यही कि चीरहरण लीला में गोपियों को नंगी देख कर श्रीकृष्ण ने क्यों उनकी लज्जा लूटी और उनका गोपिकाओं के साथ विहार, व्यभिचार क्यों नहीं कहलाता। मैं तर्क करके नहीं पूछती। तर्क श्रद्धा की जड़ नष्ट कर देता है और श्रद्धा चली जाने से मनुष्य का सर्वनाश है।"
"हाँ! मैं जानता हूँ कि तू श्रद्धावती है और धर्म पर श्रद्धा रखकर संदेह मिटा खेना अच्छा ही है परंतु तेरे प्रश्न बहुत ही बड़े हैं, थोड़ी सी देर में उत्तर देना और सो भी ऐसा जिस से तेरा पूरा संतोष हो जाय जरा टेढ़ी खीर है। यह भगवान की लीला है। इस का मर्म बहुत गंभीर है। जिन लोगों की बुद्धि बहुत साधारण है वे उस धर्म को न समझ कर ही था तो इस बात को ही गप्प, पोपलीला बत- लाते हैं अथवा श्रीकृष्ण भगवान को व्यभिचारी बतलाकर हिंदू समाज की मूर्खता पर तालियाँ पीटते हैं। यह उनकी भूल है कम समझ है। जब वेदादि शास्त्रों में उनके उत्कृष्ट चरित्र से और युक्ति प्रमाणों से सिद्ध है कि श्रीकृष्ण परमेश्वर का अवतार हैं, अवतार कथा अवतारी, फिर यदि उन स्त्रियों में उनकी सेवा में सर्वस्व अर्पण कर दिया तो व्यभिचार क्योंकर हुआ? व्यभिचार एक परस्त्री का दूसरे पर-पुरुष के संपर्क से पैदा होता है किंतु यहाँ श्रीकृष्ण जगत्पति, उनके परम पति थे। उनके पति भी जब अनेक होने पर भी सब श्रीकृष्णमय थे, जैसे सूर्य एक होने पर भी अनेक घटों में भिन्न भिन्न दिखलाई देता है वैसे ही वे एक होकर अनेक दिखलाई देते थे और सब ही श्रीकृष्णावतार थे तब व्यभिचार क्योंकर हुआ। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने जैसे नारद जी को द्वारका में अपनी पत्नियों के यहाँ एक साथ भिन्न भिन्न रूप में दर्शन दिए थे वैसी ही यह लीला है। दूसरे उन गोपिकाओं में कोई श्रुतिरूपा थी और कोई ऋषिरूपा। वेद भगवान और वेद की ऋबाएँ श्रुतिरूपा। रामावतार में जिन ऋषियों ने भगवान से बरदान माँगा कि "हम आप के साथ प्रेम करें।" उन्होंने प्रेम किया। जिन्होंने उनकी पत्नी होना चाहा वे पत्नी हुई। फिर भगवान की मुरली के मनोमोहक नाद से विह्वल होकर जो गोपियाँ उनके पास दौड़ी आईं उनसे (भागवत देखो)श्रीकृष्णचंद्र ने पहले स्पष्ट ही कह दिया था कि तुम अपने अपने घर जाकर अपने अपने पतियों को भजो क्योंकि तुम्हारी गति तो तुम्हारे पति ही हैं, पति ही परमेश्वर है। परंतु उन्होंने इस उपदेश को गृहण नहीं किया। उन्होंने जैसे प्रश्न का उत्तर भी वैसा ही दिया। उन्होंने भी स्पष्ट कह दिया कि―"नाथ, हम ऐसे उपदेशों की अधिकारिणी नहीं हैं। हमारे तो परमेश्वर ही पति हैं और परमेश्वर ही गति है।" तब उनके साथ रासक्रिया की। किंतु क्या रासलीला व्यभि- चार है। आज कल "बाल" में पर पुरुष के साथ कमर मिला कर नाचना व्यभिचार नहीं और एक अकेले ग्यारह वर्ष के बालक का सहस्त्रावधि स्त्रियों के साथ नाचना व्यभिचार! यह किस प्रामाणिक ग्रंथ में लिखा है श्री कृष्ण अमुक अमुक गोपी के साथ अमुक अमुक समय………"
'क्षमा कीजिए। लिखा क्यों नहीं है। एक भागवत में न सही और तो अनेक ग्रंथों में हैं। (पत्ति के नेत्रों को उलझा कर होठों ही होठों में हँसती हुई सिर झुका कर) ऐसी ऐसी लीलाएं हैं जिनसे मन का भाव और का और हो जाय, भगवान मकरकेतु तुरंत ही हृदय में आ बिराजें।"
"तात्पर्य तो वही है जो मैं अभी कह चुका। और बेशक हँसी दिल्लगी की, छेड़ छाड़ की और विलास विहार की भी अन्य ग्रंथों में कमी नहीं है किंतु मूल उन सब का वही है। इसके सिवाय इसमें कुछ अध्यात्म भी है जो अवकाश के समय विस्तार से समझाने का है। अच्छा थोड़ी देर के लिये मान लिया जाय कि यह कवियों की कल्पना है परंतु यदि कवियों की कल्पना के घोड़े इतनी दूर तक जा पहुँचे तो इसमें दोष ही क्या हो गया? फारसी काव्यों में पहले "इश्क मिजाज़ी" मानुषी प्रेम और फिर "इश्क हकीकी" ईश्वरीय प्रेम दिखलाया जाता है परंतु लोग मिजाज़ी में ही उलझ जाते हैं। हकीकी तक विरलेही पहुँचते हैं। हमारे यहाँ दोनों ही प्रेम एक श्री कृष्ण में ही लगा दिए गए हैं बस इसलिये धर्म का धर्म, और कर्म का कर्म, दोनों साथ साथ होकर शीघ्र ही काम बन जाता है। नायकाभेद में परकीया नायका एक मुख्य अंग है! सब ही भाषाओं के काव्य इस अंग से वंचित नहीं हैं। किंतु जैसा मैं पहले कह चुका विदेशी भाषाओं में एक साधारण पर पुरुष का पर स्त्री से प्रेम पढ़कर अब पाठकों की अनुकरण में प्रवृत्ति होती है तब हमारे संस्कृत के विद्वानों ने, देश भाषाओं के कवियों ने इसका सारा बोझा श्रीकृष्ण पर थोप कर समाज को दुराचार से बचा लिया, क्योंकि भारतवर्ष के इस गए बीते जमाने में भी करोड़ों हिंदू श्री कृष्ण को परमेश्वर मानते हैं और "बड़े कहैं सो करना किंतु करै सो न करना" उनका अटल सिद्धांत है। वे अब भी मानते हैं कि जो छोटी अंगुली पर गोवर्द्धन पर्वत को उठा लेने की क्षमता रखता था, जो महाभारत जैसे भीषण संग्राम में जाकर दुनियाँ को अपनी अंगुली पर नचाता था, जिसे गुरु मृतक पुत्रों को यमराज से छुड़ा लाने की सामर्थ थी, जो जादी के वस्त्र बन गया, उसने ऐसा किया भी तो किया।
जब उसके और कामों को अनुकरण करने की शक्ति नहीं तब ऐसा क्यों करें? बस इसलिये उनके चरित्र में पर- कीया नायका का बिहार, प्रेम पढ़ कर, गा कर और सुन कर भी वे इसे अब भगवत की लीला समझते हैं तो उनका अवश्य उद्धार होता है।"
"हाँ अब समझी! आप ने मेरा संदेह छुड़ा कर कृतार्थ किया, परंतु चीरहरण!"
"चीरहरण में भी आध्यात्मिक रहस्य है और वह भी उसी प्रश्न का उत्तर देने में साथ साथ हल होने योग्य है किंतु चीर हरण से तेरा (हँस कर) मतलब क्या है? क्या तू स्वयं चीरह- रण पसंद करती है?"
"जाओ जी! तुम तो फिर हँसी करने लगे। मैं पूछती हूँ (जरा गंभीर बनकर तिउरियाँ चढ़ाते हुए) श्रीमती प्रियंवदा देवी आज्ञा देती हैं कि भगवान कृष्णचंद्र का गोपियों के वस्त्र चुराने से क्या मतलब था?"
"जो मतलब मक्खन चुराने में था, जो प्रयोजन चित्त को चुराने में था वही वस्त्रों को चुराने में। सात वर्ष के बालक का (मुसकराकर) और क्या मतलब हो सकता है मौज आई और चुराए और सो भी इस लिये चुराए कि आगे से कोई स्त्री जलाशय में नंगी नहा कर बेशर्म न बने। यदि वृंदाबन की तरह पंजाब में श्रीकृष्ण औरतों के इसी तरह वस्त्र छीन लेते तो वहाँ भी कोई स्त्री नंगी न नहाती?"
"हैं पंजाब में (जरा शर्मा कर) ऐली चाल है? आग लगे इस चाल को, गाजपड़े उन औरतों पर। मैं तो तब ही मर जाती तो अच्छा होता।"
बस इस तरह पंडित जी ने अपनी प्राणप्यारी को कृष्ण चरित्र का संक्षेप से अर्थ समझाया। इन्होंने अपनी शक्ति भर शक्ति से अधिक नहीं इस यात्रा के बजट में जितना नियत किया था उतना बंदर चौबे को दे दिला कर, उसके द्वारा चौबाइन के पास पहुँचा कर दंपति को प्रसन्न कर दिया किंतु चौबायिन को परदे की ओट से सुना कर अंत में इतना अवश्य कह दिया कि―
"अब ऐसे लंठ रहने का जमाना नहीं है। यदि तुम्हें अपने यजमान बनाए रखना है तो अपने चिनगी (यही चौबेजी के लड़के का नाम था) को संस्कृत पढ़ाना। अधिक विद्वान हो जाय तो अच्छी बात है। नाम पावेगा। नहीं तो कम से कम इतना अवश्य हो जाना चाहिए कि यह अपना कर्म आप कर सके। तुम्हारी मूर्खता से ही हमें गौड़वोले महाशय को रखना पड़ा। और इसमें तुमने नुकसान नहीं उठाया। यदि तुम्हारी तरह तुम्हारा लड़का भी लंठ रहा तो बस समझ लो कि सब यजमान तुम्हारे हाथ से निकल जाँयगे। क्योंकि किसी दिन ऐसा उद्योग होनेवाला है जिससे मूर्ख पंडों की वृत्ति बंद कर के पंडितों को दी जाय।"
"अच्छो जजमान! तिहारी मर्जी? या छोरा कूँ याकी अम्मा ने पढ़वे बैठारयो तो है पर जजमान याहू हमारी न्याँईं कपूत है। अम्मा तें फीस और किताबन के लिये पैसा मिलै जासों रबड़ी लेकर चाट जावै और जान्नीन तें माँग लावै जो भंग बूटी में, कनकौवा में उड़ा दे।"
"कपूत तू और तिहारो बाप दादा! जजमान तें वा दिना एक रुपैया तैने पायो और सो सिगरो ही यार दोस्तन कूं भंग पियायबे मैं उड़ाय दयो। पूछ अम्मा ते। (हाथ पकड़ कर खैंचता हुआ) क्यों री अम्मा? याने उड़ायो या हमने उड़ायो? हमारे पैसान ते तो घर की साग तरकारी चलै है।"
"झूंटो! बदमाश!!"
"तू झूंटो! तू बदमाश!!"
पुत्र के मुख से गाली के जवाब में गाली सुनकर बंदर को क्रोध आया। बस उसने चिनगी के तान कर एक थप्पड़ माया और वह रो रो कर कान की चैलियाँ उड़ाता हुआ अपनी अम्मा के पास पुकारू गया। इसके अनंतर चौबे जी को क्या दंड मिला सो मालूम नहीं हुआ और न इस बात से अब कुछ विशेष मतलब हो रहा किंतु इतना अवश्य हुआ कि प्रियंवदा ने एकांत में चौबायिन को जो उपदेश किया था उसका इतना असर इनकी वहाँ मौजूदगी में ही देखने में आया कि प्रियंवदा की देखा देखी दूसरे ही दिन से वह बंदर के चरण धोकर पीने लगी। रात को उसके पैर दाबे बिना कभी न सोने की उसने कसम खाली और जिस झाड़ू से पति को मारा करती थी उसे तोड़ मरोड़ कर बाहर फेंक दिया। पहले इनके यहाँ जी कुछ रुपया पैसा आता था वह यों ही भांग के भाड़े में चला जाया करता था किंतु पत्नी के परामर्श से जब बंदर महाराज को जो कुछ मिले वह सब अपनी सुलक्षणी को दे देना और दूसरे भंग घर में पीना, बाहर नहीं―इस तरह दो प्रण कर लिये तो उनकी सुलक्षणी नित्य ही अपने हाथ से दोनों बिरियाँ भंग घोट कर उन्हें पिलाने लगी। ऐसे पैसा पैसा बचते बचते रुपया और रुपये से अशर्फी होते होते बंदर चौबे धनवान बन गए। दंपति पंडित प्रियानाथ जी और उनकी प्राणप्रिया प्रियंवदा को आशीर्वाद देने, उनके गुणों का गान करने लगे। लड़के पर भी उस दिन की पंडित जी की बात असर कर गई।
इस तरह मथुरा के एक बिगड़े घर को सुधार कर पंडित पंडितायिन ने भाई सहित, भगवानदास सहित और बूढ़े की स्त्री लड़के समेत वहाँ से कूंच किया। पंडित पंडितायिन के गुणों को देख कर बूढ़ा भगवानदास तो यहाँ तक लट्टू हो गया था कि बहुत बढ़कर, जब तक इनके पास बैठा रहता, घंटों तक इनके चेहरे की और देखकर मनही मन न मालूम क्या गुनगुनाया करता, बारंबार इनके आगे हाथ जोड़ जोड़ कर सिर झुकाया करता और मौके बेमौके इनसे कहा करता था कि―
"महाराज यह सारी जान्ना आपकी बदौलत है। नहीं तो मुझ जैसे जंगली गँवार को यात्रा कहाँ?" "तुम अपने पैसे से यात्रा करते हो। इसमें मेरा एहसान ही क्या?" कह कर पंडित जी उसे लजाया करते थे।
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