आदर्श हिंदू १/१५ बूढ़े की घबड़ाहट
प्रकरण―१५
बूढ़े की घबड़ाहट।
बूढ़े भगवानदास के गृहराज्य का खाका तीसरे प्रकारण में खैंच कर उसे तहसील के चपरासी के साथ भेज देने बाद वह पंडित जी के साथ तीर्थ यात्रा करने के लिये, भगवती भागीरथी में अपनी बूढ़ी हड्डियाँ डुबो कर देव दर्शनों कृत- कुत्य होने के लिये और इस तरह अपना आपा सुधारने के लिये अवश्य चल दिया और गया सो भी अपने सब काम काज का बोझा बड़े लड़के पर डाल कर, उसे तोते की तरह उसके कामों का सवक रटाते हुए गया। किंतु तहसील में वह क्यों बुलाया गया था और बुलाने के पूर्व उसे ऐसी घबड़ाहट किस बात की थी―इन सवालों के लिये इस जगह थोड़ा बहुत लिख देना ही अच्छा है। इस बीच की घटना यहाँ प्रका- शित कर देने से न तो पाठक महाशय ही उसे भूलने पावेंगे और न उस बूढ़े के अंतःकरण में इस बात का उद्वेग रहेगा, क्योंकि यदि किसी के मन पर थोड़ा सा भी किसी बात का बोझा रहे तो फिर उससे भक्ति नहीं हो सकती। भक्ति जहाँ रहती है अकेली ही रहती है। जिस हृदय में वह निवास करती है वहाँ किसी मनोविकार को, मनोविकार ही क्यों ज्ञान वैराग्यादिकों को नहीं ठहरने देती और यदि संयोग वश बल पूर्वक इन में से कोई आघुसे तो अपना डेरा डंडा उठाकर वहाँ से निकल भागती है। और बूढ़ा, बुढ़िया अपने पुत्र समेत भक्ति की गहरी कमाई करने के लिये बिदा हुए हैं।
बूढ़ा अब तक उस पीपल के पेड़ के नीचे अपने बाल बच्चों के बीच में रहा अवश्य उसके चित्त में घबराहट रही। घबराहट यदि साधारणा होती तो वह अपने कलेजे को किसी कोने में उसे डाल कर भूल जाता किंतु आज उसकी दशा यहाँ तक बिगड़ी हुई थी कि यदि दस वर्ष का बालक भी उसके चेहरे का चढ़ाव उतार देखता तो तुरंत कह देता कि-"बाबा आज इतने घबड़ाते क्यों हो?" वह हजार दूसे छिपाने का प्रयत्न करता था परंतु ज्यों ज्यों छिपाता था त्यों ही त्यों वह दौड़ दौड़ कर आँखों की खिड़की में आ झाँकती थी औरा झाँक झाँक कर चुगली खाती थी कि बूढ़ा व्यर्थ ही छिपाने का उद्योग करता है।
बूढ़ा पहुँचा हुआ था। चाहे पढ़ने लिखने के नाम पर वह एक अक्षर भी न जानता हो किंतु संसार की नीच ऊँच देखने में ही उसने बाल पकाए थे। दुनियाँ का अनुभव करते करते ही उसके दाँत एक एक गिर कर जवाब दे गए थे। इस विकर घाटी पर चढ़ते समय वह अनेक बार गिरा था, कई बार गिर कर सँभला था और कितनी ही बार गिरते गिरते बच गया था। यों गिरते पड़ते जीवन के गिरिशिखर पर पहुँ- चने ही से वह जो एक दिन भगवनिया था आज बाबा भगवान दास है। यद्यपि वह इस गाँव का जमीदार नहीं, लबरदार नहीं, धनी नहीं किंतु अपनी बात का धनी अवश्य है। गाँव के छोटे बड़े सबही आदमियों के, शत्रु मित्र सब ही के दुःख दर्द में काम आता है, जिसे कुछ भी दुखिया पाया उसके पास बिना बुलाये आधी रात को दौड़ा जाता है और सब की भलाई के लिये पूछने पर नेक सलाह देता है, न पूछने पर भी अपने अनुभव की कहानी सुनाकर अच्छा उपदेश देता है। यों जाति का काछी होने पर भी उस गाँव के ब्राह्मणों का, राजपूतों का, बनियों का, सब ही का बाबा बना हुआ है। बूढ़े भगवान दास की भलाइयों की यहीं तक इतिश्री नहीं है। वह ब्राह्मण साधुओं का अच्छा सत्कार करता है भूखों को अन्न देता है और अंधे अपाहिजों की, लूले लँगड़ों की भरसक सेवा करता है। झूठ न बोलने की उसे सौगंद है और हज़ार काम होने पर भी उसके कम से कम दो घंटे नित्य ठाकुर सेवा में अवश्य जाते हैं।
बूढ़े बाबा को ऐसी दशा में चिंता काहे की है? इस बात का उत्तर देने के लिये अब बहुत देर ठहरना न पड़ेगा। जो कुछ होगा कचहरी पहुँचते ही प्रकाशित हो जायगा। हाँ इतना यहाँ कह देना चाहिए कि जिस समय यह अपने मन की घबराहट छिपाने के लिये, अपनी तबियत ताजी करने के लिये मुँह हाथ धोकर अपने कुटुंब से विदा हुआ, हज़ार रोकने पर भी इसके मुँह से इतना अवश्य निकल गया कि―"होम करने मैं हाथ जलना इसी का नाम है।" सुनते ही सब घर वालों के चेहरे फीके पड़ गए, सब के सब भौचक से रह गए और अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार सब ही तर्क लड़ाने लगे कि मामला क्या है? खैर इन लोगों को यहीं तर्क लगाने दीजिए!
बूढ़ा भगवानदास सिर पर एक सफेद बर्फ सी पगड़ी, एक मिरजई और धोती पहने, कंधे पर एक दुपट्टा डाले अपनी दुहरी कमर को सोधा करने के लिये धूनी से लट्ठ का सहारा लिए एक लड़के को साथ लेकर सटासट माला के मनिए सटकाता हुआ, राम राम जपता हुआ, सब की घबराहट देख कर उन्हें धीरज दिलाता हुआ वहाँ ले बिदा हुआ। उसके जाने पर उसकी आज्ञा से सब अपने अपने काम पर लगे और इसने कोई डेढ़ घंटे में कोस भर चल कर तहसील की चौकी पर बरगद के पेड़ के नीचे जा कर दम लिया।
गुड़ैत मोती ने जो इसे लिवाने गया था जमादार नस्थेखाँ को खबर दी। उसने तहसीलदार साहन्द से इत्तिला की और साहब मानो इसीकी राह देखते हुए बैठे हों, खबर पहुँ चते ही वह बुला लिया गया। तहसीलदार इसके पूर्व परिचित थे। इसके गाँव में कई वर्ष तक पटवारी रह चुके थे। उनकी कारगुजारी से प्रसन्न होकर ही अफसरों ने उन्हें दर्जे बदर्जे बढ़ाते बढ़ाते तहसीलदार बनाया था। जिस समय मुँशी मुरब्बतअली मौज़े मुफ्त़ीपुर के पटवारी थे इस बूढ़े का बड़ा आदर करते थे और यह भी अनेक बार उनके दुख दर्द में काम आचुका था। बस इसलिये उनकी सूरत देखते ही इसके मन को ढाढ़स हुआ। इसने मन में सोचा कि 'कुछ भी हो। अन्याय न होगा!" खैर! न्याय अन्याय की बात तो आगे देखी जायेगी किंतु आज मुरब्बतअली साहब की आँखों में मुरब्बत का लेश नहीं दिखलाई देता। आज क्रोध के मारे उनके नेत्र लाल होकर मानो उनमें से खून टपका पड़ता है। आँखों की सुर्खी दौड़ दौड़ कर गालों पर फैलती जाती है, भौहें चढ़ कर खोपड़ी से बातें करने के प्रयत्न में हैं, गुस्से के मारे उनके होंठ फड़फड़ाने लगे हैं और आज उनके शरीर में क्रोध ने अपना मजबूत डेरा डंडा आ जमाया है। बूढ़े को देखते ही उनका क्रोध और भी भड़क उठा। इन्होंने इस भूत के आवेश में आकर पूर्व परिचय, अपने पद के गौरव और बूढ़े की सेवा को भुलाते हुए कड़क कर जामे से बाहर होते हुए कहा―
"क्यों वे पाजी? तेरी इतनी मकदूर?"
"हैं सरकार मैंने क्या किया?"
"बस ख़बरदार एक लफ्ज़ भी मुँह में से निकाला तो? तूने नहीं किया तो क्या कोई भूत कर गाया?"
"पर यह तो बतलाइए! किसी ने क्या किया?"
"ओ हो! कैसा भोला बनता है? भुस में आग डाल जमालो दूर खड़ी। बोल तैने नहीं किया तो कौन कर गया?"
"पर किया क्या?"
"अच्छा सुन! तैंने उस खेमला चमार को बहका कर मुझ पर नालिश ठुकवा दी। कुसूर उसका था कि उसने मेरे घोड़े को पानी नहीं पिलाया। अगर इस बात पर मैंने उसको गाली भी दे दी तो क्या गजब हो गया। है तो आखिर वह चमार ही न! चमार की हैसियत ही क्या?"
"हैं!!! आप इसलिये (मन में ही 'आच्छा हुआ मन का संदेह निकल गया') ही इतने नाराज होते हैं? पर देखिए साहब आप की गाली देने की बुरी आदत है। आप अपनी तबियत को सँभालिए। नहीं तो किसी दिन इसका नतीजा अच्छा न होगा। चमार क्या आपने अभी मुझे भी गाली दी।
"ओ हो! बड़े पंडत बने हैं? हमें नसीहत देने आए हैं। अच्छा हमने तो दी, गाली दी। अब तू हमारे ऊपर फौज चढ़ा लाना! तैंने जब अँधियारे उजाले अपने गाँव के बदमाशों से हमें पिटवाने ही का बंदोबस्त कर रखा है तब करना। अपने जी में आवे सो करना। कसर मत रखना!"
"सरकार आपको आज हो क्या गया है? मैं गरीब गँवार आप पर फौज चढ़ाऊँगा? चिउटियों पर पंसेरी मत फेंको! जो आपको करना हो सो करलो। मेरा सिर हाजिर है। आप मा बाप है। किसी के बहकाने में आकर मुझ पर झूठा इलजाम मत डालो। मैं मिट्टी के आदमी का भी जी नहीं दुखाना चाहता फिर आप तो हमारे मालिक हैं। आपने हमारी बस्ती का बहुत उपकार किया है। हम जो अपनी खाल की जूतियाँ बनाकर भी आपको पहनावें तो आप से उऋण न हों।
"अच्छा तो (कुछ नर्म पड़ कर) बतला यह किसने किया।"
"किसी ने भी नहीं किया। किसी ने किया हो तो बतलाऊँ? आपको नाहक बहम हो गया है। आप ही बतलाइए। आप को कैसे मालूम हुआ।"
"क्या कहनेवाले का नाम बतला कर उसे खराबी में डालूँ? उसकी जिंदगी भारी हो जाय? मुझ से एक आदमी कह गया है कि तैने खेमला को उसका कर अर्जी लिख- वाई है।"
"सब झूठ है। सरासर झूठ है। मैंने उसे समझा कर अर्जी फड़वाई बेशक है। एक तो आप जैसे उपकार करनेवाले हाकिम की शिकायत करना ही पाप किर जल में रहना और मगर से बैर।"
"और मैं तेरे मुँह पर एक नहीं चार आदमियों से कहलवा दूँ तब?"
"एक नहीं हज़ार बार (मन में सोच कर) जब मैंने किया ही नहीं तो किसका मुँह है जो मेरे लिये झूठ कहे? फिर पर- मेश्वर सब जगह है।"
"हैं तो बुलवाऊँ" कह कर चपरासी को बुलाया और उनकी आँख का इशारा पाते ही वह बाहर जाकर चार आदमियों को ले आया। चारों में मुख्य नंबरदार का लड़का था। बूढ़े से दो नजर होते ही वह झेंपा। उन्होंने उससे बहुतेरा कहा कि-"डरो मत! साफ साफ कहो। इस बूढ़े से बिलकुल मत डरो। यह तुम्हारा कुछ नहीं कर सकता। घबड़ाओ मत मैं भी तो आज देखूँ कि यह कहाँ तक सच्चा है?" बूढ़े ने भी बहुतेरा कहा कि–"हाँ! हाँ!! घबड़ाते क्यों हो? जो कुछ हुआ हो धर्म से कहो। सच कहने में संकोच ही क्या?" परंतु बाबूलाल झेंपा सो झेंपा ही। उसकी जबान बंद। तब तहसीलदार ने उसके तीन साथियों से पूछा―"यह डर गया है तो तुम कहो रे किस तरह हुआ था। बेशक गंगा माथे लेकर सच सच ही कहना"। "हाँ! सरकार जब हुजूर गंगा जी की सौगंद दिलाते हैं तो सच सच ही कहेंगे। चाहे हमारा सिर ही क्यों न उड़ा दिया जाय सच सच ही कहेंगे। बाबा ने बेशक अर्जी फड़वाई है। अर्जी लिखवानेवाले यह नहीं। यह हमेशा झगड़े तोड़ा करते हैं। हमने कभी इतनी उमर में इनको बखेड़ा बढ़ाते नहीं देखा। आपकी गाली खाकर जब खेमला भागा तो बाबूलाल ने पास बुला कर उसे थथोपा। अपने हाथ से अर्जी लिख कर उससे उस पर अँगूठे का निशान करवाया। उसने भी नाहीं तो बहुत की थी। उस बिचारे का भी कुछ कसूर नहीं है परंतु इसके दबाव से उसने अँगूठा चिपका दिया। हमने इनसे कहा कि इस पर तहसीलदार साहब नाराज होंगे तब? यह बोले―बाबा का नाम ले देना। वह साला बड़ा भला बनता है। उस दिन हमें ही चरस पीने पर फटकारता था। अच्छा हो जो कहीं इसे डोकरे के किसी न किसी तरह थोड़ा बहुत नुकसान पहुँचे तो। यह हर एक आदमी को कल से नहीं बैठने देत। भला अगर हम चरस पीते हैं तो इसके बाप का क्या जाता है?” इन लोगों के बयान सुनकर बूढ़े ने कुछ न कहा तो न सही क्योंकि वह जानता था कि “जब इन्हीं की जबान से फैसला हुआ जाता है तो मैं क्यों बोलें?” किंतु बाबूलाल की आँखों में से आँसुओं की सावन की सी झड़ी लग गई। इस पर तहसील दार साहब को क्रोध आया। उन्होंने बाबूलाल के बहुत बुरा भला कहा। बुढ़े ने समझाया कि-“बेटा जी अखली बात हो र सच कह दो! यों तो मैं तुम्हारे बाप से भी बड़ा हूं और यों तुम्हारी रैयत हूँ। मेरा इतना लिहाज ही क्या?” बूढ़े की ऐसी नम्रता, ऐसी सजनता देख कर बाबूलाल का हृदय अधिक भर आया। उसने बहुतेरा चाहा किंतु रोते रोते उसकी धिग्धियाँ बँध गई। इस बारह मिनट रोने से जथे उसका कलेजर खाली हुआ तब वह बोला।
“बेशक इन तीनों का कहना सच है। मैंने बाबा की नसीहत से चिढ़ कर ( बाबा के पैर पकड़ कर उसके चरणों में सिर देते हुए ) आपको इनसे नाराज कराने के लिये ही ऐसा किया था। अब मैं आप दोनों से क्षमा माँगता हूं।”
“कुसूर तो बेशक ते ऐसा ही है कि जिसके लिये तुझे फौजदारी में चलान कर देना चाहिए लेकिन आज बाबा की चाल ने मुझे भी पानी कर डाला! ऐसी हालत में अगर यह मुआफी बख्श दें तो मैं भी मुआफ करने को तैयार हूँ।"
"तहसीलदार साहब, यह आप की कृपा है। मैं तो आप से पहले ही अर्ज करना चाहता था। सिर आँखों से तैयार। इस लड़के का पछताना देखकर तैयार और आप के हुक्म से तैयार।"
बस इस तरह दोनों ने जब बाबूलाल का अपराध क्षमा कर दिया तब वह हँसता हँसता अपने घर गया। उस दिन की बातों का उस पर ऐसा असर हुआ कि उसने फिर कभी गाँजा नहीं पिया, चरस नहीं पी, शराब नहीं पी और जवानी के अंधे- पन में आदमी से जितने कुकर्म बन आते हैं उन सब को छोड़ दिया। इस तरह सुधर कर जब वह लड़का वहाँ से विदा हो गया तब बूढ़ा बोला―
"एक बात मैं हुजूर से माँगता हूँ। आज से किसी को गाली न दीजिए। क्रोध सब पापों का मूल है। आप में अच्छे अच्छे गुणों के साथ यह कलंक है। जो इसे छोड़ देंगे तो आप की बहुत वेहतरी होगी। नहीं तो मैं कहे देता हूँ कि आप किसी दिन पछतावेंगे?"
"वेशक! सही है। मैंने तुम्हारे कहने के ही पहले इस बात का अहद कर लिया। अब अगर मुझे बेजा गुस्सा करते देखो तो मेरे मुँह पर थूँक देना।" "राम! राम!!" ज्यों ही बूढ़ा वहाँ से चलने लगा तहसीलदार ने हाथ पकड़ कर उसे कुर्सी पर बिठला लिया। जिसे एक समय "पाजी" कहा था उसी का यह सत्कार! अब भूत शरीर में से निकल गया। उस दिन से किसी ने उनको गाली देते हुए नहीं देखा। इस तरह जैसे इन दोनों को भगवानदास की अच्छी संगति का फल मिला वैसे ही अनेकों को मिला। बहुतों को उसने बिगड़ते से बचाया।
खैर! तहसीलदार ने भगवान दास को सत्कार के साथ बिठला कर गाँव के हाल चाल की बातें पूछने के अनंतर, इधर उधर की बात चीत करके, खेती की दशा और लगान वसूली के विषय में कितनी ही आवश्यक छेड़छाड़ कर लेने बाद वही असली बात छेड़ी जिसके लिये भगवानदास डरता था। सवाल छिड़ते ही बूढ़ा एक बार कुछ सहमा। सहमा अवश्य परंतु सहसा इसने अपनी दुर्बलता प्रकाशित न होने दी। इसने समझ लिया कि "जो कहीं मैं कुछ भी घबड़ाया तो यह अभी सिर हो जायगा। हज़ार भला होने पर भी है हाकिम। और हाकिम मिट्टी का भी बुरा होता है।" बस इसी तरह का मन में बिचार कर यह बिना झबड़ाए चटपट बोल उठा―
"सरकार! यह भी होम करते हाथ जलना है। जमाने की खूबी है। मैं क्या कहूँ? आप ही समझ लें!" "हाँ समझ लूँगा और तुम्हें आँच भी न आने दूँगा मगर मुझ से सच सच तो कहो कि मामला क्या है?"
"सरकार, मैं हूँ तो गरीब, पर मेरी झोपड़ी पर जो कोई आता है उसकी जहाँ तक बनता है दाल दलिए से खातिर करता हूँ। यह मेरे यहाँ कई बार आया! मुझे उसकी बातें कुछ अच्छी मालूम हुईं। योग की चर्चा बहुत किया करता था। मैं पढ़ा लिखा तो बिलकुल नहीं पर सुनते सुनते मुझे भी कुछ ऐसी चर्चा अच्छी लगने लगी। मैंने उसमें गुरण देखे इस वास्ते उसकी मैंने खातिर भी बढ़ाई। खातिर भी क्या? वह लेने के नाम पर एक पाई तक नहीं छूता था। बस इसलिये मेरा भरोसा उस पर बढ़ गया। नतीजा यह हुआ कि एक हजार रुपए पर तो मैं रो बैठा। रपट इसलिये नहीं की कि नाहक खिचे खिचे फिरना पड़ेगा।"
"हैं! अच्छा तो एक हज़ार रुपए का चिरका तो तुम्हें दे गया? मगर उस बच्चे का मामला किस तरह हुआ?"
"सरकार! मुझे बच्चे का हाल बिलकुल मालूम नहीं। मालूम होता तो मैं हुजूर से साफ साफ कह देता। साँच को आँच बिलकुल नहीं।"
"बेशक, मगर बड़ा गजब हो गया! अब फकीरों का भी ऐतबार गया। क्या ऐसे बदमाशों ने नेक और खुदापरस्तों को भी बर्बाद कर डाला! मैंने सुना है कि सिर्फ पाँच रुपए के जेवर के लालच में दुलारेलाल के एकलौते बेटे को मार गया।" "हुजूर, बच्चों को जेवर पहनाना उन्हें मौत के मुँह में देना है।"
"वेशक! क्या तुम्हारे भी इजहार हो गए?"
"हाँ सरकार! मैं लिखवा आया कि मैं इतना अलवत्ता जानता हूँ कि जब वह मेरे पास पिछली बार आया तब उसके कपड़ों पर लाल लाल दाग जरूर थे। परंतु मेरा उसपर भरोसा था। मैं उसे महात्मा समझता था इसलिये मैंने उस पर संदेह नहीं किया।"
"और तो खैर! ठीक ही है मगर तुमने इतना नाहक लिखवाया! तुम को जरूरत क्या थी?"
"तो क्या सरकार मैं झूठ बोलूँ? इतने वर्ष ही न बोला तो अब तो मेरी लड़कियाँ भी मरघट में जा पहुँची। मैंने कुछ किया ही नहीं तो डरूं भी क्यों? साँच का सदा बोल बाला है।"
"शाबाश! ऐसा ही चाहिए मगर क्यों जी उस साधु का अब पता नहीं है?"
"क्या मालूम रमता राम था।"
"तुम्हारे खयाल से क्या उसी ने मारा?"
"परमेश्वर जाने साहब! मेरी थैली ले जाने की बात का जब लालदागों से मिलान किया जाता है तब तो संदेह ऐसा ही होता है!"
"तब क्या वह लालची था?" "नहीं, बिलकुल नहीं? जब आता था तब उसके आगे घर का जेवर, रुपए, पैसे योंही पड़े रहते थे। कभी उसने हाथ नहीं मारा। इस बार ही नियत बिगड़ गई।"
"बेशक" कहते ही सलाम करके वह अपने घर आया।
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