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आदर्श हिंदू १/४ प्रियंवदा की सुशिक्षा

विकिस्रोत से
आदर्श हिंदू-पहला भाग।
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

काशी नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २९ से – ३८ तक

 
 

प्रकरण―४

प्रियंवदा की सुशिक्षा।

जिस समय की यह घटना है उस समय प्रियंवदा की उमर कोई अट्ठाईस वर्ष की होगी। युरोपियन समाज में जब बीस, पचीस, वर्ष तक की स्त्री लड़की समझी जाती है, अब उन लोगों में विवाह का समय ही बीस से तीस वर्ष तक का है तब यदि प्रियंवदा के अब तक कोई संतान न हुई तो कौन सा अचरज हो गया परंतु नहीं उनकी स्थिति से हमारी दशा में धरती आकाश का सा अंतर है। वे सर्द मुल्क के रहनेवाले हैं और हम गर्म देश के। उनके यहाँ जवानी का आरंभ जिस समय होता है उस समय हमारे देश की स्त्रियाँ दो बार बच्चे की माता हो जाती हैं। यदि विवाह के झमेले में पड़कर किसी की जोरू कहलाना न चाहे, यदि उसको परतंत्रता की बेड़ी में पड़ना पसंद न हो तो एक युरोपियन स्त्री आजीवन कुँवारी रह सकती है किंतु हमारे देश के रिवाज से, धर्म शास्त्रों की आज्ञा से हिंदू बालिका का विवाह रजस्वला होने से पूर्व हो जाना चाहिए। उनके लिये उनकी चाल अच्छी और हमारे लिये हमारा नियम अच्छा है। उनके यहाँ स्त्री पुरुष के परस्पर पसंद कर लेने पर, परीक्षा कर लेने के बाद शादी होती है और हम मानते हैं कि कम उमर में उनकी बुद्धि कच्ची होती है, और इस कारण बाहरी चाक- चिश्य देखकर वे एक दूसरे पर मोहित हो जाते हैं। इस मोह का, इस प्रणय का परिणाम तलाक है। बस इसीलिये हमारे शास्त्राकारों ने इसका भार माता पिता पर डाला है। वे मानते हैं कि खूब भूख लग जाने पर खाना देना चाहिए और हमारा सिद्धांत है कि यदि भूख लगने के समय खाना तैयार रहे तो उसकी नियत अखाद्य पदार्थों की ओर न दौड़ेगी। उनका प्रणय और हमारा परिणय है। उनके यहाँ प्रणय पहले और हमारे यहाँ प्रणय पीछे होता है। प्रियंवदा का विवाह ठीक हमारे सिद्धांत के अनुसार ग्यारहवें वर्ष में और इसके बाद उसका गौना पाँचवें वर्ष में हुआ था।

उसकी दादी सुंदरी की आज्ञा से उसकी शिक्षा का भार उसकी विधवा भुआ सुशीला पर डाला गया था। ये दोनों ही उसे शिक्षा देकर पहले सुकन्या फिर सुपत्नी और अनंतर सुमाता बनाना चाहती थी। इस कारण उन्हें इसको आज कल की स्कूली तालीम दिलाना पसंद न आया। सुशीला ने उसे घर पर पढ़ाने ही का प्रबंध किया। प्रियंवदा के पिता पंडित रिपुसूदन जी की स्थिति ऐसी नहीं थी कि जिससे वे कोई शिक्षिता नौकर रख सकें और जिस क्रम से उसकी शिक्षा का ठहराश हुआ था उसके अनुसार पढ़ानेवाली का मिलना भी कठिन था। इसलिये अपने भजन पूजन से अवकाश कम होने पर सुशीला ने इसे पढ़ाने का सारा भार अपने ऊपर लिया।

उपन्यासों के पढ़ने में जिन्हें केवल मनोरंजन ही से काम है वे महाशय यदि आपने भनों में ऊब उपजा लें तो मैं उनसे क्षमा माँगता हूँ क्योंकि जिन्हें "आदर्श दंपति" की सुंदरी और "सुशीला विधवा" की सी सुशीला पसंद है, जो अपनी गृहणी को, अपनी बहन बेटी को और अपनी बहुओं को इनकी सी बनाना चाहते हैं उनका इस लेख से कुछ काम अवश्य निकल सकता है। कम से कम उन्हें इतना अवश्य विदित हो जायगा कि स्त्री शिक्षा किस प्रकार की होनी चाहिए।

अस्तु सुशीला ने प्रियवंदा को पुस्तकें पढ़ाने में, घर के काम काज में, मनोरंजन में, माता पिता, पति संतान, सास ससुर और सगे संबंधियों के साथ उसके कर्तव्यों को समझाने के लिये जिल साँचे में ढाला था उसका दिग्दर्शन इस प्रकार से है। उसके साँचे का मुख्य सिद्धांत यही था कि आज कल की नवीन शिक्षा पाकर जिस तरह पति की बराबरी करने पर स्त्रियाँ उतारू हो जाती हैं, आजकल के नवीन समाज में जैसे अंगरेजी तालीम पाकर युवतियाँ पुरुषों का "वेटर हाफ"-( उत्तमार्द्ध) समझी जाने में अपना गौरव समझ बैठी हैं और आजकल जैसे स्त्रियों का दर्जा पुरुषों से भी ऊँच समझा जाता है, इस बास की गंध-नहीं-दुर्गंध प्रियंवदा के दिमाग में न घुसने पाई। जो लोग स्त्री को "बेटर हाफ" बनाकर उनका दर्जा आकाश पर चढ़ाने के पक्षपाती हैं वेही उन्हें तलाक देकर दूसरा खसम कर लेने की सम्मति जब दे रहे हैं तब मानों जरासंघ के शरीर की तरह एक शरीर के कभी दो टुकड़े करते हैं और फिर कभी जोड़ने का मिथ्या उद्योग करते हैं किंतु इसका फल यही होता है, कि 'टूटे पीछे फिर जुड़े तो गाँठ गठीली होय'। और सो भी एक बार एक के साथ और दूसरी बार दूसरे के साथ। बस इस लिये वह जोड़ा नहीं, वह विवाह नहीं। वह एक ठेका है जो अमुक अमुक बातों पर किया जाता है और यदि संयोगवश, जैसा कि प्रायः होता रहता है, दोनों में से एक भी शर्त चूक गया तो बस एक को छोड़कर दूसरा और दूसरे को छोड़कर सीखरा, कुम्हार को हाँडी की तरह जन्म भर पति बदलौवल अथवा पत्निपरिवर्तन हुआ करे।

ये बातें सुंदरी को पसंद न थीं। वह चाहती थी कि प्रियंवदा अपने प्राणनाथ को, अपने हदयेश्वर को केवल एक ही जन्म में नहीं, जन्मजन्मांतर तक में अपना मालिक भाले और सदा ही उसकी दासी होकर रहे। स्त्री अवश्य ही पति की अर्द्धांगिनी है और वह ऐसी अर्द्धांगिनी नहीं है जो जरा सी बात पर चिढ़कर फौरन इस शरीर के दो टुकड़े कर डालने पर उतारू हो। एक आर जुड़ने बाद मर जाने पर भी यह संबंध नहीं छूटता है और मनुष्य ही क्या कर्मवश पशु पक्षी कीट पतंगादि किसी योनि में उन्हें जन्म लेना पड़े दोनों साथ बने रहते हैं। एक बिना

दुसरा पल भी नहीं जी सकता है। उसके सिद्धांत का तत्त्व था

"संतुष्टी भार्यया भर्त्ता भर्त्ता भार्या तथैवच,
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र चै ध्रु वम्।"

बस इसी सिद्धांत के अनुसार प्रियंवदा को शिक्षा दी गई। उसको लिखाया गया कि वह पति की दासी बन कर रहे, पति को अपना जीवनसर्वस्व समझे। पति चाहे काना हो, कुरूप हो, कलंकी हो, कोढ़ी हो, कुकर्मी हो, क्रोधी हो, स्त्री के लिये पति के सिवाय दूसरी गति नहीं। संसार में परमेश्वर के समान कोई नहीं किंतु स्त्री का पति ही परमेश्वर है। जिन स्त्रियों का यही अटल सिद्धांत है वे व्यभिचारिणी नहीं हो सकतीं और व्यभिचार से बढ़कर कोई पाप नहीं। इन विचारों को मूल मंत्र मानकर सुशीला ने प्रियंवदा के लिये साँचा तैयार किया। "हिंदू गृहस्थ" उपन्यास में जैसे पुरुषों की शिक्षा के लिये साँचा बनाया गया था और उसी के अनुसार प्रियंवदा के प्राणनाथ प्रियानाथ को शिक्षा दी गई थी उसी तरह इस साँचे में सुशीला ने प्रियंवदा को ढाला।

भोर के चार बजे सब घर वालों से पहले जागकर प्रातः स्मरण, फिर शरीरकृल्प से निपट कर स्वान, विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ और पति के दहने अँगूठे का पूजन। बस इसी पर नित्य नियम समाप्त। फिर घर का छोटा मोटा सा काम। यदि घर में शक्ति के अनुसार एक दो अथवा अधिक नौकर हों तो अच्छी बात है किंतु दिन रात पति की सेवा अपने ही हाथ से करना। रसोई बनाने में उसने प्रियंवदा को ऐसा होशियार कर दिया कि बड़े बड़े हलवाई भी, बड़े बड़े रसोइए भी जिसके आगे सिर झुकावें। वह कसीदा निकलने में, सीने पिरोने में होशियार। अपने कपड़े सीने में, पति के कपड़े तैयार करने में और बाल बच्चों की पोशाक बनाने में उससे कोई आकर सलाह पूछे। अवकाश पाकर अवश्य ही यह तुलसीकृत रामा- यण, महाभारत, रागरत्नाकर, ब्रजविलास, प्रेमसागर और भन बहलाव के लिये ऐसे उपन्यासों को जिनसे चित्त में विकार उत्पन्न न हों पढ़ा करती थी किंतु खोटे उपन्यासों को प्रथम तो उसका पति ही उसके पास आने नहीं देता था और जो कहीं भूल से वे आ भी जाँय तो वह उन्हें अपने कमरे में से निकाल कर बाहर फेंक देती थी। एकांत के समय भजन आदि के गान करने में वह निपुण थी। पति को प्रसन्न करने के लिये समय समय प्रेमरस, श्रृंगार रस के गीत गाना भी उसे सिखलाया गया था और ठीक ताल स्वर से, किंतु सो भी केवल कृष्णचरित्र के, जिनसे धर्म का धर्म और कर्म का कर्म दोनों हो। इतना होने पर भी आज कल की मूर्ख स्त्रियों की तरह विवाह शादियों में गालियाँ गाने से क्या सुनने तक से उसे घृणा थी। सुशीला ने "सतीचरित्र संग्रह" जैसी किताबों का संग्रह कर प्रियंवदा को पढ़ाया, इतिहासों से, पुराणों से और जनश्रुति से ऐसे ऐसे चरित्रों का संग्रह कर उन्हें अच्छी तरह उस के मन की पट्टी पर लिख दिया। स्त्री शिक्षा के लिये उसे "स्त्री सुवोधिनी" का क्रम पसंद था परंतु केवल उसी से काम नहीं चल सकता था इसलिये उसी मूल पर थोड़ा लौट फेर करने के अनंतर सुशीला ने अपनी भतीजी को स्त्रियों के इलाज की, गृहप्रबंध की, हिसाब की शिक्षा दी। उसने समझा दिया कि सास ससुर और जेठ जेठानी का दर्जा माता पिता के समान है, उनके साथ वैसा और देवर देवरानी के साथ भाई बहन का सा बर्ताव करना चाहिए। परंतु बाहर के तो क्या घर के भी किसी पुरुष के साथ हँसना बोलना एकांत में मिलना अथवा उनकी ओर आँख उठाकर देखना अच्छा नहीं। नोकर चाकर भी अपने पास स्त्रियाँ रहें और सो भी बुढ़िया नेक चलन, अच्छी तरह जाँच कर लेने बाद। बस यही उसका पर्दा था। वैसे यदि ससुराल में आज कल का सा कड़ा पर्दा हो तो उसका भंग करने के लिये सुशीला ने तिउरियाँ चढ़ाकर प्रियंवदा को मना कर दिया था किंतु वह नहीं चाहती थी कि कभी उसे बाहर की हवा भी न लगे। सुशीला की शिक्षा ने स्त्रियों के रोगों का इलाज करने में, बालकों के पालन पोषण में और उनके इलाज में तथा उनकी शिक्षा रक्षा में उसे खूब होशियार कर दिया था। परमेश्वर यदि उसे संतान दे तो वह हृष्ट, पुष्ट, बलिष्ट और सदाचारी आज्ञापालक हो-इस में संदेह नहीं।

हिसाब किताब से दुरुस्त रहकर जिस तरह घर का एक पैसा वृथा न जाने देने की उसे कसम थी उसी तरह मनुष्य तो क्या गाय, तोता और अन्यान्य पशु पक्षियों का भी जी न दुखाना, जो घर में अपने आश्रित होकर रहें उनकी जी जान से रक्षा करना, उनका पालन पोषण करना उसका परम धर्म था। सुशीला ने उसके अंतःकरण में अच्छी तरह ठसा दिया कि पति जिस कार्य से प्रसन्न रहे वही करना, उसके दुःख में दुःखी और सुख में सुखी रहना। मन में हजार दुःख हो किंतु ऐसे अवसर पर पति से कभी न कहना जिससे उसके चित्त को धक्का पहुँचे। कोई काम पति का अप्रिय न करना, जो कुछ अपराध बन जाय तो पति से छिपाना नहीं, यहाँ तक कि सब बातों की रिपोर्ट पति से कर देना। यदि घर में खर्च की तंगी हो, घर में नमक न हो तो भी खाने के समय, आराम के समय कभी तकाजा न करना। कपड़े के लिये, जेवर के लिये पति को कभी तंग न करना बल्कि उसकी इच्छा पर छोड़ देना ताकि वह स्वयं खटक रखकर बनवाए। उनकी इच्छा ही को अपनी इच्छा समझना।

वस यही प्रियंवदा की शिक्षा का दिग्दर्शन है। लड़की गरीब माँ बाप की थी। कुंकुम और कन्या के सिवाय लड़की के पिता से एक पाई भी मिलने की आशा न थी। बड़े बड़े लखपत्तियों के यहाँ से सगाइयाँ भी दो चार आई थीं और उनसे रुपया भी दहेज में बहुत मिलने की संभावना थी किंतु प्रियानाथ के पिता रमानाथ के अंतःकरण में प्रियंवदा के गुण खूब ही खुप गए थे। लोगों के हज़ार लालच देने पर भी रामनाथ पंडित ने अपने पुत्र को इससे ही ब्याहना पसंद किया था। प्रियंवदा बहुत सुंदरी नहीं थी। वह आँख नाक से अच्छी थी किंतु रंग गोरा नहीं था, गेंहुआ था। इस बात पर पंडित रामनाथ और उनकी स्त्री से बहस भी बहुत हुई थी। प्रेमदा गोरी न होना दोष मानकर इस संबंध से प्रसन्न नहीं थी और रामनाथ कहते थे कि―"गोरी न होना गुण है, दोष नहीं।"

अस्तु विवाह के बाद जब वह ससुराल आई तो पति ने अच्छी आच्छी पुस्तकें तलाश करके उसे देना, पुराणों में से इतिहासों में से, और और ग्रंथों में से अच्छे अच्छे प्रसंग निकाल कर उन पर पेंसिल से चिह्न लगाने और निज पत्नी का उन पर विशेष रूप से ध्यान दिलाने का भार अपने ऊपर लिया। वहाँ आने के बाद पति ने उसे थोड़ी संस्कृत और अंगरजी भी पढ़ाई। अंगरेजी केवल इतनी जिससे आवश्यकता पड़ जाय तो तार दूसरे से पढ़ाने के लिये किसी का मुँह ताकना न पड़े। इस तरह पति को गुरु बनाने में प्रियंवदा ने आना कानी भी की। उसने कहा―

"नहीं साहब! यह न होगा। गुरु बनाने के बाद पति पत्नी का संबंध रहना अयोग्य है। या तो गुरु ही बनिए अथवा………"

"अच्छा गुरु नहीं बनाना चाहती है तो ( एक हलकी सी चपत लगाकर मुसकराते हुए ) आप ही हमारे गुरु सही!" "अजी साहब! हमें गुरु बनाओगे तो पछताना पड़ेगा? स्त्री को गुरु बनाना उसे माथे चढ़ाना है। और माथे चढ़ाने से मेरा बिगाड़ है, आपका सुख किरकिरा हो जायगा। मुझे तो आप अपनी चेरी बनाओ। आपकी दासी हूँ!"

"अच्छा तो मैं तेरा गुरु, और तू मेरी गुरुआनी।"

"गुरुआनी तो आपकी नहीं, आपके शिष्यों की।"

"हाँ! सो तो ठीक परंतु मैं तुझे अंगरेजी पढ़ा दूँ और तू मुझे……"

"हाँ! हाँ!! चुप क्यों हो गए? फर्माइए न?"

"अच्छा जो तेरी इच्छा हो सो ही।"

बस इसी पर मामला तै हुआ। इस प्रकार से सुशीला की सान पर चढ़कर प्रियंवदा जो हीरा तैयार हुआ था उसे प्रेयानाथ के संग ने ओप दिया। उनके लिये वह सच्ची प्रियं- वदा और उसके लिये वे सच्चे प्रियानाथ थे। अब आगामि प्रकरणों में यह देखना है कि यह जोड़ी कहाँ तक सुखी रही, इस पर क्या क्या बीती और कैसे इसने अपने कर्तव्य का पालन किया। तब ही मालूम होगा कि इन्होंने कष्ट उठाया सो भी सीमा तक और इनको सुख हुआ सो भी सीमा तक।

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