आदर्श हिंदू १/५ भूत की लीला
प्रकरण―५
भूत की लीला।
"जीते भी मेरी नस नस में तेल डाला और अब मर जाने पर भी मुझे कल से नहीं बैठने देती है। भगवान उनका स्वर्गवास करे। जब तक वह रहे कुछ इलाज भी होता रहा। अब इनसे कहती हूँ तो प्रथम तो इनके नाराज हो जाने का डर है क्योंकि यह बात ही ऐसी है। शायद यही ख्याल कर बैठें कि हमारे आदमियों को झूटमूठ बदनाम करतीं है। इनका ऐसा ख्याल कर लेना ही मेरे लिये मौत से बढ़कर सजा है और जो कहूँ भी तो यह इस बात को सच्चा नहीं मानेंगे। 'वाहियात! वाहियात!' कहकर उड़ा देंगे। हाय! कहाँ जाऊँ! और किस से कहूँ!! मेरा कलेजा खाये जाती है। निपूता कुछ हो भी तो कहाँ से हो?"
इतना कहकर वह रमणी दुपट्टा तान कर सोई भी परंतु जब कमरे में चारों ओर से चिनगारियाँ बरस कर चिराग गुल हो गया, अँधेरा होते ही जब "ऊँ! ॐ!! ॐ!!!" की आवाज इस युवती के कान के परदे फाड़ने लगी और जब कभी रोने और कभी खिलखिला कर हँसने की आवाज आने लगी तब इम बिचारी को नींद कहाँ! निंद निगोड़ी तो मानों आज आँखों से रूठ कर पकड़े जाने के डर से काले चोर की तरह भाग गई है। डर के मारे कलेजा थरथरा रहा है, शरीर के रोंगटे खड़े हो रहे हैं। आँखों में से आँसुओं की धारा बह रही है। फिर चिराग जलाती है और फिर गुल होता है। एक बार जलाया और दो बार जलाया और नौ बार जलाया। हद हो गई। यदि जीवनसर्त्रस्व ही पास हो तो डर काहे का? परंतु यह भी आज अभी तक नहीं आए। घंटे गिनते गिनते बावली हो गई। कह यह गए थे कि―"जल्दी आऊँगा।" परंतु क्या यही जल्दी है? बारह बजे, एक बजा और दो बज गए। उकता कर किवाड़ खोला तो सामने एक काला काला भूत! भूत भी ऐसा वैसा नहीं विचित्र भूत! जब पहले उसे देखा तब बच्चा सा था। फिर बच्चे से आदमी हुआ और अब बढ़ते बढ़ते ताड़ सा हो गया। आँखें देखो तो दो मशाल सी और दाँत! दाँतों की न पूछो बात? लाल लाल लंबे लंबे, बड़ी बड़ी गाजर से और डाढ़ी मोछों के बाल! मानों मुँह पर झाडू लटका दी है, बदन काला, काला काले तबे के पेंदे सा और हाथ पैर मानों हाथी की सी सूड़! बस देखते ही एक दम घबड़ा उठी। "हाय मरी! हे नाथ बचाइयो!" कह कर तुरंत ही धड़ाम से गिरी, गिरते ही उसे तन बदन की सुधि जाती रही, धड़ाम का शब्द भी एक बार नहीं। जब एक सीढ़ी से दूसरी पर नौर दुसरी से तीसरी पर इस तरह गिरती पड़ती सात सीढ़ियों पर गिरी तब आवाज भी धड़ाम! धड़ाम!! सात बार आनी ही चाहिए। उसके गिरने के शब्द से डर के मारे मोर "म्याओं म्याओं" कर उठे, बंदर डालियाँ पकड़ पकड़ कर चिंचियाने लगे और मुहल्ले वालों के भी कान खड़े हो गए।
बाहर से आकर चौकीदार ने आवाज दी―
"चोर है चोर! जल्दी दौड़ो चोर है।"
"हैं! कहाँ चोर है? क्या हमारे मकान में?" कहता हुआ एक आदमी दौड़ कर आया। और चौकीदार ने―"हाँ" कह कर अंगुली के इशारे से मकान दिखलाया। आने वाले ने दरवाजा खटखटाया तो भीतर से कुंडी बंद। एक बार, दो बार, तीन बार जोर जोर से चिल्ला चिल्ला कर "किंवाड़ा खोलो?" पुकारा तो जवाब नहीं। लाचार होकर इसने चौकी- दार की सहायता से किंवाड़ तोड़ा। भीतर जाकर ज्यों ही इसने जेवी लालटेन की रोशनी में वहाँ का दृश्य देखा तो इसका ऊपर का सांस ऊपर और नीचे का नीचे रह गया। पसीने से कपड़े तर। वहाँ जाकर देखता क्या है कि उस रमणी के सिर में से लोहू के पनाले बह रहे हैं। छाती में धड़के के सिवाय कहीं नाड़ी का पता नहीं। शरीर ठंढा पड़ता जाता है। हाथ पैर सँभाले तो बर्फ जैसे शीतल। उसे कपड़े की बिलकुल सुधि नहीं और आँखें फाड़ कर देखी तो सफेदी के सिवाय कहीं काली पुतलियों का नाम नहीं। इसकी ऐसी दशा देख कर एक बार यह अवश्य ही घबड़ाया, इसने यह निश्चय समझ लिया कि अब इसके प्राणों से हाथ धो बैठे। "हाय! बड़ा अनर्थं हो गया!" कह कर यह रोया भी कम नहीं। इसने इस युवती के इस तरह एकाएक गिर जाने का कारण जानने का भी बहुतेरा प्रयत्न किया परंतु न तो इसे कोई चिह्न ही ऐसा मिल सका जिससे इसे कुछ भेद मालूम हो सके और न घर की गैया ही ने गवाही दी कि माजरा क्या है। यदि रात के बदले दिन होता तो शायद यह पींजरे के तोते से भी पूछ सकता था किंतु यह भी इस समय घोर निद्रा में है।
अस्तु! घबड़ा जाने पर भी इसने अपना साहस न छोड़ा। यह उन्हीं लोगों में से एक था जिनका सिद्धांत है―
"विपदि धैर्य्यमथाभ्युदये क्षमा
सदसि।वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ
प्रकृति सिद्धमिदं हि महात्मनाम्॥"
बस इसने चिराग के उजाले में एक बार उसके घाव धोकर पीला कपड़ा बाँधा और तब अपनी ओषधियों की पिटारी में से कस्तूरी निकाल कर इसके मुँह में डाली और साथ ही श्वासकुठार इसकी आँखों में आँज दिया। कोई आधे घंटे में जब उसे होश आया तब "हाय मरी रे! हाय मार डाला रे!" कह कर इसने आँखें खोलीं। "हे राम! हे दीन- बंधु!! हाय! इस विपत्ति के समय यह कहाँ हैं?" कह कर फिर आँखें बंद कर लीं। "मैं यहीं हूँ। मैं आगया हूँ! अब घबराओं नहीं, मैं आ गया।" कह कर इसने ढाढ़स दिलाया और तब अपने पास बैठे हुए अपनी सेवा करनेवाले को पह- चान कर―
"हैं हैं! यह क्या गजब करते हो? अजी मुझे नरक में न डालो। तुमसे और ऐसी सेवा? हे भगवान मौत दे दे।" कहती हुई यह इसके गले से लिपट गई। इसने छाती से लगा कर उसे ढाढ़स दिया, दवा देकर उसे आरोग्य किया, और पाँच सात दिन में जब उसमें उठने बैठने की शक्ति आ गई तब एक दिन उसे प्रसन्न देख कर उससे पूछा―
"मामला क्या था? कुछ कारण समझ में न आया!"
"कारण? कारण (आँखों में आँसू भर कर) मुझ से न पूछो। कारण बताते हुए मुझे संकोच होता है, डर लगता है। बस इसी लिये मैं वर्षों से छिपाती हूँ। आज तक मैंने कोई बात तुम से नहीं छिपाई परंतु कुछ ऐसा ही कारण है जिसमें मैंने बड़े बड़े संकद सह कर भी तुम्हारे आगे इसकी चर्चा न की।"
"मैं बेशक वर्षों से देखता हूँ कि तू सूखी जाती है। तेरे शरीर में कोई रोग न होने पर भी तू सूखती क्यों है? कारण बता? तुझे बताना पड़ेगा?"
"अजी कारण न पूछो? कारण बताने में मुझे संकोच होता है। मुझे डर होता है कि कहीं तुम नाराज न हो जाओ?"
"तू जानती है कि मैं अभी तक तुझ पर कभी क्रुद्ध नहीं हुआ। तू जब कोई काम ही ऐसा नहीं करती है तब मैं क्यों होऊँ? यदि तुझसे कुछ अपराध भी हो गया होगा तो मैं क्षमा करता हूँ। जो कुछ हो कह दे। निर्भय होकर कह डाल। नहीं तो मुझे भय है कि मैं तुझसे किसी दिन हाथ धो बैठूँगा।"
"नहीं! अभी तक मुझसे कोई अपराध नहीं बना है परंतु इस बात का कह देना ही अपराध है। खैर आप क्षमा कर चुके, आपका इस बात के जानने के लिये इतना आग्रह है और इसी पर मेरे जीवन मरण का जब आधार है तो मुझे अवश्य कहना पड़ेगा।"
हाँ! हाँ!! तो कहती क्यों नहीं? पहेली क्यों बुझाती है।"
"अच्छा सुनिए। जब मैं तुम्हारे साथ परदेश रहती हूँ तब बहुत ही मौज से गुजरती है। तब ही मैं घर आने का नाम सुनते ही घबड़ाया करती हूँ। जब से यहाँ आई हूँ तब से मुझे न तो खाते चैन लेने देती है और न सोते। निपूती नींद से भी दुश्मनी हो गई है। दिन रात, घर में, बाहर, जहाँ देखो वहाँ, हर बड़ी मेरी आँखों के सामने। कभी रोती हैं, कभी हँसती हैं, कभी, आग वरसाती हैं और कभी भयानक भयानक सूरतें दिखाकर मुझे डराती हैं। जब तक जीवित रहीं तब तक मेरी नस नस में तेल डाला और अब मर जाने पर मेरा कलेजा खाए जाती हैं। कुछ हो भी तो कहाँ से हो? इस घर में रहोगे तो एक न एक दिन मुझे मारी समझना।" "घबड़ाओं नहीं। मरने न देंगे परंतु वह है कौन? क्या भूत है? या प्रेत है? अथवा पिशाच है? है कौन?"
"मैंने सब कुछ कह दिया। अब हाथ जोड़ती हूँ मुझ से नाम न कहलाओ। क्या कहूँ? अच्छा कहना ही पड़ेगा! मेरी माँ है।"
"नहीं! तेरी माँ नहीं, मेरी माँ। तेरी माँ तो अभी तक जीती जागती है। यह भूतनी बनकर तुझे कहाँ सताने आई। उस दिन छोटे भैया ने भी कुछ जिक्र किया था परंतु मैं इन बातों को मिथ्या मानता हूँ इसी लिये मैंने उसकी बात पर कान नहीं दिया। यदि तेरा कहना सत्य भी हो ( क्योंकि मैं तुझे झूठी नहीं मानता ) तो जीते जी उसने क्या दुःख दिया? मैंने कभी कुछ शिकायत नहीं सुनी?"
"बेशक! मैंने आप से कभी नहीं कहा। दुःख सुख सब नसीब के हैं फिर तुम्हें सताने से फायदा ही क्या? और जो जान भी लेते तो कर क्या सकते? थी तो तुम्हारी माँ ही और जो तुम्हारी माँ वही मेरी मा-मा से भी बढ़कर पूज्य, फिर उनकी बुराई यदि मेरी जवान से निकले तो जीभ जल जाय। अब की भी सिर पर आ बीती है तब झक मार कर आपके आग्रह करने से कहना पड़ा है क्योंकि दुःख पाकर मर जाना अच्छा। परंतु माता पिता की निंदा भगवान कभी न करावे।"
"अच्छा तो कह दे न? बात क्या थी?" "मैं पहले क्षमा माँगती हूँ। मेरा अपराध यही था कि मैं गरीब घर की बेटी हूँ। मेरे विवाह से उनकी साद नहीं पूरी। बस इस बात का हर दम ताना दिया करती थीं। कभी कभी गालियाँ देती थी और कभी मेरी जबान से कुछ जवाब निकल गया तो मार भी बैठती थीं।"
"और छोटे भैया की बहू के साथ?"
"वह लखपती की बेटी है। प्रथम तो वह लाई है सब कुछ फिर वह धनवान् की दुलारी बेटी ठहरी। उससे एक बात कहे तो वह उत्तर में सवह सुनावे। 'वक्र चंद्रमहिं ग्रसै न राहू।' वह अब भी कहती है कि भाभीजी की तरह मुझे सतावे तो मैं झाडू ले खवर लूँ। मैं हाथ जोड़ती हूँ तो मुझे तंग करती हैं और वह गालियाँ सुनाती है तो उसकी ओर फट- कती तक नहीं।"
"अच्छा! खैर! परंतु इसका उपाया?"
"उपाय एक नहीं मैं अनेक बार कह चुकी। उपाय यही गया श्राद्ध वह चाहती हैं। कई बार मुझ से कहा भी है।"
"मेरी माता को भी योनि मिले मैं भी नहीं मानता। तुझे कुछ वहम हो गया है। नहीं तो सब वाहियात है। सरासर झूठ है।
इतने ही में बाहर से आवाज आई―"नहीं बिलकुल सच है।" "हैं! यह किसने कहा?" कह कर पंडित प्रियानाथ देखने के लिये बाहर निकले और वहाँ किसी को न पाकर कुछ स्वर पहचानने से आँखों में आँसू बहाते हुए भीतर आकर रोने लगे। "हाय माता! तेरी यह गति क्यों हुई? हे भगवान! तू जाने! मेरी गैया जैसी पवित्र माता की ऐसी गति!" कह कर उन्होंने ज्यों ही छाती में एक घुँसा मारने के लिये हाथ उठाया प्रियंवदा ने―"हैं हैं! यह क्या करते हो?" कह कर उनका हाथ पकड़ लिया। घटना इस दर्जे तक पहुँच जाने पर भी जब इस बात को उन्होंने सत्य न माना तब मैं भी इसे अभी सच्ची नहीं कह सकता हूँ। शायद आगे चल कर इसमें कुछ भेद ही निकल आवे अथवा न भी निकले किंतु यह उस समय की बात है जब प्रथम प्रकरण में लिखी हुई घटना बहुत पहले हो चुकी थी। इतना अवश्य कह देना चाहिए कि जो कुछ प्रियंवदा ने पति से कहा वह देवर कांतानाथ की राय लेकर। देवर भौजाई की इस विषय में एक राय थी।
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