आदर्श हिंदू १/८ आलसी भोला

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आदर्श हिंदू-पहला भाग।  (1922) 
द्वारा मेहता लज्जाराम शर्मा
[ ६६ ]
 

प्रकरण―८

आलसी भोला।

पंडित प्रियानाथ जी राजपुताने में कहीं के रहनेवाले थे। कहाँ के, सो बतलाने की आवश्यकता नहीं और यदि पाठक महाशयों की बहुत सी इच्छा हुई तो आगे चल कर देख लिया जायगा। हाँ! इतना अवश्य है कि गत प्रकरण में लिखी हुई घटना के अनंतर वे अपनी प्यारी प्रियंवदा और प्रिय बंधु, कांतानाथ समेत सकुशल मथुरा पहुँच गए। इधर ये तीनों और उधर बूढ़ा भगवानदास, उसकी स्त्री और उसका बेटा, यों छः आदमियों की एक यात्रा पार्टी थी। पंडित जी के साथ एक कहार नौकर भी था। नाम उसका था भोला परंतु लोग कहा करते थे कि "इसका माम भोला किस मूर्ख ने रख दिया? यह भोला नहीं। जो इसे भोला कहे सो भोला। यह पक्का घाघ है, बड़ा मतलबी है और कामचोर भी आला दर्जे का है।" इसके और गुणों का परिचय तो समय शायद पाठकों को दे तो देही सकता है किंतु कामचोरी की बानगी गत प्रकरण से प्रकट हो गई। वानगी यहाँ कि जिस समय प्रायः सबही यात्री भूख, प्यास लू, गर्मी और धूप के मारे तड़प रहे थे, जब उसके मालिक मालकिन जी तोड़ परिश्रम कर रहे थे तब भोला चंडू के [ ६७ ]नशे में चूर होकर एक खाली गाड़ी के नीचे पड़ा पड़ा खर्राटे भर रहा था। पंडित, पंडितायिन के हज़ार नाहीं करने पर भी इसने चंडू पिया, उनके परिश्रम की, कष्ट की और अपनी नौकरी की किंचित् भी पर्वाह न कर उसने चंडू पिया और सच पूछो तो उस समय का "गम गलत" करने के लिये पिया।

पिया तो पिया! उसका व्यसन था और पिया किंतु उसको भूख और प्यास से व्याकुल समझ कर जब पंडितायिन ने जगाया, पति के नाहीं करने पर भी उस पर दया करके खाने पीने को दिया तो खा पीकर फिर सो गया। फिर प्रियंवदा ने जल के छीटे देकर जगाया तो चुप, कांता भैया ने टाँग खैंच कर जगाया तो चुप और पंजित जी ने लात मार कर जगाया तो चुप। यदि बहुत ही दिक्क़ हुआ तो सोते सोते, करवट बदलते बदलते और आँखें मलते मलते इतना कह दिया कि―"साले यों ही सताते हैं। पियेंगे और हज़ार बार पियेंगे। जो मरते हैं उन्हें मरने दो। तुइहें मरना हो तो तुम भी मरो। कल मरते सो आज ही क्यों न मर जाओ। पीते हैं, और गाँठ का पैसा काट कर पीते हैं। किसी ससुर या क्या पीते हैं?"―इस पर पंडित जी ने नाराज होकर उसे नौकरी से अलग भी कर देना चाहा क्योंकि काम का नाम लेते ही वह आँखें दिखला दिया करता था। एक बार पंडित जी के साथ कहीं दौरे पर गया था। पंडित जी ने कहा "अरे चिराग गुल कर दे" वह लिहाफ में लिपटा लिपटा बोला― [ ६८ ]"लिहाफ से मुँह ढाँक लो" थोड़ी देर में पंडित जी ने पूछा― क्यों रे? क्या मेह बरस रहा है? जरा उठ कर देख तो कहीं कपड़े तो नहीं भीगते हैं?' उसने जवाब दिया-"हाँ वरसता तो है। अभी बिल्ली भीगी हुई आई थी।" फिर पंडित जी बोले―"बरसता है तो जाकर कपड़े उठा।" वह बोला― "तड़के आप ही सूख जाँयगे।" तब पंडित जी ने कड़क कर कहा-"सूरख कैसे जाँयगे। खराब हो जाँयगे।" उसने लिहाफ में से मुँह निकाले बिना ही धीरे ले उत्तर दे दिया- "नुकसान से डरते हो तो इतना काम तुम ही कर लो।" आज की हरकत से पंडित जी को उसकी सब पुरानी बातें याद आ गई। उन्होंने अपनी जेब में से निकाल कर एक दो, तीन, चार रुपये गिने। गिन कर उसकी जेब में डाले और तब यह कह कर-"यह खर्च ले। जब तेरी मौज हो अपने घर चले जाना। आज से ही तू मौकूफ! हमें ऐसा नौकर नहीं चाहिए। चला जा अपने घर और और जगह नौकरी टटोल।" वहाँ से चलने खगे। पंडित जी का सचमुच ही खरा खरा क्रोध देख कर उसकी निद्रा टूट गई। उसने लपक कर पहले पंडित जी के और जब उन्होंने झटका दिया तो पंडितापिन के पैर पकड़ लिए। हाथ जोड़ कर माथा टेक कर और चिरौरी करके क्षमा माँगी और आँखों से आसू बहा कर वह रोने लगा। पंडितायिन को उस पर दया आई और उसने भोला की शिफारिश करते हुए कहा― [ ६९ ]"इस बार का अपराध इसका क्षमा कर दो। नहीं तो बिचारा यात्रा बिना रह जायगा। इस गरीब को यात्रा कहाँ? "क्यों? क्या तेरा यह कुछ…जब देखो तब (जरा मुसकरा कर) इसे यों ही बचा देती है। (अपनी हँसी को होठों से दवाते हुए) कुछ दाल में……

"बस बस! हर बार (तिउरियाँ चढ़ा कर आँखें मट- काती हुई) की दिल्लगी अच्छी नहीं होती। भाड़ में जाय यह और चूल्हे में जाय इसकी नौकरी। मैं तो इसे पीढ़ियों का नौकर समझ कर इस पर दया करती थी। तुम्हें बंद करना है तो कल करते आज ही कर दो। मुझे क्या गरज है?"

"ओ हो! जरा सी बात पर इतनी नाराज? अच्छा तेरी इस पर इतनी कृपा है तो इसे बंद नहीं करेंगे। हाँ हाँ! सच तो है यह तेरा नौकर है।"

"बस जी कह दिया! एक बार नहीं सौ बार कह दिया। दिल्लगी मत करो। निगोड़ी ऐसी हँसी भी किस काम की? तुम्हारी हँसी और मेरी मौत! कोई जाने सच और कोई जाने झूठ! और तुम्हें सचमुच ही संदेह हो तो वैली कह दो! पेट में मत रक्खो। साफ साफ कह डालो।"

"नहीं संदेह वंदेह का कुछ काम नहीं। यों हीं मज़ाक से कह दिया। तू नाराज होती है तो हम अब मज़ाक ही न करेंगे। हम हारे और तू जीती।" [ ७० ]"नहीं! मज़ाक तो एक बार क्या सौ बार करो मज़ाक के बिना सब मज़ा ही किरकिरा हो जाय परंतु ऐसी हँसी नहीं।"

"ऐसी नहीं तो कैसी?"

"हाँ हाँ! ऐसी! बस ऐसी। बहुत हो गया! अच्छा मैं हारी! ऐसी! अजी ऐसी?"

"बोल तू हारी या हम हारे?"

"मैं हारी तो मैं तुम्हारी दासी और तुम हारे तो तुम मेरे साईस।"

"भला तो दोनों में से कौन?"

"आपकी दासी, जन्म जन्मांतर की दासी।"

इस तरह कष्ट के समय भी हँसी दिल्लगी से जी बहलाने के अनंतर इन्होंने मथुरा का मार्ग लिया और वहाँ पहुँच कर बंदर चौबे के यहाँ डेरा किया।

यहाँ "बंदर" से मेरा मतलब लाल लाल मुँह के दुमदार मथुरिया बंदर से नहीं है। इस दुमदार बंदर ने पंडितायिन को कैसे छकाया सो लिखने के पूर्व मुझे यहाँ प्रियानाथ के पंडा बंदर चौबे का परिचय दे देना चाहिए। इन चौबेजी महा- राज का नाम भी बंदर था और भंग के नशे में जब यह काम भी कभी कभी बंदर का सा कर डालते और उस समय यदि लोग इन्हें हँसते तो यह चट कह दिया करते थे कि

"यजमान या में कहा अनोखी बात भई? हम बंदरन के [ ७१ ]पुरखा और बंदर हमारे पुरखा! चौबे मरै सो बंदर होय और बंदर मरै सो चौबे!"

खैर! बंदर चौबे डील डौल में खासा पंदर जैसा था। आज कल का सा बंदर नहीं रामावतार का सा बंदर। उसके थाली के पेंदे जैसे गोल और विशाल चहरे पर दाढ़ी और मोछ की कुछ कुछ बढ़ी हुई हजामत ऐसी मालूम होती थी मानों सूर्य के प्रकाश में दिन-मलिन चंद्रमा के खाई खंदक। उसके ललाट पर केसर की खौर देख कर यह कहने की इच्छा होती थी कि कहीं फीके चाँद पर रंगत चढ़ा कर रात को प्रदर्शिनी के लिये आज कल का कोई नवीन विज्ञानबाज नया चंद्रमा तो नहीं तैयार कर रहा है। उसके दोनों कंधों के मध्य भाग मैं उसका सिर ऐसा दीख पड़ता था जैसे पंसेरा लोटा उलट कर रख दिया हो। उसके सिर से अलग दीखने वाले दोनों कान मानो इस लोटे का भार सहने के लिये दो कुँडे थे और उसका मुँह पिचक पिचक जर्दा थूँकने के लिये नाली। इतने पर यदि किसी महाशय को नाक की उपमा ढूँढनी हो तो आज कल के किसी नामी कवि से जा पूछे। क्योंकि न तो मैं कवि ही हूँ और न कधियों का सा मेरा दिमाग। उसके मुख के, मस्तक के स्वरूप से पाठक अनुमान कर सकते है कि उसका शरीर कैसा विशाल, कैसा भारी और कैसा मोटा था।

हाथ में कान के बराबर ऊँचा बाँस का एक लट्ठ और बगल में एक बटुए के सिवाय वह अपने पास कुछ नहीं [ ७२ ]रखता था। सिर पर एक दुपल्ली टोपी, कंधे पर एक अँगोछा और कमर में धोती रखने के सिवाय चाहे कैसा भी जाड़ा क्यों न पड़े मिरजई पहनने की कसम और जेठ की दुपहरी में धरती चाहे तत्ते तवे की सी गर्म क्यों न जल उठे जूता पहनने का काम ही क्या? वह जब कभी बहुत गुस्से में आता तो अपनी चौबायिन को मारने के लिये अपना हाथ अपने पैर से जूता निकालने को नीचे की ओर दौड़ाता अवश्य परंतु जब श्रीमती―"हाँ! हाँ!! मारो! मारो!! भगवान ने दी हो तो मारो। जन्म को नंगो निगोड़ा जूता मारने चलो है। कभी बाप जमारे भी जूती पहनी है जो मारने के लिये हाथ फैलावै है। एक बेर जूती पहन तो सही। नसीब में लिखी हो तो जूती पहन।" कहती हुई हँस कर तालियाँ बजा देती और बंदर चौबे भी इस बात से प्रसन्न होकर मुँह बिचकाता हुआ वहाँ से नौ दो ग्यारह होता। मथुरा के दिल्लगीबाज लोग लुगाइयों को बंदर चौबे की हँसी करते देख कर इसकी धोती भी कभी कभी उनकी हँसी में गहरी हँसी बढ़ाने के लिये उसकी कमर का अड्डा छोड़ भागने का प्रयत्न करती रहती थी। प्रयत्न क्या? कभी कभी भाग भी निकलती थी किंतु सरे बाजार इस तरह इसके कई बार दिगंबर हो जाने से जब लोगों ने इसका नाम ही नंगा रख लिया, "नंगा नंगा" कह कर बालक इसे चिढ़ाने लगे यहाँ तक कि इसकी धोती खैंच कर भागने लगे तब इसकी ठठोल धोती को शर्म आई [ ७३ ]और तब ही से अपनी मथनी से पेट के नीचे वह धोती की एक दो गाँठें देने लगा।

जैसे डील डौल में बंदर चौबे कुंभकरण होने का दावा करता था वैसे ही खाने में भी बड़ा बहादुर था। तीन चार सेर लडुआ, पाँच छः सेर खीर और ऊपर से सेर डेढ़ सेर जलेबी खाजाना इसके लिये कोई बड़ी बात न थी। क्योंकि "चूरन की जगह होती तो चार लडुआ ही क्यो न खाते?" यह ऐसे ही लोगो का सिद्धांत था। जैसा इसका डील डौल था, जैसी इसकी खुराक थी वैसी ही इसमें ताकत भी थी। एक सांस में हजार दो हजार डंड खैंच लेना इसके लिये कोई बड़ी बात नहीं थी। पहले पहले इसने दो चार नामी नामी पहलवानों को कुस्ती में मारा भी था परंतु हिम्मत के नाम पर इसकी नानी मर जाती थी। जो दिन में पाँच पँचों के सामने पहलवानी की बड़ी बड़ी डीगँ हाँकता वह घर में पहुँचते ही चौबायिन के आगे गैया सा गरीब बन जाता था। वह जैसे नचाती वैसे ही नाचता और इस तरह उसका हुक्मी बंदा बना रहता था। हिंदुओं के घर में जितनी कुत्ते की कदर है उतनी ही उसकी थी। लुगाइयाँ यहाँ तक कहती थीं कि चौबा- यिन ने उस पर जादू कर दिया है।

अस्तु! कुछ भी हो। पंडित प्रियानाथ जी ने जिस समय इसके मकान के आगे अपना ताँगा खड़ा किया इसकी भंग छन कर तैयार हो चुकी थी। इसने साफी धोकर भंग के लोटे [ ७४ ]ढाँके। ढाँक कर ज्योंही इसने "दाऊ दयाल ब्रज के राजा और भंग पिये तो यहीं आजा।" की आवाज के बाद रंग लगा कर छूँछ हाथ में उठाई, उठा कर ज्योंही इसने―"लेना वे!!!" के गगनभेदी शब्द से अपनी कोठरी को गुँजा डाला त्यों ही बाहर ले आवाज आई―"ए चौबेजी! अजी चौबेजी! किवाड़ा खोलो।" आवाज सुनते ही चौबायिन लंबा घूँघट ताने लपकी हुई आई। आकर―"छोड़ छोड़! भंग! निपूते जजमान आय गए। जब देखो तब भंग! भंग के सिवाय मानो कछु काम ही नाँय है।" कहती हुई ज्यों ही इसके पास से भंग का लोटा छीनने लगी यह बोला―"भागवान भंग तो पी लेन दै। जज- मान आयो हैं तो मरने दै सारे को। कहा ऐसो जजमान है जो निहाल कर देगो! ऐसे ऐसे नित आमैं हैं और चले जामैं हैं।" उसने इसकी एक न सुनी। लोटा छीन कर एक ओर एकखा और हाथ पकड़ कर आगे कर लिया। यह मन ही मन बड़बड़ाता, अपनी कुलकामिनी को गाली देता, उसकी और देख देख कर लाल लाल आँखें निकालता मकान के बाहर पहुँचा। इसने अपने सिर पर लाद कर सारा सामान अंदर लिया। पंडित प्रियानाथ जी को उनके योग्य और बूढ़े भग- वान दास को उसके योग्य स्थान दिया।

"महाराज, आप तो हमारे अन्नदाता हैं। हमारे लिये तो आप ही राजा करण हैं।" कह कर उनकी खुशामद की और जब सब तरह उनकी सेवा सुश्रुषा कर ली तब इस बिचारे [ ७५ ] का कहीं भंग पीना नसीब हुआ । इसने बहुतेरा चाहा कि इस भंग में बादी भर गई है, दूसरी बनाई जाय परंतु चौबायिन की घुड़की से चुप।








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