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आदर्श हिंदू १/७ रेल की हड़ताल

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आदर्श हिंदू-पहला भाग।
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

काशी नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ५७ से – ६५ तक

 
 

प्रकरण―७

रेल की हड़ताल।

"मामला क्या है? आज इस छोटे से स्टेशन पर इतनी भीड़? कोई हजार बारह सौ आदमियों से कम न होंगे, स्टेशन पर एक दो-नहीं-पाँच-सात गाड़ियाँ खाली खड़ी हैं। गाड़ियों से मतलब केवल उस गाड़ी से नहीं जिसको लोग डब्या कहते हैं और अंगरेजी में कैरेज। गाड़ियाँ अर्थात् ट्रेनें। एक एक ट्रेन में बीस बीस गाड़ियाँ। न कोई टिकट देनेवाला मिलता है और न जिसके पास टिकिट है उन्हें गाड़ी पर सवार करनेवाला। स्टेशन का रंग ढंग देखने से मालूम होता है कि आज इनका कोई मर गया है। परंतु मर गया होता तो हँसी दिल्लगी क्यों करते? स्टेशन के बाबू, खलासी, नौकर चाकर आज या तो मुसाफिरों का ठट्ठा करते हैं अथवा आपस में घुसपुस घुसपुस बातें। "अजी बाबू जी, ए सर- कार, अजी अन्नदाता, हम भूख प्यास के मारे मरे जाते हैं। यह जेठ की दुपहरी और ऐसी जोर शोर को लू! कहीं सिर मारने के लिये छाया का नाम नहीं। दस बीस आदमी हैजे से भर जाँय तो कुछ अचरज नहीं। गाड़ी कब जायगी? हम मरे जाते हैं हे भगवान! हमारी सुनो।" भीड़ में से इस प्रकार की पुकार एक बार नहीं, अनेक बार मचती है, स्त्री बालक रोते चिल्लाते हैं―रो रो कर गगनभेदी चिल्लाहट से कलेजे के किंवाड़ फाड़े डालते हैं परंतु इनकी पुकार सुननेवाला नहीं।

सरकार ने मुसाफिरों के आराम के लिये स्टेशन पर जल के नल लगा दिये हैं परंतु उनमें एक बूँद पानी नहीं। स्टेशन से गाँव ढाई तीन कोस और मुसाफिरों के पास अनाप सनाप बोझा। आज कुली मजदूरों ने बोझा उठाने की कसम खा ली और गाड़ी मिलते ही अपने ही अपने काम के लिये रवाना होने की मृगतृष्णा। इसलिये गाँव को चले भी जाँय तो कैसे जाँय? स्टेशन पर एक कुआँ नहीं, छोटी सी कुइयाँ है। प्रथम तो स्टेशनों पर पानी पांड़े रहने से और फिर जल के नल लग जाने से मुसाफिरों ने अपने साथ डोर लोटा रखना ही छोड़ दिया। पंद्रह सेर की आज्ञा होने पर भी एक एक आदमी के पास मन सवा मन बोझा होगा परंतु लोटा डोर कसम खाने के लिये नहीं। यदि किसी के पास कर्म संयोग से निकल भी आया तो कुइयाँ से पानी खैंचकर लाना और महाभारत जीतना बराबर। भला जिनको छुआ छूत का विचार है, जो बाजपेयी बन कर किसी को अपना पानी छुआने में नाक भौं सिकोड़ते हैं उनकी तो आथ मौत ही समझो, परंतु जिन्हें इन बातों की पर्वाह नहीं है अथवा जिनके कान में मौत ने आकर कह दिया है कि या तो आज के लिये छुआ छूत छोड़ दो, नहीं तो कुत्ते की तरह मारे जाओगे, वे प्यास से व्याकुल होकर यदि साहस के साथ पानी भरने के लिये दौड़े जाते हैं तो क्या हुआ? कुएँ पर कम से कम डेढ़ सौ आद- मियों की भीड़ है। यदि चार चार छः छः आदमी आपस के मेल मिलाप से साथ साथ जल भरने का सिलसिला डाल लें तो थोड़ी देर में सब ही भर सकते हैं परंतु सब ही औरों से पहले भरना चाहते हैं, पहले भरने के लिये आपस में लड़ते हैं, मारते कूटते हैं और इसीलिये अभी तक सब रोते के रोते हैं। आपस की गाली गलौज, मार कूट, धक्का मुक्का और लात घूसों के साथ रोने चिल्लाने से और तो क्या-खासा जंग का मैदान दिखलाई देने लगा है। इस लड़ाई में यदि किसी का सिर फूट गया है तो कोई रोता जाता है और अपनी टाँग का खून पोंछता जाता है। कोई "हाय मरा रे! बेतरह मारा गया हूँ।" पुकार रहा है तो किसी के मूर्च्छा के मारे होश हवाश ठिकाने नहीं है।

जहाँ पानी के नाम पर आँसुओं की धाराएँ बह रही हैं वहाँ खाने का ठिकाना कहाँ! जब सरकार की कृपा से, सुप्रबंध से हर एक स्टेशन पर घटिया बढ़िया लय तरह का खाना मिल जाता है और जब समय के प्रवाह ने मुसाफिरों के मन से खान पान की छुआ छूत उठा दी है तब लोग यहाँ तक बहादुरी लूटने लगे है कि ट्रेन में आराम से खाने की दुहाई देकर घर से भूखे आते हैं। इस लिये समझ लेना चाहिए कि यदि किसी के पास थोड़ा बहुत खाना है भी तो वह विरला, किंतु एक तो स्टेशन ही छोटा सा फिर यहाँ यदि खाना मिल भी सके तो कितना और दूसरे जो एक दो खोमचे वाले हैं वे अपने पास की ताजी तो क्या बासी कूसी पूरियाँ तक बेंचकर दिवालिए बन गए हैं। घी का तो उनके पास काम ही क्या। जब घी ढाई सेर की जगह ढाई पाव का बिकने लगा है तब घी की पूरियाँ! घी की पूरियों का तो सुपना देखो परंतु मामूली तेल की–यदि बहुत हुआ तो खोपरे के तेल की पूरियाँ बनाने के लिये न तो वहाँ तेल है और न कसम खाने के लिये आटा। बस इसलिये सब ही लोग चिल्ला रहे हैं कि― "आज मौत आगई।"

"इस हड़ताल से, राम जाने रेलवे के नौकरों का कुछ लाभ होगा या नहीं परंतु हम मुसाफिर तो बे मौत मारे जाँयगे।" जब बड़े बड़े लोगों को जो लंबे लंबे लेख लिखने और लेकचर झाड़ने वाले हैं, इस तरह घबड़ा डाला है तब छोटे मोटों की क्या विसात! कोई रोता है, चिल्लाता है और हाय! हाय!! पुकारता है, तो कोई भूख के, प्यास के और धूप की तेजी के मारे बेहोश हो रहा है, सिसक रहा है। यदि किसी को हैजा हो गया है तो कोई लू लगने से व्याकुल है। चारों ओर से― "हाय! मरा! हाय मरी! अरे मेरे नन्हा! अरी मेरी लाली। हाय अब मैं क्या करूँगी! हाय मुझे कहाँ छोड़ चले? हाय मैं घर की रही न घाट की! हे प्राणनाथ अब मैं किसकी हो कर रहूँगी! हे भगवान मुझे भी मौत दे दे!" की पुकार मच रही है तो ऐसा किसका पत्थर सा कलेजा है जो ऐसे समय में भी न पसीजे। इन मुसाफिरों में से कोई माई का लाल भी निकला। भूख और प्यास से, धूप और लू से व्याकुल होने पर भी उसने यों कुत्ते की मौत मरने से, अपने देशियों के, मनुष्य जाति के प्राण बचाने के लिये मर मिटना अच्छा समझा। एक मुसाफिर के पास से तलवार लेकर उसने म्यान से निकाली और कुएँ के इर्द गिर्द जो भीड़ थी उसे काई की तरह चीरता हुआ वह कुएँ पर जा खड़ा हुआ। खड़े होकर उसने ललकारा―

"खबरदार! कोई आपस में लड़े तो! मैं एकही झटके से दो टुकड़े कर डालूँगा। छः छः आदमी पाओ और कुएँ से पानी भरकर चुपचाप चल दो। अगर किसी ने धक्का मुक्की की यदि किसी ने किसी को मारा पीटा अथवा जो किसी ने गाली गलौज की तो वह अपने को मरा ही समझ ले।"

बस इसके इस सरह ललकारते ही तुरंत रास्ता हो गया। चारों ओर से "शाबाश शाबाश!" और धन्यवाद धन्यवाद!" की पुकार मच गई। और इस तरह घंटे डेढ़ घंटे में सब मुसा- फिरों के पास पीने के लिये पानी पहुँच गया। जिन लोगों के पास लोटा डोर था उन्होंने अपने हाथों से भर लिया और जो कोरे थे उनके लिये इस व्यक्ति ने उन्हीं मुसाफिरों में से चार आदमी खड़े करके स्टेशन वालों के तथा मुसाफिरों के डोल लेकर दिए और इस तरह पानी पहुँचाया। "खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग पकड़ता है।" इस एक व्यक्ति को परोपकार में प्रवृत्त होते देखकर दूसरे का भी मन पिघला। उसने लपके हुए तार घर में जाकर तार बाबू के हजार मना करने पर भी तुरंत ही ट्राफिक सुपरिटेंडेंट को, ट्राफिक मैंनेजर को और दूसरों को तार दिया―

"ट्रेनें चलने के बंदोबस्त में अगर देर हो तो हो लेकिन यहाँ के हजार बारह सौ मुसाफिर भूख, प्यास, धूप और लू से मरे जाते हैं। हैजा फूट निकला है। जल्द बंदोबस्त कीजिए।"

केवल इतना ही करके उसे संतोष नहीं हुआ क्योंकि वह जानता था कि "इस तार को पाकर यदि कोई आया तो उसे आने में कम से कम तीन घंटे चाहिएँ। और यदि आनेवाला साथ में कुछ न लाया तो और भी मौत समझो। इसलिये तार देने पर भी उनके भरोसे पर चुप रहने के बदले उसने अपने भूखे पेट से लू की, धूप की, प्यास और गर्मी की कुछ पर्वाह न करके गाँव में जाने के लिये कमर कसी। स्टेशन से बाहर निक- लते ही उसे सौभाग्य से जंगल में आवारा चरता हुआ एक टट्टू भी मिल गया। टट्टू मिला सही परंतु न तो उसके लगाम और न जीन। उसके पास गया तो वह मुँह से काटने और पैरों से दुलत्तियाँ झाड़ने लगा। "अब बड़ी मुशकिल हुई। प्रथम तो ढाई कोस जाना और इतनी दूर ही आना। पैदल चलने का अभ्यास नहीं। यदि टट्टू पर चढ़ता हूँ तो शायद यह कहीं गढ़े में गिराकर जान ले डाले। अच्छे अच्छे बड़े बड़े घोड़ों पर मैं अवश्य चढ़ा हूँ परंतु ऐसे टट्टुओं से भगवान बचावे।" इस विचार से वह घबड़ाया और सो भी विशेष इस लिये कि–"आज मरना है और काम में सफलता होने से पहले।" परंतु इसके साहस बटोरते ही इसे तुरंत एक युक्ति सूझी। इसने टट्टू के पैर झाड़ से उलझा कर अपने साफे की उसके मुँह में डाठी बाँधी। यह नंगी पीठ पर सवार हुआ और गिरने की कुछ पर्वाह न कर ज्योंही इसने दस बारह डंडे मारे टट्टू सीधा होकर लीक लीक दौड़ने लगा। टट्टू को दौड़ाते हुए पास के कस्वे में जाकर यह देखता क्या है कि हलवाइयों की दुकाने बंद है। बस्ती का कोई भला आवमी आज मर गया है। सब लोग उसकी मुर्दनी में गए हुए हैं। उस जगह कोई भाड़ भी नहीं जहाँ चने मिल सकें। ऐसी दशा देखकर यह घबड़ाया अवश्य परंतु निराश नहीं हुआ। बस्ती में चक्कर लगाते लगाते इसे एक मकान ऐसा दिखाई दिया जिसमें हाल ही किसी की शादी होने के निशान पाए गए। इधर उधर से पता लगा कर वह उस के भीतर गया और विवाह की बची हुई मिठाई, पूरी, कचौड़ी आदि जितना सामान इसे वहाँ से मिल सका इसने मुँह माँगे भाव पर खरीदा और इस तरह इसे पंद्रह बीस सेर भुने हुए चने भी मिल गए। चने उसी शादी में नौकरों के चबेने के लिये भुनवाए गए थे। ऐसे यह सारा सामान एक छकड़े में लदवा कर स्टेशन पर पहुँचा।

जिस समय खाने का छकड़ा पहुँचा एक इंजिन और दो गाडियाँ लेकर एक स्पेशल भीं वहाँ आ पहुँची। गाड़ी में जो इस बारह कुली सवार थे उन्होंने खाने के टोकरे उतारे और खडम खडम अपने बूटों को बजाते हुए आठ दस युरोपियन भी उतर पड़े। दोनों ओर से लड्डू, जलेबी, पूरी, कचौड़ी, चना, चबेना, जो कुछ मिल सका सब लोगों को बाँट दिया गया, और बात की बात में सब के सब मुसाफिर खा पीकर उन दयावान् युरोपियनों को और उन दो देशी सज्जनों को आशीर्वाद दे दे कर धन्यवाद के पुल बाँधने लगे। उन साहब बहादुरों ने इन सज्जनों की बहुत कुछ प्रशंसा की बहुत बहुत धन्यवाद दिया और इनका नाम एक साहब ने अपनी नोटबुक में लिख लिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि इन दोनों को गवर्नमेंट ने "कैसरहिंद" सोने के तमगे प्रदान किए।

जब खा पीकर सब लोग निपट चुके तो सब के सब झुंड के झुंड ट्रैफिक सुपरेंटेंडेंड के गिई आ लिपटे। "सर- कार हमें जल्द पहुँचाइए।" "हम यहाँ बहुत कष्ट में हैं।" और "आपने जैसे हमारी जान बचाई है वैसे ही यहाँ से रवाना कर दो।" को चिल्लाहद मचाई। साहब ने सबको ढाढ़स दिया और सब ही अफसर गाडे, ड्राइवर, फायरमैन, खलासी बन बन कर मुसाफिरों को गाड़ियों में सवार करा करा कर वहाँ से विदा हुए। उस समय उन्होंने ऊँची तनख्वाह पाने का, ऊँचे दर्जे का बिलकुल खयालात किया। और इस तरह उनका खूब जय जयकार हुआ।

परंतु उन मुसाफिरों को मारने से बचाने वाले, जल और अन्न देकर उनकी जान बचाने वाले के दोनों सज्जन कौन थे? तलवार सूंत कर कुएँ के पास खड़े हो जाने वाले पंडित प्रिया- माथ और कस्बे से मिठाई लानेवाला उनकी ही आज्ञा से उनका छोटाभाई कांतानाथ। कुएँ से डोल भर भर कर पानी बाँटने वाला बूढ़ा भगवान दास, उसकी स्त्री, उसका एक लड़का और इस जगह अपनी कोमल कलाइयों से जी तोड़ परिश्रम करनेवाली प्रियंवदा को यदि मैं भूल जाऊँ तो लोग मुझे कृतन्घ कहेंगे। उस बिचारी ने अपनी जान झोंक कर परिश्नमा किया और दौड़ कर पानी पिलाने में खूब ही आशीर्वाद पाया।

यही पंडित जी की यात्रा का श्रीगणेश है।



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