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आदर्श हिंदू २/प्रकरण-३५ प्रियंवदा या नसीरन

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आदर्श हिंदू दूसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ११६ से – १२१ तक

 

प्रकरण--३५
प्रियंवदा या नसीरन

"वास्तव में दोष, क्या अपराध मेरा ही है। एक अस्थि चर्ममय शरीर के लिये लौ लगाकर इतनी विह्वलता! राल और थूँक से भरे हुए मुख पर इतना मोह! जिसका दर्शन ही चित्त को हरण करनेवाला है, जो प्रेम के फंदे में डालकर प्राण तक चूस लेनेवाली है उन पर इतनी आसक्ति! हाय बड़ा अनर्थ हुआ! राजर्षि भरत को मृगशावक के लिये मोह हुआ था और मुझे भी गृहिणी के लिये, नहीं नहीं अब मैं इसे गृहिणी नहीं कह सकता। गृहिणी वही जो केवल पति के सिवाय किसी की ओर नजर भर न देखे। यह कुलटा, साक्षात् व्यभिचारिणी! ओ हो! संसार भी कैसा दुस्तर है। जिसे एक घंटे पहले पातिव्रत की प्रतिमूर्ति समझ- कर जान देने को तैयार था वही पर पुरूष से -- हाय! हाय !! आगे कहते हुए मेरा हृदय विदीर्ण होता है, मेरी जिह्वा जली जाती है। वास्तव में बड़ा गजब हो गया। जिले मैं हिरे का हार समझे हुए था वह काली नागिन! जो मेरी हदये- श्वरी बनती थी वहीं मेरी जानलेवा, प्राण हरण करनेवाली डायन! बड़ा धोखा हुआ! मुझे धिक्कार है! एक बार नहीं, लाख बार! मैंने पतिव्रता समझकर कुलटा पर इतना मोह

किया! मलों से भरे हुए शरीर से प्रेम! नि:संदेह मैं मूर्ख हूँ। मैंने इतना पढ़ लिखकर झख ही मारा। राजर्पि भरत की कथा स्मरण होने पर भी मैले आसक्ति की! कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगा तेली! राजर्पि भरत का राशि राशि पुण्य- संचय और मैं निरा पामर। उनके सुकृत उन्हें मोहसागर से उधार ले गए और मुझे अपने पाप के फल भोगने हैं। लोग भगवान रामचंद्रजी पर भी मोह होने का दोष लगाते हैं। हाँ! उन्होंने मोह दिखलाया सही किंतु नर-देह धारण करके चित्त-वृत्ति की दुर्बलता प्रदर्शित करने के लिये, संसार का उद्धार करने के लिये। यह केवल उनकी लीला थी। उन्होंने दिखला दिया कि मनुष्य-शरीर में अवतारों तक को आसक्ति होती है किंतु उनकी आसक्ति वास्तविक आसक्ति नहीं थी। हाय! मेरा रोम रोम आसक्ति से भर गया। यदि परमात्मा मेरी रक्षा न करता तो अवश्य, नि:संदेह मेरी गति "कीट भृंग" की सी होती। मैंने हजारों बार -- "भृंगी भय से भृंग होत वह कीट महा जड़, कृष्ण प्रेम में कृष्ण होने में कहा अचरज बड़" का लोगों को उपदेश दिया है किंतु यह शिक्षा औरों के लिये थी। मैं ही स्वयं फँसा और सो भी एक कुलटा के लिये। धिक्कार है मुझको, धिक्कार इस हरामजादी कुलटा को और फिटकार पापी, पाप में प्रवृत्त करनेवाले कामदेव को! खैर! होना था सो हुआ। अब? अब त्याग! बस त्याग के सिवाय और उपाय ही क्या?

इससे बढ़कर सजा ही क्या हो सकती है। जन प्रतिज्ञा करता हूँ, संकल्प करता हूँ। बस आज ही से......"

"हैं! हैं!! एक निरपराधिनी को इतना भारी दंड! खबरदार अब मुँह से जो एक बोल भी निकाला तो। जरा समझकर, सोचकर निश्चय करके प्रतिज्ञा करो।"

"बस बस! मेरा हाथ छोड़ दो। मुझे रोको मत! देखो! यह रांड और वह रँडुवा, दोनों मुझ चिढ़ा रहे हैं। क्रोध तो ऐसा आता है कि अभी इनके टुकड़ टुकड़े कर डालूँ परंतु नर-हत्या के, नारी-हत्या के पाप से डरता हूँ।"

"छोड़ कैसे दे? हमारे सामने ऐसा अन्याय! हम कभी न होने देंगे। निरपराधों को हम कभी दंड न देने देंगे।

सहसा विदधीत न क्रियामविवेक: परमापदां पदम्।

वृगुते हि विमृश्यकारिण गुशलुब्धा स्वयमेव संपदः॥"

"अपराधी कैसे नहीं है? यह रोड अवश्य अपराधिनी है। मैं इसका मुँह देखना नहीं चाहता!"

"तुम जिसे अपनी गृहिणी समझते हो वह प्रियंवदा नहीं, नसीरन रंडी है। सूरत शकल चाहे थोड़ी बहुत तुम्हारी घर- बाली से मिलती भी हो, शायद कुछ अंतर भी होगा। अच्छी तरह निश्चय कारो। बिना विचारे काम करने से तुम्हें जन्म भर पछताना पड़ेगा क्योंकि मैं जानता हूँ कि प्राण जाने पर भी तुम अपनी प्रतिज्ञा टालनेवाले नहीं!"

"हैं! यह रंडी है और मेरी घरवाली?"

उसे हम आपके घर पहुँचवाकर अभी आ रहे हैं।"

क्या सचमुच? आप कौन हो। आपने मुझ अभागे पर इतनी दया क्यों की? यदि आप सच्चे हैं आपने हमें प्राण दान किया। आप देवता हैं! मनुष्य नहीं!"

देवता नहीं (कानों में अँगुलियाँ डालकर) राम राम! काटों में न घसीटो। मिथ्या प्रशंसा करके आकाश में न चढ़ायो। मैं आदगी हूँ! एक दीन ब्राह्मण हूँ। अनि इस शरीर से किसी का कुछ उपकार हो जाय तो सौभाग्य! काशी के गुंडों से दीन दुखियों की रक्षा करना, परमेश्वर शक्ति दे, यही व्रत है। रक्षक तो नहीं है। यदि हो तो निमित्त मात्र मैं भी हो सकता हूँ। जिस स्त्री के रोने को आबाज तुमने सुनी थी वह प्रियंवदा थी। तुम्हें बचाने में उसकी जान जाती समझकर पहले मैं उनके पास गया। बस इसी लिये तुम लुट गए। इधर तुम्हें एकाकी छोड़ देने से तुम्हारे प्राणों पर आ बनती। क्योंकि जब से तुमने नाव में उस साधु को मारा तब ही से गुंडे तुम्हारे पीछे लगे हुए हैं। परंतु घबड़ाओ नहीं अब तुम्हारा बाल भी बाँका न होगा।"

"महाराज कैसे विश्वास हो कि आप सच्चे हैं। मुझे यहाँ लाकर लूट लेने और फँसा जानेवाला भी ऐसा ही भला बनता था। मुझे तो यहाँ रस्सी रस्सी में सर्प दिखलाई देता है। आप भी उसकी तरह मुझे फँसाकर इस कुलटा की रक्षा करने के लिये प्रयत्न करते हों तो आश्चर्य क्या?"

"बेशक तुम सच्चे हो। भ्रम होने तुमारी भूल नहीं परंतु जब तुम अपने घर पहुँचकर अपनी प्यारी को सही सलामल पा लोगे तब तुम्हारा संदेह अपने आप मिट जायगा।"

"जब तक मेरा संदेह न मिट ले, आप उसे मेरी प्यारी न बतलाइए। मैं अभी तक उसे कुलटा समझे हुए हूँ।"

"अच्छा तुम्हें संदेह हो तो मैं तुम्हें घर पहुँचाने की पूर्व ही उसे मिटा सकता हूँ! अच्छा। (उस रंडी की ओर देखकर) यहाँ आ री नसीरन! हरामजादी एक भले आदमी को धोखा देकर सताती है।"

"महाराज, जो कुछ मैंने किया जमके सिखाने से किया। वही इनकी घरवाली की सूरत शकल मुझसे मिलती हुई पाकर मुझे सजा गए और जाती बार मुझे बीस रुपए का नोट दे गए।"

"क्यों? इससे उनका क्या मतलब?"

"मतलब यही कि नगर इनको यकीन हो जाय कि इनकी औरत फायशा है तो यह उसका पीछा छोड़ दें! वही इनको यहाँ लाए हैं। शायद इनमे उनको कुछ रंज पहुँच चुका है।"

इसके अनंतर पंडित प्रियानाथ में कितने ही गुप्त और प्रकट चिह्नों से, उसकी बोलचाल से निश्चय कर लिया कि यह प्रियंवदा नहीं नसीरन रंडी है। तब उनके जी में जी आया। तब वह हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर, पैर छुकर महात्मा से कहने लगे --

"महाराज, आपने बड़ा उपकार किया! आपका कोटि कोटि धन्यवाद! आप वास्तव में नर-रूपधारी देवता हैं।"

"नहीं नहीं! ऐसा न कहो! मैं कुछ नहीं। मैं एक तुच्छ जीव हूँ। परमेश्वर की अनंत पूष्टि में एक कीटानुकीट हूँ।"

"धन्य! परोपकार पर इतनी नम्रता! परंतु महात्मा, यह तो कहिए कि इसका रूप ऐसा क्योंकर बन गया?"

"काशी कारीगरी का घर है। यहाँ भला और बुरा सब मौजूद है। नाव में घुँसा खानेवाले साधु-रूपधारी नर-राक्षस ने किसी कारीगर को तुम्हारी गृहिणी दिखाकर इसमें और उनमें जो कुछ थोड़ा बहुत अंतर था उसे रोगल लगाकर मिटवाया।"

"परंतु चहरा कैसे मिल गया?"

"ईश्वर की इच्छा! होनहार! और अव अच्छी तरह निहारकर देखो। (नसीरन से) जरा अपने मुँह को धो डाल!"

"हाँ, यह धेाया!"

"बेशक दिन रात का सा अंतर है! वास्तव में मुझे ररसी में साँप का सा भ्रम हुआ। धुंधली रोशनी में, परछाहीं की आड़ में मैंने प्रियंवदा समझ लिया। और उस पुरुष से आलिंगन करते देखकर ही मैं क्रोध से आग हो गया। बस क्रोध के आवेश से मेरा सारा विवेक जाता रहा। परमेश्वर ने ही आपको भेजकर मुझे कुकर्म से बचाया।" इतना कह- कर दोनों वहाँ से चल दिए।

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