आदर्श हिंदू २/प्रकरण-३७ घुरहू का प्रपंच
"विपति बराबर सुख नहीं, जो थोड़े दिन होय।"
वास्तव में दुःख अंतःकरण का रेचन है। दस्तावर दवा पीने से
जैसे पेट के यावत् विकार निकल जाते है वैसे ही आपदा
अंत:करण का मल धोने के लिये रामबाण है। सोना ज्यों
ज्यों अधिक तपाया जाता है त्यों ही त्यों उसका मूल्य बढ़ता है।
खान से निकलने पर हीरा जो कौड़ियों के मोल विकता
है वही खराब पर चढ़कर लाख पा लेता है। जब तक
आदमी धूप में ना जाय उसे छाया के सुख का अनुभव नहीं
होता और इसी तरह यदि संसार में वियोग की विपत्ति न हो
तो संयोग के सुख को कौन पूछे? एक महीना और कुछ दिन
वियोग-महासागर में गोते खाकर, घोर संकट सहने के अनं-
तर आज पंडित प्रियानाथ और उनकी प्यारी प्रियंवदा संयोग-
सुख का अनुभव करने लगे हैं।
वास्तव में यह सुख अलौ
किक है। इसकी तुलना नहीं, समता नहीं। यद्यपि दोनों
का प्रेम स्वाभाविक था, दर्पण की तरह विमल था किंतु अब
हीरे की नाई शुद्ध हो गया। यावत् विकारों का समूल नाश
होकर वह निखर गया। नसीरन के धोखे में आकर दुष्टों
का चकमा खाकर उनके मन में जो भ्रम पैदा हुआ था उसके
लिए पंडित जी बहुत पछताए, पत्नी के आगे प्रसंग आने
पर लज्जित हुए।
आज दोनों एकांत में बैठकर अपनी अपनी "आप बीती"
सुना चुके हैं। दोनों ही भगवान् को धन्यवाद देते हैं और
दोनों ही पंडित दीनबंधु की प्रशंसा करते हैं। माता पिता
अपने बालकों नाम अपनी समझ के अनुसार बढ़िया से
बढ़िया तलाश करके रखते हैं किंतु इस दीनबंधु के समान उनमें
"यथा नाम तथा गुण" बिरले हैं! अनेक वीर और बहादुर
दुम दबाते फिरते हैं, असंख्य हरिश्चंद्र टके के लिये अपनी
प्रतिज्ञा को पैरों में कुचलते देखे गए हैं, अनेक दीनानाथ दीनों
का दरिद्र दूर करने की जगह दोनों का दलन करनेवाले हैं।
जिनका नाम दयालु वे घोर अत्याचारी और जो सत्यवादी नाम
धारण करते हैं वे मिथ्याप्रलापी। किंतु पंडित दीनबंधु वास्तव
में दीनों के बंधु, सहायहीनों के सहायक निकले। उन्होंने एक
बार नहीं सैकड़ों बार अपनी दीनदयालुता का परिचय दिया।
यदि वह न होते तो आज दंपति को सुख से संभाषण करने का
सौभाग्य ही प्राप्त न होता। वह जिसके लिये बीड़ा उठाते उसी
को उबारकर दम लेते, उसकी रक्षा करने के लिये अपनी जान
झोंक डालते और प्रत्युपकार के नाम पर उससे एक पाई न
लेते, उलटे उसके कनौड़े रहते -- यही उनका व्रत था। वह
यों जैसे प्रजा के प्यारे थे वैसे सरकार के भी कृपाभाजन
थे, विश्वासपात्र थे, क्योंकि उनके जितने कार्य थे वे सब
राजा-प्रजा का समान हित साधने के लिये, सरकारी आईन के
अनुसार और धर्म के अनुकूल होते थे।
आज इन दोनों को लज्जा बचाकर, प्राण-रक्षा कर उन्हें परम सुख है। दोनों को घर पहुँचाकर शरीर-कृत्व से निवृत्त होने के अनंतर, स्नान संध्या से छुट्टी पाकर आगे को जब तक यह जोड़ी काशी में निवास करे इनको काई सताने न पावे, इसका पक्का प्रबंध करके इनका कुशल-क्षेम पूछने के लिये वे यहाँ आए हैं। यद्यपि इनकी वय पंडितजी से दस पाँच वर्ष अधिक होगी किंतु वह उन्हें पितृतुल्य मानते हैं। और मानने में अहसान ही क्या है? उन्होंने इनका उपकार ही ऐसा किया है कि जिससे कभी उत्कृण नहीं हो सकते। पंडित पंडितायिना स्वयं स्वीकार करते हैं कि "हम यदि अपनी खाल का जूता बनाकर भी पहनावें तो उनसे उत्कृण नहीं हो सकते।" अभी उनके आते ही प्रियानाथजी ने दीनबंधु का अभ्युत्थान, अभिवादन, अर्ध्य, पाद्द और मधुपर्कादि से प्राचीन प्रथा के अनु- सार सत्कार करके उनके विराजने को ऊँचा आसन दिया है, महात्मा के दर्शन करने की लालसा से गौड़बोले, बुढ़िया, गोपी- बल्लभ सव ही वहाँ आ आकर प्रणाम कर करके यथास्थान बैठ गए हैं। सबके जमा हो जाने पर पंडित प्रियानाथ समि- त्पाणि होकर बड़ी नम्रता के साथ इस तरह प्रार्थी हुए --
"पिताजी, भगवान् ने बड़ी अनुकंपा की। आप यदि
हमारी रक्षा न करते तो दोन दुनिया में हमारा कहीं ठिकाना
न लगता। सचमुच आपने हमको विपत्ति के दारुण दावा-
नल में से, जैसे प्रह्लाद भक्त को भगवान नृसिंह ने बचाया था,
वैसे ही उधार लिया। हम आपकी कहाँ लो प्रशंसा करें।
आपने भय से, घोर कष्ट से हमारी रक्षा की।
"अन्नदाता भयत्राता पत्नीतातस्तथैव च।
विद्यादाता मंत्रदाता पंचैते पितरः स्मृतः॥
आप जब हमारे पिता है तब आपका धन्यवाद ही क्या है?"
इस कथन का गौड़बोले ने अनुमोहन किया, घूँघट की ओट में संकेत से प्रियंवदा कृतज्ञता प्रकाशित की, बूढ़े बुढ़िया ने "हां सच है! बेशक सच है।" कहा और गोपी- बल्लभ से जब कुछ कहते न बना सब लपककर उसने उनके पैरों में सिर जा दिया। उसका सब ही ने एक एक करके अनुकरण किया। पंडित दीनबंधु यद्यपि सबके इस काम से लज्जित हुए, उन्होंने अपने पैर छिपाने में, उन्हें हटाने में कमी नहीं की किंतु कोई भी ऐसे महात्मा के चरण स्पर्श का पुण्य लूटने से वंचित न रहा। इस तरह पर लूटालूट समाप्त होने पर पंडित दीनबंधु बेले --
"आप लोगों ने आज मेरा असाधारण आदर किया।
भगवान् भूतभावन से वरदान पाकर भस्मासुर के समान
जगज्जननी अंबिका को छीन लेने की पापबासना से अपने उप-
कारक, इष्टदेव के मस्तक पर हाथ फेरनेवाले सैकड़ों हैं किंतु
आजकल आपके समान उपकारविंदु को उपकार-महासागर
माननेवाले विरले हैं। भस्मासुर की क्या कथा कहूँ। मुझे
ही इस लघु जीवन में ऐसे ऐसे अनेक भस्मासुरों से पाला पड़
चुका है किंतु दुष्ट यदि अपनी दुष्टता न चूके तो न चूके,
उसका स्वभाव है, सज्जनों को अपना सौजन्य क्यों छोड़ना
चाहिए? मैं अपना अनुभव क्या कहूँ? पंडितजी आप ही सोच
लो। आपने एक समय विपत्ति में जिस व्यक्ति को बचाया
था वही आपकी थी, माता के समान नारी को भ्रष्ट करने और
आपको सताने पर उतारू हो गया। इससे बढ़कर क्या कृत-
त्रता होगी? कृतव्नता से बढ़कर संसार में आई दुष्कर्म नहीं!"
"हैं! मैंने किसी का उपकार किया? उपकार यद्यपि कर्तव्य है किंतु मुझे याद नहीं आता कि इस जीवन में कभी मुझ से किसी का उपकार बन पड़ा हो। महाराज तेली के बैल की तरह यह जीवन व्यर्थ ही व्यतीत हो रहा है। पिताजी, पहेली न बुझाओ। स्पष्ट कहो कि मैंने किसका उपकार किया?"
"वास्तव में सज्जनता इसी में है। जो सज्जन हैं के करते
तो हैं किंतु प्रकाशित नहीं होने देते। अच्छा आप नहीं
कहते हैं तो मैं ही बतलाए देता हूँ। आप दंपती ने किसी
बार दौरे के समय कहीं, किसी व्यक्ति को मरते मरते बचाया
था? रेल में यात्रा करते समय तीसरे दर्जे की गाड़ी में कभी
आपको कोई प्लेग-पीड़ित मिला था? डाक्टर लोग उसे
पकड़कर जब अस्पताल में पहुँचाने लगे तब आप दंपती अपना
आवश्यक काम छोड़कर, नौकरी बिगड़ने की रंचक पर्वाह न
करके किसी के साथ हो लिए थे? याद करो! आपने
उसके निकट रहकर उसका इलाज करवाया। इस बहिन ने
उसके मरहम पट्टी की, उसे पथ्य करके खिलाया और उसके
मल मूत्र को साफ किया। गाड़ी में उसे मूर्छित देखकर
दूसरे मुसाफिर उसके पास से रुपया पैसा निकाल हो चुके
थे। उसके पास जब एक फूटी कौड़ी भी आपने न पाई तब
उसके इलाज में, उसके खान पान में और टिकट दिलाकर
उसे यहाँ तक पहुँचा देने में आपही ने खर्च किया। बस यह
वही व्यक्ति है जो नाव में आपका घूँसा खाकर आप पर
बिगड़ खड़ा हुआ, आपकी सती, साध्वी, पतित्रता पत्नी पर
जिसने मन बिगाड़ा। पहचान लो। अच्छी तरह याद कर लो!"
"हाँ महाराज याद आ गया। बेशक वही है। उस समय उसकी लंबी दाढ़ी से नहीं पहचाना था किंतु अब स्मरण हो आया। वही है। परंतु आप मनुष्य नहीं देवता हैं। आपको कैसे विदित हो गया कि यह वही व्यक्ति है?"
"विदित न हो जाय? मैं वेतनभोगी सरकारी गुप्तचर
नहीं, डिटेकिव नहीं, किंतु ऐसे नरपिशाचों का आमालनामा
मेरी डायरी में है। वह रहनेवाला काशी ही का है। मेरे
पुराने पड़ोसी का लड़का है। लाखों रुपए की सम्पत्ति उसने
ऐसे ही ऐसे कुकर्मों में उड़ा दी। अब जो कुछ उसके पास है
अथवा इधर उधर से लूट खसोटकर लाता है उसे इस तरह के
कामों में उड़ाया करता है। हाँ इतना हो नहीं! आपके देश में
सन्यासी बनकर थोड़े से जेवर के लालच से वह एक भले आदमी
के बालक को मार आया है। इसलिये उसकी गिरफ्तारी का
वारंट है। वह एक बार प्रयागराज में गंगा के उस किनारे पकड़ा
भी गया। परंतु सिपाहियों को धोखा देकर भाग आया।
तब से यहीं है। शायद उससे आप लोगों की एक बार रेल
में और फिर प्रयाग के स्टेशन पर भेट भी हो चुकी है।"
"परंतु पिताजी, आपको यह सारा हाल क्योंकर मालूम हुआ?"
"वह उसी नसीरन रंडी पर मरा मिटता है। जब शराब पीकर उसके साथ मजे में आ जाता है तब अपनी शेखी वधा- रते वधारते सब कुछ कह जाता है। मेरी उस पर कई वर्षों से नजर है इसलिये मैंने किसी तरह उस रंडी को अपने काबू में ले रखा है। बस इस कारण वह मेरे पास आकर सारा हाल कह जाती है। एक बात उसने आपकी गृहिणी के विषय में और भी कही थी किंतु वह, सत्य है। अथवा मिथ्या हो, लज्जाजनक है इसलिये मैं कहना नहीं चाहता।"
इतना सुनते ही प्रियंवदा पसीने में सराबोर हो गई। वह
लाज के मारे मरने लगी। उसकी आँखों में से आंसू बहकर
अँगिया भिगोने लगे और उस समय उसका शरीर ऐसा ठंढा
पड़ गया कि काटो तो खून नहीं। इस भाव का प्रियानाथ
ने समझा, दीनबंधु ने भी कुछ अटकल लगाई हो तो कुछ
आश्चर्य नहीं कि और किसी ने कुछ भी न जाना कि मामला
क्या है? पति ने पत्नी को आँखों ही आँखों में समझा
दिया और प्रियानाथ दीनबंधु से कहने लगे --
"हाँ! मैं इस घटना को जानता हूँ! आपने भी इसका भेद पा ही लिया होगा। अभी कहने की आवश्यकता नहीं। मैं स्वयं का अवसर मिला तो आपका संदेह निवृत्त कर दूँगा। परंतु महाराज मुझे एक संदेह बड़ा भारी है। आप क्योंकर मेरे उद्धार को तैयार हुए? और कटी हुई अँगुली किसकी थी?"
"इसका यश इस बूढ़े बाबा का देना चाहिए। गंग- तट पर जिस समय मैं संध्या वंदन से निवृत्त हुआ इसी से आपका सारा हाल कहा। इससे पता पाकर मैं अपने कर्तव्य-पालन के लिये तैयार हुआ। रहा सहा भेद मैंने घुरहूआ बाबू की श्यामा नौकरानी से जाना। उसे ही फोड़कर मैंनें प्रियंवदा के पास खंजर और खान पान पहुँचाया। बस इससे आगे आप सब कुछ जान ही चुके हैं।"
इस पर पंडितजी ने भगवानदास को धन्यवाद दिया। पंडितायिन ने बुढ़िया के कान में कहकर उनका अहसान माना और तब प्रियानाथ ने फिर पूछा --
"और महाराज, मेरे सामने (जेब में से पोटली निकालते
हुए) इसे फेंकनेवाला कौन था? और उन दोनों रमणियों
को यह बात किस तरह मालूम हुई?" इतना कहते कहते
उन्होंने पोटली खोलकर सबको दिखलाई। उसमें कोई
बहोशी की दबा नहीं थी। उसमें खून से भरी हुई एक
अंगुली थी और एक अंगूठी रक्त में मरावीर उस अँगुली में
पहना रखी थी। इससे स्पष्ट हो गया कि पंडितजी
ने अँगूठी को पहचानकर प्रियंवदा का मारा जाना और तब
उसकी अँगुली काट लेना मान लिया था। बस यही कारण
उस समय उनके मुर्च्छित होने का था। किंतु इस समय
दिन में जब अच्छी तरह आँखें फाड़कर देखा गया तो न तो
वह अँगुली अँगुली ही निकली और न बह रह रक्त ही।
अँगुली मोम की बनी हुई थी और लहू की जगह लाल रंग।
तब प्रियानाथ फिर कहने लगे --
"हा ते वे दोनों रमाणियाँ?"
"उसी मुहल्ले में घुरहू का मकान है। श्यामा उसी मकान में रहती है जिसमें उन दोनों में की एक रहती है। उसी से उन्होंने भेद पाया होगा।"
"तब घुरहू ने प्रियंवदा को दाल की मंडी में क्यों रखा और जो आदमी मुझे धोखा देकर रंडी के यहाँ पहुँचा देने में था उसने क्या दो शरीर धारण कर लिए थे? एक से मेरे साथ और दूसरे से (प्रियंवदा की ओर इंगित करके) इसे सताने में रहा?"
"नहीं यह आपका भ्रम है। नसीरन की गलती है।
प्रियंवदा के रोने की भनक जब आपके कानों पर पड़ी तब
वह घुरहू उसके पास मौजूद था। आपको बहका ले जानेवाला
घुरहू नहीं उसका मित्र कतवारू था। कतवारू था इसी लिये
आपके प्राण बच गए क्योंकि वह धन का लोभी था आपके
प्राण का नहीं। घुरहू होता तो आपकी जान लिए बिना नहीं
छोड़ता।
वह आपका जानी दुश्मन बन गया है। आपने
उसके घूँसा क्या मारा साँप के पिटारे में हाथ दे दिया।"
"तो महाशय अब? अब उससे कैसे रक्षा होगी? भय के मारे बड़ी घबड़ाहट है। महाराज बचाइए। हे भगवन् इस दीन ब्राह्मण की रक्षा करो।"
इस पर दीनबंधुओ ने प्रियानाश को बहुत ढाढ़स दिलाया।
दंपती की रक्षा करने का जो जो प्रबंध उन्होंने कर रखा
था, वह उन्हें समझाया। "नारायण कवच" और "राम-
रक्षा" के यथावकाश पाठ करते रहने का अनुरोध किया
और अष्टगंध से भोजपत्र पर सूर्यग्रहण में लिखे हुए चाँदी
से मढ़े दो दो तावीज दंपती के गले में पहना दिए। दंपती
पंडितजी की ऐसी उदारता से, ऐसे अनुग्रह से और ऐसे उप-
कार से बहुत कृतज्ञ हुए और दोनों ने दीनबंधु के चरणों में
मस्तक रख दिया। उन्होंने पंडितजी को छाती से लगा लिया।
पंडितायिन के सिर पर हाथ फेरकर "अखंड सौभाग्यवती,
पुत्रवती भव" का आशीर्वाद दिया और जब प्रियानाश दीन-
बंधु के चरणों में एक हजार रूपए का नोट रखने लगे तब
उनके हाथ में से ले, अपने मस्तक पर चढ़ा प्रियानाथ की जेब
में डालते हुए दीनबंधु बोले --
"मुझे इसकी आवश्यकता नहीं।
भगवान् जैसे तैसे
मेरा योगक्षेम चला रहा है --
"अनन्याश्रितयंती मो ये जनाः पर्युपासते।
तेपां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥"
"हा यह सत्य है। परमेश्वर ही विश्वंभर है किंतु इस अकिंचन पुत्र का कर्तव्य है कि आप जैसे पिता, ॠषितुल्य महात्मा की प्रथा करें। उसी के लिये यह पत्र पुष्प है।"
"यह आपका अनुग्रह है, उदारता है किंतु मैं अपनी वृत्ति के अतिरिक्त ऐसे कामों में एक पाई भी किसी से नहीं लेता। मुझे इस बात की शपथ है।"
"तब आपकी वृत्ति?"
"मेरी वृत्ति! मैं क्या कहूँ? बड़ी निकृष्ट वृत्ति है। भिक्षा- वृत्ति से अधम आजकल कोई नहीं। आपका तीर्थ गुरु जिसने आपको श्राद्ध कराया था मेरा मा-जाया भाई है। वह मुझे पिता की तरह गिनकर मेरी सेवा करता है। उससे घर का निर्वाह होता है, खान पान चलता है और ऐसे कामों में जो खर्च होता है उसे मैं स्वयं कमाता हूँ। मैं जरी का काम अच्छा जानता हूँ। इसी से दो तीन रुपए रोज मिल जाते हैं।"
"धन्य महाराज! आपको करोड़ बार धन्य!! आप जैसे आप ही है!"
बस इस तरह की बातचीत हो चुकने पर दीनबंधु वहाँ से बिदा हुए।