आदर्श हिंदू २/२८ कांतानाथ के घरेलू धंधे

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आदर्श हिंदू दूसरा भाग  (1928) 
द्वारा मेहता लज्जाराम शर्मा

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प्रकरण -- २८
कांतानाथ के घरेलू धंधे

तेईसवे प्रकरण के अंत में अंत:करण में बहुत ही खेद होने पर भी यात्रा का परित्याग करने के अनंतर, धर्मामृत का प्याला होंठ से लगा लगाया छिन जाने पर, गृहस्थाश्रम का सुख की मिट्टी पलीत हो जाने पर पंडित कांतानाथ को मन मार- कर अवश्य घर रहना पड़ा, और वह रहे भी चार दिक्कड़ आपने हाथ में जल भुने खाने के बाद मग्न , और ईश्वर की ऐसी ही इच्छा अथवा कर्म के ऐसे ही भोग समझकर उन्होंने इस दुःख को विशेष दु:ख नही माना। यह पंडित रमानाथ शास्त्री जैसे विद्वान् के पुत्र और पंडित प्रियानाथ एम० ए० जैसे महानुभाव के जब भाई थे और जब स्वयं पढ़े लिखे थे तब ऐसी विपत्ति पड़ने पर घबड़ाते भी तो क्यों? उनका सिद्धांत था कि विपत्ति ही मनुष्य के मन को विमल करने की कसौटी है। "विपत्ति बराबर सुख नहीं जो थोड़े दिन होय।" -- यह उनका मोटो था। बस इसलिये वह इस दुःख को भी सुख मानकर आनंद से घर रहे।

इनके माता पिता का देहांत हो ही चुका था। घर में दोनों भाई और दोनों की बहुओं के सिवाय कोई नहीं था। यद्यपि पिताजी दोनों भाइयों का परस्पर भरत और राम का
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सा प्रेम देखकर भी स्त्रियों की लड़ाई से कभी आपस में झगड़ा खड़ा न होने पावे, इस भय से अपनी स्थिर और चल जीविका के दो बराबर हिस्से कर मरे थे, परंतु बड़े भाई की ओर से सब कारबार के मालिक छोटे भैया थे। इसी कारण बड़े भाई की आज्ञा से उन्हें रेलवे की नौकरी छोड़कर पिता का स्वर्गवास हो जाने के वाद घर में ही रहना पड़ा था। पंडित पियानाथ एक ऊँचे दर्जे पर गवर्मेंट के डाक विभाग में नौकर थे और पहले प्रकरण में हमारे पाठकों ने जब उनको आबू पहाड़ पर देखा तब कुछ ऐसे ही काम के लिये उनका वहाँ जाना हुआ था। वह जहाँ रहते प्रियंवदा को साथ रखते थे। दौरा करते समय पर्देदार औरत को साथ रखने में उन्हें कुछ कष्ट भी उठाना पड़ता था किंतु यदि छाया शरीर से अलग रहे तो प्रियंवदा पति से जुदी रहे -- यही उसका उत्तर था। इनके घर में मुसलमानों, कायस्थों और क्षत्रियों का सा ऐसा पर्दा भी नहीं था जिसके मारे सुकुमार ललनाएँ घर के जेलखाने में दम घुट घुटकर मर जायँ और ऐसे बेपर्द भी नहीं जिनकी महिलाएँ मुँह खोलकर पर-पुरुष से हँसी मजाक करें, पुरुष-समाज में खड़ी हाकर लेकचर फटकारें। पर्दा इस प्रकार का था कि घर के भीतर जनाने में दस पंद्रह वर्ष के लड़कों के सिवाय, खास खास नातेदारों के सिवाय कोई न आने पाने, स्त्रियां भी जो आवें वे ऐसी आवें जिनका चलन बुरा न हो। बाप भाई इत्यादि नातेदारों को
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भी युवतियों से एकांत में मिलने का अवसर न मिलने पावे । जब जाति बिरादरी में जाने के लिये, दर्शनादि के लिये मंदिर या तीर्थो में नारियों को जाने की आवश्यकता पड़े तब वे अदब के कपड़े पहनकर निकलें ताकि मार्ग में किसी को घूरने का मौका ना मिले। उस दिन पति के साथ आवू पहाड़ के "सनसेट पाइंट" पर प्रियंवदा गई और वहां इसे कोई आदमी मिला भी नहीं किंतु वह जब तक जीवित रही सदा ही समय समय पर पति से इस बात के लिये उलहना दिया करती थी, और अब वह इस बात का जिक्र छेड़ती तब ही पति राम भी आबू के सन्यासी से एकांत में पुत्र माँगने के मालूम क्या क्या अर्थ लगाकर उसे चिढ़ा दिया करते थे। इससे कभी मान और मान से बढ़ते बढ़ते कभी प्रेम-कलह तक हो जाया करता था और जब कभी वह कसमें खाकर, सुबूत दे देकर अपनी सचाई सिद्ध करती तब पंडितजी हँसकर ताली पीट दिया करते थे, क्योंकि उसके पास सबसे बढ़कर सुबूत यह था कि बुढ़िया दुलरिया जो इनके यहाँ पचास वर्ष से नौकर थी वह उस समय मौजूद थी, वह उस साधु से बातचीत करने में थी और उसकी भलमासाहत का सिक्का था। कोई छोटी मोटी तो क्या परंतु पंडितजी की माता तक में यदि वह कोई बात अनुचित पाती तो बेधड़क कह दिया करती थी और इस पर तुर्रा यह कि जब तक दिन भर की खबर वह अपने 'पिरिया लल्ला' को न सुना देती तब तक उसका खाना हजम
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नहीं होता था। प्रियानाथ को उसने ही पाला पोसा था, इसलिये वह इनको 'पिरिया लल्ला' कहती और यह उसको बूढ़ी मैया' कहकर पुकारा करते थे। यात्रा से बहुत पहले उसका देहांत होने से इन्होंने इसका सब क्रिया कर्म अपने हाथ से किया था और वह यदि जीवित होती तो अवश्य इनके साथ यात्रा किए बिना न रहती, क्योंकि जब तक वह जीती रही उसका एक बार गंगाजी में हड्डियाँ न डुबोने के लिये सदा ही लल्ला के ऊपर उलहना बना रहा, और यदि सच पूछो तो इस उलहने ही ने उसका शरीर छूट जाने पर पंडितजी से यात्रा करवाई। माता के प्रेत-योनि पाने का जो प्रसंग गत प्रकरणों में आया हैं वह इनकी असली माता के लिये नहीं था, क्योंकि इनकी असली माता का गया श्राद्ध इनके पिता बीस वर्ष पहले स्वयं कर आए थे, और जब इन दोनों भाइयों के इस डोकरी ने ही पाला पोसा तब ये लोग उसे माता से भी बढ़कर समझते थे।

पंडित कांतानाथ ने भाई साहब की अनुपस्थिति में घर पर पड़े रहकर केवल पड़े पड़े जँभुआइयाँ लेने में और सोने खाने ही में समय का खुन किया हो सो नहीं। इनके घर में रकम रखकर रूपया उधार देने का धंधा पीढ़ियों से होता चला आया था। संस्कृत पढ़ना और अत्मकल्याण के लिये पढ़ना किंतु उससे जीविका न करनी, कभी दान पुण्य न लेना, यह इनकी खानदानी धरोहर थी। इसके सिवाय सुरपुर में
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जमींदारी के दस विश्वे इनके पिता के खरीदे हुए थे । दो कुओं पर चाही खेती इनके घर में मुद्दत से चली आती थी । बस यही इनकी जीविका का चिट्ठा है, यही इनके घर की स्थिति का चित्र हैं। कांतानाथ को जब नौकरी छोड़कर घर पर ही रहना पड़ा, और एक बूढ़े मुनीब के मर जाने पर इन्होंने जो मुनीब दूसरा नियत किया उसकी नीयत खराब देखकर इन्हें जब झख मारकर रहेना पड़ा, तब यदि पुराने काम को सँभालने के सिवाय यह अपने कारबार की कुछ भी उन्नति न करें, केवल लकीर के फकीर बनकर पड़े रहें तो इन्होंने अँगरेजी पढ़कर ही क्या किया? पंडित प्रियानाथ ने अँगरेजी में एम० ए० पास किया था और कांतानाथ भी बी० ए० तक पढ़े हुए थे किंतु इनके पिता को डिगरियाँ प्राप्त कराना जितना पसंद नहीं था उतना ही उनके विचार से व्यावहारिक ज्ञान की आवश्यकता थी। इसलिये उन्होंने घर में रखकर केवल संस्कृत का ही इन्हें अध्ययन कराया हो सो नहीं, वरन् "हिंदू गृहस्थ" में लाला ख्यालोराम के छोटे पुत्र को जिस प्रकार की शिक्षा दी गई थी उसी तरह की शिक्षा और उसी गुरू से दिलवाने में पंडित रमानाथजी ने कोताही नहीं की थी।

ऐसे ऐसे अनेक कारणों से दोनों भाइयों के अंत:करण में कृषि और व्यापार के जो तत्व धँसे हुए थे उन्हें काम में लाने के लिये ही कांतानाथ से नौकरी का इस्तेफा दिलवाया गया था और उन्हीं में प्रवृत्त होने के लिये अब इन्हें अवसर
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मिला। इन्होंने सबसे पहल काम यह किया कि खेती की उन्नति के लिये पश्चिमी साइंस ने आजकल जो नए नए आविष्कार किए हैं उनका अपने देश की परिस्थिति से मिलान किया। "शर्ङ्गधर व्रज्या" इत्यादिक जो संस्कृत ग्रंथ इस विषय में पूरे या अधूरे मिलते थे, जो मुसलमानों के हम्मान में जल जाने से बचे बचाए इनके हाथ आए उनका अवलोकन कर इन्होंने खेती के काम का सुधार करने के लिये अपनी मुआफी की जमीन में नमूने के खेत तैयार करने का कार्य अरंम्भ किया। इस कार्य में इन्हें सफलता हुई या नहीं, सो अभी दिखला देने की अपेक्षा यात्रा से वापिस आने पर वह यदि स्वयं पंडितजी को दिखलावें तो पाठकों को इन पर रूष्ट न होना चाहिए। केवल इतना ही करके इन्हें संतोष हो गया सो नहीं। इन्होंने सुरपुर की जमींदारी के शेष दस विस्वे खरीद लेने का अवसर हाथ से नहीं जाने दिया और मुफ़ी के जमीदार के अचानक मर जाने से कर्जेवालों ने उन्हें उनके कुपूत बेटे बाबूलाल को घेरा और इसलिये उस गाँव के नीलाम होने का भी जब मौका आ पहुँचा तब इस विषय का बूढ़े भगवानदास से परामर्श करके "हाँ" अथवा "ना" को तार देने के लिये भाई साहब को लिखने में भी यह न चुके।

केवल इतना ही नहीं। इनकी आकांक्षा बहुत ही ऊँची आकांक्षा थी। ये ऐसे मनुष्य नहीं थे जिन्हें केवल जमींदारी के पुराने ढचरे में पड़े रहने से संतोष हो जाय, क्योंकि दाम
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और नाम, दोनों ही कामाना, दाम से भी नाम अधिक, यही इनका मूलमंत्र था। बस इसलिये वो तीन विचार इनके ध्यान में और आए। एक सुरपुर के आस पास दस दस बीस बीस कोस तक के जो जुलाहे जीविका मारी जाने से कपड़ा बुनना छोड़कर केाई खेत खोद के और कोई साईसी करके पेट पालते तथा मजदूरी न मिलने से भूखों मर रंहे थे उन्हें बुलाकर "फ्लाई-शटल" से "हैंड-लूम" की मदद से कपड़े बुनवाना और दूसरे टौंक और मालपुरे के कारीगरों के अपने गाँव में रखकर उसे धूगी और नमदों के सिवाय नए नए औजार देकर "फेल्ट" टेपियाँ बनवाना, तीसरा और सबसे बड़ा, एक और भी संकल्प इनके चिन्त में चक्कर काटा करता था। रेलवे की नैकरी से राजपूताने के अनेक बड़े बड़े शहरों का इन्होंने खूब अनुभव कर लिया था, इस कारण इन्हें भरोसा था कि यदि काम छोड़कर वह दृढ़ पाए पर डाला जायगा तो उसमें सफलता हमारी चेरी है। काम यही कि देशी कारीगरी का विनाश हो जाने पर भी राजपूताने में वह अभी तक जो कुछ बची बचाई है उसे उत्तेजना देने के लिये अजमेर में केवल सौ रुपए के एक हज़ार हिस्से से एक कंपनी खड़ी की जाय। विशेष कर राजपूताने का और साधारण में भारतवर्ष का बना हुआ माल इकट्ठा करके उसे थोड़े नफे पर बेचना। यह अच्छी तरह जानते थे कि "आर्ट्स स्कूल" की बदौलत, अच्छी उत्तेजना मिलने से जयपुर में अब तक

आ० हिं०—४ [ ५० ]
कारीगरी का घर है ही किंतु राजपूताने के सब ही राजवाड़े लगभग किसी न किसी तरह की कारीगरी के लिये प्रसिद्ध है, जैसे बीकानेर की लोई, बूंदी की पगड़ी और कोटे के डेरिए। इनके सिवाय कानपुर, अहमदाबाद, दिल्ली, बंबई आदि की मिलों की आढ़त खोल देने के काम अच्छी तरह चल निकलने की आशा थी और राजपूताने में देशी माल पहुँचाने और वहाँ का बना हुआ तथा वहाँ की पैदावारी का माल मँगाकर अन्यत्र भेजने के लिये अजमेर से बढ़कर कोई जगह नहीं, और अजमेर के रेलवे वर्क-शप के जो कारीगर नौकरी छोड़कर स्वतंत्र जीविका करना चाहें उन्हें उत्तेजना देनेवाला अभी तक कई नहीं। बस इन बातों को ध्यान में लाकर इन्होंने कंपनी खोलने का एक कच्चा चिट्ठा तैयार किया और यह काम बड़ा समझकर भाई की पसंदगी पर रखा गया। राजपूताने के राजवाड़ों में गेाचारण की भूमि की सुविधा देखकर गोरक्षा के काम को व्यापार के लक्ष्य से आरंम्भ करने का जो विचार किया सो जुदा ही।

इनकी गृहिणी सुखदा का जेवर, कपड़ा, बरतन आदि। जो सामान, राई रत्ती इन्हें लूट से वापिस मिला था वह अवश्य ल स्त्रीधन था। जब उस स्त्री के ही यह स्वामी थे तब उसके माल पर इनकी मालिकी हो तो आश्चर्य क्या? किंतु नहीं! इन्होंने उसे एक भंडार में अलग रखवाकर उसकी ताली उसे दे दी और उससे ताकीद भी कर दी कि "जब तक भाई साहब
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न आवें तब तक तू इसमें हाथ भी न लगाना।" वह अब बहुत ही सजा पा चुकी थी और यह कष्ट उसके मन का भूत निकालकर उसकी अकल ठिकाने ले आया था इसलिये उसने ताली वापिस देकर कह दिया कि "मुझे इससे अब कुछ काम नहीं रहा आपकी जूँठन खाने को मिल जाय और आपकी चरण-सेवा, बस इनके सिवाय मुझे अब कुछ यहीं चाहिए।" वह अब यहाँ तक सँभल गई थी कि इनकी इच्छा न होने पर भी अपनी खुशी से घर के काम काज करती, इनकी आँख बचाकर जिस दिन इनकी धोती धेने के लिये मिल जाती अपने को कृतार्थ समझती। यहाँ आने पर भी, पिट जाने पर भी मथुरा ने जब इसका पीछा न छोड़ा तब तक दिन इससे स्वयं उसका हाथ पकड़कर उसे निकाल दिया।

चोरों को उनके अपराध के अनुसार सजा मिल गई सो लिखने की आवश्यकता नहीं। हाँ आवश्यकता हैं मथुरा के लिये कुछ लिखने की, सो समय अप बलला देगा।


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