आदर्श हिंदू ३/४८ श्री जगदीश का प्रसाद और अश्लील मूर्तियाँ

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श्री जगदीश का प्रसाद और अश्लील मूतियाँ

‘‘परंतु क्यों जी प्रसाद की तो यहाँ बहुत ही अवज्ञा है ! राम राम ! शिव शिव ! ऐसी अवज्ञा ? भगवान जगदीश का जो महाप्रसाद देवताओं को भी दुर्लभ है, जिसके लिये बड़े बड़े ऋषि मुनि तरसते हैं, जिसका एक कनका भीा भवसागर पार उतरने के लिये संतु हैं और जिनका माहात्म्य वर्णन करने.जिसका गुण गान करने में अपने इस्तारविंद पर रखकर महाप्रभु बल्र्लभाचार्यजी ने एकादशी के दिन दिन रात बिता दिए ये उसकी इतनी अवज्ञा ? उसका इतना अपमान । उसका इतना अनाचार ! घोर अनाचार हैं । बस हद हो गई ?'

"हाँ सत्य है ! यथार्थ है। वास्तव में केवल याद करने ही से रोमांच हेाते हैं । जो उसकी महिमा मूर्तिीमती होकर दर्शन देती हैं सब अलंद से और जब उनका अनादर सामने आता है तब दुःख से हृदय दहल उठता है, रोमांच हो उठते हैं। हम लेग यदि मंदिर में जाकर ही ले आए, ऐसे लाकर ही हमने अपना मन समझा लिया तो क्या हुआ ? यदि मंदिर में जाओ तो मंदिर में और बाहर फिरों तो बाहर, जहाँ जाओ वहाँ महाप्रसाद की गंध, जहाँ देखा वहाँ महाप्रसाद बिखरा हुआ पैरों से रौंदा जा रहा है। उसे तैयार करनेवाले [ १६ ]पाचक ये ही मछली खानेवाले ब्राह्मण, उन्हें लाकर यात्रिय के पास पहुँचानेवाले शूद्र । वास्तव में बाबा के निकट ब्राह्मण और शुद्र एक हैं, समान हैं, किंतु इसका क्या यह मतलब है। कि मार्ग में लपक लपककर उसमें से खाते जाते हैं, खाते खाते जो कुछ बचना है उसे उसी में डाल दिया जाता है, जो कुछ बचा बचाया हो उसे बटोरकर दूसरे यात्रियों के पास पहुँचा दिया जाता हैं। घोर अनर्थ है । असह वेदना है । न शास्त्र-विहित आचार का कहीं पता है और न महाप्रसाद जैसी अदरगीय वस्तु का आदर ।"

बेशक,आपका कहना ठीक है। बस एक ही बार में मन भर गया। बहुत हुआ ! गंगा नहाए। अब अपने हाथ से बनाना खान और बाबा के दर्शन करना!”

इस प्रकार का मनसूबा करके, विचार स्थिर कर लेने पर भी चित का चैन नहीं हुआ तब अपने मन की भ्राति निवृत करने के लिये--- ‘इधर जाओ तो धाड़ और उधर गिरी तो कराढ" को याद करके पछताते हुए दो यात्री पंडितजी के पास आए । उन्होंने आकर दोनों के मन के भाव उनको समझाने के अंनतर हाथ जोड़कर, निंदा के लिये नही किंतु भक्तिपूर्वक पूछा---

आज ही के दिन में आपकी चर्या देखकर हम लोग के निश्चय हो गया है कि आप परमेश्वर के भक्त हैं, पंडित हैं और लेकाचार को भली भांति जाननेवाले हैं। महाराज,वल्लभसंप्रदाय के मंदिरों में, मंदिर के मुखिया भीतरियों को प्रसाद [ १७ ]बेचते देखकर ही हमारा जी जलता था । भगवान् का महाप्रसाद जैसा सुर-दुर्लभ पदार्थ, जिसके मूल्य के आगे त्रिलोकी का राज्य भी तुच्छ है वह दुकानें लगाकर बेचा जावे ! बड़े अनर्थ की बात है किंतु यहाँ आकर हम उसे भी गनीमत समझने लगे । यहाँ तो अवज्ञा की,आनाचार की हद हो गई हैं!

“हाँ ! आप लोग ठीक कहते हैं। मन में ऐसे ही भाव उत्पन्न होते हैं। श्री जगदीश -माहात्म्य' मैंने सुना। यहाँ के पंडितों से मेरा वादविवाह भी हुआ। शास्त्रों के मत से यह अवश्य पाया जाता है कि भगवान् के महाप्रसाद का अनादर न करना चाहिए। उस में छुआछूत का विचार नहीं । घृणा उत्पन्न होना भी पाप है किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि हम उसकी पवित्रता भी खो दे, इसकी महिमा का सर्वनाश हो जाय और वह पैरों से कुचला जाय ।"

"हां महाराज! यही हमारा कथन है । परंतु यह तो बाज़ाइए कि किस प्रकार का प्रबंध होने से ये दोष, ये कलंक मिट सकते हैं? और हमें कर्तव्य का क्या है ?

'कलंक भेदनेवाला केवल जगदीश हैं। वह चाहे तो एक क्षणभर में लोगों की गति भति सुधर सकती है। जाति पति के भेद का, छुआछूत के भिन्न भाव का अभाव भी यहां इस कारण से है और केवल उनके लिये है जो संसार के यावत विकरों से रहित हैं, जिन्होंने अपनी इद्रियों की जीतकर, दुनिया के यावत नातेदारों से नाता तोड़कर अपने अंत:

अ० हिं०----२ [ १८ ]करण को ईश चरणों में चिपका दिया है। ऐसा करनेवाले शृढ़ था अतिशूद्र तक परमपद प्रा। करते हैं। शबरी, वाल्मीकि, रैदास और धन्ना कसाई आदि अनेक भक्त इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। ऐसे भगवदीय जनों से स्पर्शस्पर्श की, जातिपांति की घृणा न हो । यही वहां के महाप्रसाद का माहाभ्य है। ऐसे भक्त वास्तव में हमारे वंदनीय हैं ।ये शुद्र, अतिशुद्र होने पर भी हमारे पूजनीय हैं। इस इनकी यदि जूठन भी खावे तो हमारा सौभाग्य किंतु भक्ति का हमारे ह्रदय में लेश नहीं, भगवान् के दर्शन करते समय भी उनके चरणों में लौ लगाने के बदले या तो हम रूपयों की थैली को याद करते हैं अथबा पर स्त्री के चरणों की महावर। मंदिर में जाकर भगवान की मूर्ति को नारखने के बदलं जब युवतियों के हावभाव पर हमारी नजर पहुंचकर उनका सतीत्व बिगाड़ने की ओर हमारा मन दैड़ जाता है तब कदाधि हम इस बात के अधिकारी नहीं कि हमारा स्पर्श किया हुआ अन्न कर कोई महात्मा हमारे पापों के कीटाणुओं (ज) का अपने मन में प्रवेश करें। इस कारण यदि उपाय हो सके तो ऐसा ही होना चाहिए जिससे महाप्रसाद की महिमा भी ज्यों की त्यों रहे, नहीं वर्द्धमान हो और हमारा आचार भी रहित रहें ।"

“हाँ महाराज ! यही हम भी चाहते हैं, परंतु इसका प्रकार क्या है ???

‘मेरी लधुमति के अनुसार होना इस तरह चाहिए कि [ १९ ]मंदिर में प्रसाद बनानेवाले जे ब्राह्मण पाचक हैं वे चाहे 'उड़िया ब्राह्मण ही हों तेा कुछ हानि नहीं । वे भी पंच गौड़ों में से उत्कल जाहि के हैं । यहाँ गौड़ द्राविड़ौ का भेद रखने की आवश्यकता नहीं ।'

“परंतु महाराज, तब क्या नागर, गुजराती, गौड़, कनजिये सब एक हो जाँय ?"

“शास्त्र की मर्यादा से ब्राह्राण ब्राह्म। सब एक हैं ! कहीं इस बात का उल्लेख नहीं है कि एक प्रकार का ब्राह्मण दूसरे का छुआ न खाय। बात यह हैं कि आचार, देश-भेद ऑल विचार-भेद से भिन्न भिन्न हो जाया करते हैं । जहाँ सर्दी अधिक पड़ती है वहाँ एक बार भी खान कठिन है और अहाँ गर्मी अधिक हो वहाँ तीन बार भी थोड़ा है। फिर घृतपकं मानकर उसका शुद्ध से छू जाना भी बुरा नहीं समझते और कोई उसमें जल का अंश मानकर उसे कञ्चो समझते हैं। इन कारणों से जहाँ आचार-भेद हैं वहीं खान-धान में भी भेद रहेगा । किंतु इस झगड़े को अभी जाने दीजिए । विषयांतर हो जाने से असली बात हाथ से निकली जाती है ।"

“अच्छा ते फर्माइए न कि क्या इन मछली खानेवाले उड़ियों का बनाया महाप्रसाद ग्राह्य है ??

“मैं मांस भक्षण के बहुत बुरा समझता हूँ। चाहे कैसा [ २० ]भी विद्वान् और सदाचारी ब्राह्मण हो किंतु भांस मछली खानेवाले के मुके स्वभाव में घृणा है किंतु मैंने सुना है कि जो महाप्रसाद बनाने का काम करनेवाले हैं उन्हें तीन दिन पहले से मछली का त्याग करना पड़ता हैं। मेरी समझ में पाचकों का वेतन बढ़ाकर उनके कुटुब में धर्मशिक्षा का प्रचार करके ऐसे पाचको को नियत करना चाहिए जो इस कुकर्म से सक्षा ही बचे रहना अपना कर्तव्य समझे ।

"हां ठीक है, परंतु फिर ?

जैसे पाचक सदाचारी हो वैसे ही भगवान् के भोग लागनेवाले भी हो। उनका स्पर्श किया हुआ नैवेग हम लोग करके, अपने अपने आचार के अनुसार पवित्र होकर यदि भोजन करे तो इसमें प्रसाद का आदर बढ़े और अचार की रक्षा भी है ।"

“तब इस तरह से हम उस महाप्रसाद के अपने घर ले आवें तो इसमें कुछ हानि नहीं ? रस्ते चला हुआ ??"

“नहीं ! कुछ हानि नहीं । हम अपने प्रचार के अनुसार लाकर पा सकते हैं ! यह हमारे हाथ में है कि मार्ग में किसी से स्पर्श न होने दें ।"

“और हमारे खाने के अनंतर पत्तल में उच्छिष्ट रहे। जाय तो ?"

“हम उच्छिष्ट रहने ही क्यों दे? और रह जाये तो उसके लिये अंत्यज हैं ! हमें फेक न देना चाहिए ।

“अच्छा महाराज ! ऐसा ही करेंगे । परंतु एक बात [ २१ ]और भी कह दीजिए। क्या इस महाप्रसाद को हम स्वदेश भी ले सकते हैं ?

नहीं ! माहात्म्य इस पुरी का है, केवल बाबा के चरणों में है। उसके चारणरविदो से जितने दूर उसने ही दुर !"

अच्छा महाराज,आपने हमारा संदेह मिटाकर बड़ा उपकार किया । आपके दर्शनों से आज हम कृतकृत्य हुए। कहते हुए जब वे दोनों यात्री उनके पास से उठकर अपनी कोठरी में अपने अपने विस्तरो पर जा सोए तब प्रियंवदा ने अपने प्राधालाब के चरण चापने के लिए, उनकी दिन भर की थकान दूर करके उन्हें सुख ने सुलाने के लिये अपने कोमल कोमल हाथ बढ़ाए। इस पर पंडित जी बोले-हैं हैं ! यह क्या करती है ? आज तू भी बहुत थक गई है । सो जा । सो जा! एक दिन न सही ! क्या यह भी कोई नित्य नियम है । देवपूजा है ? यदि पुरी में आकर न किया तो न काही ।”

"हां मेरे लिए तो नित्य नियम ही है । वास्तव में देवपूजा ही है । न किया सोन कैसे किया ?"कहकर प्रियंवदा पति के चरणों चापने लगी । क्यों जी नींद तो नहीं आती है ? आपकी निद्रा में ते विन्न नहीं पड़ेगा ? आज आप बहुत थक गए हैं यदि नींद आती हो तो वैसा कह दो!"कहकर उसने कई सवाल पर सवाल कर डाले । उन्होंने उतर दिया---

नहीं ! अभी नहीं आती ! नेत्रों में निद्रा का लेश भी नहीं है। आज शायद कुछ देर से आये और अभी अति काल भी नहीं हुआ।" [ २२ ]“अतिकाल नहीं हुआ हो। एक बात पूछना चाहती हैं । मेरे मन में बड़ा संदेह है। जब से मैंने देखा है मैं लाज के मारे गरी जाती हूं। भगवान के मंदिर में ऐसा अनर्थ ? ऐसी निलज्जता ? भला अपने महाप्रसाद की उन लोगों को ब्याख्या सुनाकर उनके विषय में तो मेरा संदेह निवृत्त कर दिया । यह सत्य ही है कि यदि कहाचारी के लिये जाति पाँति का भेद नहीं है तो न रहे किंतु सदाचार कदाचारी क्यों एक हो जाए ?" ।

"भगवान् के दर्शन करने के अनंतर जब कदाचारी भी सदाचारी हो जाता है तब कदाचारी कौन रहा ? और कदाचारी को भगवान् जगदीश दर्शन भी ले नहीं देते ।"

"पर तु हम इस बात का निश्चय भी तो नहीं कर सकते कि कौन कदाचारी है।

“इसीलिये मैंने उन यात्रियों को ऐसी व्यवस्था दी है। इसीलिये हमारे लिये ऐसा कर्तव्य है ।"

“हाँ परंतु असल बात को हन छेड़िए ! मेरे प्रश्नों का उन्तर दीजिए।

“तेरे प्रश्न का उत्तर बड़ा गहन है। ऐसा संदेह केवल तुझे ही हुई है। सा नही । जे यहां आते हैं उन सबका थोड़ा बहुत संदेह अवश्य होता हैं। मंदिर के शिखर के नीचे मनुष्य को अच्छी तरह दिखलाई दे, ऐसे स्थान पर स्त्री पुरुष के संयेाग की मूर्तियाँ देखकर लोगों के संदेह हो तो इसमें [ २३ ]उनका दोष भी नहीं है । दर्शकों के मन का भाव भी बिगड़े तो विगड़ सकता है। मैंने इस विषय में पुरी का माहात्म्य देखा तो उसमें कहीं इस बात का उल्लेख उहीं । यहाँ के पंडितों से पूछा तो केवल एक के सिवाय सबने योही आय बाँय शांय उत्तर दिया । कोई कहते हैं कि यह मंदिर बैद्धिों का बनाया हुआ है पर तु अश्लील मूर्तियां की उनमें बिलकुल चाल नहीं । जैन मंदिरों में अवश्य नग्न प्रतिमाओं का पूजन होता है किंतु वे मूर्तियाँ महात्माओं की हैं। उनसे हमारा हजार मतभेद हो किंतु जिन महात्माओं के लिये स्त्री पुरुप समान, पत्थर और सोना एक सा उनकी नग्न मूर्तियां से मन का भाव नहीं बिगड़ सकता । महाप्रसाद के विषय में मैंने जिन लोगों से छुआछूत न मानने की राय दी है वे ऐसी ही स्थिति के थे । हमारे शास्त्रों में इसी लिये भगवद्भक्तों के बड़े बड़े विड़ाने से, राजा महाराजाओं से ऊँचा आसन दिया है। लोग भले ही ऐसी अटकल लगाया करें किंतु मेरी समझ में यदि यह मंदिर सतयुग का बना नहीं तो हजार वर्ष से कम का भी नहीं है फिर उस समय ऐसी मूर्तियाँ बनाने की क्यों आवश्यकता हुई ? मेरे इस प्रश्न का उत्तर जो एक पंडित ने दिया उसका भाव यही है कि मंदिर शिल्प शास्त्र के नियमों के अनुसार बनाया गया हैं। उन्होंने ताड़ पत्र पर लोहे की लेखनी से लिखे हुए एक प्राचीन ग्रंथ में लिखा हुया बतला दिया कि ऐसी मूर्तियों की बनावट से मंदिर की वजपातादि [ २४ ]उपद्रवों से रक्षा होती है। तक मेरी समझ में आया कि ऐसे सुंदर, गगनस्पर्शी, विशाल मंदिर की शोभा के लिए ये मूर्तियां ढिठौना है। ढिठौने से बालक की सुंदरता घटने के बदले जैसे बढ़ती है वैसे ही इन मूर्तियों को देखकर मन का भाव बिगड़ने के स्थान में सुधारना चाहिए मथुरा में यमुना पार एक शिवमूर्ति के दर्शन करके मनुष्य कोई जैसे शिक्षा मिलती है वैसे ही किसी प्रकार की शिक्षा इन मूर्तियों को देखकर ग्रहन करना चाहिए।"

"हैं पूरा की कैसी मूर्ति? मैंने दर्शन नहीं किए।"

"उस समय गौडबोले साथ से इसलिए मैंने तुम्हें मंदिर के बाहर है हरा दिया था। उस शंकर मूर्ति के एक हाथ मैं जिहाद है और दूसरे में......। उस प्रतिमा से यह शिक्षा मिलती है कि दो इंद्रिया ही मनुष्य को धर्म से गिरा देने वाली है इसलिए जो भवसागर पार उतरना चाहे यह इन पर काबू रखें और इस तरह काबू रखें। इन मूर्तियों से उपदेश मिलता है कि भगवान के मंदिर में आकर भी जिस नर नारी के मन में इस प्रकार के काम विकार उत्पन्न होंगे उनकी कहीं गति नहीं है । वे यहां आए हैं स्वर्ग प्राप्ति के लिए किंतु उनके लिए कुंभीपाक तैयार है। कबर खाबड़ भूमि पर चलनेवाला मनुष्य प्रमादवास तो कल जब ठोकर खाने की भूल करता है तभी अनुभवी षिटृ जनों के मुख से अनायास"खबरदार!संभलकर!!"निकल जाता है, वैसे ही ये प्रति [ २५ ]आए” इसे उपदेश दे रहीं हैं- “खबरदार ! इस स्वर्ग-सुख के भरोसे देवमंदिर में आकर यदि भ्रम-वश भी तुम्हारे मन में हमारा सा, किंचित् भी काम विकार उत्पन्न हुआ तो तुम ऐसे गिरोगे कि फिर कहीं ठिकाना नहीं । स्वर्ग में निवास करनेवाले इंद्रादि देवताओं को, नारदादि ऋषियों को भी कामवश गिरना पड़ा है ।"

“बन्ध' की मूर्ति जैसे विलक्षण है वैसे उसकी सब बातें विचित्र हैं । दुनिया भर की प्रतिमाओं में सौभाग्य,सुंदरता है और यहां भीषणता । हिंदू समाज में जहाँ देखो तहाँ आचार की प्रधानता और यहाँ अनाचार की पराकाष्ठा । दुनिया में अपनी अश्लील मूर्तियां निदनीय और यहाँ खुलाखुली दिखाई जा रही हैं।"

"इसका प्रयोजन यही है कि ये बातें संसरियों के लिये हैं और यहाँ आकर भगबरुचरणों में जिनका अंत:करण सच-मुच लिपट जाए ये द्विधा में, हर्ष-शोक से, मानापमान से, अपने पराए से, सब बातों से अलग हो जाते हैं । हो जाने में ही सार्थकता है। उनके लिये जो कुछ है वह केवल भगवान् के पादपदो में प्रचल, अटल, अव्यभिचारिणी भक्ति है ।"

इस प्रकार से बात करते करते पंडित जी जब निद्रा आने लगी अव्य प्रियवंदा ने मौन धारण कर लिया। पैर दब बातें दबवाते जब वह सो गये तब वह भी हो गई । इन लेगों का विश्राम मिला !