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आदर्श हिंदू ३/४७ विराट स्वरूप का चित्रपट

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आदर्श हिंदू तीसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास बी.ए.

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ सूची से – १४ तक

 

विषय पृष्ठ
(१६) बासठवाँ प्रकरण—गोरक्षा का नमूना १६५-१७३
(१७) तिरसठवाँ प्रकरण—नौकरी का इस्तीफा १७४-१८०
(१८) चौसठवाँ प्रकरण—व्यापार में सत्यनिष्ठा १८१-१९१
(१९) पैंसठवाँ प्रकरण—प्रेत का मोक्ष १९२-२००
(२०) छाछठवाँ प्रकरण—बाल शिक्षा और परोपकार व्रत २०१-२०९
(२१) सड़सठवाँ प्रकरण—होली का त्योहार २१०-२२०
(२२) अड़सठवाँ प्रकरण—कुलटा का पछतावा २२१-२२४
(२३) उनहत्तरवाँ प्रकरण—प्यारा सिंगारदान २२५-२३३
(२४) सत्तरवाँ प्रकरण—उपसंहार २३४-२४३
 


आदर्श हिंदू
तीसरा भाग
प्रकरशा-४७
विराट् स्वरूप का चित्रपट

श्री जगदीशपुरी में प्रवेश कर जब तक यात्री बार्कडेय कंड के विमल जल में स्नान दानादि नहीं कर लेते, भगवान् के दर्शन करने की उसमे योग्यता नहीं होती, यह वहां की चाल है, चाल क्या है पुरी के माहसय में आज्ञा भी ऐसी ही है। मकान पद मामान रखकर डेरा डंडा जम जाने पर शरीरकृत्य से निवृत होकर पंडितजी प्रभृति नंगे पैरों स्नान करने के लिये गए । मार्ग में इन लोगों ने जो कुछ देखा उसका थोड़ा बहुत वर्णन समय आने पर किया जाएगा किंतु एक बात यहां प्रकाशित किए बिना इस लेखक की लेखनी एकदम रुक गई इसमें इस बिचारी कुछ दोष भी नहीं दिया जा सकता क्योंकि जब कई महीनों से यह पंडित जी के पीछे पीछे चल रही है, जब इसे एक क्षण के लिये भी उनका वियोग सह्य नहीं है और जब काम पड़ने पर यदि यह इधर उधर जाती है तो लपककर फिर उनके पास पहुँच जाती है तब पंडित जी के साथ ही यह भी रुकी तो इसका दोष है क्या? और उन्हें भी इस समय दोषभागी नहीं कहा जा सकता। उन्हें श्री जगदीश के दर्शन की हजार चटपटी हो, हजार वह चाहते हो कि जैसे बने वैसे इस कार्य से निवृत होकर बाबा के दर्शन करें क्योंकि देरी होने से वछि पट बंद हो जायेगे तो फिर चार बजे तक की छुट्टी है। इसलिये उन्होने मार्केडेय कुंड पर जाने में चाहे जितनी उतावल की किंतु उनके अंत:करण ने उनके चरणों को एकदम रोक दिया उनका ह्रदय पहले ही कोमल था फिर वहां के सीन में उसे मोम बना दिया, दयार्द कर दिया। वह सजल नेत्रों से अंतःकरण की भेदो वेदना के साथ, दया उत्पन्न करनेवाली शब्दों में अपने साथियों से और विशेषकर गौड़बोले से खड़े होकर कहने लगे-

"ओहो! बड़ा भयानक दृश्य है देखते ही रोमांच हो उठे। हृदय विदीण हुआ जाता है। आंखें बंद कर लेने को जी चाहता है। देखने की इच्छा नहीं होती। वह कुछ इसलिये नहीं कि इनके घावों में से पीप बहता देखकर मक्खियां भिन्नभिन्न से दुर्गंध के मारे माथा फटा जाने से घृणा होती हो। कल की किसने देखी है? इसके पूर्व संचित धोर पापों के फल से अपने प्रारब्ध का परिणाम भोगने के लिये यदि ये आज कोढ़ी हो गया तो क्या? किसे खबर है कि कल हमें भी ऐसी यातना भोगनी पड़े। वास्तव में जो कुछ है,यहाँ का यहाँ है। यह खुब सौदा नकद है,इस हाथ दे उसे हाथ ले"। आज देखो तो साहब इसकी बीसो अंगुलिया गल गई। चलना फिरना भी कठिन है। ओहो! नाक चिलकुल बैठ गई। हाय हाय! इस नन्हे से बच्चे ने ऐसा कौन सा पाप किया होगा? अफसोस किसी की कोई खबर होनेवाला नहीं। अच्छा इस औरत को तो देखो!शरीर ढीकने के लिए,लल्जा निवारण करने को एक ने कपड़ा तक नहीं एड़ियां बांधने के लिए एक चिहीं तक नहीं । हाय हाय! पीठ के फटने बहकर धरती भिगोए डालते है, मुखिया काट कटा मानो दम कर रही है, जब अंगुलियां गल गलकर हाथ पैर बिल्कुल लुंज गए हो तब इसके मुंह में मुट्ठी चने भी पौधा डालता होगा?अगदस्त की भी मुश्किल है। ओहो! दुर्गंध के मारे चक्कर आने लगे। जी व्याकुल होता है। गिर पड़ने की इच्छा होती है। बड़ा भीषण दृश्य है। इच्छा होती है कि यहां से भाग चले परंतु मन नहीं चाहता। देखिए देखिए! साहब देखिए! ऐसे एक दो,दस बीस नहीं। इनकी कुल संख्या दो सौ तीन सौ होगी। नूह की किश्ती है। अपने पापों का परिणाम भोगने के लिए ये इकट्ठे हो गए हैं। मर्कर यदि यमराज का जेलखाना देखने के अनंतर कोई अपना अनुभव सुनाने के लिए नहीं आता है तो न सही। यही यमराज का कारागृह समझो। इससे बढ़कर क्या होगा? वास्तव में इनका कष्ट देखा नहीं जाता। यदि मनुष्य में शक्ति हो तो राजा की वर्षगांठ पर जैसे कैदी छोड़े जाते हैं वैसे इन विचारों का तुरंत छुटकारा कर दे किंतु यह सामर्थ्य ईश्वर के बिना किसी में नहीं। खैर ! इन्होंने पाप किया हैं और ये दंड भोगते हैं और सो भी भगवान् की ड्योढ़ी पर पड़े पड़े भोगते हैं तो किसी ना किसी दिन इस दयासागर इन पर अवश्य दया होगी किंतु जब तक अपने कुकर्मों का दंड भोगने के लिए ये जीते हैं तब तक के लिए ऐट तो नहीं मानता। दुख पाकर मरा भी तो नहीं जाता! क्या भारतवर्ष में ऐसा कोई भी माई का लाल नहीं जो इसके लिए खाने पहनने और मरहम पट्टी का बंदोबस्त करके इन्हें छाया के स्थान पर नगर से अलग रख सके। साल भर में यहां लाखों यात्रियों का आगमन होता है, उनमें हजारों ही धनवान आते परंतु कोई इसकी सुख लेनेवाला नहीं। सूर्योदय से सूर्यास्त तक यहां, मयंक के दोनों किनारों पर कनारबांधे पड़े रहना,यात्रियों के दिए हुए चनों के दान दाने को इकट्ठा करके पेट भर लेना और चाहे वर्षों हो, चाहे सर्दी हो और चाहे गर्मी हो यही पेड़ों की छाया में निवास। इससे बढ़कर यातना क्या होगी? घोर कष्ट है वेदना की परिसीमा है।"

इस तरह कह कहकर आंसू बहाते बहाते पंडितयिन के इशारे से पंडितजी ने बाजार से पृड़ियां मंगावाई और जितने कोढी वहां थे उन्हें खिलाकर तब वह आगे बढ़े। ऐसे केबल पूड़िया बाटकर ही यह चल दिए हो सो नहीं। दफ्ती की घृणा उस समय बिल्कुल कफूर हो गई। साथियों ने बहुतेरा उन्हें समझाया,रोका,यहां तक कह दिया कि यह रोग लड़कर लग जाता है किंतु उन्होंने कुछ परवाह नहीं की। दोनों के दोनों ने उनमें से जिसकी शक्ति नहीं थी,जो असमर्थ थे अथवा जो अपने हाथ से अपना काम नहीं कर सकते थे उनके बीच से भरें घाव अपने हाथों से धोएं: बाजार से नया कपड़ा मंगा कर उनके पटिया बांधों और तब भार्कखेय कुंड में जाकर स्नान किया। वहां के कार्य से निवृत होकर जब इन्होंने भी जगदीश के मंदिर में प्रवेश किया तब बड़ी में ठीक "टन टन" चार बजे थे। दर्शन खुलने ही वाले थे। रथयात्रा का उत्सव न होने पर भी, और किसी तरह का व्यावहार ना होने पर भी यात्रियों के भीड़ के मारे, जजिया लोगों के टठृ के मारे कोहनिया सिली जाती थी, पैर कुचले जाते थे, और पूरी निवासी भड़ियों के शरीर में की तेल या मछली की गंध के मारे सिर भिक्षाया जाता था। जिनका दिमाग गुलाब, जूही, मोगरा चमेली के इत्रों से सदा वामा रहता हो उनकी तो कथा ही क्या? उन्हें तो शायद उसी समय चक्कर आकर वमन हो जाए तो कुछ आश्चर्य नहीं किंतु जो साधारण स्थिति के मनुष्य है उनका भी जी घबराता था। खैर! वे लोग आकुलाते हैं तो अकुललाने दीजिए किंतु इस समय दर्शनों की आशा में सब के सब मग्न हो रहे हैं, राजा रंक का अमीर गरीब का,भले बुरे का ऑल स्त्री पुरुष का जो भिन भाव था वह यहां बिल्कुल नहीं। यदि ब्राह्मण है तो क्या, और शूद्र है तो क्या ? भगवान के लिये सब समान है। अब जवनिक उठा दी गई । टेरा खुल गया । दर्शक भगवान' के दर्शनों आनंद लूटने लगे किंतु जैसे जलाशय के ज्यो ज्यो निकट पहुँचते जाते है त्यो ही त्यो तृषा बढ़ती है वैसे ही अब मंदिर में प्रवेश करके निकट से श्री जगदीश की भौकी करने की इच्छा बढी। अवश्य ही भीतर जाने के लिए किसी की रोक-टोक नहीं किंतु इतनी भीड़ में घुसकर अंधेरे मार्ग से जाना और फिर सही मलाशव लौट आना हंसी खेल नहीं। फिर आज सब ही चाहते हैं किंतु भीड़ के सिल-सिले को छोड़कर बीच के मार्ग से हम पहले ही भीतर चले जाए। बस इस तरह "हम पहले!"की होड़ाहोड़ो है। पंडों के सिपाहियों का हाथ गर्म हो रहा है, दर्शक उनकी घुड़ड़िया खाते हैं, वेद की मार खाते हैं, किंतु फिर भी कुछ दे दिलाकर औरों से पहले भीतर पहुंचते हैं। खैर! इतना ही बहुत है। हम हिंदुओं के सब ही मंदिरों मैं सब ही तीर्थों में इन बातों का अनुभव होता है, जब इस उपन्यास में पहले भी कई बार विषय में लिखा जा चुका है तब पीसो के पीसने से क्या लाभ?

अस्तु, पंडित पार्टी भी किसी न किसी प्रकार से मंदिर में जा पहुंची। वहाँ जाकर भगवान् जगदीश के समक्ष, उन परमात्मा के समक्ष जो सृष्टि उत्पन्न करने के समय ब्रह्मा, पालन करने में विष्णु और संहार करने के लिये शिव स्वरूप हैं दोनों हाथ जोड़कर, उनके अंग प्रत्यं के निरखकर उनके चरणों में अपने चर्मचक्षुओं के साथ साथ हृदय के नेत्रों के गड़ाते हुए पंडित प्रियानाथ जी आदि गाने लगा ---

‘देश सोरठ----हरि है बड़ी बेर के ठाढ़ो ।। टेक ।।
 
जैसे और पतित तुम तारे तिन ही में लिन काढ़ो ।।
 
जुग जुग बिरद यही चल आयो टेर करते हो ताते ।।
 
मरियत लाज पंच पतितन में हैं। धट कहे। कहाँ से? ।।
 
कै अब हार मान कर बैठो कै कर शिरद सही ।
 
सृर पतित जो झूठ कहत है देखो खोल बही ।। १ ।।
 
धनाश्री-... नाक मोहि अब की बेर उबारो ।। टेक ।।
 
तुम नाथन के नाथ स्वामी दात नाम तिहारो ।
 
कर्महीन जन्म को अंधो सोतें कौन नकारो।।
 
तीन लोक के तुम प्रतिपालक मैं ता दास तिहारो ।
 
तारी जात कुजात प्रभुजी मोपर किरपा धारो ।।
 
पतितन में एक नायक कहिए नीचन में सरदारो ।
 
कोटि पापो इक पासँग मेरे अजामील के। न विचारो ।।
 
नाट्यो धर्म नाम सुन मेरो नरक दिया हठ तारो ।
 
मोकों ठौर नहीं अब कोऊ अपनो विरद संभारो॥
 
क्षुद्र पतित तुम तारे रमापति अब न करो जिय गारो।
 
सूरदास साँचो तब मानै जो होय मम निस्तारे ।। २ ।।
 
शरण अआए की लाज उर धरिए ।। टेक ।।।
 
सध्यो नहीं धर्म शील शुचि तप व्रत कछू कहा मुख ले बिनै
 
तुम्हें करिए !!
 
कछू चाहौं। कहौं सोचि मन में रहौं कर्म अपने जानि त्रास आवै ।
 
यहै निज सार अधार सेरे अहै पतित पावन विरद बेद गावै ।।
 
जन्म ते एकटक लागि आशा रही विषय विप खात नष्टि सृप्ति मानी ।
 
जो छिया छरद फरि सकल संतन तजी तासु मति मूढ़ एस प्रति उनी
 
पाप मारग जिते तेब कीन्हें तिते बच्यो नहि कोई जहं सुरति मेरी।
 
सूर अवगुण भरजो आइ द्वारे परवो तकी गोपाल अब।शरण तेरी।। ३ ।।
 
सारंग----तुम हरि साँकरे के साथी ।। टेक ।।
 
सुनल पुकार' परम अतुर है दौरि छुड़ाये। यो ।।
 
गर्भ परीचित रक्षा कीनी बेद उपनिषद राखी ।
 
असन बढ़ाय द्रुपक्षतनया के सभा मोझ मत रखी ।।
 
राज रवनि गाई व्याकुल है दै दै सुत को धीरक।।
 
माग्ध हति राजा सब छोरे ऐसे प्रभु पर पोरक ।।
 
कपट स्वरूप धरयो जब कोकिल नृप प्रतीति करि' मानी।
 
कठिन परी तवही तुम प्रकटे रिपु हति सब सुखदानी ।।
 
ऐसे कहीं कहां हैं लों गुण गण लिखत अंत नहिं पइए ।
 
कृपासिंधु उनही के लेखे मम लल्जा निबहिए ।।
 
सूर तुम्हारी ऐसी निवही संकट के तुम साथी ।
 
ज्यो जानो त्यो करो दीस की बात सकल तुम हाथी ।। ४ ।।
 
घनाश्री- भाजु हौं एक एक कर टरिहौं ।। टेक ।।।

के हमही कै तुमही माधव अपना भरोसे लरिहौं ।।

हौं तौ पतित अहौं। पीडिंत को पतितै है निम्तरिहैं ।

अबहौं उधर नचन चाहत हौं तुम्हैं बिरद बिनु करिहौं। ।।

कत अपनी परतीत नसावत मैं पायो हरि हीरा।

सूर' पतित तबही लै उठिहैं जब हँसि देहो वीरा ।।५।।

इस बार सृरदार जी के पद पंडित, पंडितायिन, गौड़बोले तीनों ने मिलकर गए। साथ में राग भरने के लिये बूढ़ा, बुढियां भी मिल गए और जब ताल सुर अच्छा जम गया तो एकदम दर्शनियों में सन्नाटा छा गया ! मन की आंखें हरि चरणों में और कान इनके नाम में । यो गायन समाप्त होने पर “धन्य ! धन्य!" और शाबाश ! शाबाश !"की आवाज और भी "खूब अमृत का शब्द भीड़ में से बारबार उठकर मंदिर में गूंजता हुआ बाहर तक प्रतिध्वनित होने लगा किंतु झोंपकर सिर झुका लेने के सिवाय पंडित जी ने कुछ उत्तर में दिया । वह फिर समय पाकर भगवान जगत के नाथ की यो स्तुति करने लगे---

" हे अशरण शरण, इससे बढ़कर और क्या कहूँ ? जो कुछ मैंने अभी निवेदन किया हैं वह महात्मा सूरदास जी से उधार लेकर । उनकी सी योग्यता मुझ अकिंचन में कहाँ है जा मैं अपनी विनय आपको सुना सकूं? भला उनका तो आपसे कुछ दावा भी था। दावा था तबही वह आपके द्वार पर अड़कन बैठ गए । जो पद शिव सबकादिकों को भी दुर्लभ है वही उन्होने पा लिया । और पाया सो भी चिरकालीन । खैर ! उनका भी दावा था और गेवामी तुलसीदास जी का भी दावा था ।उनका दावा था इसी लिये उन्हें बांह पकड़कर कुएं में गिरते गिरते बचाया, कुएं में से क्या बचाया भवकूप में से बचा लिया और तुलसीदास ज़ी का दावा था इसी लिये उनकी विनय पर मुरली और लकुटी त्याग कर धनुष बाण धारण किया किंतु मुझ जैसा पामर किस विक्रय पर दावा करे । सूरदास जी ने जो कुछ वह केवल विनय के लिये, अपनी नम्रता दिखाने को किंतु मैं तो सचमुच वैसा पापी हूं, घोर पापी। मुझे उबारो तब आपकी दीन दयालुता सांची है। हे नाथ ! रक्षा करो ! इन दीन, हीन्य, मलिन की रक्षा करो । हे तारगातरगा ! मुझे उबारो ।

इस तरह कहते कहते पंडित जी फिर ध्यःनावस्थित, फिर निश्चेष्ट, नि:स्तब्छ। उनका देहाभिमान जाता रहा । आंखों में से अश्रुधारा बहने के अतिरिक्त उन्हें अभी कुछ खबर नहीं कि उनके शरीर की इा सगय स्थिति क्या हो रही है। इतने में दर्शको में से न मालूम किसनें, केवल पंडित जी का चित्ताने के लिये अथवा स्वभाव से ही कुछ गुनगुनाया। उसने क्या गाया, सो किसी ने सुना नहीं किंतु • हैं किग्न गोरी का ध्यान ? कहां हैं भूपकिशोर ?कहकर पंडित जी भनेर इधर उधर किसी खाई हुई वस्तु को ढूँढ़ने लगे।पंडितायिन उनकी अर्द्धागिनी होने पर भी इसका एक बार कुछ मतलब न समझ सकीं ।हां उसने टटोल टटालकर अंत में मतलब निकाला कि किसी ने भीड़ में से बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू, भूपकिशोर देखि किन लेहू' यह चौपाई गाई है।

अस्तु ! अन पंडित जी फिर बोले--..इस स्वरूप में आज न भूपकिशोर हैं और न कृष्ण बलदाऊ हैं। भगवान के दस अवतारों में से चौबीस अवतारों में ले एक का भी स्वरूप इससे नहीं मिलाता ! भारतवर्ष में हजारों करता, लाखों मंदिर हैं। उनमें जो भगवान क्री प्रतिभाएं हैं किंतु इसमें कौन सा भाव कहा जाए? पुराणों में इसकी में कथा चाहे जिस तरह पर हो', जो कुछ होगी जगन्नाथ माहात्म्य सुनने के विदित हो जायगी किंतु इस समय तो मेरे अंत:करण में अचानक एक ही भाव का उदय हो रहा है। मानो बाबा मेरी और मुस्कुरा कर गवाही दे रहे हैं कि मेरी यह कल्पना केवल कवि कल्पना नहीं है। हाँ ! तो मेरी समझ में जो आया वह यही है कि गीता का उपदेश देकर उसे अर्जुन के अंत:करण पर अच्छी तरह जमाने के लिये भगवान् ने विराट स्वरूप के दर्शन कराएं, जैसे माता कौशल्या और माता यशोदा का मोह छुड़ाने के लिये भगवान् ने अपने मुख में, उदर में त्रैलोक्य को दिखला दिया उसी तरह यह मूर्ति विराट स्वरूप का, त्रिलोकी का चित्रपट है । यदि भगवान की कृपा से अर्जुन की तरह हमें भी दिव्य दृष्टि मिल जाय तो हम देख सकते हैं कि इससे राम हैं, कृष्ण हैं, संसार है और सब कुछ है। कुछ कुछ झलक मुझे भी ऐसी ही प्रतीत होती है किंतु हे जगदीश, आज आपकी वह मृदु युमक्यान्न कहाँ गई ? क्या आप सचमुच हस पामरों से रूठ गए हैं ? बेशक ! आप रूठे ही से मालूम होते हैं। अपनी संतान की अनीति देखकर माता जैसे अन्न का भाव दिखलाती है किंतु ह्रदय से नहीं, इस तरह आप भी रूठे हैं: पापो के सागर में डूबे हुए ््््््््््््््््््््््््् हम लोगों के नैत्र ही नहीं। आंखों की जगह केवल गोल गेल गढ़े हैं। यदि दिव्य चक्षु, नही केवल ह्रदय चक्षु भी हम रखते हो और वे पाप विकारों से रहित हो । तब हम आपकी वास्तविक छवि का अवलोकन कर सकते हैं। जब तक प्रारब्ध के फल में दिव्य चक्षु न मिले,हिए की आंखें न खुल जाए तब तक चर्म ही गनीमत हैं। हमारे कितने ही भाइयों के तो यहां आकर वे भी बंद हो जाते हैं। मंदिर के भीतर जाने पर भी बाबा के दर्शन नहीं होते ।

“हाँ हाँ ! ऐसा ही कहते हैं ? कहते क्या है ? आंखो से देख लो ! खैर परंतु महाराज मूर्तियों तीने ही विलक्ष हैं, अंतिम हैं। और और प्रतिमाओं में उनकी मधुरता, उनकी मृदु मुसक्यान, उनको अलौकिक श्रृंगार देखकर अंत:करण द्रवित होता है इसलिये लोग कहते हैं कि उनका सौंदर्य इसका कारण है किंतु जब यहां सुंदरता का नाम नहीं, कुरू. पत्ता, राम राम ! भगवान् के लिये ऐसा कहकर पाप.पंक में निमझ कौन हो ? फिर भी दर्शन करके मन पर एक आस्त्रधारण' प्रभाव पड़ता है। वह वाणी के अगोचर है। भयानक मूर्ति को देखकर आदमी डरा करता हैं । डर के मारे आंखें बंद कर लेता है किंतु इन पर से आंखे हटते ही नहीं । इन चरणों को छोड़ने को जी नहीं चाहता । परमेश्वर ऐसा ही करे । यदि ऐसा हो तो परम सौभाग्य समझो। इस जन्म में तो इसने ऐसा पुण्य ही क्या किया है जो ऐसा हो। ईश्वर की इच्छा !"

वास्तव में यथार्थ है। परंतु क्यों महाराज, आप समझे?ये तीनों विग्रह किन किन के हैं ? एक जगन्नाथ दूसरे बलभद्र और मध्थ में सुभद्रा ! सुभद्रा कौन ? क्या श्रीकृष्णचंद्र की भगिनी अर्जुन की कुलबधू ? नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता ! वह एक सुगृहिणी होकर पति चरणों को क्यों छोड़ती यह सुभता नदी भद्रा है। लोगों ने भ्रम में कहना आरंभ कर दिया है । परंपरा में चाहे ऐसा ही कहते चले आवें किंतु यह श्रीकृष्णचंद्र की आठ पटरानियों में से एक हैं। पटरानियों में से हैं तब ही भगवान् के वामाग में स्थान लिया हैं । अच्छा कोई हो किंतु मेरी समझ में भगवान् जगदीश ब्रह्मा, भगवान बलगद्र जीव और भगवती सु-भद्रा माया हूँ ।”

इस तरह की बातें करते करते पंडित जी और गौड़बोले भीड़ से बचाने के लिये पंडितायिन को बीच में लिए हुए बूढा, बुढ़िया और भोला,गोपीवल्लझ को साथ लेकर भग वान की प्रदक्षिणा करते हुए मंदिर से बाहर निकले। परंतु ओहो! मंदिर का अंधकार ? परिक्रमा की सकरी गलो की कासामंसी ? कुछ पूछो ही मत । जहाँ भर दुपहरी में दीपक के बिना काम ही न चले । भगवान् के चरणों में पहुँचने के अनंतर मानो यह अंतिश कसौटी है अथवा सोने के तार को अधिक लंबा और अधिक बारीक बनाने के लिये सुधार की जंती की तरह प्रेम की जंती है । कुछ भी हो, अव पंडित पार्टी भूख के मारे व्याकुल है । जरा उसे डेरे पर पहुंचकर कुछ विश्राम में लेने दीजिए। प्रसाद पा लेने दीजिए। गोपीबल्लभ वास्तव में भूख के मारे रो रहा है, अपनी आंखों से मोती से आंसू गिर रहा है । छोटा बड़ा कोई हो चेहरे तो सब ही के खिसियाने से हो रहे हैं। पंडित जी का भक्ति से पेट भर गया तो क्या हुआ और प्रियंवदा का चाँद सा मुखड़ा चाहें अपने भावों को छिपाने का प्रयत्न ही क्यों न करे किंतु उसके मुख कमल की कुम्हिलाहट दौड़ दौड़कर जतला रही है कि पति परमात्मा के महाप्रसाद पा लेने के अनंतर उनकी जूठन मुझे भी मिले । अस्तु । पार्टी जब मकान पर पहुँच गई तब थोड़ी देर सुरताकर पंडित जी और गोड़बोले ने स्नान किया । पीतांबर पहने और यो तैयार होकर अपने खर्च के योग्य मंदिर से जाकर प्रसाद से आए और तब सबने भक्तिपूर्वक, तृप्तिपूर्वक भोजन किया ।