आदर्श हिंदू ३/५० भगवान में लौ
भगवान् की पुरी धार्मिक हिंदुओं के लिये तो वास्तव में वैकुंठपुरी है ही । किंतु नवीन समुदाय के लिये भी विश्रांति का केंद्र है। प्रथम तो समुद्र तटवर्तिनी भूमि का पवन ही सुखस्पर्श होता है। वहाँ न शरीर को झुलसाकर व्याकुल कर डालनेवाली लू का नाम है और में प्राणी मात्र के जीवनाधार शारीरिक रक्त का शोषण कर डालनेवाली कड़ी धूप का । बढ़ते बढ़ते वायुवेग की मात्रा यदि कभी कभी बड़ जाय तो भले ही बढ़ जाय किंतु समुद्र के श्रुतिमधुर निनाद के साथ पवन के झकोंरों से वृक्ष पल्लबों की खड़खड़ाहट मिलकर भगवती प्रकृति देवी के एक अजय राग से अश्रत पूर्व बाजा बजाने और मधुर स्वर अलापने का अवसर मिलता है। वहाँ नवीन काट छाँट से, गमलों की माला से और दूध के तख्ने बनाकर बाग बगीचे को चाहे कृत्रिम सौंदर्य की साड़ो न उड़ाई जाय परंतु पुरी की पवित्र पृथ्वी के प्रकृति में वन उपवन की स्वाभाविक हरियाली में नैसर्गिक लता पल्लवों की साड़ी पहनाकर उन पर जंगली पुष्पों के हीरे मोती जड़ दिए हैं । जहाँ साक्षात् त्रिलोकीनाथ का निवास है वहां का जल वायु तो अच्छा होना ही चाहिए । बस इन्हीं बहाते का ध्यान में लाकर प्रकृति के उपासकों का, जिनका स्वास्थ्य की रक्षा करना ही परम कर्तब्य है, इसने जी ललवाया है। आठ मास तक पसीमा झार परिश्रम के अनंतर ग्रीष्म ऋतु में भगवान् भुवन भान्कर की उग्र मयूखों से बचने के लिये अनेक युरोपिया नर नारी सागर तटवर्ती बँगले में निवास करते हैं । कितने ही सजने में क्षय -पीड़ित मनुष्यों का स्वास्थ्य सुधारने के लिये एक “सेनीटोरियम" भी बनवा दिया है और लोग कहते हैं कि थोड़े ही काल में जब यहाँ युरोपियन अफसरों के ग्राम निवास बन जायगा तब नगर की सारी गंदगी निकल जायगी ।।
यदि इस तरह गंदगी निकल सके तो अच्छी बात है किंतु इन बातां को देखते हुए भी पंडित जी से वहाँ के दो तीन सौ केढ़ियों की दुर्दशा देख देख कर आंसू बहाए बिना नहीं रहा जाता । अभी वह जगदीश के दर्शन का आनंद लुटले हुए वियेाग से दुःखित होकर आंसू बहाते और “बाबा फिर दर्शन दीजिए" की विनय सुनाते हुए मानों आज अपना सर्वस्व खोकर घर को जाते हो, इस तरह उदास मुख से, खिन्न मन होकर आए हैं। सुर दुर्लभ महाप्रा पर जाने अनजाने यदि पैर पड़ गया हो, यदि भूल से अथवा जान बूझकर अवज्ञा हुई हो अथवा किसी तरह का अनाचार या पाप हुआ हो । उसकी निवृत्ति के लिये समुद्र में स्नान कर आए हैं । अब भोजनादि से निपटकर असबाब बाँधना और जगदीश के पंडे शितिकंठ महाशय के भेट देकर केवल उनसे बिदाई लेना और गाड़ी पर असबाब रत्नाकर देशन के चलना अवशिष्ट है ।पंडे महाराज भी उनके समीप हो विराजमान हैं। गुरूजी का वाला कृष्ण वर्ल्ड, सुदीघ काय, बड़ी बड़ी आंखें और छोटा का चेहरा, बस यही उनका रूप रंग है । उनके सिर पर अनारस का घना जरीदार रेशमी साफा उनले काले मुखारविक्ष पर अपने नीले रंग के साथ साथ जरी की झलक दिखाकर अजय बहार दे रहा है । भीतर सूती वनयान और ऊपर मलमल का कुरता, कमर में धोती और हाथ में पाने का बटुवा, बस ये ही उनके वस्त्र हैं। एक नौकर की बगल में दो तीन बहियाँ, हाथ में दावात कलम और दूसरे के पास कंठी, प्रसाद और भगवान् के चित्र, बस यह सामग्री उनके साथ है । उगुरू जी में यदि सबसे बड़ा गुण देखा ते यह कि उनमें विशेष लोभ नहीं हैं। वह न तो किसी यजमान का जी मसोस्कर वैसा माँगते हैं और न पैरों की भाँति पाई पाई पर मुख चीरते हैं। थोड़ी बहुत हठ करना,उनका पेशा हैं। इतना भी न करें ते कदाचित् यात्रा उन्हें अँगूठा दिखाने के तैयार है। जाय किंतु उन्हें परिणाम में जितना मिल जाय उसने ही पर संतोप है। आज भी उन्होंने पंडित जी के अटका चढ़ाने का परमर्श दिया, करमाबाई की खिचड़ी के लिये सल्लाह दी और इसका अक्षय पुण्य बतलाकर आगरा भी किया किंतु अंत में पंडित मंडलो ने जो कुछ दिया उस पर संतुष्ट होकर कंठी प्रसाद और चित्र देकर उनकी पीठ ठोक दी । पंडित जी भी ऐसे संतोपी ब्राह्मण को काम देने वाले थोड़े ही थे । उन्होंने अंत में यथाशक्ति गुरू जी को भेंट करके उसे कहा-----
“महाराज, जो कुछ पत्र पुरुष इसे बन सका आपकी भेट किया गया । जो कुछ दिया है वह केवल आपके योगाक्षेम के लिये हैं । भगवान् का घर ना हम से भर सकेगा और न सम उनके कुवेर से भंडार में एक मुट्टी डालने में समर्थ हैं। वह विश्वंभर हैं और हम उनकी चरण रज के भिखारी । भक्ति पूर्वक प्रणाम करना ही उनकी भेट हैं। सो हमने यहाँ आकर भी किया और यदि उनका सचमुच अनुग्रह है, यदि हमारा अंत:करण पवित्र होकर इनकी कृपा का अधिकारी वन जाय तो घर बैठे भी तैयार हैं क्योंकि चार जब किसी के घर में सेंध लगाकर अथवा ताला तोड़कर भीतर जाता है तब चोरी का माल पाता है किंतु उनके सम्मान दुनिया में कोई चोर नहीं। बाबा हमारे घर से हजार मील पर बैठा हैं, कदाचित इससे भी अधिक दूरी पर, किंतु यहाँ ही बैठे बैठे सात ताले के भीतर से, हमारे हृदय में से उसका नाम लेते ही पाप चुरा लिया करता है । सो महाराज उसकी ऐसी चुराने की आदत देखकर सारे ही पापों का बोझा उसकी ड्योढ़ी पर डालने और उसकी अनन्य भक्ति की भिक्षा माँगने के आए थे । आप ऐसा आशीर्वाद दो जिससे उसके चारविदों से हमारा मन अलग ना हो अलग न हे ।"
"हाँ यजमान ठीक है । परंतु अटके और खिचड़ी का कुछ प्रश्न अवश्य होना चाहिए। इससे अधिक नाम होगा ।"
"महाराज, अटका खिचड़ी ते ठीक ही है। हमने भक्तशिरोमणि' करमावाई और मलूकदास बाबा के दर्शन के लिए । महाराज विश्वंभर को भरने कई किसी में सामर्थ्य नहीं इसलिये यदि आप उचित समझे', यदि आप प्रसनता से आज्ञा दे तो मेरे मन में एक नया विचार उत्पन्न हुआ है। आशा है कि आप अवश्य स्कावीर करेंगे । मेरी राय यह हैं कि इस अटके और खिचड़ी में जितना द्रव्य लगता है उतना ही अथवा उसले मेरी शक्ति भर कुछ अधिक द्रव्य अलग रखें, इसमें आप भी अपने पास से यथाशक्ति कुछ देकर, अपने यात्रियों को दिलाकर, अन्यान्य पंडों के उतेजित करके इसी तरह अच्छी पूँजी इकट्ठी कर लें । जितने यात्री यहाँ आते हैं सबको समझाकर इस कार्य में सहायता लें तो इन कोढ़ियों के रहने के लिये छाया का मकान, पहनने ओढ़ने के लिये कपड़े, भेाजन के महाप्रसाद और इलाज तथा सेवा शुश्रूष्का के लिये योग्य वैद्य और परिचारक मिल सकते हैं। ऐसी सेवा शुश्रुपा से इनके दैहिक कष्ट कम होंगे, महाप्रसाद से इनका अंत:करण विमल होगा और तब प्रभु चरणों में ले जाने से इनका उद्धार होगा ।" "उत्तम परामर्श है। मैं सिर के बल तैयार हूं। आपकी दी हुई भेट और पक्का खिड़की का खर्च मिलाकर तो यह और इससे अधिक सौ दो सौ ऑल भी मिला दूंगा। आज पीछे जितने यजमान यहां आकर मुझे देंगे उसमें से पांच रुपया सैकड़ा दूंगा। यात्रियों में से कार्य के लिए जो कुछ मिल जाए वह अलग। मैं अपने और भाइयों को भी उत्तेजना दूंगा। आपने ऐसी सलाह देकर बड़ा उपकार किया।"
"महाराज, आप हिंदी बहुत शुद्ध बोलते हैं। इस देश में ऐसे हिंदी! यहां तो उड़िया की "आशो! आशो! चाहिए।"
"मैंने हिंदी पढ़ी है। मैं हिंदी के ग्रंथ और समाचार पन्न पढ़ा करता हूँ। यो भला मुझे तो हिंदी से प्रेम ही हैं। किंतु यहाँ नगर भर में फिरकर देखिए। यात्रियों में बंगाली हैं, गुजराती हैं, मराठे हैं, मदरासी हैं, पंजाबी हैं और प्राय: सब ही प्रांत के लोग आते हैं। ऐसे समय हिंद जाने बिना गुजारा नहीं । ये लोग आपस में बातचीत करते समय हिंदी की शरण लेते हैं क्योंकि न तो एक मदरासी की बात पंजाबी समझ सकता है और न मराठे की बंगाली । लाचार हम लोगों को हिंदी सीखनी पड़ती है। हमारे जाति भाई और हमारे नौकर चाकर सब टूटी फुटी हिंदी बोल लेते हैं ।"
“हाँ ? इसी लिये हिंदी किसी दिन भारतवर्ष की सर्वजनिक भाषा बनने के योग्य हैं । बन भी रही है। प्रकृति स्वयं उसकी उन्नति कर रही है ।" इतनी बातचीत हो चुकने के अनंतर पंडित जी का नुन यात्रियों से अपने संगी साथियों से संभाषण में महाप्रसाद की अवज्ञा पर, मत्स्यभक्षण के दोषों पर जो संभाषण हुआ था उसका प्रसंग छिड़ा। गुरूजी ने मस्तक झुकाकर इन दोषों को स्वीकार किया। अंत में कहा--. ।
"यह बातें अवश्थ मेटने थोग्य हैं। उन्हें शीध्र ही मिटाना चाहिए किंतु इसके लिये बहुत भारी उद्योग की आवश्यकता है। हथेली पर तरसे जमाने से काम न चलेगी । पीढ़ियों से पड़ा हुया अभ्यास छुड़ाना है। यदि आप ही यहाँ दो चार महीना निवास करें तो काभ शीघ्र ही सकता है। शक्ति भर सहायता देने और प्रयत्न करने को मैं तैयार हूँ किंतु आप जैसे पंडित की आश्यकता है ।"
इस पर पंडित जी का मन पिघल गया । नौकरी भले ही बिगड़ जाय परंतु यहाँ रहने को ने तैयार हुए । साथियों ने उनका बहुतेरा समझाया किंतु उनके मन में अब यहाँ रहकर कर्तव्य स्थिर करने के लिये विचार-तरंगें उठने लगीं । उन्हें किसी की कुछ न सुनकर बँचे बंधाए तिरे खोल देने की भोला को आज्ञा दे दी। ऐसे जनरेली हुक्म के समय प्रियंवदा का क्या साहस जो उन्हें रोक सके । वाचार भोला यदि कुछ कहे तो उसके लिये फटकार की पोशाक मिल जाय । और की भी इस समय तान नहीं जो कुछ कह सकें। किंतु अंत में होता वही है जे परमेश्वर के स्वीकार हार है । जगदीश की ही ऐसी इच्छा हैं तब कोई क्या कर सकता है ? इस प्रकार जिस समय अपना अम्बाय खोलकर गाड़ीवालो को विदा करके वहाँ ठहरने की ये तैयारी कर रहे थे तब ही इन्हें कांता नाथ' का क्षार तार मिला। तार में क्या लिखा था सो इन्होंने किसी को बतलाया नहीं । प्रियंवदा भी इनकी ओर निहार निहारटर बारंबार आँखों ही आँखों में पूछती पुछती रह गई परंतु "कोई चिंता की बात नहीं। सब आनंद ही आनंद है" के सिवाय इन्होंने कुछ न कहा मैं फिर सामान गाड़ियां पर लदवाकर स्टेशन की ओर कूच कर दिया ।।
पुरी से विदा होकर पहले इनका दक्षिण की यात्रा करने का दृढ़ संकल्प था । इन्होंने अपने साथियों से यह कह भी दिया था किंतु इस तार ने इनका महसूबा बदल दिया । 'भगवान् की इच्छा ही जब ऐसी है तब हमारा क्या चार ? वह नटमर्कट की तरह सब के नाचता है। इस विचारे किस गिनती में ।” कहकर यह चुप हो गए । अब आँखों में से आंसुओं की धारा वह रही हैं, यह गाड़ी में सवार हुए हैं और इनका शरीर भी आगे बढ़ रहा है किंतु इनके मुख के भाव से बोध होता है कि मानो यह अपने हृदय के पीछे ही छोड़ आए हैं। इन्होंने खिड़की में से सिर बाहर निकाल रखा है और वे एकदम पलकें न मारकर "नीले चक्र" पर नेत्र गाड़े चले जा रहे हैं । पहले तो साधारण दृष्टि से उसके दर्शन होते रहे, फिर जरा जोर मारने से होने लगे और एक क्षण भर से नील चक्र दृष्टि-मर्यादा से बाहर हो गया । उसने माने कह दिया कि "जाओ । इतने ही फर संतोष करे । जो पूंजी तुम्हें मिली है यदि' भक्तिपूर्वक उसकी वृद्धि करोगे तो वह भी कम नहीं है। परंतु पंडित जी ने जिसे एक बार पकड़ा उसे वे छोड़नेवाले नहीं। भगवत् चरखारविंद यदि सुकृत से, सौभाग्य से मिल जायें तो छोड़ने योग्य भी नहीं । पृथ्वी में, आकाश में, पाताल में, स्वर्ग में और उससे भी ऊपर गोलोक में परमेश्वर के पादपदो से बढ़कर कोई नहीं । बस इसलिये इन्होंने महात्मा सूरदासजी की ---
वांह छुड़ाकर जीत हैं, निबल जान कर भोंहि ।
हिरदा में सो जायगो, मरद वदौंगो ताहि ।।"
यह दोहा याद करके बस इसी बात के प्रयत्न में अपना मन लगाया। मन स्थिर होते ही जब इन्हें कुछ ढाढ़स हुआ। तब इनकी ऐसी ऐसी विचित्र चेष्टा को देखकर घबड़ाई हुई प्रियंवदा को इन्होंने धीरज दिया, गौड़बोले की उद्विग्नता मोटी और औरों को भी संतुष्ट किया। पाठकों ने समझ लिया होगा कि पंडित जी इसके पूर्व विह्वल हो गए थे। वास्तव में वह किसी लिये है। किंतु ये विह्वल और इसी लिये टिकिट लेने का काम गौड़बोले ने किया। वह भी घबड़ाहट में थे और रेल की पहली घंटी हो चुकी थी इसी लिये दंपती के लिये उन्होंने इंटर क्लास के टिकिट लेने की जगह थर्ड के टिकट लिए और भी सब लोगों को एक ही दर्जे में बैठने का अवसर मिल गया।
आप पंडित जी भगवान का स्मरण करते, जगदीश की भृति में ध्यान लगाए, कभी बातें करते और बीच बीच में रुक-रुक कर ध्यान मग्न होते हुए आगे बढ़ने लगे । सचमुच ही पंडित जी ने नेत्र संचालन के प्रेम-संकेत से अपनी चिर परिचित्र लोचनों की भाषा से प्रियंवदा के संतुष्ट कर दिया था किंतु जब तक उनकी गौड़बोले ने धाराप्रवाह वरकृत न आरंभ हुई थी और वह मन ही मन मन को मसोसती रही । अब उसके जी में जी आया ।