आदर्श हिंदू ३/५१ कांता पर कलंक

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'कांता पर कलंक

पंडित रमाकांत शास्त्री ने लड़को को पढ़ा लिखकर रुपया कमाने में प्रवीश कर दिया था, वणाश्रम धर्म के सिद्धांत उनके हृदय पटल पर अंकित कर दिए थे, इहलौकिक और पारलौकिक ज्ञान उनके मन में इस रीति से ठसा दिया था कि वे कभी ठोकर न जायें और कभी भलाई छोड़कर बुराई की और एक पैर भी न बढे । इतना होने पर भी उन्हें इस बात का खटका था कि कहीं युगधर्म बालक पर अपना असर डालकर उन्हें रुपए पैसे के लिये आपस के लड़ाई झगड़े में न प्रवृत्त करे, जवान होते ही अपनी अपनी जोरूओं को लेकर बेटे अलग न हो बैठे। यदि पड़ोसियों से लड़ाई झगड़ा रहा ते आदमी में पैदा होकर ही क्या क्रिया ? यदि कुल के, जाति के, बस्ती के और हो सके तो देश के चार सजनों ने जिसकी प्रशंसा न की उसका जन्म लेन निरर्थक है । वह कहा करते थे.---

‘गुणि:शगणनाभै ने पतति कठिनी सुसंभ्रमाद्यस्य ।

क्षस्यांबा' यदि सुतिनी बदं चंध्या कीदृशी भवति ।।

इस श्लेक को दिन भर में कम से कम एक दो बार पढ़ाकर वह बेटों को समझाया करते थे कि "यदि तुमने जन्म लेकर गुणवानों में गवाना ने करवाई, यदि गुणवानों की [ ४६ ]गवान करते हुए तुम्हारे नाम के साथ मिलनेवाले का अँगूठा अँगुलियों की पोरों पर न पड़ा तो तुमने झख यार, योहों अपनी माता के नौ महीने तक असह्य वेदना दी, तुम्हारे लालन पालन में वृथा ही उसने पीड़ा पाई और तुम्हारा खिलाया, पिलाया, पढ़ाया, लिखाया सव फिजूल गया ।" माता उनकी चाहे पढ़ी लिखी न हो किंतु पति के साथ, पुत्रों के साथ, पड़ोसियों के साथ और नौकर के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए घर गृहस्थी में रहकर क्योकर अपनी बात निवाहनी होती हैं और स्त्री शरीर धारण करके उनका कर्तब्य क्या है, इन बाते को वह अच्छी तरह जानती थीं और सदा इन्हों के अनुसार चला करती थीं । चारी, व्यभिचार, मिथ्याभाष आदि बुराइयों से उसे पूरी घृणा थी और वह सदा इसी विचार में रहती थी कि कहीं मेरे नन्हें में ऐसे ऐसे ऐध न पैदा हो जायं । यद्यपि अपनी जन्मदात्री माता का सुख इन दोनों भाइयों के नसीब में नहीं था क्योंकि वह देने ही के बिलबिलाते छोड़कर छोटी उम्र में चल बसी थी किंतु जब बूढ़ी दुलरिया ने ही इनको पाल पोसकर इन गुणों से भूषित कर दिया तब उसे माता से भी बढ़कर इन्हें समझना चाहिए क्योंकि अपनी असली माता के जो गुण इन्हें धरोहर मिले थे उन पर बुढ़िया ने ओप चढ़ा दिया । ऐसे सज्जन माता पिता की संतान होने पर भी, सदा भाई भाई के संयुक्त रहने की सलाह देने पर भी, संयुक्त कुटुंब के [ ४७ ]लाभ समझाते रहने पर भी वे डरते थे कि कहीं बहुओं की बदौलत अथवा पैसे के लिये ये आपस में उलझ न पड़े, इस लिये उन्होंने अपने जीते जी अपने माल ताल का, अपने धन दौलत का, बाग मकान का, लेने देने का और जमींदारों का बटवारा कर दिया था। उनके लिये मकान इस ढंग के बनवा दिए थे जिनमें यदि वे अलग अलग रहें तो भी सुख से रह सके, लड़ाई हो जाय तो एक की दूसरे पर परछाँही तक न पड़े और मिलकर रहें तब भी सब बातों की सुविधा रहे । हाँ ! दो चीजों के हिस्से नहीं किए थे । एक ठाकुर-सेवा और दूसरा पुस्तकालय । इनके लिये उनकी यह आज्ञा थी कि--

“यह तुम्हारी संयुक्त संपत्ति है । जो योग्य हो, जिसके आंतरिक भक्ति हो उसी की इन पर अधिकार है। नास्तिक के ठाकुर-सेवा देना कौवे को कपूर चुगाना है और निरक्षर भट्टाचार्य के पाले यदि मेरी पुस्तकें पढ जायें तो पंसारियों के यहाँ विकती फिरें ।" केवल यही क्यों ? उन्होंने इनके लिये अलग जीविका निकालकर ऐसा स्वतंत्र प्रबंध कर दिया था जिससे ठाकुर-सेवा अच्छी तरह होती रहे और पुस्तकालय में चुस्तके की वार्षिक वृद्धि होकर लोगों को उससे लाभ उठाने का अवसर मिले ।

मकान उनके लिये जो बनाए थे वे यद्यपि ऐसे थे जिनमें घर के दस पाँच आदमी और चार नौकरों के स्वतंत्रता से रहने की गुंजायश थी किंतु इसके साथ शास्त्री जी इस बात [ ४८ ]को भी नहीं भुले थे कि यदि प्रारब्धवश मेरे लड़के इतने दरिद्रो हो जायँ उनको पनिहारी, पिखनहारी रखने तक की शक्ति न रहे तो पर बहू-बेटियों के जल का घड़ा सिर पर रखकर बाहर न जाना पड़े। इस कारण उन्होंने घर में कुंआ भी ऐसा खुदवा दिया था जिनसे वहू-बेटियाँ घर के भीतर से अहब के साथ पानी भर सके और ऐसे ही वह घर से बन्ने बाहर. वालों के भी काम में आ सके ।

अपने कुकर्म के कारण सुखदा के सजा मिली तब से पति घर परमात्मा उनके हाथ का बनाया जल नहीं करते हैं। रूख सूखा रवाना, मोटा झेाटा पहनना और चटाई पर पड़ रहना, घर से बाहर कभी कदम न रखना बस ये ही उसके लिये जेलखाने की मिहनते हैं। कुछ चांद्रायडू व्रत करने पर, फिर ऐसा अपराध स्वप्न में भी न करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करने पर पति ने उसे अपनी धोती धोने का, जूठे बरतन मल देने का अधिकार अवश्य दे दिए हैं । अध जब उन पर बहुत ही कृपा होती है तब वह पति की थोड़ी बहुत जूठन भी पा लेती है किंतु समझ पाठक ! बह कृपा कब होती है ? जब वह स्वयं अपनी आंखोंखे से गोशाला में जाकर गौओं की सेवा में, बछड़े बछियों के लालन पालन में असे मस्त देखते हैं। जब शास्त्रकारों ने--

"आज्ञाभंगो नरेंद्रग्या ब्राह्मणानामनादरः ।
पृथक शय्या च नारीणामशविहिते वधः ।।
[ ४९ ]की व्यवस्था दीं हैं और जब वह पति की उपस्थिति में उनके निकट रहकर भी वैधव्य भोग रही है तब उसके अंत:करण में व्यथा तो होनी ही चाहिए किंतु फिर भी जब से उसने गोसेवा में मन लगाया है तब से वह इस दुःख को भी सुख मानकर मग्न रहती है। वह मगन रहती है और इस आशा से आनंद में रहती है कि उसे जो सजा दी गई हैं वह आजीवन नहीं है । उसकी अवधि है और अवधि के दिन दिन दिन निकट आते जाते हैं ।

अवश्य यह इस घर के, पति पत्नी के परस्पर बर्ताव का खाका है किंतु मथुरा का तिरस्कार होने के दिन से जब उसके बस स्त्रियों का प्रया जाना बंद है तब लोगों को क्या मालुस कि वे आपस में किस तरह बरसते हैं। कोई पत्नी के पैरों में बेड़ियाँ डाल कर नित्य उसके दस’ जूते मारने की दुहाई देती है और कोई कोई यहाँ तक कह डालती हैं कि वह बिचारी दाने दाने के तरस रही है । आठ पहर में एक बार रूखी' सूखी मिल गई यही ते योही भूखों मरते अपने घटते दिन पूरे किया करती है । इस प्रकार की बातें उड़ाना, यो कह करके पतिपत्नी की धूल उड़ा डालना जिसने ग्रहण किया है। वह यदि आटा बाँध कर उनके पीछे पड़ जाय तो क्या आश्चर्य ? उसने तलाश कर करके दो चार ऐसी औरतें'खड़ी कर ली है जो इसके घर की झूठी मोटी बातें गढ़ कर उन पर खूब रंग जमाती है।"हल्दी लगे ना फिटकरी रंग चोखा आवे ।

अ० हिं०----४ [ ५० ]इस कहावत के अनुसर रंग भी अच्छा जम गया है । अब कोई कहती है----‘‘हमने अपनी आँखों से उसे जुतियातें देखा हैं।" किसी का कहना है-.-"हाँ । "हां ! पिटते पिटते उसके सिर के बाल उड़ गए।" इनके बीच में पति का पक्ष लेकर कोई कोई कसम खाने तक को तैयार हैं - मारे नहीं तो क्या करे ? वह अब और हरामजादी इधर उधर ताक झाँक लगाने से बाज नहीं आती" एक बार एक आदमी ने कह दिया कि मेरे पेट में ले कौवे का पर निकला । कौवे का पर पेट में से निकला नहीं था । वहाँ पड़ा देखकर थीं ही उसे भ्रम है। गया था । किंतु जब यह खबर लोगों के कानों पर पड़ी तो एक से दो, दो से चार और यो ही बढ़ते बढ़ते सौ पर हो गए ! पर से कैवे बन गए । बस यही दशा इन दंपती की हैं।

इस तरह बस्ती भर में इनकी निंदा के तह पर तह चढ़ाएं जा रहे हैं किंतु इन दोनों को बिलकुल खबर नहीं कि हमारे लिये लागे ने किस तरह बात का बतंगड़ बना रखा हैं, कैसे हमारी फजीहती की जा रही हैं। बस इसी लिये ऊपर लिखा जा चुका है कि दंपती अपने अपने हाल खयाल में मस्त हैं। उन्हें अपने काम से काम है। दुनिया के झगड़े से कुछ मतलब नहीं । फिर पति को धरधंधों के आगे, अपने काम काज के मारे इतना अवकाश भी तो नहीं मिलता कि किसी के पास दस मिनट बैठकर इधर उधर की गप्पे तो सुन लिया करे । [ ५१ ]खैर ! वह इस तरह से चुप हैं तो रहने दीजिए किंतु जब मथुरा इन दोनों के पीछे पड़ी है तब बह चुप कैसे रह सकती है। आज उसे अकस्मात् माला भी अच्छा मिल गया । इनकी एक पड़ोसिन ने भोर ही पनघट के कुँए पर बस्ती के बाहर जल भरते भरते दस बारह पनिहारिनों के सामने मथुरा से कहा--“वीर । आज रात के हमारे पड़ोस में न मालूम धमाका किसका हुया था ? ऐसा धमाका कि मैं तो भरी नींद में चौक पड़ी । निपूती तब से नींद भी न आई ।" बस इसका यह मतलब निकाला गया कि पति ने मारकर अपनी जोरू के कुँए में गिरा दिया अथवा पिटते पिटते धबड़ाकर वही कुँए में गिर पड़ी ।बस बिजली की चमक की तरह घंटे भर में यह बात सारी बस्ती में फैल गई। इस पर खूब ही रंग चढ़ा, यहाँ तक कि थाने में रिपोर्ट करने लेग दौड़े गए । तीन मील चलकर एक साहब पंडित प्रियानाथ को तार देने दौड़ गए और कितने ही महाशय इस बात का भेद लेने के लिये, कई एक कांतानाथ से सहानुभूति करने के लिये और बहुत से नर नारी तमाशा देखने के लिये पंडित जी के मकान के द्वार पर इकट्टे हो गए । बस पंडित प्रिशयानाथ के पास पुरी से बिदा होते समय जो तार पहुँचा था वह उन्हीं साहब का दिया हुआ था । तारबाबू ने कतिनाथ के नाम से दिया हुआ तार दूसरे के हाथ से लेने में थोड़ी बहुत हुज्जल भी की थी किंतु पंडित जी [ ५२ ]से उसका इसने और यह उनके घर का मामला, इसलिये वह तार रो कना सका । ज़ी तार को पढ़कर उन्होंने दक्षिण यात्रा बंद कर दी उसमें लिखा था----

“मेरी स्त्री कुँए में गिरकर मर गई । जुड़ी भारी अफर है। मार डालने का इलज़ाम मुझ पर लगाया गया है । फौरन आओ ।"

स्टार को पाकर पंडित जी ने क्या किया, इससे उनकी दशा क्या हुई,सो गत प्रकरण में लिखा जा चुका है। हाँ उन्होंने जब अभी तक यह नहीं बतलाया कि तार को पढ़कर उनके मन में क्या बात पैदा हुई, उन्होंने इस तार की सच्चा समझा है अथवा नितांत मिथ्या, और जब केवल अटकल लगाने के सिवाय उनकी श्रद्धांगिनी प्रियंवदा तक उनके मन का भेद नहीं जान सकता है तब जब तक वह अपने मुँह से न कह से कौन कह सकता है कि उनके घबराहट केवल इन तार का पाने से थी अथवा श्री जगदीश के चरणों के वियोग से वह ब्याकुल थे। इनमें से कोई एक बात भी हो सकती है और दोनों संयुक्त भी ।

खैर ! इस यात्रापार्टी का अभी इस उधेड़बुन में पड़े रहने दीजिए, यदि पंडित जी अपनी धुन में सवार होकर रेल में सवार हुए अपने घर की ओर आ रहे हैं तो आने दीजिए किंतु अब भी उनके पिता के उपकारों को याद करके, उनके आंतक से डरकर और कांतानाथ की लात से घबड़ाकर [ ५३ ]और सबसे बढ़कर पुलिस के भय से उसके द्वार पर इतनी भीड़ इकट्ठी होन्ने पर भी किसी का यह हियाब नहीं होता कि वह उनके मकान की चौखट के भीतर तो पैर रख सके ।

किंतु वास्तव में आज मामला क्या है ? जिस बैठक में अब तक दस बीस' आदमी आए और चले गए होते, जिसमें आसामियों की, कामकाजियों की और लेन देनवालों की प्रातःकाल से आवा जाही लगी रहती है। उसका दस बजे तक किवाड़ क्यों बंद है ? घर का किवाड़ बंद होकर भीतर से साँकङ्ग चढ़ रही है और आदमियों के भीतर फिर डोलने तक की आहट नहीं । हाँ ! भीतर से की भी सुरीली आवाज से कुछ गाने अथवा योही गुनगुना की भनक अवश्य आ रही हैं परंतु इसका मतलब क्या ? जिसे समय वहां खड़े हुए नर नारी इस प्रकार तर्क पर तर्क लगाकर अपने संदेह को पक्का कर रहे थे उस समय भीड़ को अपनी डाँट डपद से डराती, इस तरह मैदान करती पुलिस आ पहुँची । अब एक,दो ,दस, बीस कई एक आवाजे' दी गई परंतु जवाब नहीं । तब बढ़ई को बुलाकर किवाड़ तोड़ा गया । पुलिस ने कुँए के पास जाकर उसमें बिल्ली डाली परंतु थोड़े बहुत कूड़े करकट' के सिवाय बिल्ली खाली । यघपि घर की तलाशी लेने के लिये पुलिस जाकर जनाने और मर्दाने मकानों को देख सकती थी, जो मुकदमें पुलिस की दस्तंदाजी के हैं उनमें उसके अधिकार अपरिमित हैं किंतु चाहे संकोच [ ५४ ]से कहो चाहे कुंए में कुछ न पाने से उसका संदेह दुबला पड़ गया था, इसलिये भीतर जाने में उसे शंका हुई और इसी विचार में उसने कोई बीस मिनट तक चुपचाप खड़ी रहने के सिवाय कुछ ने किया ।

इस अवसर में कांतानाथ बाहर से छाए। वह' शायद रात से ही कहीं गए थे। उन विचारों को मालूम नहीं कि शत्रुओं ने इस तरह उन पर आफत बरसाने का प्रपंच खड़ा किया है। यद्यपि उन्हें आफल की परकाला मथुरा से खटका रहा करता था परंतु उनकी समझ में न आया कि आज उनके मकान में इतनी भीड़ क्यों है ? अस्तु भीड़ तो भीड़ परंतु जब उनकी दृष्टि लाल साफे पर पड़ी तब वह एकदम' के से रह गए। इस घटना को देखकर वह धबड़ाए भी सही, शायद उन्हें उस समय कोई डांट बतलाकर वह बोले--

“हैं हैं ! दीवान जी साहब आज यह क्या चला है ? क्या डाँका पड़ गया ? या कोई खून हुआ है ? आज इस सरगर्मी के साथ ?

“नहीं ! डाँका नहीं पड़ा ! खून बतलाया जाता है। और उसके मुलजिम आप ही गरदाने गए हैं। इस आदमी ( एक को दिखाकर ) ने रिपोर्ट की है कि आपने अपनी जोरू का खून करके उसे कुँए में डाल दिया ।" [ ५५ ]"हैं मैंने ? क्यों ? ऐसी क्या आफत पड़ी थी जो मैं एक औरत की जान लेता ? खैर ! कुँए से लाश बरामद हो गई ? अगर हो गई हो तो मेरा चालान कीजिए।"

“अजी हजरत, ऐसी टेढो टेढ़ी बातें क्यों करते हैं ? जरा सँभलकर बात कीजिए। अगर लाश ही बरामद हो जाती तो कभी की हथकड़ो भर देते। मगर लाश ही बरामद ने होने में आप बरी नहीं हो सकते ! आपको अपनी सफाई का सुबूत देना होगा ।"

"खैर ! इजत तो आज अपने बिगाड़ ही डालो मगर मेरे साथ अंदर चलिए । शायद लाश ही अपना जवाब आप दे ले !" यों कहकर कांतानाथ दीवान जी का हाथ पकड़े हुए जनाने मकान में जाकर बेल-----

'अच्छी बोल री लाश, तुझे किसने मारा ?” उनके सवाल करने पर परदे की ओट से जवाब आया- "कौन निपूता मुझे मारनेवाला है ? मैं ने अभी सौ वर्ष जिऊँगी ।" आवाज सुनते ही पुलिस शर्मा गई, रिपोर्ट देनेवाले का खून सूख गया और भीड़ भाग गई । “अब भी आपको शक हो तो उस लाश को बाहर भी बुलवा सकता हूँ। खैर, पर्दा तो बिगड़ ही खया। अब बाहर बुलवाई में क्या हर्ज है ?"

“नहीं? जरूरत नहीं। यह हमारे गाँव की लड़की है, इनके वालिद और मेहे वालिङ से खूब जान पहचान थी । मैंने सैकड़ो बार देखा भाला है । अवाज पहचान ली ।" [ ५६ ]"अच्छा ! उसी रिश्ते से आज आप अपनी बहन को यह नेग देने आए हैं। बड़ी इनायत की ।" इस पर दीवान जी कुछ झेपे । उन्होंने अपने मन को संतुष्ट करने के लिये एक औरत भीतर भेजी परंतु जब उसने भी भीतर के आकर यही उत्तर दिया--... हां पंडित वृंदावनविहार की बेटी और इनकी बहू सुखदा है ।" तब शर्माते हुए---"आपको तकलीफ हुई । मुआफ कीजिए। मैं मजबूर था। मैंने अपना फर्ज मसनवो वादा किया और सो भी इस बदमाश के रिपोर्ट करने पर ।" नहीं कुछ हर्ज नहीं । आपका कोई कसूर नहीं । लेकिन लाला जी तुम तो मिठाई लेते जाओ ।" कहकर कांतानाथ ने रिपोर्ट देनेवाले की खूब गत बनाई और इस तरह जब भीड़ हट गई तब भीतर जाकर "मैंने खूब काम किया ! शाबाश ! आज से तेरे सब अपराध क्षमा । भाई से पूछकर और अंगीकार ।” कहते हुए वह दबे पांव बाहर निकले और इस घटना का पूरा हाल सुनकर दौड़े हुए तारधर पहुँचे । वहाँ पहुंचकर उन्होंने संक्षेप से बड़े भैया का तार दिया और तब घर लौटकर भोजन किया ।