आदर्श हिंदू ३/५७ घुरहू की कुकर्म कहानी

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घुरहू की कुकर्म कहानी
"ये चित्त चित्तय चिर चरणी मुरारे:
पारं गमिष्यति यतो भव सागरस्य ।
पुत्रा: कलत्रमितरे नहि ते सहारया:
सर्व विलांकय सखे मृगतृणकाभिम् ।। १ ।।

अहह जन्म गतं च वृथा मम न यजनं भजनं च कृतं हरो ।।

न गुरुपाक्षसरारुहपूजन प्रति दिनं जठरश्य विपोषम ।। २ ।।

“स्वस्ति श्री सकलदुपमाह्र, भगवद्भक्ति-परायण, पाणिड - त्यायनेकगुण-मंडित, पंडित-मंडली-भूषण, श्रीमत्प्रीतिपन्न, श्रद्धेय पंडित श्री ५ प्रियानाथ जी महाशय योग्य ब्रह्मरूप निकट वर्तिनी, भगवान् शंकरप्रिया वाराणसी से कीटानुकीट, अकिंचन दीनबंधु का प्रयामाशीद ! शं च । जब से अपने गया श्रद्धादि का सविधि संपादन कर भगवचरण सरोरुह के दर्शनों से अपने नेत्रों को सफल और सुफल करने के लिये श्रा जगद्दीशपुरी के प्रस्थान किया आपका मंगल संवाद प्राप्त नहीं हुआ । निश्चय नहीं है कि आप वहाँ कब तक निवास करेंगे और दक्षिण यात्रा का आपने किस प्रकार क्रम स्थिर किया है। अस्तु ! कितनी ही आवश्यक बाते ऐसी हैं [ ११२ ]जिनकी सूचना आपको जितनी शीघ्र मिल जाय उतना ही आपको अधिक संतोष होगा ।

"प्रधान वक्तव्य यही है कि उस घुरहू नामधारी नर पिशाच को अपनी करनी का फल मिल गया । परमेश्वर यहाँ का यहाँ वर्तमान है। अब उसे आजीवन भारतवर्ष की पुण्यभूमि का दर्शन न मिलेगा । ऐसे नराधमों से देश जितना शून्य हो उतना ही कल्याण है। उसने अपने यावत् अपराध अपने ही मुख से खोकार कर लिए । जे घटनाएँ मुझे नसीरन रंडी के द्वारा विदित हुई थी वे लगभग सब की सब सत्य निकलीं । उसके साथ के पतवारू, कनवारू और नसीरन को भी दंड मिल गया । खूब छान बीन के अन्तर कल्पना नगरी के न्यायालय में दूध ने दूध और पानी का पानी न्याय कर दिया ।

“आप बाबा भगवानदास से कह दीजिए कि अब उसे चिंता करने की आवश्यकता नहीं रही। उसका जैसा विमल चरित्र हैं वैसा भगवान् सबको दे । निरपराध भगवानदास जिस मिथ्या कलंक से भयभीत होकर' दिन रात काढ़ा करता था उसका कर्ता घुरहू साबित हुआ । प्रयाग में आप लोगों ने जिस साधु की मुश्के कसते हुए अबलोकन किया था वह घुरहू ही था । वहाँ सिपाहियों के पहरे में से भाग आया था किंतु अंत में उसकी कलई खुल गई । उस नन्हें से बालक का केवल जेवर के लालच से गला घोंटकर प्रण लेनेवाला धुरहू है । भगवानदास ने उसका सत्कार करके अपनी थैली क्या [ ११३ ]खाई मान कापाय वस्त्र पर कलंक लग गया । उसक आतिथ्य करा सचमुच साँप को दूध पिलाना था। इस दुष्ट में ऐसा घोर पाप करके संन्यासाश्रम से लोगों का विश्वास उठा दिया ।

"वह वास्तव में नृशंस है, कृशन्न है और धीर पापी हैं । उसने जिस हाँडी में खाया उसी में छेद करना चाहा । यदि साध्वी प्रियंबदा उसका पुत्रवत् पालन करके उसका मैला, कुचैला उठाने में घृणा करती तो वह विष्टर में लिपट लिपट कर अन जल बिना बिलबिला बिलबिलाकर तड़प तड़पकर का मर जाता किंतु उसको जब माता पर हाथ पसारते हुए लज्जा न आई तब यह अवश्य नीबातिनीच हैं, पशु पक्षियों में भी गया बात है । उसने स्वयं स्वीकार कर लिया कि--

“मेरी आँख प्रियंवदा पर बचपन से ही थी । जिएर समर वह जननी बनकर प्लेग की घोर पीड़ा के समय मेरा पुत्र की तरह पालन पोषन करती थी उस समय भी मैं उसे बुरी नजर से देखता था । दो एक बार मैंने अपनी पाप वासना तृप्त करने के लिये खेाटी चेष्टा से, खोटा प्रस्ताव करके उसे छोड़ा भी परंतु जब उसका रूख न देखा तव सन्निपातवाले रोगी की नाई वाही तवाही वककर उसका संदेह निवृत्त कर दिया। उसके ऐसे मातृभाव का बुरा बदला देकर दीन दुनिया से भ्रष्ट हो जानेवाला मैं हूं। वैसे ही रेल-पथ में एक बार

आ० हिं०----८ [ ११४ ]जनानी गाड़ी में और दूसरी बार प्रयाग स्टेशन पर उसे छोड़कर हँस देनेवाला भी हैं ही हूँ।

‘आपको शायद विश्वास न होगा कि जब प्रियंवदा ने इतने दिन मातृभाव से मेरी सेवा की थी तब उसने मुझे रेल- गाड़ी में, प्रयाग स्टेशन पर और अंत में नौका में पहचाना क्यों नहीं ? इसमें उस बिचारी का कुछ दोष नहीं । वह तो वह किंतु यदि मैं भेप बदल लू तो मेरे माता पिता, मेरी स्त्री और देवता तक मुझे नहीं पहचान सकते । मैं केवल भेष ही नहीं बदलता हूँ किंतु भाव बदलने का, आकृति बदलने का और वोली बदलने का मुझे अच्छा अभ्यास है । मैंने इस काम के लिये सामान इकट्ठा करने में हजारों रूपए फूंक डाले हैं, बड़े बड़े उस्तादों की ठोकरें खाई हैं। इससे आप समभ सकते हैं कि प्रियंवदा के बचपन में जब मैं उससे इसके मौके पर मिला करता था तब और था, प्लेग के संकट से जिस समय उसने मेरे प्राण बचाए तब और, रेल में मैंने जब उससे छोड़ छाड़ की तब और नाव में मैं दिखलाई दिया तब और, किंतु जब मैं पकड़ा गया तब उसने मुझे पहचान लिया था ।

'रेल-यात्रा में जब वह मेरी मीठी मीठी बातों से काबू में आती दिखलाई न ही तब अवश्य मैंने उसे बचपन की झलक दिखला दी थी । उसके हँस कर, रोते रोते मुसकुराकर “निपूत यहाँ भी आ मरा । कह देने का भी यही कारण था । आप शायद पूछेगे कि बचपन की ऐसी कौन सी बात [ ११५ ]थी जिसके स्मरण होते ही दु:ख के समय भी, भय की विरियाँ भी प्रियवदा हँस पड़ी। उसके पति के यह भेद मालूम होगा तब ही उन्होंने मेरे ऐसा अनुचित बर्ताव करने पर भी हँसकर टाल दिया नहीं तो वे अवश्य मुझे प्रयाग के स्टेशन पर पीटे बिना न छोड़ते । कांतानाथ को मेरी हरकत अवश्य बुरी लगी थी। तब ही उन्होंने मेरी लाते और घूंसो से खबर ले डाली । उनकी लाते और घूंसे अब तक कसकते हैं। उनके चेहरे के भाव से स्पष्ट होता था कि उन्हें प्रियंवदा के हँसने में उस पर संदेह हो गया है।

अच्छा आप यह पूछेंगे कि वह बचपन की कौन सी बात यी जिससे सुनते ही प्रियंवदा हंस उठी। बात कुछ ही थी । कुछ बात हो तो कहूँ ! बात यही थी---‘मोरी मे का बेर ।* आप शायद इससे यह समझ बैठे कि उसने कभी मोरी में से उठाकर बेर खा लिया हेगा। नहीं ! सो बात नहीं थी । वह जन्म से ऐसे घर में पली थी कि यदि उसके माता पिता को इस प्रकार का झूठा भी संदेह हो जाये तो वे उसे गोमूत्र पिलाते पिलाते और गोबर खिलाते खिलाते अधमरी कर डालें ।

"बात इस तरह पर थी कि जिस समय मेरी उमर तेरह चौदह वर्ष की और उसकी सात आठ वर्ष की होगी, मैं अपने पिता के साथ उसके गांव में सात आठ महीने रहा था। हम दोनों के घर एक दूसरे से बिलकुल सटे हुए थे और हजार मुझे पिताजी मारते पीटते परंतु मुझे आवारा भटकने के [ ११६ ]सिवाय पढ़ने वाले से कुछ मतलब नहीं था। बुरी संगत में बैठने से मेरी नियत खराब हो गई थी और उसी कच्ची उम्र में चाहने लगा था कि मैं प्रियंवदा को अपनी प्राणत्यारी । बताऊँ ! परंतु जाति-भेद के कारण, और मेरे दुराचार से यह बात एकदम असंभव थी। बस इसी लिये उस कच्ची कोपल को ही हो तोड़ खाने का इरादा किया । इस इरादे से मैं उसे छेड़ा करता था, उसके साथ' बुरी बुरी चेष्टाए करता था और बुरे बुरे प्रस्ताव करता था परंतु वह केवल सात आठ वर्ष की बालिका क्या जाने कि मेरा क्या मतलब हैं । आजकल सात आठ वर्ष की लड़कियाँ भी खोटी संगति में रहकर सुनने सुनाने से, देखने भालने से बहुत कुछ जान जाती हैं और गालियों का पाठ पढ़ाकर अपड़ स्त्रियाँ उन्हें सब बातों में पहले से होशियार कर देती हैं किंतु उस तक इसकी हवा भी नहीं पहुँची थी । जब मैं उसे छेड़ता तो वह अपने भोलेपन से या तेरे हँस दिया करती थी या बहुत हुआ तो निपूते,निगोड़े और झुए गाली देकर, पत्थर मारकर भाग जाती थी। किंतु ऐसे गाली और पत्थर खाने ही में मुझे आनंद था।

“हाँ !"तो भोरी में के बेर" की घटना इस तरह पर हुई कि एक दिन उसके पिता ने पेंसिलें खरीदने के लिये उसे पैसा दिया । बालिका तो थी ही, पैसे के आँचल से बाँधने की जगह वह उसे उछालती उछाल ती जाने लगी । पैसा संयोग [ ११७ ]से मोरी में गिर गया। मोरी में पड़ा हुआ पैसा वह कदापि न उठाती परतु इधर उधर अच्छी जगह में गिर गया हो तो उठा लू, इस इच्छा से जब वह उसे आँखें फाड़कर ढूँढ़ रही थी तब ही मैं वहाँ आ पहुँचा। मैं उसे अकेली पाकर "जान सहब!" कह दिया करता था और वह भी इसका मतलब न जानकर नाराज होने के बदले हँस दिया करती थीं। उस दिन जब उससे मैंने ऐसा कहा तो उसने "अब" से लेकर "इति" तक सारा किस्सा सुनाने के अनंतर "भैया तू ही ढूंढ" कहकर रो दिया। मैंने उसे दिलासा देकर गोदी में उठाया, अपने रूमाल से उसके आँसू पोंछे और "जान साहब रोता मत ! पैसा गया तो तुम्हारे लिये रुपया हाजिर है ।" कहते हुए जेब में से रूपया निकालकर उसे देते छुए ज्योही मैंने उसके गालों का चुंबन करने के लिये मुंह फैलाया त्योही वह मेरी गोदी में से छुटककर भागी और यह कहती हुई भागी कि "निपूता यहां भी आ मर ।" बस इससे मैंने समझ लिया कि यदि यह अपने घरवालों के खबर दे देगी और इस बात को मेरे पिता जान जायंगे तो पिटते पिटते मेरी जान निकल जायगी । मैं झूठी बातें बनाकर अपना बचाव कर लेने में उस्ताद हूँ । बस इसी समय मैंने उससे कह दिया कि मेरी में से बेर उठाकर यह खा रही थी, मैंने इसे पकड़कर छीन लिया। बस इसी लिये पिटने के डर से मुझ पर इज़जाम लगाती है । वास्तव में वह माता पिता की मार [ ११८ ]से बहुत डरती थी । इस कारण उसने अपने घरवालों से सब हाल छिपाया । मुझे इस बहाने से उसे छोड़कर राजी करने का अच्छा मैका मिल गया। "मोरी में का बेर" कह कर मेरी देखा देखी और भी लड़के लड़की उसे चिढ़ाने लगे और यो उसकी चिढ़ पड़ गई।

"अब मैं अपने किए पर बहुत पछवाला हूँ और यदि सरकार मानकर मुझको इस बार क्षमा कर दें तो आगे से कुकर्म न करने की कलम भी खाता हूं......,"

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पंडित दीनबंधु के पत्र में इस प्रकार की बातें पढ़कर कांतान बहुत ही अपने मन में लज्जित हुए । एक साध्वी पतिव्रता माता समान भाभी के निष्कलंक होने पर उसके चरित्र पर संदेह करने पर वह पछताए और प्रियंवदा के चरणों में सिर पर उन्हें बार बार क्षमा मांगी । "अंत भला सो भला" कहकर प्रियंवदा ने देवरको संतुष्ट किया और यो उसके चित्त में जो एक मिथ्याभिशाप की चिंता क आग सुलगा करती थी वह दीनबंधु के पत्र से बुझ गई । उसने रात्रि के समय प्राणनाथ के चरण चापते चापते उनका चित्त प्रसन्न देखकर यह सारा प्रसंग सुनाने के अनंतर हंसकर उनसे कहा-- "नाथ,अब मेरे जी में जी आया। अब जी कर आपके चरण कमले की सेवा करना सार्थक है । यद्यपि आपने [ ११९ ]कई बार मुझे संतुष्ट भी कर दिया था और आपने स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि आप मुझे निर्दोष समझते हैं परंतु जब तक छोटे भैया का संदेह न निकले, मेरा दुख दूर नहीं होता था, मुझे दिन रात कल नहीं पड़ती थी।"

"हाँ बेशक ! ऐसा ही है । चलो अच्छा हुआ । उसका भी संदेह निकल गया ।"

"जी हां । उनका संदेह तो निकल गया परंतु आपने बनारस में ही सब के सामने इस बात का प्रकाशित क्यो न कर दिया? यहां तक कि आपने प्रकाशित ना करने का कारण भी ना कहा। क्या मुझे चिढ़ाने के लिए ?

  • नहीं ! तुझे चिढ़ाने के लिये नहीं ! केवल इसलिए कि यदि बात अपराधी के मुँह से प्रकाशित हो तो अधिक अच्छा !"

"अच्छा ! अब मैं समझी ! परंतु अच्छा हुआ उस दुष्ट को भी सजा मिल गई । ऐसे पामर को फाँसी पर लटकाना चाहिए था।"

"हाँ जैसा करता है वैसा पा लेता है। अब हमें क्या मतलब ! और मेरी समझ में जन्म भर दुःख पाना फाँसी से भी बढ़कर सजा है । वकीलों की दलील ने कानूनी बारीकी से उसे बचा लिया !"

"कानूनी बारीकी क्या ?" [ १२० ]"और अपराध तो उसके टांडव देने योग्य थे ही नहीं । उस बच्चे को मारने का अपराध था । उसने उसका इरादा साबित न हुआ होगा । बस यही कानूनी बारीकी !"

"खैर, हो गया! गया दुष्ट काले पानी !"

"कहीं जावे । भगवान अब भी उसे क्षमा करें । यातनाएं भोगने से वह संभले और फिर कभी ऐसे पापू में प्रवृत न हो । सबके भले में अपना भला है ।"

"हां बेशक शत्रु पर दया करनी है सच्चा हिंदूपन है ।"इस तरह बातें करते करते दोनों सो रहे ।