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आदर्श हिंदू ३/५६ पुष्कर में बालक साधु

विकिस्रोत से
आदर्श हिंदू तीसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास बी.ए.

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ १०० से – ११० तक

 
पुष्कर में बालक साधु

मत प्रकरण के अंत में पुष्कर की कुंज से चलकर देवदर्शन के लिये जाते हुए दो साधुओं को देखकर पंडित जी रुक गए थे । उनमें एक की वय १८ साल, गौर वर्गा, विस्तीण ललाट, विशाल वक्षस्थल, गठा हुआ बदन, सिर की जटा कंधे तक लटकी हुई, शरीर पर भस्म रमाए हुए, लाल लाल आंखे और चेहरे से सयम का,तप का अथवा भजन का प्रभाव फट फूटकर निकलता था । उसके मुख्य कमल की प्रतिभा देख देखकर अनायस बोध होता था कि यह ब्राह्मण शरीर है । इंद्रियांदमन से सुप्राप्त कांति उनके शरीर पर सुचारु रूप से झलक रही थी। मुख पर दाढ़ी मोछ का नाम नहीं और न कानों में कुंडल अथवा छिदे हुए कान । गले में रुद्राक्ष का कंठा अवश्य था । कमर में बूंज की कोंदनी पर लँगाटी और हाथ में एक तुंबी के सिवाय उसके पास कोई वस्तु नहीं थी।

दूसरा साधु, साधु नहीं साधुनी अथवा संन्यासिनी थी । इसकी उमर तेरह साल, वही गौर व सुंदर, सुडौल और गोल चेहरा, बड़ी बड़ी आंखे । और सब बाते' उस साधु से मिलती जुलती, यहाँ तक कि दोनों के मोहरे को । देखकर एक छोटा सा बालक भी अनायास कह उठे कि ये दोनों माँ-जाए बाई बहन हैं। केवल दोनों में यदि अंतर था तो इतना ही कि उसका पुरुष शरीर था और इसकी नारी देह । उसने केवल लॅबोढी बाँधकर अपनी लज्जा निवारण कर ली थी और इसे अपना शरीर ढाँकने के लिये दस हाथ' की साड़ी ओढ़नी पड़ी थी । साड़ो श्वेत नहीं, गेरुई नहीं, केवल भ्रम में रंगी हुई खाकी। दोनों के दर्शन करने पर विंचारवान् नर नारी अवश्य जान सकते थे कि शिव ब्रह्मादि को, नारदादि महर्षियों को नचानेवाले भगवान् पंचशायक का विश्वविमोहन वायु अभी तक इनके निकट नहीं पहुंचा है। दोनों के मुख पर भोलापन, शांति और विराग से अपना डेरा डाल रखा था। दोनों हलवाई की दुकान के सामने बैठे हुए बिना तकारी, बिना अचार, बिना दही पूरियाँ खाते जाते थे और जो सजन उन्हें फिर लेने के लिये मनुहार कर रहा था। उससे कहते जाते थे कि "बस अब नहीं ! अब कुछ नहीं चाहिए । बहुत हो गया । छुट्टी हुई ।" इनकी ऐसी निर्लोभता देखकर किसी ने पैसा दिया तो “नहीं," रुपया दिया तो "नहीं" और कपड़ा दिया तो "नहीं" । बस "नहीं" के सिवाय कुछ नहीं।

इन दोनों के सिर से पैर तक कई बार देखकर पंडित जी मोहित हो गए। कुछ इसलिए नहीं कि उनका रूप लावण्य उनके मन में समा गया हो किंतु पंडित जी के अंत:करण पर सचमुच ही उनका ऐसा प्रभाव पड़ा जैसा अभी तक किसी मनुष्य देहधारी का नहीं पड़ा था । इनकी आकृति, इनकी चेष्टा और इनके मुखों का मात्र स्पष्ट रूप से साक्षी दे रहा था कि इनका ब्रह्मचर्य अखंड है, काम-विकार अब तक इनके पडोस आकर नहीं फटकने पाए। इस घोर कलिकाल में ये बाते एक्कम असंभव हैं। भगवान् शंकराचार्य के अतिरिक्त अभी तक कलियुग में दुनिया के पर्दे पर कोई पैदा ही नहीं हुआ जिसने ब्रह्मचर्य के अनंतर गृहस्थाश्रम का, वानप्रस्थ का ग्रहन' ही न कर एकदम संन्यास ले लिया है।" पंडित जी के मन में ऐसे विचार होते ही उन्होंने इनके चरणों में प्रमाण करके पूछा---

"महाराज, यह भोग की बिरियां येाग ? असंभव को संभव ? अनुमान होता है कि पूर्व जन्म के शुभ संस्कार' हैं । तप का कोई भाग शेष रह गया है ।"

"नहीं पिता ! न हम तप जानते हैं और न योग । भगवान् की मर्जी । हमने जन्म लिया तब से इसके सिवाय कुछ देखा ही नहीं। जिस दशा में डाल दिया उसी में पड़े हैं और टुकड़े माँग खाते हैं । पिता की कभी सूरत देखना नसीब नहीं हुआ ! छप्पन के अकाल में माता अन्न बिना बिलबिला बिलबिलाकर मर गई । इस बहन का उसने केवल हमारा पेट भरने के लिये एक बूढ़े से विवाह करके साठ रुपए लिए थे, सो भी उसकी बीमारी में कोई बदमाश चुरा ले गया। . सत्तावन में ज्वर से पीड़ित होकर वह बूढ़ा भी चल बसा । एक साधु ने हमको पाला पोसा था सो महाराज भिक्षा न पाकर बासठ में मर गए । शरीर एक हमारा ब्राह्मण का है। परंतु अब तो भिखारी हैं, दुनिया के टुकड़े ले रहे हैं। दूसरे चौथे जब मिल जाय तब चबा चबेना माँग खाते हैं और ( दूर से दिखाकर) गुरू की गुफा में पड़े रहते हैं ।"

“अपके इस धैर्य को, आयकी इस धर्म-दृढ़ता को धन्य है ! परंतु महाराज, बाहर के कुसंस्कार से जब आपका काम बाधाएँ हाँगी, भोग विलास की इच्छा होगी और लोग आपको लालच में फँसावेंगे तब ये बात नहीं ठहरने पावेंगी। इस लिये एक बार गृहस्थाश्रम करो और इन बाई की रक्षा की । जमाना बहुत नाजुक है ।

“हाँ होगा । परंतु अब इच्छा नहीं । हाँ इच्छा विन्या पढ़ने की अवश्य है । कोई हमारे योग्य बातें सिखलानेवाला पंडित मिल जाय ते पढ़ेंगे जिससे रश्ते से चलकर साधना कर सके' ।"

"अच्छा ऐसा ही विचार दृढ़ हैं तो मारे गाँव में चलो । वहाँ सब प्रवंध हो सकेगा ।"

“नहीं बाबा ! गाँव में जाकर दुनिया के माया जाल में फंस जायें तेा किया कराया सब धूल में मिल जाय । जो आपने कहा सो सब सञ्चा हो जाय ।"

“नही महाराज, डरिए मत । यहाँ आपके ललचानेवाले, बिगाड़नेवाले बहुत मिलेंगे किंतु वहाँ किसी की मजाल नहीं जो आपको सता सके । एक पहाड़ी पर एक छोटी सी गुफा रहने को । बिल्कुल एकांत वास ।वही आपके पास भिक्षा पहूँच जायगी और गौड़बोले महाशय दोनों को पढ़ा आया करेंगे । आपकी इच्छा न हो तो आप बस्ती में न आना।

"अच्छा बाबा !” कहकर दोनों इनके साथ हुए और ये लोग भी देव-दर्शन को रवाना हो गए किंतु एक बात पंडित जी के हृदय में सभाई नहीं । हजार रोकने पर भी उनसे गौड़बोले को सुनाकर मन का बोझा इलका किए बिना न रहा गया । वह रो रोकर आंसू पोंछते हुए, हिचकियों भर भर कर फिर रुक जाते और फिर कहते हुए गौड़बोले को इस तरह सुनाने लगे---

"ओहो ! देश की कैसी दुर्दशा है ! भला यह लड़की केवल पेट भरने के लिये, साठ ही रुपये में बूढ़े को न बेच दी जाती तो विधवा क्यों होती ? हाय ! इन रुपयों की भी, ऐसा पाप कर्म करके केवल पेट भरने के लिये कमाए हुए रुपयों की चौरी ? हाथ बिचारे नन्हें उन्हें बालों को छोड़कर भूख की आग में माता की जल भरना घोर अनर्थ है । बस हद हो गई ! जिस देश में ऐसे उदाहरणा विद्यमान हैं उसमें अभी बालक साधुओं की ही भिक्षा बंद करके हमारा सुधारक समुदाय विलायत की नकल करना चाहता है। विलायत में भीख मांगनेवाला सजा पाता है और इस भय से वे लोग जब परिश्रम से पेट भर सकते हैं तब वहाँ की प्रजा अकर्मण्य नहीं होने पाती । यह सत्य है किंतु वह धनाढ्य देश है। वहाँ जीविका के हजार रस्ते हैं किंतु जिस देश की प्रजा नितांत दरिद्री हैं वहाँ जीविका के मार्ग खेलने से पहले भीख बंद ? बेशक इस यात्रा के अनुभव ने निश्चय कर दिया कि साधु समुदाय में यदि घुरहू जैसे अनेक नर-पिशाच हैं तो वरुण गुफावाले महात्मा जैसे सच्चे साधु भी कम नहीं हैं। यदि हिसाब लगाकर देखा जाय तो अधिकांश ऐसे निकलेंगे जो अन्न न मिलने से फकीर बन गए हैं अथवा इच्छा न होने पर भी भख मारकर उन्हें बनना पड़ा है। यदि अब भी भीख बंद करने के लिये कानून बनाकर कृतज्ञता के रयाली पुलाव मकाने की इच्छा रखनेवाले इसके बदले तीर्थ स्थानों में काशी और हरिद्वार, आपकेश के समान पत्र खोलने का उयोग करें, भिखारियों के समझाकर किसी न किसी प्रकार की उपजीविका में प्रवृत्त किया जाय ते आधे से अधिक निकल जांयेंगे | जो अंगहीन, शक्तिहीन, अपाहिज कोढ़ी हैं वे अलग निकल सकते हैं। उनकी रक्षा का स्वतंत्र प्रबंध किया जाय और तब जो निकम्मे, अकर्मण्य मशवा वास्तत्र में जिनका समाज पर बोझा है उनके लिये उचित रूप पर दबाव न डाल कर कानून का बोझा भी डाला जाय ते अनुचित नहीं। उनको कोई कार्य करने से पहले यह अवश्य सेाच लेना चाहिए कि वे उस देश के वकील बनने चले हैं जिसमें केवल एक ही फसल मारी जाने पर लाखों आदमी गवर्मेंट की कृपा के भरोसे अकालमोचन के काम पर टूट पड़ते हैं। फिर बालक साधुओं की यदि भिक्षा बंद की जायगी तो इन जैसे निरपराधी भी सताए जायेंगे। ऐसे ऐसे झख मारकर पाप कर्म में प्रवृत होगें । इन दोनों ने दिखा दिया कि यदि तलाश की जाय तो इस घोर कलियुग में ध्रुव के समान साधु आज भी मिल सकते हैं । जरा सोचकर "इतना कहते कहले पंडित जी का गला रूंध गया। वह आगे कुछ न कह सके और इसी ग्रमे में पितामह ब्रह्मा जी के मंदिर में आरती का टकोरा होते ही "जय जय जय ! भगवान् ब्रह्मदेव की जय !" कहते हुए सब के सब मंदिर के भीतर प्रवेश कर दर्शन का आनंद लूटने लगे । पंडितजी ने विनय की-

"भगवन, आप देवताओं से लेकर चिउँटी तक के पितामह हैं । जब सृष्टि ही आप से हैं, जब उसके रचयिता ही आप हैं तब आपके पितामह कहना कौन बड़ी बात हुई । ब्रह्मा, विष्णु और महेश, भगवान जगदीश्वर के तीन रूप हैं। उत्पन्न करने के समय ब्रह्मा, पालन करती बार विष्णु और संहार करने में महेश-पर' तु जब उत्पत्ति ही न हो तब पालन किसका और इसलिये इस त्रिमूर्षि में आपका प्रथम आसन है । यह समष्टि संसार की समष्टि स्थिति के समष्टि विभाग हैं। अच्छा पितामह, यदि हम दुनियादारी का विवार करें तब भी उत्पत्तिक माता का पिता से अधिक आदर है । तब प्रभु ! यह तो दास को बतलाओ कि भगवन्, आप उस ग्वाल के छोकरे से कैसे हार गए । नहीं महाराज, यह भी अपकी लीला है !"गोविंद की गति गोविंद जाने ।” हम पापी जीव क्या जानें कि कौन हारा और कौन जीता । आप यदि कृष्ण के भक्त हैं तब भी वही हारे क्योंकि भक्तों के भगवान् सदा कनौड़े रहते हैं, आप यदि दादा हैं तब भी वही । अस्तु आप सब प्रकार से सुर-श्रेष्ठ हैं। मेरे इष्टदेव के इष्टदेव हैं क्योंकि मैं लघुमति से नहीं जान सकता कि तीनों में से कौन बड़ा और कौन छाटा ? मेरे लिये तीन साल, तीनों एक और तीन में से प्रत्येक में तीनों के दर्शन होते हैं । संसार की व्यवस्था के लिये नाम तीन हैं किंतु हैं तीनों ही एक । हे प्रभु ! रक्षा करे । मुझे भगवान् की अविचल, अव्यभिचारिशी भक्ति प्रदान करो । मैं आपकी अनंत सृष्टि में एक कीटानुकीट हूं, पापी हूं, अपराध हूं। क्षमा करो नाथ ! रक्षा करे !!" बस इस तरह कहते कहते पंडित जी गद्गगद् हो गए, उनके नेत्रों से अश्रुधारा का प्रवाह होने लगा और थोड़ी देर के लिये उनका देहाभिमान जाना रहा ।

ऐसे दर्शन करके प्रसन्न होकर जब ये लोग मंदिर से लौटे तब गौड़बालो ने एक प्रश्न छेड़ दिया। इन्होंने पूछा कि क्येां पंडितजी, ब्रह्माजी के मंदिर अन्यत्र क्यों नहीं हैं ? और देवताओं के एक एक जगह दस बीस मिलेंगे, अधिक मौजूद हैं फिर इनका केवल यही क्यो ?"

"शास्त्र की सम्मति इसमें कुछ भी हो । जो कुछ है उसे आप भी जानते हैं और थोड़ा बहुत मैं भी ! परंतु मेरी समझ में जिनसे लोगो का स्वार्थ अधिक सिद्ध होता है उसी देवता के मंदिर अधिक बनाए जाते हैं । आजकल की दुनिया परले सिर की स्वार्थी हैं। यह ठहर बूढ़े बाबा । जैसा जिसका कर्म हुआ वैसी उसकी प्रतिमा गढ़ डाली । हां इनसे भी स्वार्थ सिद्ध होते हैं किंतु हजार बर्ष तप करने पर। और आजकल लोगोंगे को धी खाने ही शरीर चिकना होना चाहिए । बस यही सबव है कि जैसे दुनियादारी में पढ़ते ही लोग माता पिता को भूल जाते हैं वैसे ही इनकी गोद में से निकलने के बाद इन्हें याद नहीं करते ?"

खैर ! इस' तरह धर्मचर्चा करते करते पहाड़ी चढ़कर जब यह पार्टी गायत्री जी के मंदिर में पहुँची तब पंडित जी ने भगवती के चरणारबिंद में मस्तक नवाकर एकाअचित से निस्तब्ध होकर माता की इस प्रकार स्तुति की----

"हे जगजननी ! हे जगदंबा, तुम्हारी क्या स्तुति करू ?मुझे अभागे, धन के दरिद्री, मन के दरिद्री, तन के दरिद्रों और चरित्र के दरिद्री पामर पशु की क्या सामर्थ्य जो आपकी स्तुति कर सकें ? जिसकी प्रशंसा करते करते ब्रह्मादिक देवता भी नहीं अबाते , जिसे जपते जपते एक कीटनुकीट से ब्रह्मर्षि और देवर्षि बन जाते हैं जिसका जप करनेवाले के लिये त्रिलोकी का राज्य भी सिनके के समान है उसकी स्तुति क्या ? और सो भी मुझ जैसा अकिंचन, तुच्छ करे ! तेरी स्तुति करना मेरे लिये धरती पर पड़े पड़े आकाशवर्ती चंद्रमा को पकड़ना है, छोटे मुँह बड़ी बात है। जे भगवान् की आदि शक्ति हैं,जो वेद भगवान् का सार है, जिसके चौबीस अक्षरों में दशे, चौबीस अवतार विराजमान हैं उसकी स्तुति क्या ? भक्तिपूर्वक, एकाग्र चित्त से, निश्चेष्ट होकर यदि तेरा ध्यान किया जाय तो तेरे अक्षर अक्षर में परब्रह्म परिपूर्ण हैं। तू उस पर मात्मा का अक्षम चित्र है । मैं विशेष या कहूँ ? माता सच कहता हूँ तू वास्तव में ब्राह्मण बालकों से रूठ गई है । इसमें दोष तेरा नहीं, मैं छाती ठोककर कहता हूँ हमारा है । हमने तुझको भुला दिया। हममें से अब हजारों लाखों तेरा शुद्ध उच्चारण तक नहीं जानते । कहने में पाप हेाता है परंतु वे यहाँ तक नहीं जानते कि गायत्री किस चिड़िया का नाम है । यदि दीन दुनिया की हाय हाय छोड़कर नित्य हम लोग तेरा नियमित जप भी कर लिया करे तो आठों सिद्धियां, नवो निधियाँ हमारी चेरी हैं। हम ब्राह्मयों को किसी के आगे हाथ पसारना न पड़े, पाई पाई के लिये रिरियाना न पड़े। एक दो नहीं, अब भी सैकड़ों ऐसे देखे जाते हैं जिनका मस्क केवल तेरे जप के अखंड प्रकाश से देदीप्यमान है। केवल तेरे भरोसे वे संसार को तुच्छ समझते हैं। इसलिये माता, दोश हमारा है। हम कलियुगी हैं, पापी जीव हैं । माता, संसार की स्थिति, लय' और पालन करने के लिये माया स्वरूपा हमारा उद्धार करो । हम बुरे हैं तो और भले हैं तो तेरे हैं । हमने न सही तो हमारे पूर्वजों ने तेरे जप की कमाई कर बहुत संग्रह किया है। हे माँ ! रक्षा करें ।" बस इस भय भी उनकी वही दशा हुई। केवल उनकी ही क्यों साथ में गौड़बोले ही आज विह्वल हैं। उनकी आंखे पानी वहा रही हैं, उनके रोमांच हो रहे हैं और सचमुच वे माता के ध्यान में मग्न हैं । जब इन दोनों ने अपने आपे को संभाला तब सब के सब लाविज्ञा के दर्शनकर सीर्थगुरू पुष्कर के घाटों का निरीक्षण करते हुए मन ही मन प्रमुदित होते तांगों और इक्के में सवार होते हुए पुरुकरराज के प्रणाम करके वहाँ से बिदा हुए। यहां इतना लिखने की और आदश्यकता रह गई कि पुष्कर के भिखारी और जगह से भी दो हाथ बढ़कर हैं। वे यदि गाड़ी में सवार होते ही यात्रियों का पिंङ छोड़ देते हैं तो पुष्करवाले गाड़ी इक्के के आगे खड़े हो जाते हैं और जब तक पैसा नहीं पा लेते यात्रियों की सवारी के साथ सीख तक दौड़े जाते हैं । अस्तु ये लोग उनको दे दिलाकर उन दोनों साधु बालकों के साथ लिए हुए वहाँ से चल दिए और इनके अग्नि में पहुँचने तक कोई घटना ऐसी नहीं हुई जो यहाँ उल्लेख करने योग्य हो । हाँ ! जिस समय इनके आने की खबर मिली बस्ती के सैकड़ों नर नारी वाजे गाजे के साथ इन्हें लिवा ले गए और “आगए ! आगए !"की आनंद ध्वनि के साथ सब लोगों ने इनका स्वागत किया ।