आदर्श हिंदू ३/५९ ब्राह्मणों की जीविका

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प्रकरण----५९
ब्राह्मणों की जीविका

“अभी तो आपके यहाँ आए जुम्मा जुम्मा आठ ही दिन हुए हैं ! अभी से उतावले ?" "आठ दिन क्या थोड़े हैं ? मुझे तो आठ दिन आठ युग के बराबर बीत गए । खालो बैठे दिन पहाड़ के समान व्यतीत होता हैं। फिर जिस आदमी का घर नहीं, बार नहीं, जारू नहीं, जाता नहीं, पैसा नहीं, कौड़ी नहीं---उसका विश्राम ही क्या ? और कार ही क्या ? "जहाँ पड़ा मूसल वहीं खेम क्रूसल" नित्य कमाना और नित्य खाना ।”

“नहीं महाराज ! आपको कुछ भी क्यों नहीं ? सब कुछ है । यह घर आपका है, हम सब आपके हैं, आप बड़े हैं, पूज्य हैं, मुरब्बा हैं । आप बड़े भाई के समान हैं, उनसे भी बढ़कर फिर ऐसा नहीं हो सकता कि हम आपको यहाँ से जाने दें। घर ठाकुर जी का है, हमारा क्या है ? जैसे अाप वैसे हम ।"

"सचमुच आपका स्नेह अद्वितीय है। मैं भी आपको छोड़कर नहीं जाना चाहता। दुनिया में मेरा है ही कौन जिसके पास जाकर माथा मारूं ? नसीब से कहीं सिर भी दुखने लगे तो कोई पानी पिलानेवाला नहीं । शरीर छूट जाय तो उठाकर जला देनेवाला नहीं ! पड़ा पड़ा सड़ा करू [ १३२ ]तो कोई खबर पूछनेवाला नहीं ! परंतु यहा बिना काम काजा के, खाली बैठे रोटियाँ तोड़ना मुझसे नहीं बन सकेगा "

“नही ! नहीं !आप कभी रोटियाँ तोड़ना समझिए । भगवान् के घर में आप अधिक और मैं कम । फिर आपके लिये काम भी मैंने सोच लिया है। वास्तव में काम बिना आदमी निकम्मा हो जाता है, किसी काम का नहीं रहता, बिलकुल लदी। जो कुछ काम नहीं करता वह पाप करता है । और हम पैदा भी तो काम करने के लियं, कर्तव्यपालन के लिये हुए हैं,भोग विलास के लिये नहीं । सय पूछो तो अपने कर्तव्यपालन में जैसा सुख है वैसा और किसी में नहीं। इसके सामने त्रिलोकी का राज्य मिट्टी है, लाख रूपए के नोट रही हैं, पोड़शी रमणी धूल है । जो आनंद अपने कर्तव्य पालन में सफलता हो जाने पर होता हैं वद्द सचमुच अलौकिक हैं। यदि हम लोग इस बात में दृढ़ हो जायं तो बस हमने विश्व को जीत लिया । सफलता और निष्फलता, परिणाम परमेश्वर के हाथ सही किंतु हमें फल की अकांक्षा पर राग द्वेष छोड़कर काम करते रहना चाहिए ।"

"हां ! आपका कथन सही है । मैं भी ऐसा ही मानता हूँ। परंतु काम क्या सोचा है ? देखूं तो मैं उसे कर सकता हूं या नहीं ? क्योंकि जब मैं जानता कुछ नहीं तब ऐसा काम ही क्या होगा जिसे मैं कर सकें ? हाँ थेाड़ा बहुत कर्मकांड अवश्य जानता हूँ परंतु अब इससे गुजर होना कठिन है। [ १३३ ]प्रथम तो हिंदुओं के दुर्भाग्य से अब इससे श्रद्धा ही उठती जाती है फिर जो कुछ, थोड़ो बहुत, बची बचाई है भी उसे मूर्ख ब्राह्मणों का दल नष्ट कर रहा है ।"

“बेशक आप ठीक कहते हैं। अब केवल इस पर आधार रखना अच्छा नहीं । संस्कृत अवश्य पढ़नी चाहिए, कर्मकांड में अच्छी योग्यता प्राप्त करनी चाहिए और जो भावुक यजमान मिल जाय तो उसे करना भी चाहिए। किंतु कर्मकांड सीखना अपना पेट भरने के लिये नहीं है । वेदादि शास्त्र पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, कराना और दान देना, लेना ब्राह्मों के ये छः कर्म हैं । वेद पढ़ना, यज्ञ करना और न देना केवल अपने कल्याण के लिये और वेद पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना उपजीविका के लिये है। मेरी समझ में अपने कल्याण के लिये तीनों कमें तो करने ही चाहिएँ । इनके बिना ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं, किंतु जीविका के लिये जिन कम की विधि है यदि उन्हें कम कर दिया जाय, रोक दिया जाय तो फिर भी ब्राह्मणों का पहले का सा आदर हो सकता है। जो वस्तु दुर्भित है, अधिक परिश्रम से मिल सकती है। उसका आदर अधिक होता है। हमारे प्राचीन ऋषि महर्षियों की पर्णकुटिया पर बड़े बड़े राजा महाराजा महीने तक जा जाकर जय टकराते थे, खुशामद करते थे तब कहीं मुशकिल से वे लोग यज्ञ कराना, दान लेना स्वीकार करते थे। पितामह ब्रह्मा के समझाने पर महर्षि वशिष्ठजी ने सूर्यवंश की पुरेहि [ १३४ ]ताई केवल इसलिये स्वीकार की थी कि उसमें भगवान् मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्रजी का जन्म होनेवाला था । यदि अब भी हम लोग दान दक्षिाणा के लिये यजमान के द्वार पर घंटों तक रिदियाने, हाथ फैलाने से हाथ खैंच लें तो निःसंदेह उन ऋषियों का सा अदर पा सकते हैं, जो लोग हम पर स्वार्थ का कलंक लगाते हैं उनके मुख पर अच्छीछी खासी बपत लग सकती हैं। अब विश्वंभर है। राजा और रंक को भूखा जगाता है, भूखा सुलाता नहीं । ब्राह्मण में अब भी सैकड़ों, हजारों ऐसे हैं कितनी ही जातियाँ ऐसी हैं जो ब्राह्मणों की वृत्ति नहीं करती, इस जीक्षिका से पेंट नहीं भरर्ती, उनका योगोक्षेम अच्छी तरह चलता है। वे दान लेनेवालों से अच्छे हैं। यदि हम लोग केवल आत्मकल्याण के लिये बेदादि शास्त्रों का अध्ययन करें, यथाशक्ति यज्ञादि कर्म करते हैं और योग्यों को दान दें तो ऐसे धंधे से जिनके करने से ब्रह्मांडयात्व पर दोष न आवे अपना अच्छी तरह निर्वाह कर सकते हैं। अब भी ब्राह्मणों में भगवान् भुजनभास्कर का सा ब्राह्मयात्ना प्रकाशमान है। ऐसा करने से उनका महत्व बढ़ेगा, और उनके सदाचार से, उनकी सुशिक्षा से, उनकी निःस्वार्थता से संसार उनके पैरों पर मस्तक नवावेगा। अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है, अब भी नई रोशनीवालों में, नई नई उन्नतियों, राजदबारों में, और और वर्ण से ब्राह्मण का ऊँचा आसन है । जो कार्य वे कर रहे हैं वे कर सकते हैं, वह दूसरे वर्षों से [ १३५ ]नहीं हो सकता। भारतवर्ष की यावत् उन्नतियां के अगुआ अब भी ब्राह्मण हैं । अँगरेजी की उच्च शिक्षा ब्राह्मणों में अधिक है ।”

“निस्संदेह यथार्थ है परंतु तव करना क्या चाहिए ? क्या ज्योतिष पर गुजारा किया जाय ? इससे भी ते पेट भरना कठिन है। जब फल ही नहीं मिलते तब लोग देने भी क्यो लगे ? और झूठी बातें बनाना अच्छा नहीं !"

“हाँ मैं भी मानता हूँ । वास्तव में यदि फलित ज्योतिष को ठीक ढंग पर न लाया जायगा तो किसी न किसी दिन यह शास्त्र भी हमारे हाथ से गया समझी । लोगों की श्रद्धा उठती जाती है और जिन्हें अँगरेजी की थोड़ी सी ए, बी, सी, डी, पढ़ ली हैं वे इसका मर्म न समझकर इसे वाहियात असंभव बतलाकर पूर्वंजों की निंदा करते हैं, ब्राह्मणु को ठग बतलाते हैं। परंतु क्या इसमें दोष शास्त्र का है ? क्या शास्त्र ही मिथ्या हैं ? अथवा उसका संस्कार दूषित हो गया हैं ? अथवा पढ़ने वालों की ही अयोग्यता है ? मेरी समझ में शास्त्र का दोष नहीं क्यों कि वच्च सत्य है । निर्विवाद सत्य है । हाँ ! पढ़नेवाले अवश्य अपराधी हैं। वे पढ़े बिना ही अथवा ज्योतिष का ककहरा सीख कर ही झूठ मूठ मीन, मेष, वृष अपनी अँगुलियों पर गिनकर भविष्यद्भुक्ता बन बैठते हैं। उनके स्वार्थ से हिंदुओं के सब धर्मकार्य धूल में मिले जाते हैं।"

"परंतु क्या फलित ज्योतिष के फल न मिलने के अपराधी वे ही लोग हैं ?" [ १३६ ]"नहीं! शास्त्र के संस्कार भी दूषित हो गए हैं। अहा ! अपने पूर्वजों की प्रंशस किए बिना मैं आगे नहीं बढ़ सकता । जो काम लाख रुपया खर्च करके, हजारों की दूरबीनों द्वारा आज़ दिन विदाई युरोपियन करते हैं वह उन्होंने आज से हजार बर्ष पहले नरसल और मिट्टी से सिद्ध कर लिया था। आज भी कि एक अच्छा ज्योतिषी केवल नरसल की नलिका को मिट्टी में गाड़कर ग्रहों का वेथ कर सकता है। यदि उनके पोथी पत्रे छीन लिए जायँ तो जनशून्य जंगल में बैठे बैठे वह केबल इन्हीं की मदद से आज बतला सकता है कि तिथि, वार, नक्षत्र, योग और कर्ण क्या हैं ? तारीख क्या है ?"

“अच्छा ! यह तो अपने गणित के गुण गाए। परंतु फलित में दोष आने के कारण ?"

“गणित के क्षेत्र से ही फलित दूषित हैं गया हैं। बात यह है कि भास्कराचार्य को ग्रहों को वेथ कर सूर्यसिद्धांत बनाए लगभग छः हजार वर्ष हो गए । नक्षत्र स्थिर होने पर भी थोड़े थोड़े अपने अपने स्थानों से हटते हैं। उन्होंने इस हटाहटी का निश्चय करके लिख दिया है कि इतने वर्षों में इतना अंतर निकाल देना चाहिए । ग्रहलाघचकार ने जब ग्रहों के उड्यास्त में उनकी गति में अंतर देखा तब उसने उसी आधार पर गणित करके, वेध कर नहीं, वह अंतर निकाल दिया । इस बात को भी तीन हजार वर्ष हो गए । बस’ पंचांग में ग्रहों का उदयास्त न मिलने का यही कारण है । इसी [ १३७ ]का ग्रहण का समय नहीं मिलता, ग्रहों के उदयास्त नहीं मिलते, ऋतु में अंतर रहता है। ऐसे अंतर की भूल से मुहूर्त ठीक नहीं दिए जाते और जन्म का समय ठीक न होने से जन्मपत्र के, वर्ष के फल नहीं मिलते ।"

“तब, इसके उपाय ?" "उपाय दो हैं। एक विलायत के पंचांगों से अपने पंचांगों का मिलान कर अंतर निकाल लेना । काशी के और दक्षिण के ज्योतिषी "नाटिकेल अलमानक" की सहायता से पंचांग बनाते हैं। उनका गणित मिलत्ता जुलता हैं परंतु जैसा मल्ल ग्रहों का प्रयक्ष वेद करने से हो सकता है वैसा नहीं । इदलिये आवश्यकता इस बात की है कि उन्नयनी, जयपुर अथवा काशो की वेधशाला में प्रसिद्ध प्रसिद्ध ज्योतिषी इकट्टे होकर दूरबीनों के सहारे ग्रहों का वेध करें और तव नया कारण ग्रंथ तैयार किया जाय । एक बार बंबई में समस्त ज्योतिषि ने इकट्ठ होकर विचार भी किया था परंतु उत्साहहीनता से, धनाभाव से और आपस की फूट से "टांय टाँय फिस" हो गई। अब भी इस बात का जितना ही शीघ्र उद्योग किया जाय उतना लाभ है । पंचांगों की अशुद्धि से हमारी बड़ी भारी धर्महानि है। और फलित शास्त्र ही झूठा पड़ा जा रहा है सो घलुए में !"

"परंतु मे लिये आपने क्या उपाय सोचा है ?"

"आपके लिये दो उपाय हैं और वे दोनों साथ साथ संपादन हो सकते हैं। सबसे प्रथम तो चिकित्सा । हमारे [ १३८ ]आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा करने में प्रजा का जितना लाभ हैं उतना किसी और तरह से नहीं ! इसकी दवाइयाँ सस्ती, सुलभ और बच्चे बच्चे की जानी हुई हैं । ला चाहे देरी से हो किंतु हावा चिरस्थायी है । परमेश्वर ने यहाँ के निवासियो की जैसी प्रकृति बनाई है उसी के अनुसार इस देश में औपधियाँ भी उत्पन्न कर दी हैं। डाक्टरी इलाज का फायदा चाहे मिनटों ही में क्यों न दिखाई दे जाय परंतु उससे सदा के लिये रोग का विनाश नहीं होता और देश दवाइयाँ बीमारी को जड़ से उखाड़ डालती हैं । सैकड़ों बार के अनुभव से यह साबित हो गया है कि जहाँ असम्मर्थ होकार, हताश होकर, बड़े बड़े डाक्टर हाथ खैंच लेते हैं, जहाँ हजारों रूपया इसलिये भाड़ में जा चुकता है वहाँ टंको की देशी दवा से लाभ होता है। फिर डाक्टरों की फीस और दवा की कीमत का खर्च भी तो बहुत भारी हैं। इधर हमारे राजा महाराजा, धान्नवन, देशहितैषी आयुर्वेद के लिये एक पाई खर्च नहीं करते और उधर हर तरह से डाक्टरी का मदद मिल रही है। जिसकी सहायक सरकार उसका कहना ही क्या ? नही तो देशां इलाज के आगे अब तक उसका पैर ही न जमने पाता ।"

“ह ! राजा महाराजा और देशहितौषियों की उदासीनता है सही परंतु विशेष दोष बैद्यों का है। न वे विधा पढ़ते हैं और न इलाज करना जानते हैं। बस अटरम सटरस दवा देकर टका कमाने से काम । रोगी जीये चाहे मरे । बस [ १३९ ]अपना उल्लू सीधा करने से मतलब ! इसी का परिणाम है कि वैद्यों का इलाज बंद करने के लिये कानून बनने की नौबत आ । यही है और जो अब भी हम न चेते तो इस शास्त्र का भी लोप ही समझ लो ।"

"बेशक ! वैद्यों में योग्यता का प्रभाव इसका प्रवल कारण है । सचमुच ही लोग लातें मार मारकर उसे डुवों रहे हैं परंतु और भी दो बात की त्रुटियाँ हैं। एक इमारे शास्त्रों में चीर फाड़ का विस्तार नहीं है । सुश्रुत्व में हैं परंतु समय के अनुसार युरोपियन विद्वानों ने इस कार्य में जो असाधारण उन्नति की हैं। उसके लाभ से हमें वंचित न रहना चाहिए। आयुर्वेद आप का पढ़ा हुआ है, आप इनमें सिद्धहस्त हैं, अनुभवी हैं और यशस्वी हैं, रोगी को आपके दर्शन होते ही आधा अराम हो जाता है । इस यात्रा में मुझे कई बार इस का अनुभव ह़ गया। फिर आपकी दवा भी असाधारण है। अस्पताल में नौकरी करके आप चीर फाड़ का भी अनुभव प्राप्त कर चुके हैं । इधर संस्कृत ग्रंथों का मेरे यहाँ टोटा नहीं और उधर डाक्टरी की बढ़िया से बढ़िया पुस्तक मराठी और गुजराती में भाषांतरित हे चुकी हैं। जहाँ कहीं अँगरेजी की मदद चाहिए वहाँ मैं तैयार हूँ। बस इसलिये यह काम सिद्ध समझिए ।”

“अच्छा ! दूसरी त्रुटि से आपका मतलब शायद औषधियों अच्छी न मिलने से है ! बेशक दवाइयां का बड़ा अँधाधुंध है। भील पंसारी से और पंसारी वैद्य से कह दे सो ही दवा । वह [ १४० ]दवा चाहें संजीवन की जगह हलाहल ही क्येां न हो । न दवा को वैध पहचानते हैं और न पंसारी !और दवा लानेवाले निरे गंवार, जंगली ! फिर पंसारी के यहाँ की दवा की मड़ती नहीं, बिगड़ती नहीं। चाहे कीड़े पड़कर वह दवा विष ही क्यों न हो जाये परंतु जब तक थैली खाली न हो जाय, नई मॅशाने का काम क्या?"

“इसका उपाय मैंने यह सोच है कि जो ओपधियाँ बाजार में अच्छी मिलती हैं उन्हें दिसावर से घोकबंद मंंगवा लेना, जो आबू हरिद्वार धैर बदरीनारायण की ओर मिलने वाली हैं उन्हें वहाँ से इकट्ठा इकट्ठा मंगवाना और जो दुर्मिल हैं उनके बीजों का पता लगा लगाकर अपने बगीचे में वो देना। इसके लिये जितनी आवश्यकता होगी उतनी जमीन निकाल दी जायगी ।”

"और, या ? पहला सवाल रूपए का ही है ।"

“महाराज, यह बड़ा पुण्य कार्य है। इसमें गरीवों को भन्न वस्त्र भी मिलेगा । औषधालय में आनेवाले को दवा मुफ। किसी अमीर के घर जाकर आप इलाज करें अथवा वह मदद के नाम से रूपया दे तो लेने में कुछ हानि नहीं और जब इसका यश फैल जायगा तो विना माँगी मदद मिलने लगेगी ! काम ऐसा होना चाहिए जो दुनिया के लिये नमूना बन जाय । हमारे काम की कोई नकल करे ते खुशी से ! जो सीखना चाहे उसे सिखाने को तैयार है ।" [ १४१ ]"हाँ हाँ ! यह ठीक! परंतु रुपए का सवाल बड़ा टेठा है। सवर तंदुलप्रथमुलाः ।"

“पंडित जी, रुपये की आपने अच्छी चिंता की ! इसके लिये ठाकुर जी मदद देंगे । अभी काम आरंभ करने के लिये हजार दो हजार बहुत हैं। बस जितना चाहिए कांतानाथ से ले लीजिए । मैंने उससे कह दिया है। यदि सुकार्य में लगाते दरिद्र आ जावे तो कल का पता आज ही सही ! रुपया हाथ का मैल है और धर्म में लगाने से बढ़ता है, घटना नहीं ।"

'यह आपकी उदारता है, परोपकार हैं और मुझ अकिचन पर दया है। परंतु हाँ ! दूसरा उपाय ? प्रथम तो उन साधु बालक बालिका के पढाना । क्यों यही ना ?"

“हाँ ! यह तो परोपकार के लिये है परंतु मेरी झूठी प्रशंसा करके काँटों में न घसीटों । प्रशंसा आदमी के लिये जहर है । वह जीते ही मार डालती है। दूसरा कारण ब्राह्मणों का मुख्य कर्तव्य शिक्षा देना, उपदेश देना है। नियत समय पर भगवान् के मंदिर में लोगों के धर्म का उपदेश देना, और जो विधार्थ आपसे जिस शास्त्र का अध्ययन करने आये उसे जी खोलकर पढा़ना । विधादान और ओषधिदान का बड़ा पुण्य है । साथ ही संस्कृत ग्रंथों का भाषांतर करना भी ।”

"वास्तव में आपने उपाय अच्छे बतलाए । यथाशक्ति थोड़ा और बहुत सबका संपादन करूंगा और जब हर बात में सहायता देने के लिये आप जैसे महात्मा तैयार हैं फिर