आदर्श हिंदू ३/६० घर चौपट हो गया

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[ १४२ ]सफलता में संदेह भी नहीं किंतु महाराज, प्राचीन संस्कृत ग्रंथ मिलते ही कहाँ हैं ? दुष्टों ने उन्हें जला जलाकर हम्माम गर्म कर डाला । सच पूछो तो जितनी हानि पुस्तक जला देने से हुई, हमारी क्या दुनिया की हुई, वह कभी मिटने की नहीं। रुपए इकट्टे हो सकते हैं परंतु पुरत नहीं ।”

"हाँ ! ( रोकर ) हाय ! वास्तव में बड़ा अंतर अनर्थ हो गया। परंतु जो बात निरुपाय है उसका दुःख ही क्या ? अब भी जितने ग्रंथ मिल सकते हैं उनका उद्धार करने से आँसू पुछ सकते हैं। परंतु महाराज अंत में मैं फिर कहूँगा कि जिनके लिये विद्या से जीविका चलाना कठिन है वे व्यापार करके, कारीगरी सीखकर और नौकरी करके अपना पेट पाल लें । ब्राह्राण होकर जूते बनावें और शराब की दुकाने' खोले, ऐसी बाते' अवश्य निंदनीय हैं किंतु जो लोग आत्रिों से, कुपात्रों से पैसा माँगकर ब्राह्मगुत्व का अनादर करवाते हैं उनसे मैं संध्यावंदनादि में निपुणु पाँच रुपए की भैयागरी, चपरासगरी और दरबानी करनेवाले का श्रेष्ठ समझता हूँ। मेरी समझ में देशोपकार की लंबी लंबी ढीगे हाँकनेवाले भ्रष्ट ब्राह्मणों से वे हजार दर्जे अच्छे हैं। संताप मात्र चाहिए क्योंकि ‘असंतुष्ट द्विजा नष्टाः ।"

बस लेखक की कल्पना ने इस उद्योग की सफलता को सीमा तक पहुँचा दिया । अब कार्य में प्रवृत्त होना पाठकों का काम है। [ १४३ ]
घर चौपट हो गया

"बुढ़िया ने पीठ फेरी और चरखे की हो गई ढेरी वास्तव में भगवानदास का घर चौपट हो गया । बूंढ़ा गंवार था, पढ़ा लिखा विलकुल नहीं और आजकल की "उन्नति" की पुकार उसके कानों तक भी नहीं पहुँची थी, पंरतु उसने अपनी छोटी सी गृहस्थी में, अपनी सधारण हैसियत में और अपने गरीब घर में,दिखला दिया था कि गृहराज्य कैसा होता है। जो घर का प्रबंध कर सकता है, जिसकी आज्ञा का पालन बेटे बेटी करते हैं और जो अपने घर की उन्नति कर सकता है वही देश का प्रबंध भी कर सकती हैं। प्रबंधकर्ता में पहली योग्यता यही होनी चाहिए । पोथे रट रटकर माथा खाली करने की जितनी आवश्यकता नहीं उतनी "इतजागी लियाकत" चाहिए लोग कहते हैं कि "संयुक्त कुटुंब" की प्रणाली से देश चौपट हो रहा है, कोई भी उन्नति नहीं कर सकता, किंतु उसकी बूढ़ी बुद्धि ने साबित कर दिखाया कि संयुक्त कुटुंब गृहराज्य है, राज्य-प्रबंध का दमूना है। यदि देश में ऐसे कुदुबों की अधिक संख्या ह़ो तो स्वभाव से ही एकता बढ़ जाय, मुकदमेबाजी आधी रह जाय और यही देहाती पंचायत का मूल सूत्र है। शरीर के जितने कार्य हैं उन्हें न [ १४४ ]अकेला साया कर सकता है और न दो हाथ ।जबदशों इंद्रियां मन की इच्छा के अनुसार मिल जुलकर अपना अपना काम करती हैं तब ही शरीर चलता है । "याज्ञवल्क्य स्मृति" में देशप्रबंध की व्यवस्था कुलपति, कुलपतियों पर ग्रामपति और फिर बढ़ते बढ़ते राज्यपति, राजा, इस तरह की है । "जिन ते संभल सकत नहिं तन की धोती ढीली ढाली देशप्रबंध करेगें यह कैसी है खास खियाली । किसी ने यह लोकोक्ति खूब फवती कह डाली है ।

अस्तु । भगवानदास के गृहराज्य का यह पहल दृश्य हैं किंतु दूसरे * सीन ने बिल्कुल तख्ता उलट दिया । बूढ़े के जाते ही पहले सीन पर परदा पड़ गया। उसके मित्र ने जहां तक उससे बन सका, तन मन और धन से सँभाला परंतु उसकी अधिक दिन दाल न गलने पाई। जो कार्य कर्तव्यबंधन में बाँधकर नहीं किया जाता है उसकी चेपा चापी बहुत समय तक नहीं चल सकती । “काठ की हडिंया बार बार नहीं चढ़ती है ।" बूढ़े के जाते ही श्रृखला गई, दबाव जाता रहा, कर्तव्य का चूर मूर हो गया और कलह का, स्वार्थ का, मनमुटाव का और ईष्र्या का सीन खड़ा हो मृदु, मधुर और मंद प्रेम से वह अत्याचार नहीं देखा गया इसलिये वह भी अपना बधना बोरिया लेकर चलता बना । अब भाई भाई में नहीं बनती हैं, लुगाइयों लुगाइये में गली गलैज होती है, खसम जेरू में मार पीट होती है और [ १४५ ]एक दूसरे को देखकर आँखों में से शत्रुता की चिनगारियाँ फेंकने लगता है। बैल भूख के सारे कल मरते आज ही क्यों न मर जाय उन्हें कोई पानी पिलानेवाला नहीं, जंगल से घास काटकर लानेवाला नहीं । खती सूखती है तो क्या प्रवाह ? चरस चलाकर सोचने का परिश्रम हमसे नहीं होता है । क्या हम किसी के गुलाम हैं जो बारिश में, धूप में और जाड़े में खेती की रखवाली के लिये जंगल में रहें हैं और बघेरा खा जाय तो ? नहीं नहीं ! हमारे फूल से बच्चे बछड़ो़ को चराने नहीं जायेंगे । लगान का तकाजा हैं तो जाने सेवा' ! चाचा जी उसे मालिक बना गए हैं। कोई छाती कुटे तो भले ही कूटे । आज बस से हलुवा पूरी उड़ेगी । बस इस तरह कर गदर मच गया । बाहर के चोर नहीं किंतु घर की घर में चेरियाँ होर्ने लगीं । कोई गल्ला बेचकर रुपया हजम कर जाता है । किसी ने बैल ही बेचकर क्रीमत अंटी में दबाई है । खेत सूख गई । बीज तक वसूल होने का ठिकाना नहीं । लगान की किस्त चढ़े अर्सा हो गया। कुर्की की नैबित आ पहुँची । दो चार बैल मर गए। एक भैस ऐसी मरी जो डेढ़ सौ में भी सस्ती थी । कई एक गाय ठंठ हो गई। पूँजी पसारा बिगड़ गया । एक चूल्हे के सात चूल्हे हो गए ! बेटे अलग, पोते अलग और जो इकट्टे हैं उनके मन अलग, स्वार्थ अलग । और इसलिये "जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहं विपत्ति निदान ?" का फोटो सामने पुकार पुकार कहने

आ० हिं०----१० [ १४६ ]लगा कि कलह का, कर्तव्यशून्यता का और बड़े बूढों के अभाव का यही नमूना है । जो काम बृढे में वर्षों के परिश्रम से, अनुभब से तैयार किया था वह महीने में, घंटों में नष्ट हो गया। वर्षों की मिहनत से पाला पोसा फूलदार, फलदार वृक्ष मूर्खता की छाँधी ने जड़ से उखाड़कर फेंक दिया ।

इस फोटो से पाठक समझ सकते हैं कि बूढे, बुढ़िया दे जब वापिस आकर घर में पैर रखा तब धौले दुपहर के भव्य प्रकाश के बदले भर भादों की ताराशून्य घेार अँधियारी रात थी । सबने सब ही की आ आकर बाप के आगे चुगलियाँ खाई । सव ही अपने अपने मन को निर्दोष हैं और उनके सिवाय दूसरा दोषी । सब से अधिक देश सेवा पर, उनकी बहू पर मढ़ा गया; किंतु ऐसे झूठे अपराधों के लिये अपना सफाई दिखलाकर वे कसम खाने तक को तैयार हैं, गंगा उठाने में सक्षद्ध हैं। इन दोनों की गवाही भगवानदास के अंतरंग मित्र ने भी दी। उसने आदि से अंत तक एक एक का पृथक् पृथक इतिहास सुनाकर स्पष्ट कह दिया कि इन दोनों का कुसूर बिलकुल नहीं। इन दोनों ने जिस तरह बिपत् झेली है परमेश्वर ही जानता है । भूखों मर मरकर रात काटी है। इनके पास दाना चबाने के लिये भी कुछ नहीं रहा। इतना कहकर उसने सलाह दी कि---"तुम अपने सामने सब के हिस्से बाँट दो ! नहीं तो इनमें सदा ही जूता चलता रहेगा । ये अदालत तक पहुँचकर, अमले [ १४७ ]के, वकील के घर भरेंगे और चार ही दिन में देख लेना कि जिस घर का आतंक आज दिन बस्ती भर मानती हैं उसी के आदमी दाने दाने के तरसेंगे, औरा की ढोरें चराते फिरेंगे, हल जोतते फिरेंगे ।"

बूढ़े की इच्छा नहीं थी कि उसके सामने सब बेटे पोते अपने जोरू बच्चों को लेकर अलग हो जायें क्योकि वह जानता था कि जिस घर की साख आज लाख की है वह खाक की हो जायगी । तिनके तिनके इकट्ठे करके रस्सी बनाने पर मतवाला हाथी भी बांध सकता है किंतु वे ही तिनके जुड़े पड़ने पर एक चिंउटी को भी नहीं बाँध सकते । इस कारण उसे अपने मित्र की सलाह पसंद न आई । वह यात्रा के परिश्रम से, भूख प्यास सहकर यद्यपि थक गया था, चाहे उसे अब अधिक जीने की आशा नहीं थी और वह इस उमर को पहुँचकर अब घर की ओर से, दुनियादारी से उदासीन भी हो गया था और अब वह "सब तज और हर भज" की ओर अपना मन लगाए हुए था किंतु बूढ़ी हट्ठियों में फिर जवानी का जोश दिखलाकर जी तोड़ परिश्रम से बह सब ठिकाने ले आया। लड़कों को दुनिया की नीच ऊँच दिखलाकर पंडित जी और गौड़बोले ने उन लोगों को बहुत समझाया और तहसीलदार ने भी धमका धमकूकर फिर वैसा ही ढंग डालने में पूरी सहायता दी । ये काम अवश्य चल गया परंतु चला चेपा चापी ही । जिस भगवानदास के नख में भी कभी रोग [ १४८ ]नहीं था, जो नहीं जानता कि बुखार किसे कहते हैं वह इस मेहनत से थककर वीमर रहने लगा। इसकी बीमारी बढ़ते ही फिर वही गदर । अब इसने समझ लिया कि मित्र की सलाह के अनुसार इन लोगों के हिस्से किए बिना मेरी आँख के सामने ही ये लोग "जूतन फाग" खेलेंगे । इसलिये उसने सबको इकट्ठा करके जो कुछ माल ताल जमीन जायदाद रूपया पैसा बचा बचाया था वह पाई पाई बराबर बाँटकर झगड़ा भेट दिया ।

यो घर के धंधे से निपटकर वह यद्यपि उनसे उदासीन हो गया किंतु उन्होंने भी अब इसको निरर्थक, रद्दी समझ लिया । “बूढ़ा मर जाय तो अच्छा ! अब यह कांटा ही है। इसके खर्च का वृथा ही बोझा है।" वे खुला खुली कहने लगे । बूढे बुढ़िया को यदि ज्वर' पीड़ा से कोई कराहते देखता है तो उसकी और से आंख बचाकर चला जाता है। सवेरे किसी ने रूखी सूखी रोटिया पहुँचा दी से पहुँचा दी और भूल गए तो भूल गए। किसी का कर्ज थोड़े ही चुकाना है ? अब उनके पास फटे कपड़े और टूटी चारपाई के सिवाय कुछ नहीं है । एक लोटा केवल और है जिसमें सत्रह पैबंद लगे हैं। परंतु उसे इस बात का ज नहीं है। माँ वाप यदि बेटे बेटी पर बहुत से बहुत नाराज हो जायें तो इतनी गाली दे सकते हैं कि जैसे तुम हमें बुढ़ापे में सताते हो वैसे ही तुम्हारे बेटे पोते तुमको सतावें । किंतु इस गाली में भी आशीर्वाह है । वह "जाह विधि राखे राम, ताही विधि [ १४९ ]रहिए ।" के अटल सिद्धांत को दृढ़ता से पकड़े हुए है और अपनी हालत में अस्त रहकर "राम राम" जपते हुए दिन रात निकाल देता है ।

यों सज्जनों के सत्संग से बूढ़े बुढ़िया को हर्ष शोक नहीं है किंतु कष्ट देख देखकर उसके अंतरंग मित्र का जी जला करता है । इतने दिनों के अनुभव से उसने ठहरा लिया है। कि "यह राई रत्तों दे डालने का नतीजा है । यदि भवान् थोड़ा बहुत अपने पास रख लेता तो उसके लालच से उसकी वे खातिर हार्वी जिनका नाम !! बस इस विचार से वक्ष एक दिन एक थैली लेकर आया । उसे सबके सामने बजाकर, खोलकर दिखाने के बाद भगवानदास के कान में कुछ कहकर उसने उसके नाम की चपड़ी की मुहर उस पर लगा दी और एक भंडरिया में उसे रखकर ताली बूढे की कसर में बाँध दी। अब लड़के ने बहुतेरी विनती की परंतु इस रकम का हिस्सा न किया गया । "जो हमारी सेवा करेगा वह पावेगा । और को एक कौड़ी नहीं।" कहकर उसने कड़ा हुक्म दे दिया। बस उसी समय से उसकी खातिरे होने लगी । एक के यहाँ से खोर अली हैं दूसरा नया कपड़ा बनवा देता है और तीसरा आधी रात तक चरण चापता है। कोई पंखा झलता है तो कोई मक्खियाँ उड़ाता है। माँ बाप की सेवा करने में एक दूसरे की बदाबदी, होड़होड़ी होने लगी और बूढ़े बुढ़िया को हथेली पर थुका थुकाकर उनकी सेवा होने लगी। [ १५० ]यह सब कुछ हुआ और अब वृद्ध दंपती को अपनी संतान के लिये कोई विशेष शिकायत भी न रही परंतु जब अमर कहलाने पर भी देवताओं की उमर की अवधि है, जब जिसका नाम उसका नाश अवश्यावी है और जब ये दोनों जीवन की सीमा तक पहुँच चुके हैं तब यदि भगवानदास का काल आ जावे तो क्या आश्चर्य ? वह मर गया और बिना किसी बीमारी विशेष के साधारण ज्वर आकर बात करते करते, "राम राम" की रट लगाते लगाते, मृत्यु की असह्य वेदना के बदले हँसते हँसते मर गया, और ऐसी मौत कि जिसने खबर पाई उसके मुँह से यहीं निकला कि "ऐसी मौत भगवान् सबका दे । जिसे जन्म भर किसी से दीनता न करनी पड़े और जो ऐसे अनायास, बिना कष्ट पाए मर जाय, उसका जीना और मरना दोनों सार्थक हैं। उसे अवश्य स्वर्ग मिलेगा। पुण्यवानों की यही निशानी है।" खैर बूढ़ा तो मरा सो मरा किंतु बुढ़िया की अजब हालत हुई । वह सत्तर वर्ष की डोकरी होने पर हट्टी कट्टो थी । उसे किसी तरह की बीमारी नहीं थी । परंतु पति परमात्मा का परलोकवास होते ही उसने भी संहगमन किया । पति के स्वर्गवास होने की भनक कान में पड़ते ही "अब मैं जीकर क्या करूंगी ? जहाँ वह तहाँ मैं।" कहकर "राम राम" जपते जपते उसने भी शरीर छोड़ दिया। केवल पति-लेवा के सिवाय उसे कुछ मतलब नहीं था। वह विशेष बात भी किसी से नहीं करती थीं बल्कि लोग कहा करते थे [ १५१ ]कि उसकी समझ मोटी है परंतु आज उसने दिखला दिया कि पढ़ी लिखी औरत से वह हजार दर्ज अच्छी निकल । दोनों की वैकुंटियाँ साथ निकलीं, दोनों एक ही चिंता में जलाए गए और अपना कर्तव्य पालन करते हुए, दुनिया का यश लूटकर परमेश्वर की भक्ति करते हुए, सीधे स्वर्ग को सिधार गए । विद्या चाहे हो चाहे न हो। । वह विद्या ही किस काम की जिससे परलोक न सुधरे परंतु अपढ़ होकर भी इन्होंने दोनों लोक सुधार लिए । वास्तव में ऐसे ही लोगों का जन्म सार्थक है। धन्य भगवानदास ! धन्य साध्वी ! तुम दोनों के धन्य है ! भारत में ऐसे ही सज्जनों की आवश्यकता है। पातित्रत की पराकाष्ठा है। सरकारी कानून भी परमेश्वर के कानून के आगे कुछ नहीं ।

खैर ! दोनों की मृत्यु के बाद उनकी तेरही है। जाने पर जब इनके बेटों ने थैली सँभाली तब रूपया की आशा में पैसे पाए । थे सब बाप के मित्र से लड़े झगड़े भी कम नहीं, यहाँ तक कि उस पर मुकदमा चलाने को तैयार हो गए किंतु जब भगवानदास का तहरीरी सबूत उसके पास था और जब इसका अस्ली भेद हाकिमों को मालूम था तब उन लोगों की कुछ चली चलाई नहीं । हाँ ! जरा जरा सी बात पर वे लोग आपस में लड़ लड़कर फौजदारी करते और मुकदमे लड़ाते लड़ाते कट मरे । उनका पूंजी पसारा सब नष्ट हो गया और सचमुच उनके लिये वही अबसर आ गया जिसका बाप [ १५२ ]के मित्र को पहले से भय था। अब वे पैरों के यहाँ मजदूरी कर अपने पेट भरते हैं, अपने किए पर पछताते हैं, माँ बाप को याद करते रोते हैं। इस विपत्ति के समय यदि सहारा है तो यही कि पंडितजी ने उन्हें बुला बुलाकर किसी न किसी काम में लगा दिया हैं। यों अंत में वे लोग अपने दुःख के दिन सुख से बिताने लगे हैं।