आदर्श हिंदू ३/६१ मठाधीश साधु

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मठाघीश साधु

पाठक यह न समझ लें कि पंडित प्रियानाथजी घर आकर उन साधु बालकों को भूल गए। वह भूलनेवाले मनुष्य नहीं वरन् यों कहना चाहिए कि वे जान की जोखों उठाकर अपनी प्रतिज्ञा पालन करनेवाले थे। जिस काम में उन्होंने हाथ डाला उसे पार तक पहुँचा दिया है । ऐसी प्रतिज्ञा ही क्यों करनी जिसका निर्वाह न हो सके ? और जब करनी तब पार उतारनी, यह उनका अटल सिद्धांत था । अस्तु ! जिस समय वे गांव में पहुँचे उसी घड़ी उन बालक बालिका के लिये पहाड़ी टीलेवाली गुफा उन्होंने साफ करवाई, धूनी का, सीतलपट्टी ,कंबलों का और जल का प्रबंध किया और जब उन देने की भिक्षा हो गई तब आप अन्न जल न्तिया । अब जो कुछ इनके घर में बनता है उसमें इन दोनों के योग्य सिद्धान्न इनकी कुटी पर पहुँचा दिया जाता है । पंडित जी और गौड़बोले पारी पारी से उनको जाकर नित्य सँभाल आते हैं। यों ये कभी कभी गाँव में भी आते जाते हैं परंतु नित्य नहीं, महीना बीस दिन में । पहले पहले लोग उनकी कुटी पर जा जाकर अपना अपना मनेारथ सिद्ध करने के लिये प्रार्थना भी करते थे। कुसंग के लिये ललचाकर फंसानेवाले भी गए [ १५४ ]
परंतु न तो इन्होने किया और न आंख उठाकर वार्तालाप किया और न पंडितजी ने इनके पास भीड़ इकट्ठा होने दी । यों धीरे धीरे अपना लाभ न होता देखकर लोग लुगाइयों ने अपने आप इनके पास जाना बंन कर दिया । अब शरीर के खटके से निपटकर स्नान करने के अनंतर आठ पहर में एक बार जो कुछ भिक्षा भावे उसे गुडमड्ड करके खा लेने के सिवाय इन्हें कुछ काम नहीं । गुरू की बताई हुई काम-विकारों को शमन करनेवाली बूटी इस पहाड़ी पर भी बहुतायत से हैं। उसे ला लाकर यह अवश्य खाते हैं। और यों केवल चार घंटे की निद्रा के सिवाय इनका दिन रात भजन में बीतता है। बचपन से इनके गुरू ने "राम राम" का जो जप बतला दिया है उसे ही वे करते हैं और पद्मासन जमाकर गर्दन झुकाए, अपनी नासिका से चिपटती हुई पृथ्वी पर शुद्ध स्थान में लिखे हुए प्रणाव पर हृदय की दृष्टि, चर्मचक्षु नहीं क्येांकि ध्यान के समय ये मुँदी रहती हैं, जमाकर ध्यानावस्थित रहते हैं। गुरू जी ने एक बात और बतलाई है। वह यह कि ध्यान भगवान् श्री कृरुणचंद्र की बालजीला की मूर्ति का करना । जब, जिस समय तुम्हारा ध्यान और तुम्हार जप एक हो जायगा तब ही उस मूर्ति में से ध्रुव बालक की तरह भगवान हरि तुमको प्रकट होकर दर्शन देंगे । इसमें उन्हें इतने वर्षों के उद्योग से कहाँ तक संकलता हुई सो इन्होंने किसी को नहीं बतलाया और ऐसे गोपनीय मंत्र अधिकारी बिना किसी [ १५५ ]का बतलाने के लिये भी नहीं हैं। हाँ ! उन दोनों के मुख कमलों का निरीक्षण कर प्रत्येक विचारवान् सज्जन बतला सकता है कि तप उनके चेहरे पर झलकता है, कार्य की सिद्धि उनकी आंखे के सामने नाच रही है और संयम का कबच संसार के यावत् विकारों से उनकी रक्षा कर रहा है ।

ऐसे जितेंद्रिय, दृढ़मना और तपस्वी महात्माओ के लिये पुस्तक रटने की आवश्यकता नहीं । पुस्तक पढ़ना इस में जानकारी लाभ करके कार्य का आरंभ करने के लिये है और ये अपने उद्योग में बहुत आगे निकल गए हैं किंतु गुरु-मुख से मंत्रोपदेश ग्रहण करने और इतनी सी क्रिया सीख लेने के सिवाय ये कुछ नहीं जानते हैं। हाँ ! ये जितनी इसकी साधना करते जाते हैं उतना ही आनंद बढ़ता जाता है। बस उस आनंद में आनंद बढ़ाने के लिये ही ये पढ़ने लगे हैं । गौड़बोलेजी ने अध्याय के छोड़कर नित्य इनकी कुटी' पर जाना आरंभ कर दिया है। साधार लिखना पढ़ना सीख लेने के अनंतर उन्होंने पहले "विचार सागर" का मनन करवाया है, फिर "भगवद्गीता" का । किंतु इन दोनों का सीखना भी विलक्षण हैं। मानो ये पहले ही से उसे जानते हैं, पढ़ा हुआ पाठ भूल गए हैं सो पंडित गौडबोले के पढ़ाने से पुरानी बातों का उन्हें स्मरण हो आता है । जिस विषय पर विचार करने में और विद्यार्थियों को महीनों लग जायं उसे ये दिनों में अपने मन पर दृढ़ कर लेते हैं। भगवद्गोता के लिये ये [ १५६ ]देने कहा करते हैं कि संसार में इसके बराबर कोई ग्रंथ नह्नीं । दुनिया के पर्दे पर ऐसा कोई अब तक पैदा नहीं हुआ जो इसके सिद्धांतों को मिथ्या सिद्ध कर दे । इसमें प्रवृत्ति भी हैं और निवृत्ति भी। यह गृहस्थी के लिये भी हैं और संन्यास्त्रियों के लिये भी । इसका मनन करनेवाला दुनियादारी में रहकर भी जीवन्मुक्त है ! बस कर्तव्य की शिक्षा इसके समान किसी में नहीं । काम, क्रोध, मोह, लोभ और मद मत्सरादि विषों से छुड़ाने के लिये यह रामवाण' दवा है। कार्य करके भी न उसकी सिद्धि के लिये राग करना और न उसके प्राप्त न होने पर द्वेष । परमात्मा का स्वरूप इसमें बहुत अच्छी तरह दिखलाया गया है। हिंदूमात्र को इस हिए का हार बना लेना चाहिए।

बस ! इन्होंने भगवद्गीता पढ़ लेने के अनंतर या ग्रंथों को विचारना आरंभ किया है। योग साधन के लिये केवल वाचनिक शिक्षा किसी काम की नहीं । इसमें साधना अधिक और पढ़ना कम और साधना का अभ्यास अच्छे गुरू के बताए बिना हो नहीं सकता । जो केवल पुस्तक के भरोसे अथवा ऊटपटाँग गुरूओं से सीखकर प्राणायाम चढ़ाने लगते हैं। उनमें भूल से अनेकों को मस्तक-विकार हो जाते देखा है, अनेकों को क्षय हो जाते देखा है और अनेकों का शरीर फूट निकलता है। श्वास को रोकना मतवाले हाथी को बाँधना है। गैौड़बोले यद्यपि इस विषय को विद्यार्थियों के चित्त पर ठसाने [ १५७ ]की अच्छी योग्यता रखते थे और साधन से भी खाली नहीं थे। किंतु उन्हें इस बात का दावा भी नहीं था कि मैं इस विषय में पारंगत हूँ। खैर जितना वह जानते थे उन्होंने इन दोनों को सिखाया । गुरू शिक्षा में गौड़बोले की शिक्षा के संयुक्त कर इन्हेंने अभ्यास बढ़ाया और जो बात समझ में न आई उसे किसी महात्मा से सीखने के लिये उठा रखा ।

यो इन दोनों का समय अध्ययन, मनन घर निदिध्यासनादि में सदाचार के साथ वर्षों तक व्यतीत होता रहा । किसी प्रकार का विशेष नही, बिलकुल प्रलोभन नहीं। किंतु इस अवसर में एक घटना ऐसी हो गई जिससे इनके त्याने को कसौटी पर कसले का मौका आया। घटना एसी वैसी नहीं, बस "इस पार या उस पार" का मामला था । यदि उसे ग्रहण कर लिया तो संसार त्याग देने पर भी पक्कां संसारी बनना पड़ा और छोड़ दिया तो एक सीढ़ी ऊँचे । बात यों हुई कि पंडित प्रियानाथजी ने एक दिन इस तरह प्रस्ताव किया--

  • महाराज, आपके अपेक्षा तो नहीं है । जिसने संसार का तिनके के समान छोड़ दिया उसे अपेक्षा ही क्या ? और आप अपना कार्य साधन भी कर रहे हैं परंतु इसके साथ यदि आपके हाथ से लोकोपकार भी है तो कैसा ?"

“हैं पिता ! हम तुच्छ प्राणियों के हाथ से लोकोपकार ? जब हम ही नहीं, जब हम लुहार की धौकनी की तरह श्वास लेने पर भी मुर्दे हैं तब लोकोपकार कैसा ? हाँ इस [ १५८ ]मृतक शरीर है यदी ििििििििििििििििििििििििििििििििििििििििचोल्ह कौवे अपना पेट भर लें तो कुछ भी सही !"

"नहीं महाराज, आप जैसे तपस्वी यदि दुनिया का उपकार करना चाहें तो बहुत कुछ कर सकते हैं और यह शरीर परोपकार के लिये ही पैदा हुआ है । काम यह है कि एक जगह मठाधीश की गद्दी खाली हुई हैं। उनके शिष्य तो हैं परंतु इस योग्य नहीं हैं कि अपना कर्तव्य पाल सके' । इस लिये कितने ही धार्मिक सज्जनों ने किसी योग्य व्यक्ति को वह गद्दी दिलाने का प्रयोग किया है। मेरी समझ में आपसे बढ़कर योग्य नहीं मिल सकता इसलिये इस पद को स्वीकार कर सनातनधर्म की सेवा कीजिए, धार्मिक हिंदुओ का उपकार कीजिए और इस डूबती हुई नौका को पार उतारिए ।" ।'

“नही पिता ! यह काम मुझसे नहीं हो सकता !“दो एक साथ न होवे रे भाया, इंद्रियाँ पोषणि और मोक्ष जाया।" ऐसा प्रस्ताव करके मुझे मत फंसाओ । प्रथम तो मैंने जन्म लेकर अभी तक किया ही कुछ नहीं फिर यदि कुछ बन भी पड़ा हो तो उसे धूल में मत मिलाओ । जो दशा थोड़ों को छोड़कर आजकल के आचार्यों की, मठाधीशों की, स्थिर जीविका पानेवाले अपढ़ पुजारियों की और साधु वेशधारी मनुष्यों की हो रही है वही मेरे लिये तैयार है। संसार--त्यागियों को दुराचार में प्रवृत्त करने के लिये इसके शराब समझे। बस इस काम में पड़कर मैं दीन दुनिया दोनों का न रहूँगा। भाँग, [ १५९ ]गाँजा, चरस, चंडू तो उनकी साधारण सेवा है किंतु अब छिप छिपकर बोतलों भी उड़ने लगी हैं। अकेले दुकेले स्त्रियों से बातचीत करना तो उनमें दोष ही नहीं समझा जाता किंतु अब उनमें से अनेकों की व्यभिचार की, रंडीबाजी की भी शिकायत है । वे चोरी में फँसते हैं, डकैतों की मदद देने का उन पर इलजाम लगता है और इनमें से यदि सव ही दोषों से किसी तरह बच जायें, बचना कठिन तो हैं परंतु मान लीजिए कि बच भी जायँ तो द्रव्य संग्र करने का, भोग विलास करने का, आडंबर बढ़ाने का और हुकूमत करने औरों से पैर पुजवाने का क्या कम अपराध है ?"

“वास्तव में अपने जो दोष बतलाए वे यथार्थ हैं। थोड़ो को छोड़कर आजकल के आचार्य, मठाधीशों और पुजारियों पर इस तरह के इलज़ाम लगते हैं और उनकी कितनी ही जगह सत्यता प्रमाणित होने से लोगों के कानून बनवाकर देवोतर संपत्ति सरकारी निरीक्षण में डालने के लिये अदालन करने का हौसला हुआ है। जहाँ इस तरह का क्षेप उपस्थित हो जाय वहाँ राजा के हस्तक्षेप करने की आवश्यकता को मैं मानता हूँ। परंतु गवर्मेट विदेशो है । वह हजार मर्मज्ञ होने पर भी हमारे धर्म भावों को नहीं जान सकती इसलिये वह यदि कृपा करके इन बातों में हाथ नहीं डालना चाहती है तो हमारा उपकार ही करती है। परंतु आजकल के नवीन रोशनीवाले इसके पीछे आटा बांधकर पड़े हैं। वे इस द्रव्य [ १६० ]देशोपकार का कुछ भी काम करना चाहें, परंतु मेरी सम्मति यह है कि दाता ने जिस काम के लिये जो जायदाद दी है वह उसी काम में लगनी चाहिए। गद्दी पर विद्वान्द, धार्मिक, संयमो, जितेंद्रिय और सज्जन, नि:स्पृही महात्मा के बैठने से संस्कृत की शिक्षा का प्रसार हो सकता है, शिष्यों को सदुपदेश मिलने का प्रबंध हो सकता है और यों धर्म-सेवा होने से उद्देश्य की सफलता हे सकती है ।"

“जब संसार त्यागकर वैराग ही ले लिया तब उद्देश्य क्या ? गरुआ कपड़े पहनकर,राख रमाकर, गुरू बनकर नाहक भेप के लजाना है। चौथे आश्रम के लातें मार मार कर नष्ट भ्रष्ट करना है। शास्त्र में संन्यासी के लिये इस तरह रहना कहाँ लिख है ?"

"शास्त्र में यदि न हो तो न सही । संन्यासी का धर्म यही है कि वह बन कंदमूलों स्वर अपना गुजारा करे, नित्य तीन घर' से अधिक भिक्षा न माँगे, तीन दिन से अधिक एक जगह न ठहरे और इस तरह भिक्षा न ले जिसमें दाता का जी दुखे । जो कुछ मिल जाय उसे जल में धोकर बिना स्वाद एक बार खा लें, दुनिया के रागद्वेष से अलग रहे और तत्वों का चितवन करता रहे । परंतु महाराज, समय के अनुसार इक मठाधीशों की भी आवश्कता आ पड़ी । दुनिया का जितना उपकार इनसे हो सकता है उतना गृहस्थों से नहीं । विचारे गृहस्थी को अपने पेट पालने से फुरसत ही कहाँ है ? ऐसे [ १६१ ]साधुओं को गोसेवा के लिये सबसे बढ़कर सुविधा हैं । गाँव में दम घर फिरकर आटा माँग लाए, उससे चार दिक्कड़ बना'कर ठाकुरजी को भोग लगाया और दिन भर गोसेवा, ठाकुर सेयर और भूले भटके मुसाफिरों के आतिथ्य के सिवाय कुछ कम ही नहीं । रात के भजन करना, लोगो को उपदेश देना और बालकों को पढ़ाना । भारतवर्ष में लाखो गाँव होगे । ऐसा कोई गाँव ही नहीं जहाँ मंदिर न हो। । बस जहां मंदिर है वहाँ देव-पूजा के साथ धमपिदेश को, धर्मशाला का, पाठशाल का और गोशाला का एक साथ काम निकलता था और खर्च केवल चार रोटी का । उस समय यह उपकार तो केबल छोटे छोटे मंदिरों से,मठों से था किंतु बड़े बड़े मठाधीशां, महंते और अचार्यो का उपकार बेहद था। उनको भोग विलास से बिल्कुल वैराग्य था। कपड़े के नाम पर दो कोपनी, एक कंबल, बरतन के लिये तुंबी, कठीतीं और खाने के लिये भगवान का जो कुछ प्रसाद मिल जाय वही बहुत था । बस सती सेवकों से अथवा जमीन जीविका से जो कुछ इकट्ठा हो जाय वह या तो गौओ की सेवा में, साधु महात्माओं के आतिथ्य में अथवा आए गए के सत्कार के लिये । दिन रात इस बहाने से लोगों को सत्संग मिलता था, उपदेश मिलता था, अध्ययन मिलता था और दवा मिलती थी। जिस समय भारत में इस तरह की व्यवस्था थी उस समय न धर्मसभा की अश्यकता थी और न लेकरबाजी की और न धर्म•

आ० हिं०-११ [ १६२ ]शालाएँ बनवानी पड़ती थीं । केवल इन्हीं की बदौलत, कंबल गुरुकुल ही कारण बिना खर्च के अथवा नाम मात्र का व्यय करके वह काम निकलता था जिसके लिये विश्वविद्यालयां में, कालेजों में, पाठशालाओं, अस्पतालों में आजकल करोड़ों ही खर्च किया जा रहा है। वह शिक्षा असली शिक्षा थी, उसमें लोकव्यवहार के साथ धर्माचार था, उसमें आडबर का नाम नहीं और यह केवल दिखावटी, धर्महीन और व्यवहारशून्य ! महाराज, मैं भी आपके फंसाना नहीं चाहता हूँ । आपके दबाकर मुझे स्वीकार कराना इष्ट नहीं है। जब आप प्रथम से ही दुनियादारी में नहीं पड़े हैं, जब अपने भाग की बिरियाँ योग ग्रहण कर लिया है तब आप भले ही इन झमेलों में न पड़िए । परंतु महात्या, अब समय वह आ पहुँचा है जिसमें आप जैसे त्यागियों को धर्मप्रचार के लिये, लोकोपकार के लिये त्याग का भी त्याग करना पड़ेगा। यदि आप चाहें तो इस पद को स्वीकार करने पर भी राजा जनक की तरह विरागी बने रह सकते हैं। आप जैसे जितेंद्रियों से, तपस्वियों से और महात्माओ से यह काम जितना हो सकता है उतना दुनियादार स्वार्थियों से नहीं, ढोल के अंदर पालवाले आडंबरी लेकचरों से नहीं। और इसकी आवश्यकता भी बहुत बढ़कर है ।"

"पिता ! आपका कथन वास्तव में हृदय में हलचल मचा देनेवाला है। निःसंदेह बड़ा असर करनेवाला है। हाँ ! [ १६३ ]ऐसा करने की आवश्यकता भी है और कुछ काम भी हो सकता है परंतु ( कोई दस मिनट तक आँखें मूंदकर विचार करने के अनंतर ) मैं इस काम के येग्य नहीं । मुझसे यह काम न हो सकेगा। पिता । मुझे न फंसाओ !"

अच्छा ! आपकी इच्छा । आपको धन्य है । वास्तव में आप न फंसना । अब मैंने समझ लिया कि आप' धन के, अधिकार के और प्रशंसा के लालच में आनेवाले नहीं । आप के पूर्व जन्म का संचय शीघ्र ही आपका पार लगा देगा ।"

बस इसका उन्होंने कुछ जवाब न दिया । जितनी देरी तक इन दोनों का संवाद होता रहा साध्वी साधुनी, साधु महाराज की बहन चुपचाप सुनती रहीं। वह अध्ययन के सिवाय कभी कुछ बोलती भी नहीं थीं। अब भी न बोलों किंतु उनके मुख की मुद्रा से इंडित जी तोड़ गए कि भाई ने जो कुछ कहा है बहन की सम्मति से । इतना होने के अनंतर "नमो नारायण" करके उन दोनों के चरणों के प्रणाम कर पंडित जी घर आ गए। इसके अनंतर क्या हुआ सो लिखने की आवश्यकता नहीं। हाँ दूसरे दिन पंडित जी भिक्षा लेकर जब उनकी कुटी पर गए तब बह जनशून्य थी । पंडित जी के दिए हुए वस्त्रों में से एक लँगोटी, एक धोती और एक तुंबी के सिवाय सत्ब वहीं पड़ा हुआ था । वह वहाँ उन महात्माओं के दर्शन न पाकर रो दिए। कल की बात पर उन्होंने अपने आप को बहुत धिकार और आज ने माघुसेवा [ १६४ ]बंद हो जाने पर ऐसे दुखित हुए जैसे अपने पिता के चिर वियोग पर । अरस्तु! उस दिन से पंडित जी को एक बार के सिवाया कभी पता न लगा कि वे कहाँ गए । उस बार भी यह सुना था कि वे दोनों हिमालय की गिरि-कक्षरा में तप करने के लिये चले गए। जिस मठ के लिये पद्धिस जी को ऐसा महंत रखने की आवश्यकता थी उसका क्या हुआ सो भी लिखने की आवश्यकता नहीं । एकाध प्रकरण से काम ले चलेगा और पोथी पहले ही पोथा हो गई । हां ! यदि कोई सुलेखक चाहे तो एक अच्छा स्वतंत्र झपन्यास लिख सकता। इस पुस्तक से उसे थोड़ा बहुत मसला भी मिल सकता हैं ।