आदर्श हिंदू ३/६३ नौकरी का इस्तीफा

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नौकरी का इस्तीफा

जिस ख्याल से पंडित जी ने भाई की नौकरी छुड़वाई वही उनके लिये था । कदाचित् उससे भी बढ़ कर । उनके संध्यावंदन अग्निहोत्र बलिवैश्वदेवादि नित्य कर्मों में जब जब विन्न पड़ता तब ही तब वह इस्तीफा देने को तैयार होते । उन्होंने दों तीन बार दिया भी परंतु उनकी कार्यकुशनुता, उनकी भलमनसाहत, उनकी सत्यनिष्ठा और उनकी ईमानदारी देखकर ऊपर के अफसरों ने मंजूर नहीं किया । वह पहले ही धर्मनिष्ठ थे और यात्रा ने और भी उनको दृढ़ कर दिया इसलिये उनकी इच्छा नहीं थी कि फिर जाकर नौकरी की चक्की में पिसें । परंतु छुट्टी से वापिस जाकर एक बार अपने पद का चार्ज लेना अनिवार्य था इसलिये उन्हें जाना पड़ा और यह गए भी परंतु इस बार इस्तीफा देकर अपना पिंड छुड़ाने के लिये ।

वह किसी जमीदारी में कोर्ट आफ वार्ड स के मैनेजर थे । वहाँ का राजा अभी निर बालक था। इधर उनमें ऊपर लिखे हुए गुण लबालब भरे हुए थे इसलिये अफसर उनसे प्रसन्न रहते थे और उनके आगे जब किसी की दाल नहीं गलने पाती थी तब अमला उनसे नाराज ! इस कारण लोगों ने उन पर [ १७५ ]मिथ्या मिथ्या अभिशाप लगाने में भी कतर नहीं रक्खी । बुरे बुरे और गंदे गंदे इलज़ाम लगा लगाकर कभी "बंदे खुला ।" के नाम से और कभी खुलालुली शिकायतें करवाई परंतु जो अपने सिद्धांतों पर अटल है उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। हर एक शिकायत में, हर एक लहकीकात में वह सौ टॅच का सोना निकले । सोना ज्यों ज्यों तपाया जाता है त्यों ही त्यों निखर निखरकर उसका रंग, उसका मूल्य बढ़ता जाता है। बस इसी तरह उनका आदर बढ़ा और जो लोग उनका सर्वनाश करने के लिये उधार खाए फिरते थे वे ही उनके आगे लज्जित होने लगे, उनका अनुकरण करने लगे और उनके मिन्न न बनकर उनकी प्रशंसा का ढोल पीटने लगे ।

जो कुछ वेतन उनका नियत था, वस उसी में उनको संतोष था । किसी के यहाँ से कोई छोटी मोटी वस्तु यदि भेट सौगात में आई अथवा बहुत दबाव पड़ने से किसी के यहाँ उन्हें दावत में ही संयुक्त होना पड़ा तो यह रिश्वत नहीं है। यह हाकिमों का सत्कार माना जाता है। इससे दाता का मान बढ़ता है किंतु नहीं ! उन्हें इन बातों तक की सौगंद थी । माई के लाल कितने ही ऐसे भी निकज़ सकते हैं जो इन बातों की सैगंद रखने पर भी हजारों के गट्टे निगलने में नहीं चूकते । हर एक आदमी के सामने पैसे पैसे के जिये हाथ पसारने से एक ही से इकट्ठा लेना भी अच्छा समझा जाता है । जमाने को देखते हुए वह भी बुरा नहीं समझा [ १७६ ]जा एकता । जो किसी को सताकर न लेवे और जो मिल जाय उस पर संतोष कर ले, यह एक प्रकार की दूध भिक्षा कही जाती किंतु पंडित जी को इन्हे कामों की शपथ ही ठहरी तब जैसी एक पाई वैसे ही दस हजार । एक दिन रात्रि के समय इनको अकेला पाकर एक आदमी आया । उसने आकर कान उठाए,इधर उधर ताककर, आंखों से आँख मिलाए बिना, कुछ झिझकर, डरते डरते इनके सामने जय पुरी अशफियों का ढेर कर दिया । देखते ही इनकी आंखे खुली । इन्होंने एक बार सिर से पैर तक उस आदमी पर नजर डाली, फिर उस ढेर को घूरकर,अच्छी तरह देखा और तब यह उस आनेवाले से कहने लगे, किसी तरह के राग द्वेष से नहीं किंतु योंहों, स्वभाव से इन्होंने कहा---

"क्यों भाई ! आज यह क्या ?"

"साहब, यह आपके वास्ते मेरी तरफ से एक अदना सी नजर है । मामला आपको मालूम ही है। बस यह जान आपके हाथ में है चाहे जिलाओ, चाहे गर्दन ही क्यों न उड़ा डालो ।"

"हाँ ! मामला मुझे मालूम है और तुम भरोसा रक्खो कभी तुम्हारे साथ अन्याय न होगा। परंतु इनकी कोई आवश्यकता नहीं । इन्हें ले जाओ और फिर कभी मेरे सामने ऐसी बात का नाम तक न लेना ।" [ १७७ ]"हां ! मैं जानता हूँ कि आपको इन बातों की कसम है लेकिन दस हजार है । एकदम इतनी रकम देनेवाला कोई नहीं मिलेगा और इस पर मेरी जिम्मेवारी है कि फरिश्तों को भी इस बात की खबर न हो । आप मुझे जानते ही हैं। मैं सिर कटने तक अपनी जवान की पाबंद हैं। बस भरोसा रखिए और मंजूर कीजिए ।"

"बेशक आपका कहना ठीक हो सकता है परंतु जैसे इतनी रकम का देनेवाला कोई नहीं मिलेगा वैसे ही दस हजार रुपए पर पेशाब करनेवाला भी आपको नहीं मिलेगा । अभी इनको लेकर तशरीफ ले जाइए और आयंदा इन कामों के लिये मुझे मुंह न दिखलाइए ।" बस पंडित जी के मुँह से ऐसे दृढ़ किंतु कठोर वाक्य निकलते ही वह झटपट अशर्फियों के दुपट्टे में बाँधकर गालियाँ देता हुआ लज्जाकर वहाँ से चल दिया । उनकी ईमानदारी के के कोंड़ियां नमूनों में से एक यहाँ लिख दिया गया। हंडे के एक चावल को मसकने से सबकी जब परख हो जाती है तब अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं !

यों पंडित जी केवल निलोभ हो सो ही नहीं। कितने है पराए पैसे से घृणा करनेवाले लँगोट के कच्चे निकल आते हैं । परंतु जैसे प्रियंवदा का दृढ़ प्रतिव्रत उदाहरणीय या वैसे ही यह भी "पर तिय समान " की प्रतिमूर्ति थे। इस नौकरी में इनके केवल रूपया दिखाकर ललचानेवाले मिले हो तो खैर परंतु अच्छी रूपवती युवतियों से एकांत में

आ० हिं०---१२ [ १७८ ]मिलने का इनके लिये अवसर आया । परंतु मजाल क्या जो यह उनकी ओर आंखें उठाकर तो देख लें। इन्होंने माता या भगिनी का संवोधन करके उनको भेपाया, उनसे गालिय खाई और इतने पर भी वे वहाँ से न डिगी तो या तो स्वयं ही वहां से सटक गए अथवा किसी नौकर चाकर को बुलाकर अपने सिर की वला टाल दी। अवश्य ये ऐसी युवतिया हांगी जो लगभग या पुरी बिगड़ चुकी हो क्योंकि व्यभिचारणी स्त्री भी कभी अपनी और से प्रस्ताव नहीं कर सकती है। इसलिए प्यारे पाठक यदि इन्हें, "विपत्ति की कसौटि" की भुलिया भालें ले तो उनका दोष नहीं किंतु नहीं जब इनकी रूप ही भगवान् ने ऐसा दिया था जिसे स्वभाव ही से एक युवती का इनकी ओर मन आकर्षित हो, इन्हें देखते ही उनके हाथ पैर ढीले पड़ जायँ, इनकी मूरत ही कामदेव को जगा देने के लिये मोहनी मंत्र हो तब केवल इतने ही पर इस बात की इतिश्री न कर देनी चाहिए। इसके नमूने के लिये दो चार उदाहरण लिखे जा सकते हैं। परंतु इस काम के लिये कम से कम दो चार प्रकरण चाहिएं और यह पोथी बढ़ते बढ़ते पहले ही पोथा बन चुकी हैं इसलिये उन बातों की कल्पना करने का भार पाठकों पर है ।

पंडित जी में जैसे इस प्रकार के अनेक गुण थे वैसे ही साम्राज्य के, राज्य के, मालिक के और प्रजा के शुभचिंतक भी वह एक ही थे । "नमक का हक अदा करना" उनका दृढ़ [ १७९ ]सिद्धांत था । इसके लिये अपने प्राण तक न्योछावर कर देना वह बड़ी बात नहीं समझते थे । ब्रिटिश साम्राज्य की छत्रछाया में परमेश्वर के अनुग्रह से यदि ऐसा अवसर ही न आने तो इसको वह क्या करे’ किन्तु वह तन से, मन से और धन से कभी दूसरे का अप्रिय, अहित नहीं करते थे और जहाँ तक बन सकता था नहीं होने देते थे। इससे पाठक समझ सकते हैं कि जो काम उनके सिपुर्द किया गया उसका उन्हेांने कैसा प्रबन्ध किया होगा ? प्रायः अमलेवाले इस बात की शिकायत किंछा करते थे कि वह सर कड़ी देते हैं। किन्तु वह अपराधी को योग्य दंड देकर बदमाशों को ठिकाने ले आए थे इसलिये प्रजा उनकी वाहवाही करती थी । क्षमाशीलता का भी वह एक नमूना थे ! किसी ने क्रोध में आकर उन्हें गाली दी, कोई उन पर आक्रमथा करने को तैयार हो गया अथवा किसी ने पत्थर उठाकर मार ही दिया। इस पर उनका अर्दली का सिपाही उसकी गति बनाने को तय्यार हुआ परंतु लाल लाल आँखें निकाल कर "नहीं ! हरगिज नहीं ! खबदार हाथ उठाया ते !" कहकर उन्होंने उसे रोका और "भोला है ! समझ नहीं है ! बोजल बोल तुझे कष्ट क्या हैं ?" कहते हुए उस मारनेवाले को उलटा लज्जित कर दिया ।

ऐसी दशा में यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस समय उन्होंने इस्तीफा दिया सब ही को कितना कष्ट हुआ होगा । हाँ उनका इस्तीफा बड़ी कठिनता से स्वीकार हुआ । [ १८० ]और यों इतने बड़े काम का, इतने बड़े अधिकार को, इतने बड़े वैभव को तिनके की भाति तोड़कर वह अपने घर अ बैठे जहाँ उन्होने नौकरी की वहाँ अब भी उनका आदर है, अब ही छोटे बड़े सब लोग इन्हें चाहते हैं। अच्छी नौकरी करने का, शुभचिंतकता करने का यह एक छोटा सा आदर्श है। पाठक पाठिकाओं के अंत:करण पर अच्छा प्रभाव डालने के लिये यदि उनकी इच्छा हो तो इस खाके के सहारे, यथेच्छ लौट फेर करके वे अच्छी तस्वीर तय्यार कर सकते हैं। यहाँ इतना अवश्य लिख देना चाहिए कि जब तक पंडित प्रियानाथ डाक विभाग में रहे तब तक भी उनका इन बाते में, अपना काम अच्छी तरह अंजाम देने में, सुयश रहा और इधर आ जाने बाद भी वर्द्धमान कीर्ति ।