आदर्श हिंदू ३/६४ व्यापार में सत्यनिष्ठा

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व्यापार में सत्यनिष्ठा

पंडित जी जब नौकरी पर जाने लगे तब छोटे भैया से कह गए थे कि “देशी माल की एक डाइरेक्टरी तैयार कर लेना । जहाँ तक बन सके यह काम जल्दी हो जाना चाहिए ताकि जो उद्योग करला विचारा है उसका आरंभ मेरे वापिस आते ही कर दिया जाय । डाइरेक्टरी को तीन हिस्से में विभाजित करना । एक में कलों से तैयार होनेवाले समस्त पदार्थों का समावेश किया जाय, दुसरे में सब प्रकार की देशी कारीगरी हाथ से तैयार की जाती है और तीसरे में उन पदार्थों की नामावली दर्ज होनी चाहिए जो किसी दिन बड़े नामी थे किन्तु समय ने, सहायता के अभाव ने अथवा मिल उद्योगे ने तथा विलायती माल ने उनका बनना बन्छ कर दिया है। हाँ इस बात का अवश्य ख्याल रखना होगा कि वह माल उत्तेजना देने से अब भी तैयार हो सकता है या नहीं ! जहाँ तक बन सके नमूनों का भी संग्रह कर लेना ।" कहने में यह बात जितनी सीधी दिखलाई देती हैं करना उतना ही कठिन मालूम पड़ा । युरोपियन सज्जनों की बनाई हुई डाइरेक्टरियों से पहला हिस्सा तैयार करने में विशेष कष्ट नहीं उठाना पड़ा । दूसरे और तीसरे भाग के लिये मराठी [ १८२ ]भाषा के "व्यापारी भूगोल" से और मिस्टर' मुकरजी की अँगरेजी किताब से तथा "भारत की कारीगरी* से मदद अवश्य मिला परंतु ये सब की सब कुछ कुछ पुरानी पड़ गई और इस पुस्तक में आज दिन तक की उन्नति का समावेश होना चाहिए । यदि समा चारपत्रों के विज्ञापनों का सहारा लिया जाय तो प्रथम तो उनमें ताकत की दवा और कामसंजीवन, सोजाट तथा उपदेश की रानवाण दवाओं की भरमार, देशी कारीगरी के नोटिस ही बिरले फिर कितने ही लोगों की नस नस में बेईमानी यहां तक भरी हुई है कि विलायती माल को देशी बताकर बेचते हैं, उनका ट्रेड मार्क बदल देते हैं, बिलायत से ही देशी नाम का ट्रेडमार्क लगाकर तथा बन्द माल मॅगवा लेते हैं और देशी और विलायती को मिलाकर देश के नाम से बेचते हैं। यदि विलायती बारीक सूज से देशी धोती जुड़े बनाकर उन्हें देशी के नाम से बेचा जाय तब भी गनीमत है। उनमें कुछ तो देशीपन है परंतु इस तरह की धोखेबाजी देखकर कांतानाथ एक बार घबड़ा उठे । उन्होंने इस काम के लिये समाचारपत्रों में नोटिस भी दिए किन्तु व्याख्यानबाजी से परोपदेश करने के आगे किसी के अबकाश ही कहाँ ? तब्ध इन्होंने कुछ खुशामद करके, कुछ दे दिलाकर और कुछ लोकोपकार समझाकर कितने ही आदमी ऐसे खड़े किए जिन्होंने इस काम में सहायता करके उसे संग्रह किया । यो जिस समय पंडित जी इस्तीफा देकर अपने घर [ १८३ ]आए, उन्हें बहुत ही उत्तम तो नहीं परंतु जैसी तैसी डाइरेकृरी तैयार मिल गई । पंडित जी इसके साथ नमूने का संग्रह देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कांतानाथ को शाबाशी देकर यहां तक कह दिया कि----

"करनेवाला तो परमात्मा हैं परंतु आशा है कि सफलता होगी। इसके लिये सबसे बड़ा काम यही था जो तुमने कर लिया ।"

"सब आपके अनुग्रह से, आपके प्रताप से और आपके उपदेश से । काम क्योकर करना, सो पहले ही मैं आपके लिख चुका और अब भी संक्षेप से सुना देंगा। अभी तक इस काम के लिये तीन सौ तेंतीस तेरह ने तीन पाई खर्च हुआ है। और काम छेड़ते ही रुपए की आवश्यकता पड़ेगी । इसके लिये अभी दस हजार रुपया चाहिए। यह रकम कम से कम है । ज्यो ज्यों काम बढ़ेगा त्यों त्यों रूपए की आवश्यकता बढ़ेगी किंतु मैं घर में से एक पाई भी नहीं दे सकता । जितना रुपया था वह अभी इधर उधर व्यापार धंधे में, जमीदारी में लगा हुआ है। उधर ने रूपया खैंचना अध्रुब के भरोसे ध्रुव आय को, निश्चित आमदनी को बिगाड़ देना हैं । परमेश्वर करे इस उद्योग में सफलता हो और आपके प्रताप से लाभ ही होगा परंतु......... "हां ! परंतु कहकर कुक क्या नए ? यही कहेगे ना कि रुपया चाहिए। बेशक ! सबसे पहले आवश्यकता रुपए [ १८४ ]की है। आजकल दुनिया में रूपया ही सबसे बड़ी चीज समझी जाती है । लोग कहते हैं कि"रूपया खुदा का बच्चा है* परंतु आच्छ ने स्वार्थी जीवों ने उसे खुदा का वाप तक मान लिया है। खैर ! इसके लिये पाँच पाँच रुपए के शेयरों से कंपनी खड़ी कर सकते हैं । युरोपवालों को इस उद्योग से ही बड़ा लाभ हुआ है परंतु भारत की कंपनियाँ पनपती नहीं । ईश्वर की कृपा से अब इस प्रकार का उधोग उन्नति पर हैं। इस उधोग से "पांच जने की लाकड़ी और एक जने का बोझा ।" किसी पर विशेष बोझा नहीं पड़ता और अनायास रुपया इकट्ठ हो जाता है परंतु प्रथम तो मिलकर काम करने की भारतवासियों में आदत नहीं । दूसरे हम लेागों में सत्यनिष्ठा की मात्रा बहुत घट गई है। बेईमानी आगे और सच्चाई पीछे । तीसरे अभी तक हम लोग इस उद्योग में युरोपियनी के सामने दक्ष नहीं हुए हैं। इस कारण अपने अनजानपन से ऐसी ऐसी भूलें कर बैठते हैं जिनके कारण चढ़ने के बदले गिरते हैं, नफे की जगह टोटा उठाते हैं। और चौथे यह कि परदेशी व्यापारियों के जोर से उनके स्वार्थ में विक्षन न पड़ने वाले इसलिये हमारे यहाँ के कायदे कानून भी हमें ऐसे उद्योगों की उत्तेजना देने के स्थान में अधिक अधिक जकड़ते हैं। कंपनियां के ठीक ठीक न पनपने के, जन्म लेकर नाश हो जाने के, दिवाले' पड़ जाने के ऐसे ही अनेक कारण हैं । इसलिये इस कार्य के लिये कंपनी खड़ी करना मैं अभी उचित नहीं समझता ।" [ १८५ ]"तब ?"

"वास्तव में तुम्हारे" "तब " का जवाब बड़ा मुशकिल है। भारतवर्ष भर में प्रसिद्ध है कि " साँझे की तो होला अच्छी जिसे जला दिया जाये ।" हम लोगों की आदत ही नहीं है कि साँझे में काम करके उसे पार उतार ले जायं । भारतवर्ष उधोगशील अँगरेजों की छत्रछाया में आकर जिन कारणों से अब तक दरिद्री बना हुआ है उनमें एक यह भी है कि हम लेग मिलकर काम करना नहीं जानते । परमेश्वर के अनुग्रह से अब सीखने लगे हैं और सफलता भी प्राप्त करते जाते हैं परंतु यहाँ जो कार्य एक व्यक्ति की बुद्धि से, वल से, विद्या और पुरुषार्थ से हो सकता है वह अनेक से नहीं । यदि एक अगुवा बनकर समुदाय को अपनी ओर झुकाना चाहे तो सहज में झुका सकता है। "दुनिया झुकती हैं झुकानेवाला चाहिए।" किंतु जहाँ दस आदमी मिलकर काम करते हैं वहाँ आपस में खेंचातानी होती है, झुक्का फजीहत होती है।"

"हाँ ! आपका कथन यथार्थ हैं परंतु तब ?"

"घबड़ाओं मत ! मैंने पहले ही से सोच लिया है ! यदि पहले से इसका निश्चय न कर लेता तो अभी इस काम में हाथ न डालता । इतना परिश्रम और इतना खर्च ही क्यों करवाता ?"

"हाँ सो तो मुझे भी निश्चय है। परंतु ?" [ १८६ ]"अभी दस हजार’के बदले पाँच ही हजार से कार्य आरंभ कर दो । पिता जी के प्रताप से परमेश्वर की कृपा से धंधे पर तुमको रूपया मिल जायगा। कंपनी के नाम का, विज्ञापनबाजी का, और ऐसे ही और तरह का आडंबर बिलकुल मत करना । आडंबर लोगों को ठगनेवाला करते हैं। झूठे व्यवहारबाजे को अपनी सचाई जतलाने के लिये ऐसे ऐसे ढोंग करने पड़ते हैं। आरंभ में चाहे नाफा कम मिले, चाहे प्रसिद्धि देरे से हो और काम धीरा ही क्यों न हो परंतु व्यापार में सत्यनिष्ठा सब से बड़ी सहायक है । यदि तुम थेाड़ा नफा लेकर, एक ही भाव पर, घटाए बढ़ाए बिना नियत मूल्य पर नकद दामों से माल बेचोगे, यदि लोगों' को विदित हो जायगी अथवा यो कहो कि तुम ग्राहको के मन पर यह जमा सकोगे कि तुम्हारे यहाँ झूठ का नाम तक नहीं है, यदि एक बच्चा तुम्हारे यहाँ लेने आवे तब भी वही भाव और बड़ा आवे तब भी वही, तो लोग दौड़ दौड़कर तुम्हारे यहाँ आवेगे । हर एक चीज पर उनकी खरीद के मिती और असली कीमत खर्चे समेत्र लिखकर चिट चिपका दो । खरीदार स्वय’ उसके अनुसार दाम देकर ले जायगा । भाइ ठहराने का बिलकुल काम ही नहीं ! जब तुम उधार किसी को दागे ही नहीं तब रुपया डूबने का काम क्या ? माल वहीं मँगवाना जिसकी बिक्री हो ! जब औरों की तरह तुम अनाप सनाप नफा न लोगे तब तुम्हारा माल अवश्य सस्ता पड़ेगा । [ १८७ ]देशी माल टिकाऊपन के लिये प्रसिद्ध है। एक बार चाहे खर्च कुछ अधिक पड़े परंतु फिर फटने का, दुट जाने का और बिगड़ जाने का नाम तक नहीं जानता ! ये बातें तुम जब लोगों के चित पर ठसा दोगे तब तुम्हारी दूकान से माल खरीदते हुए और जगह कहीं ग्राहक न जायँगे ।"

“और दूकान का नाम ?"

"दुकान का नाम “राधानाथ रमानाथ ।" वही दादा जी और बापू जी का नाम । सब प्रताप उन्हीं का है।"

"उतम है। परंतु क्यों जी भाई साहब ! जब माल' पर खर्चे समेत असली कीमत लिख दी जायगी तब ब्याज ?"

" दो महीने का ब्याज तो खर्चे में शामिल कर देना और कोई चीज सिवाय दिनों तक पड़ी रह जाय तो उसके लिये ही चिट पर मिली लिखना हैं ।"

“अच्छा ! और माल बिका ही नहीं तो उसका टोटा कहाँ से निकलेगा ?"

"बिके हुए माल के नफे से । और न भी निकले तो भुगतना । तुम्हारी दूकान की मखमल का घाटा गजी खरीदने वाला क्यों भुगते ?"

“बेशक ! ठीक है। अब रुपए का ही सवाल बाकी है।"

“पांच हजार रुपया तुम्हारी भाभी का बैंक में जमा है । उसे उसके नाना के यहाँ से मिला था । ब्याज मिलाकर कोई सात आठ हजार हो गया है। आज कल बैंकों के [ १८८ ]दिवाले भी बहुत निकलते हैं। देशी व्यापार और देशी कारीगरी की उन्नति के लिये ही बैंक में जमा और वही काम तुम करना चाहते हो । बस इसलिए तुमको रुपया उधार नहीं लेना पड़ेगा । ््््््््््््््््््््््््स्््््््््् बस भाभी सेठ और देवर गुमाश्ता ! उससे पूछ लेना ।"

"हां!क्या मैं सेठ ? ( दोनों के बीच से बात काटकर ) क्या वह रूपया अभी तक बैंक में ही जमा है ? मैं तो भूल ही गई थी। पर मुझसे पूछने की क्या आवश्यकता आ पड़ी ? मेरा उससे कुछ बास्ता नहीं है । मैं कुछ नहीं जानती । आपके मन में आवे सो करो । मेरा वास्ता तो आपके चरणारविदों से है। मुझे रूपयों से क्या मतलब ?" प्रियवंदा के मुख से इतने वाक्य निकलने पर पंडित जी “बेशक ऐसा ही हैं और होना भी चाहिए किंतु वह स्त्री धन है, तेरे नाना कर दिया हुआ है इसलिये तेरी राय ले लेना आवश्यक था और जब तू घर में ( कुछ मुसकुरकर ) बड़ी बूढ़ी है तब घर के कामों में भी तुझसे सलाह ली जाय तो अच्छा ही है ।" कहकर चुप हो गए और "हाँ ! हाँ !! भाभी सेठ और मैं गुमाश्ता ! इस धंधे की सब बातें तुमसे पूछ पूछकर करूंगा ।" कहते हुए कांतानाथ ने भाई साहब की बात का अनुमोदन किया । “बेशक मेरी भी राय है ।" कहते कहते प्रियंवदा का मुँह दोनों बालकों ने आकर पकड़ लिया । “अम्मा दूध ! अम्मा चीनी ! अम्मा मिठाई !" की रट लगाकर अम्मा को वहाँ से [ १८९ ]दोनों बालक पकड़ ले गए । स उन्होंने अम्मा को एक शब्द बोलने दिया और न किसी की कान पड़ी बात सुनने दी । पंडित जी ने उन्हें अपने पास बहुतेरा बुलाया किंतु अम्मा की गोदी छोड़कर उनके पास एक भी न अया। और लाचार होकर प्रियंवदा को वहाँ से उठ जाना पड़ा। वह गई और अपनी रेशभी नई निकोर साड़ी पर धूल में सने हुए दोनों बच्चों को दहनी और बाई गोदी में चढ़ाए हुए ले गई । इस प्रकार की लीला समाप्त होने पर प्रियानाथ ने कांतानाथ से कहा---

“बस रुपयों का तै हो गया ! अब कर्तव्य यह है कि गौड़बोले सहाशय से शुभ मुहूर्त पूछकर कार्य क आरंभ कर दो । “शुभस्य शीधम् ।" अब मसाला तैयार है तब जितनी ही जल्दी की जाय अछा है ।"

“बेशक ! परंतु एक बार व्यवस्था पर फिर गौर कर लेना चाहिए। मेरा विचार इस कार्य को तीन हिस्सों में बाँट देने का है। भारतवर्ष की मिलो का बना हुआ कपड़ा अथवा और और समान बिक्री का ढंग देखकर कमीशन सेल पर अथवा अधिक बिकी होती हो तो खरीदकर मँगवाया जाय । पहला हिस्सा तो यहीं समझना चाहिए। दूसरे हिस्से में दस्ती कारीगरी है । हाथ के बने कपड़े, बरतन आदि के जितने नमूने इकट्ठे हुए हैं उनमें से जो अवश्य ही बिक जाने योग्य हैं उनको तो थोड़ा थोड़ा मंगवा ही लेना और बाकी बचे हुओ को काँच की अलमारियों में प्रदर्शनी के लिये दूकान में [ १९० ]सजाकर रखना ! उन्हें लोगों को दिखाकर खरीदने की उतेजना देना । तीसरा काम इन दोनों से भारी है। उसमें खर्च और मेहनत दोनों से भारी है । परंतु साथ ही वह काम भी बहुत जरूरी है।"

"हाँ ! मैं समझ गया । वास्तव में बहुत बश्यक है। काम को छोटे किंतु दृढ़ पाए पर आरंभ करना चाहिए । पहले,सबसे पूर्व मालपुरे और टौक के नमदे ही ली । वहाँ नमदे और घूगियां अब भी बहुत नफीस बनती हैं। बनानेवाले अपढ़ बेशक हैं परंतु हैं कारीगर । उन्हें थोड़ा बहुत सिखाने से वे नमदे तो नगदे किंतु फेल्ट टोपियां भी अच्छी बना सकते हैं ।"

"वास्तव में यहा मेरा संकल्पन था और मैंने इसके लिये सांच्चे भी बनवा लिए हैं और रंग भी उन पर पक्का जमने लगा है ।"

“शाबाश ( साँचे और रंग का नमूना देख कर ) बहुत अच्छा हुआ !"

"इसी तरह बीकानेर की लोई, कोटे के डोरिये, बूंदी का रंग और कोई रजवाड़ा नहीं जो किसी न किसी तरह की कारीगरी के लिए प्रसिद्ध न हो । जयपुर तो कारीगरी के लिये केंद्र ही ठहरा ।"

इस तरह की सलाह करके जो ठहराव हुआ उसके अनुसार कार्तिक सुदी से अजमेर में वहीं "राधानाथ रमानाथ" [ १९१ ]के नाम पर शास्त्र-विधि से गणेश-पूजन करके दूकान खोल दी गई और जब कांतानाथ जैसे व्यवसायी का प्रबंध था, जब पंडित जी जैसे अनुभवी का निरीक्षण था और जब सत्यनिष्ठा हो इनका मूल मंत्र था तब सफलता होने में आश्चर्य क्या ? पंडित जी के मनोराज्य में सफलता अवश्य हुई और सो भी ऐसी कि जिसकी नकल जगह जगह होने लगी। नकल होने से ये लेाग नाराज नहीं हुए। पंडित जी ने स्पष्ट ही कह दिया कि-" हमारे अनुभव से यदि लोग लाभ उठायें तो हमार सैभाग्य ! ऐसे कामों की नकल होने ही में देश का कल्याय है। हमने इसी लिये नमूना खड़ा किया था "

यदि पाठक चाहें तो इसका अनुकरण करके लाभ उठाने का उन्हें अधिकार है। उन्हें अवश्य ऐसी दुकाने खोलनी चाहिएं ।