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आदर्श हिंदू ३/६६ बालशिक्षा और परोपकार व्रत

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आदर्श हिंदू तीसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास बी.ए.

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ २०१ से – २०९ तक

 

प्रकरण—६६

बालशिक्षा और परोपकार व्रत

भोला कहार पहले ही कामचोर था । अब उसे अच्छा बहाना मिल गया। अपने अपने मालिक की घोतियाँ धोने का काम तो दोनों बहू रानियाँ करती हैं, बरतन चौका करने और झाड़ू बुहारे के काम पर, पानी भरने पर दो नौकरनियाँ अलग हैं किंतु कामचेर भोला से दोनों मालकिन की धातियाँ धो देना भी नहीं बनता है । घंटों तक धोतियाँ पड़ी पड़ी पानी में मट्टी से और धूल से खराब हो जायें तो कुछ परवाह नहीं । “निपूता घोता अच्छी तरह है। खूब कछारकर धोता है इसलिये उसके भरोसे छोड़ देती हैं। नहीं तो हम ही धो डालें तो क्या हमारे हाथ घिस जायं ।" कहकर प्रियंवदा कई बार उसे फटकारती है, गुस्से में आकर सुखदा दोनों धोतियो को जेठानी के मना करने पर भी धो डालती है। और उसकी ऐसी हरकत देखकर कांतानाथ कभी कभी उसके एकाध चपत भी जमा दिया करते हैं परंतु उसके लिये ऐसी फरकार, ऐसे ताने और ऐसी चपते "हाथी पर अर्क फल की मार" की तरह कुछ असर थोड़े ही करती हैं ? बहाने बनाने को तेा भोला मानो टकसाल ही ठहरा ! यदि उसे कहीं भेजने की आवश्यकता पड़ी तो बहाना और जो कहीं घर का ही कुछ काम' बतला दिया तो बहाना ! और बहाना भी ऐसा वैसा नहीं । बच्चों को खिला रहा हूँ। और ये रोने लगे तब ?" बस इसलिये उसके कुसूर सुआफ हैं। बालक भी उससे ऐसे हिले हुए हैं कि बात न पूछो ! कोई उसे लाते मारता है, कोई उसे काटता है और कोई उसे गेंद मारकर भाग जाता है । इन दोनों बालकों के पास अड़ोस पड़ोस के कई बच्चे खेलने को आ जाया करते हैं। ये सब बालक आपस में भी लड़ते हैं, कभी मार देते हैं, कभी गालियाँ देते हैं किंतु भोला चुप ! उसे हँसने के सिवाय कुछ काम नहीं । इधर बच्चे खेला करते हैं और उधर भोला पड़ा पड़ा नींद में खुर्राटे भरा करता है। कोई बालक उसकी टाँग खैंचता है तो चुप और कोई उसके कपड़े खैंच भागता है तो "ॐ ॐ ! यह क्या करते हो ? मैं आज मालिक से तुम्हारी चुगली खाकर न पिटवाऊँ तो मेरा नाम भोला नहीं । कहने के सिवाय चुप ! बालकों का जी इस पर और इसका बालकों पर देखकर दोनों मालकिनें इसे खाना भी अच्छा देती हैं। कभी कभी यह नाराज होकर जब रूठ जाता है तब बालक रो रोकर घर भर दिया करते हैं इसलिये इससे कोई बिशेष कुछ कहता सुनता भी नहीं । बस इस तरह इसकी खूब पटती है।

बड़े मालिक इससे अवश्य नाराज हैं। ऐसे तो नाराज नहीं जो कभी क्रोध में आकर इसे निकाल बाहर करें क्योंकि "बुरा या भला जैसा है पुराना नौकर है। कामचोर अवश्य सही परंतु लँगोट का सच्चा है, बेईमान नहीं । यदि अगिनित रूपए दे तो भी क्या मजाले जो एक पाई का फर्क पड़े।" सही उनका भोला के लिये सर्टिफिकेट है, और हजार उनके नाराज रहने पर भी इसी की बदौलत वह मौज करता है । फिर यदि पंडित जी नाराज होकर इसे निकालने को भी तय्यार हो जायं तो इसकी सिफारिश करनेवाले बहुत हैं। दोनों बालक तक तय्यार हैं। बस इसलिये उसे निश्चय है कि "मैं निकाला हरगिज भी न जाऊँगा ।" और जब उसके जोरू न जाता अल्ला मियाँ से नाता" है । उसे पर्वाह भी क्या !

खैर ! इसे यदि परवाह नहीं है तो न सही परंतु पंडित जी को भय है कि कहीं इसकी कुसंगत से बालक बिगड़ न जायँ । इस समय उनकी कच्ची उमर है । जैसा बाहर का संस्कार होगा वैसी ही उनका चरित्र गठेगा। कुम्हार मिट्टी के लोंटे को चाक पर रखकर जैसा बरतन बनाना चाहे वैसा ही बन जाता है । ये बच्चे मिट्टी के लोदा, भोला कुम्हार और चाक इनका खेल । इस बात से इन्हें पूरा खटका है। क्योंकि इन्हें निश्चय है कि गौड़बोले की शिक्षा का, माता पिता की रक्षा का नन्हों पर उतना असर नहीं होगा जितना भोला के कुसंस्कारों का । सुखदा इन बातों की बारीकी समझनेवाली नहीं, कांतानाथ लञा के मारे चुप रह जाते हैं, प्रियंवदा सब बातें जानने पर भी "बालकों का मन मैला न होने पावे ।" इसलिये दर गुजर करती है। इसलिये पंडितजी से कोई कहनेवाला है तो केवल गौड़बोले ! उन्होंने कई बार पंडित जी से कहा हैं और खैंचकर यहाँ तक कह डाला है--

"यदि आप बालोंको को इस तरह विगाड़ेगें तो मैं चला जाऊँगा । आपका नुकसान मुझसे देखा नहीं जाता । यदि आपके हजार रुपे के हानी हो चाय तो कुछ चिंता नहीं किंतु या नुकसान जन्म भर का है, वीडियो तक का है, अटल है, अमिट है । दोनों बालक कुशाग्रबुद्धि हैं। इन्हें विशेष समझाना नहीं पड़ा । विशेष रटाना नहीं पड़ता । छोटा लडका कुछ ढीठ अवश्य है, ज़िद्दी हैं परंतु समय पाकर ये ऐब निकल सकते हैं। केवल आपके निरीक्षवा की आवश्यकता है। इनकी शिक्षा दीक्षा का काम आपको अपने हाथ में लेना चाहिए । हाँ ! मैं जानता हूँ कि आपको अवकाश नहीं है परंतु इनके लिये आपको अवश्य फुरसत निकालनी पड़ेगी ।

पंडित प्रियानाद ने गौड़बोले की सम्पत्ति पर ध्यान दिया । जैसे वह धार्मिक, सामाजिक, व्यावहारिक और ऐसे अनेक व्रतों के व्रती थे वैसे ही उन्होंने यह ब्रत भी द्वंढ संकल्प के साथ ग्रहण किया । इस पहला काम यही किया कि भोला की जागीर छिन गई। उसे खाने पहनने का टोटा नहीं । काम काज के लिये भी उससे विशेष कोई कहता सुनता नहीं परंतु वह मानता है कि "मेरे दिन भर गए ।" इसी चिंता से वह अब बहुत कुछ लट गया है, सूखकर काँटा हुआ जाता है । यदि कुछ समझाया जाता है तो रो देता है और जब कभी जी मे आता है तो भाग जाता है । उसे यदि कोई मनाने जाता है तो नहीं आता है किंतु जब भूख के मारे आतें बैठने लगती हैं तब झख मारकर आ जाता है। पंडित जी यदि उसे समझाकर गौड़बोले की सेवा के लिये नियत करते है तो ---"जिसने मेरी परसी थाली छीन ली उसकी कभी चाकरी न करूंगा । काटकर टुकड़े कर डालो तो इस डोकर की धोती न घोऊँगा ।" कहकर चुप हो जाता है,और जो कही कांतानाथ उसे अजमेर ले जाना चाहें तो "मैं इस घर से न निकलूंगा जीते जी ( पंडित जी के चरणों को छूकर ) इन्हें कभी न छोड़ूंगा । हाँ ! इनके साथ लंका जाने को भी तय्यार हूँ । यो कहकर रो देता है । खैर ! जब उसका स्वभाव ही ऐसा है, जब उसके लिये खाने पहनने की कभी नही है तब उसे यों ही रहने दीजिए। उसे न अब इस किस्से से मतलब है और न प्यारे पाठक को उनका विशेष हाल जानने की आवश्यकता है ।

हाँ ! इस जगह इतना लिख देना चाहिए कि अब दोनों बालकों की शिक्षा दीक्षा का अच्छा प्रवंध हो गया है । जो महाशय चिंत्त लगाकर इन किस्से के “अथः" से लेकर “इति’’ तक पढ़ेंगे उन्हें यह जतलाने की आवश्यकता नहीं कि कमलानाथ और इंदिरानाथ के शिक्षा किस तरह की दी गई । “हिंदू गृहस्थ" में शिक्षा का ढाँचा उनके लिये पहले से मौजूद आ ही, उसमें पंडित पंडिवायिन और गौड़बोले का अनुभव और संयुक्त कर लिया गया । आगे वे क्योंकर घर की शिक्षा से निवृत हेरकर हिंदू विश्वविद्यालय के "ग्रेज्युएट" हुए, उनका कब उपवीत, कब विवाह और कब उनके कार्य का प्रारंभ हुआ और वे कैसे निकाले सो कहना इस किस्से का विषय नहीं । हाँ ! यहाँ इतना अवश्य लिख देना चाहिए कि "सुख संपति परिवार बड़ाई, धर्मशील पहँ अहिं सुझाई ।” इस लोकोक्ति के अनुसार सब ठीक हो गया ।

किंतु गौड़बोले के काम की यही इतिकर्तव्यता नहीं थी । उन्होंने पंडित जी के परामर्श से, उन्हीं के द्रव्य से और उन्हीं के निरीक्षण में एक औषधालय और एक पाठशाला खेल रखी है । जब ये दोनों बालक और साथियों के साथ यहीं पढ़ते हैं तब शिक्षा का क्रम तो वहीं होना चाहिए जो ऊपर कहा गया है। हाँ औषधालय का क्रम ऐसा है जिसमें लड़के पढ़कर, सीखकर वैद्य बनते हैं, जहाँ इलाज आयुर्वेद के और चीर फाड़ डाक्टरी के मत से होती है और जहाँ इलाज करने के लिये "सुश्रुत" में लिखे औजार बनवा लिए गए हैं और जहाँ नवीन, ताजी वनस्पतियाँ मिलने के लिये एक बाग भी लगा दिया गया है। केवल इतना ही क्यों किसी सभय पूना के सुप्रसिद्ध स्वर्गवासी विद्वान् डाक्टर गर्दे महाशय ने वात, पित्त, कफ तीनों दोषों की जाँच करने के लिये थर्मामेटर का जो नमूना तय्यार किया था उसी से लाभ उठा कर इन्होने नाड़ी-विज्ञान पर भी बहुत जोर दे रखा है ! गौड़बोले का मत है--

“यदि समय के फेर से, राजाश्रय न मिलकर, वैद्यों की मूर्खता और सर्वसाधारण की उपेक्षा से हमार आयुर्वेद मृत्प्राय भी हो जाय तो हो जाय किंतु जब तक हमारे ग्रंथ विधमान रहेंगे वह नष्ट नहीं हो सकता । किंतु भय दो बातों का है। एक नाड़ी-विज्ञान ग्रंथगन्य नहीं। पढ़ने से नहीं आ सकता ! यह अनुभवगम्य है और लगभग नष्ट हो चुका है और दूसरे ओषधि का लाना, जंगल से खोदकर लाना जब गॅवार भीलों के हाथ में है, अपढ़ पंसारी ही उन्हें बेचनेवाले हैं तब मुझे भय हैं कि कहीं उनकी पहचान ही न मारी जाय ।"

बस इसी विचार से उन्होंने उक्त प्रबंध आरंभ कर दिया है । इस उपन्यास-लेखक के मनोराज्य में गौड़बोलेजी को अपने काम में सफलता हुई और उनकी नकल भी होने लगी है। प्रिय पाठक पाठिकाअ को अधिकार है कि वे इन बातों का अनुकरण करें अथवा यों ही चुप्पी साध जायं ।

पंड़ित प्रियानाथ के स्नेहिये में गौड़बाले और दीनबंधु दो ही मुख्य हैं। गौड़बोले मित्र हैं और उनके आश्रित हैं, दीनबंधु उनके उपकारक और निरपेक्ष हैं। अब इतनी अवश्य हो गया है कि कभी पंडित जी उनसे मिलने जाते हैं और कभी वही यहाँ आकर इनसे मिल लिया करते हैं। साल भर में जब तक दो चार बार भेट न हो तब तक दोनों को कल नहीं। दोनों का दोनों के यहाँ अतिथ्य भी खूब होता है किंतु "पंडित दीनबंधु के सामने लेने का कभी हरगिज भी नाम न लो ।" जब उससे इस विषय में कुछ कहा जाता है तो कानों पर हाथ लगाकर सिर झुका लेने के सिवाय, कृतज्ञता के भाव से दब जाने के अतिरिक्त चुप । यदि पंडितजी चुपचाप उसके वस्त्रों में कुछ बाँध देने का प्रयत्न करते हैं अथवा बाँध ही देते हैं तो "बस घृणा कीजिए ।" कहकर वापिस कर देते हैं। उनक नियम है कि लोवा-हित-कार्य में कभी किसी से सहायता न लेनी । जिसका उपकार बन पड़े उससे यदि किसी काम के लिये कुछ लिया जाय तो दला हो जाय । वह कहा करले हैं कि "दुनिया में ऐसे हजारों काम हैं जिनमें दूसरे की सहायता की अपेक्षा नहीं ।" बस इसी उद्देश्य से वह चुपचाप दीन दुखियों की सहायता किया करते हैं। किस तरह किया करते हैं सो यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं । बस नि:स्पृहृच की,परोपकार की और कर्तव्यपरायशाला की पंडित दीनबंधु पराकाष्ठा हैं। पंडित प्रियानाथ आजीवन उनके कनौड़े हैं और प्रियंवदा जब जब उनके दर्शन पाती है तब तब उसके हृदय में पितृभाव का संचार होकर वह गद्गगद हो जाया करती है। वह चाहे संकोश्च से कुछ न कहे परंतु उसके नेत्रकमलों से कृतज्ञता प्रकाशित करने के लिये आंसुओं की झड़ी लग जाती है, और "बेटी रो मत | मैंने कुछ भी नहीं किया । मुझ जैसे तुच्छ कीटानुकीट से बन ही क्या सकता हैं ! जो कुछ किया परमेश्वर ने किया है। वही नारियों के शील की रक्षा करनेवाला है।" कहते हुए उसके सिर पर ‘हाथ फेरकर उसे शांत कर देते हैं ।

पंडित दीनबंधु अब यहाँ आते हैं तब बच्चों के लिये कुछ अवश्य लाते हैं। "वह ना ना !" कहने पर भी उन्हें देते हैं और जो कुछ देते हैं वह उनकी परीक्षा लेकर । परीक्षा भी उनकी कड़ी है, पुस्तक-संबंधिनी नहीं, व्यावहारिक । और वह मिठाई नहीं देते, वैसा नहीं देने और कपड़े नहीं देते । अपनी यात्रा में जहाँ से उन्हें कोई ऐसी चीज मिल जाय जो "कम खर्च वाला नशीन’ हो और जिससे बालों का ज्ञाने बड़े वही उनका इनाम हैं । बस इस तरह उनकी आनंद से गुजरती है। हिंदी के कितने सुलेखक महाशय “डिटेक्टिव कहानियाँ लिखने और अनुवाद करने के साथ यदि पंडित दीनबंधु जैसे सच्चे परोपकारी का किसी उपन्यास में चरित्र अंकित करें तो अधिक उपयोगी हो सकता हैं । लेखक की यही प्रार्थना है।

आ़ हिं०-१४