आदर्श हिंदू ३/६७ होली का त्योहार

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होली का त्योहार

पंडित प्रियानाथ जी विद्वान् थे, भगवान् के अनन्य भक्त थे, सच्चे सनातनधर्मावलंबी थे, व्यवहारकुशल थे और कुशाग्रबुद्धि भी । उनकी मानसिक शक्ति असाधारण थी और यों वह हिंदूपन का एक उत्तम नमूना थे किंतु क्या इन गुणों के साथ वह रोनी सूरत थे ? यद्यपि प्रियंवदा के साथ समय समय पर थोड़ा बहुत हँसी मजाक प्रकाशित होता रहा है किंतु छासठ प्रकरण रंग डालने पर भी अब तक जब उनके विनोदीपन की बानगी नहीं दिखलाई गई तब यदि पाठक उन्हें "रोनी सूरत" समझ लें तो उनका दोष क्या ?

अस्तु । यदि पंडित जी इन गुण के साथ विनोदप्रिय न हाँ,स्वयं हँसना और दूसरे को हंसा देना न जानते हो और सदा ही गंभीर बने बैठे रहें तो वह “आदर्श हिंदू" काहे के ? मुसलमान ताजियादारी करते हैं, ईसाइयों में भोजन के समय चार आँसू गिराना भगवान की कृतज्ञता है किंतु हिंदुओं के यहाँ कोई त्योहार ऐसा नहीं, श्राद्ध-पञ्च तक ऐसा नहीं, जिसमें रोने की आवश्यकता हो । हिंदुशे के प्रत्येक धर्म में, संस्कार में और काम काज में आनंद है। हँसी ठट्टा शादी के दिमाग को शोक संताप से रहित करके आंनद में मग्न [ २११ ]और ताजा कर देने की मुख्य सामग्री है ! जो हँसना या हँसाना नहीं जानता अथवा दिन रात की साठ घड़ियां में जो एक दो बार भी नहीं हंस लिया करता है वह सचमुच ही या तो योगी है अथवा पशु है। योगी भी राजा जनक की श्रेणी का नहीं, “गृहेषु पंचेंद्रियनिग्रहं तपः” का अनुयायी नहीं, दुनियादारी में रहकर राग द्वेष छोड़ देनेवाला, फल की आकांक्षा छोड़कर अपने वर्गाश्रम धर्म के अनुकूल कार्य सधन करते हुए उन कामों में निर्लिप्त रहनेवाला योगी नहीं--

वह हिमालय-गिरि-गुफा में समाधि चढ़ाकर कंद मूल फल से अपना गुजारा कर लेनेवाला, अदिमी की सूरत से घृणा करनेवाला योगी है। बस पंडित जी प्रथम णी के योगी थे । वह बूढ़ी में वृद्ध, जवानों में युवा और बालकों में बच्चे बनकर रहते थे। जिस समय उन्हें व्याख्यान देने का, साधार बातचीत करने का अथवा यो ही खाली बैठे रहने का अवसर मिलता अथवा किसी को मन मारे देखते तो वह एक ही बात ऐसी कह डालते जिससे सबके सब खिलखिलाकर हँस पड़े। किंतु उनकी एक बात भी फूहड़ नहीं, अश्लील नहीं, भदी नहीं और मतलब से खाली नहीं, वे बहाने से वीरवल के से उपदेश देनेवालों में हैं।

एक बार किसी सुधारक अफसर ने नई टकसाल में ढलकर धोबी से ब्राह्मण बने हुए व्यक्ति को अपने दफ्तर में क्लक की जगह दे दी। दूसरे दिन पंडित जी घर के कपड़ों [ २१२ ]की मोट बाँधकर नदी पर धोने के लिये पहुँचे । वहाँ जाकर वहीं भट्ठी में मैले कपड़े को गर्म पानी में उबालना, खार या साबुन लगाकर सुखाना और तब "संचो राम ! संचो राम !!" की अवाज के साथ उन्होंने कपड़े धोना प्रारंभ किया। वह जानते थे कि अफसर महाशय थोड़ी देर में इधर होकर निकलनेवाले हैं। सचमुच साहब उस तरफ आए और पंडित जी की ऐसी रचना देखकर कहने लगे....

"हैं हैं !! आज यह क्या ? आज धोबी का काम कर्मों ?"

" हां साहब ! सीखता हूँ। अब नए जमाने में नई टकसाल से जब धोबी से ब्राह्मण बनने लगे हैं तब उनका काम कौन करेगा ?"

“बेशक !” कहकर अफसर महाशय कुछ मुसकुर, कुछ शर्माए और छड़ी उठाकर वहाँ से चल दिए। तीसरे ही दिन उन्होंने नए कुतर्क को हुक्म दे दिया--

“तुम पंद्रह झए महीने की कुर्की के बदले अँगरेजी ढंग से कपड़े धोने की दूकान खोलो । उसमें तुम्हें पचास मिल जाया करेंगे ।"

बस इस प्रकार का जवाब पाकर धोबीराज वहाँ से चले गए। उस दिन पीछे उसका क्या हुआ सो लिखने की आवश्यकता नहीं, और न कुछ मतलब है ।

खैर ! पंडित जी जब ऐसे विनादी थे तब उनके यहाँ होली का त्योहार न मनाया जाय तो बात ही क्या ? आज [ २१३ ]होली है। पंडित जी का कमरा बसंती रंग के समान से सजाया गया है। आज परदे बसंती हैं, लंप बसती हैं, फर्श वसंती है और उनके कपड़ों के सिवाय सब कुछ बसंती है ।चार पाँच बड़े बड़े थालों में तरह तरह की गुलाल भरी हुई है,अबीर रखा हुआ है, कुंकुमे धरे हैं, अनेक डालियाँ भाँति भांति के पुष्पों से डट रही हैं, पान की, इलायची की, लवंग की, और छालियों की भरमार है। कभी डफ पर होली गाई जाती है. कभी तबला ठनकने लगा है और कभी सितार की ताना रीरी । हार्मोनियम अलग। प्राभाऊोन अलग ! आज जाति पांति का भेद भाव नहीं। छोटे बड़े का विचार नहीं। सब होली गाते हैं और पिचकारियाँ भरकर आनेवालों के कपड़े रगते जाते हैं। जो आता है उसके गालों पर गुलाल'मलकर खूब गत बनाते हैं। कभी बालकों से होली खेलते हैं और कभी बुढ़ों से । आज बालक और बूढे समान हैं। यदि कोई "हैं हैं !" या "नहीं नहीं" करता है तो उनकी खूब खबर ली जाती है। ऐसे ही एक महाशय कर्म संयोग से वहाँ आ निकले हैं। उनकी होली पर घृणा देखकर नवागत महाशय को सब लोगों ने घेर लिया है, केई उन पर गुलाल डालने को तैयार है और कोई पिचकारी मारने को । उन्होंने इन होलियारों में से निकल भागने का भी बहुत प्रयत्न किया है किंतु लाचार । तब उन्होंने कड़ककर, आँखे निकालकर, छड़ी उठाते हुए कहा--[ २१४ ]“खबरबार, पिचकारी का एक भी छींटा लगा तो अभी खोपड़ी फोड़ दूंगा। क्या वाहियात त्योहार है। बेहूदगी की हद हो गई। इस बेहयाई का भी कुछ ठिकाना है ?"

"नहीं साहब ! बेहूदगी नहीं। बेहयाई नहीं । ऋतुराज वसंत की लीला है । बेहयाई और बेहूदगी का बुखार निकाल देने का दिन है । भगवान् पंचशायक का केवल एक ही दिन में उभरा हुआ जोश निकालकर साल भर तक सभ्यता से रहने के लिये शुभ मुहूर्त है, देशी गंवारों की होली और विदेशी विद्वानों का "एप्रिल फूल" है, काम-विकारों का उफान रोकने के लिये पानी के छीटे हैं ।"

"कुछ भी हो । है बेशक वाहियात ! ब्राह्मण और भंगी चमार सब एकाकार ! कीचड़ और पनाले का त्योहार ! गाली गलौज का सत्कार और दुराचार में प्रवृत करने का साधन ।"

"नहीं लाइव ! वाहियात नहीं ! यह हिंदुओं का चार में से एक जातीय त्योहार है। जो लोग छुआछूत से, जातिभेद से अथवा पंति-भेद से देश का विनाश मानते हैं उनके लिये मुँहतोड़ जवाब है। यह त्योहार ड़के की चोट दिखला रहा है कि हिंदुओं में सैकड़ों जातियाँ होने पर भी, आप में खान पान का व्यवहार न होने पर भी और छुआछूत की असाधारण छीछालेदर होने पर भी सब एक हैं । धार्मिक कामों में एक हैं, सामाजिक काम में एक हैं और इतने [ २१५ ]एक हैं जितने इन बातों के वाहियात समझनेवाले एक नहीं ।आपके एके में लखपती कंगाल के, अफसर माता को ग्रार और बडा़ छोटे के पास बिठलाने से भी धृणा करते हैं किंतु यहाँ आज राजा रंक एक हैं ।

"अच्छा, परंतु है तो कीचड़ पनाले का ही त्योहार ?"

"जिनके लिये है उनके लिये हो भी सकता है किंतु कीचड़ पनाले का शुद्र के लिये, अंत्यजे के लिये अथवा शराबियों के लिये होगा। द्विजे के लिये,अंत्यजों शूद्रों के लिये अवीर है, गुलाल है, कुंकुमें हैं और रंग है । होली सबके लिये समान है, उमंग एक सी है किंतु अधिकारी-भेद से सामान जुदे जुदे हैं । आप जब दरबार में जाते हैं तब कुर्सी पाते हैं और गेंदा धोबी चौखट तक भी नहीं पहुँचने पाता ।"

‘और वही विद्वान हो तो हमारे बराबर कुर्सी पावेगा ।"

“हाँ होली के लिये तो ऐसा हो सकता है कि गेंदा शराब पीना छोड़ दे और कीचड़ के बदले अबीर काम में लाने लगे किंतु दरबारी कुर्सी उसे नहीं मिलनी चाहिए। आप आप ही हैं और धोवी धोबी ही है। ऐसा न हो तो आपको उसे अपनी कुर्सी देकर धोबी बनना पड़ेगा ।"

‘अच्छा माना मैंने कि आपकी यह दलील ठीक है परंतु वाही तबाही बकना, शिष्ट पुरुषों के सामने,स्त्री-समाज के आगे गालियाँ बकना, कबीर गाना किस काम का ? यह बेहूदगी तो व्यभिचार फैलानेवाली है।" [ २१६ ]"नहीं ! व्यभिचार को रोकनेवाली है। काम-विकारा के उफान को निकाल देने के लिए हलका सा जुलाब है, साल भर के तीन सौ पैंसठ दिन तक जो चित-वृत्तियाँ धर्म के वंधन से, समाज के पाय से रुकी रही हैं उन्हें एक दिन में निकालकर निर्विकार होने का साधन है । स्त्री-पुरुष का, परस्त्री का परपुरूष के साथ कमर मिलाकर नाचने से यह हजार दर्जे अच्छा है। दोनों के उद्देश्य एक ही हैं। प्रकार में भेद है और परिणाम में भी भेद है । मनुष्य की चित-वृत्ति स्वभाव से इस ओर जा रहा है । लगाम ढीली छोड़ देने से घोड़ा अवश्य सरपट दौड़ते दौड़ते सवार को गिरा देगा । बस लगाम कसकर उसे खूब दोड़ा लीजिए ताकि आप गिरें नहीं। किंतु जब आप उसे स्थान में ला बांधे तब दुलतियाँ झड़ने के लिये उसे अजाद कर दीजिए !"

"अच्छा यह भी मान लिया परंतु आप जैसे विद्वानों के यहाँ रंडी का नाच । बस ! पंडित होकर आज तो आपने कमाल ही कर डाला । अब दुनिया में इससे बढ़कर बुराई ही कौन सी है जिसे आप छोड़ेंगे । रंडी सब बुराइयों की जड़ हैं । जुआ शराब, पाप सब इसके गुलाम हैं ।"

"जैसा साज है वैसा सामान है ।" जस काछिय तस नाचिये नाचा ।"

“तष, आपने मंजूर कर लिया कि रडीबाजी करने में कोई दोष नहीं है। ऐसी दशा में आप अपने यहाँ इस बात का भी एक स्कूल खोल दीजिए। [ २१७ ]"नहीं! आप मेरा मतलब समझे नहीं । वेशक रंडियां समाज में एक बला हैं। तब ही शिष्ट पुरुषों ने इनकी निंदा की है । वेश्यागमन करनेवाले के राजदंड मिलता है, वह समाजच्युत किया जाता है और सबसे बढ़कर यह कि वह लोगों की आँखों से गिर जाता है। परंतु इससे आप यह न समझ लीजिए कि ये समाज से निकाल देने के लायक हैं, फिजूल हैं और इन्हें बंद कर देना चाहिए। नहीं ! इनकी भी समाज के लिये दो कारणों से आवश्यकता है। एक यह कि जब गाने बजाने और नाचने का पेशा करनेवाली हमारी सोसाइटी में न रहेंगी तब कुल-वधुएँ इस काम के ग्रहण करेगी । मैसूर और मदरास प्रांत में जहाँ रंडी का नाच बंड कर दिया गया है वहाँ भले घर की बहू बेटियां को नाचना गाना सिखाने के लिये स्कूल खोलने का अवसर आया है । नृत्य और गायन पर मनुष्य की स्वभाव से प्रवृत्ति है । उसको पूरा करने के लिये दोनों मार्ग खुले हुए हैं । आप यदि रंडी का नाम बंद करेंगे तो एक दिन आपकी बहू बेटियाँ अवश्य नचानी पड़ेगी !"

“परंतु महाराज ! रडियां तो देश में व्यभिचार फैला रहीं हैं, लड़कों को बिगाड़ रही हैं।"

“बेशक बिगाड़ रही हैं और जहाँ तक बन सके समाज से भय दिलाकर ऐसा कुकर्म बंद करना चाहिए परंतु समष्टि रूप से समाज पर दृष्टि डालिए तो इस काम के लिये भी [ २१८ ]इनकी आवश्यकता है ! जिन समाज में वेश्याएं न हों उसके सौ गृहस्थ लेकर उनमें व्यभिचार कितना होता है, इनकी गणना कीजिए और अन्य हिंदू समाज के सौ गृहस्थों से तुलना लीजिए तब आपको मालूम है जायगा कि बेश्याएँ किस सिद्धांत पर सिरजी गई हैं। इस तरह वे अवश्य अपना आपा बिगाड़ रही हैं, अपना सर्वस्व नष्ट कर रही हैं किंतु हिंदूनारियों के सतीत्व की रक्षा करती हैं ! जैसे बड़े नगरों में सड़क के निकट जगह जगह पनाले बने हुए हैं, यदि वे बनाए जायें तो चित्तवृत्ति को शरीर के विकार को न रोक सकते पर लोग बाजार और गलियां को खराब कर डालें उसी तरह यदि वेश्याएँ हमारे समाज से उठा दी जायँ तो घर की बहू बेदियाँ बिगड़ेंगी ।”

“हाँ ! यह ठीक है परंतु आपकी दोनों राये परस्पर विरुद्ध हैं । इधर आप रंडियाँ रखना भी चाहते हैं और उधर रंडीबाजी बंद भी करवाते हैं । “दोउ एक संग न होइ भुबालू; हँसब ठठाइ फुलाउब गालू ।" दोनों बातें कैसे निबहेगी ।"

"क्यों नहीं ? बराबर निभ सकती हैं। समाजच्युत होने का भय, सदाचार की शिक्षा और वेश्यागमन की ओर, एरीगमन की ओर प्रवृत्ति न होने पावे, ऐसे बंधन बस तीनों का निर्वाह होना चाहिए। यदि इन बातों पर ध्यान रहे तो कभी कोई नर नारी चुराई की ओर नहीं झुक सकते ।"

“बेशक ब्रह्मचर्य बहुत ही बढ़कर है ।" [ २१९ ]"हाँ ! परंतु आप लोगों की राय का ब्रह्मचर्य नहीं । बीस पचीस वर्ष तक कुंवारा कुंवारी रखकर शिकार खेलने की आजादी नहीं । क्या स्त्री और क्या पुरुष, दोनों को कुसंगति से बचाकर सुसंगति में प्रवृत्त करना तो मुख्य है परंतु शरीर-संगठन देखकर रजोदर्शन के काल से कुछ ही पहले विवाह, शरीर ही की स्थिति देखकर विवाह से प्रथम, तृतीय अथवा इद पंचम वर्ष में गौना, केवल ऋतुकाल में गमन, पातिव्रत तथा एकपत्नीत्रत, यही हमारा शास्त्र के अनुसार ब्रह्मचर्य है। लड़की से ड्योढ़ी लड़के की उमर, पुरुष का तीस पैतीस वर्ष के बाल विवाह नहीं ।"

"अपकी सब बातें यथार्थ हैं। बेशक होना भी ऐसा चाहिए। परंतु जैसे आपने होली का हमारा जातीय त्योहार साबित किया उसी तरह सलोनो, दशहरा और दिवाली की भी तो व्याख्या कीजिए।"

होली की विशेष व्याख्या “होली के रहस्य" में प्रकाशित हुई है । और त्योहारों की व्याख्या का आज समय नहीं । आज समय है हँसी खुशी मनाने का ।" बस इतना कहकर पंडितजी ने जयोंही नवागत महाशय के गालों पर गुलाल मलीं किसी की पिचकारी, किसी को कुमकुमा और किसी के मुट्ठी भर गुलाल ने उनको व्याकुल कर दिया। "बस बस ! बहुत हुआ। मुआफ करे !” कहते हुए उन्होंने जफ उठाया और उसे बजाकर जब वह सूरदासजी के पद गाने लगे तो एकदम सन्नाटा छा गया । [ २२० ]गाने बजाने के अंनतर जलसा खतम हुआ। फिर समय पाकर पंडित जी ने उस व्यक्ति के समझा दिया कि अनादि काल से जैसा हिंदुओं की ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद, यो चार' जातियां हैं वैसे ही सलोनी, दशहरा, दिवाली और होली। चार वर्षों के चारों त्योहार हैं। सलोने के उपाकर्म ब्राह्मणों का, दशहरे के विजय-यान्ना क्षेत्रियों का, दिवाली को लक्ष्मी का पूजन बैश्यों का और होली की घूमधाम शूद्रों का, यो चारों वर्षों के चार त्योहार है किंतु है चारों चारों हो के । ये ही हमारे जातीय त्योहार हैं। उत्साह की जाति का जीवन हैं और ये त्योहार हमारा उत्साह जागृत रखने के मुख्य साधन हैं । पर साथ ही यह भी आवश्यक है कि इन त्योहारों में जो अनुचित बातें आ गई हैं उनका सुधार होना चाहिए, उन्हें एकदम उठा देना ठीक नहीं ।