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आनन्द मठ/तीसरा परिच्छेद

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आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १२ से – १४ तक

 
तीसरा परिच्छेद।

जिस जङ्गलमें डाकुओंने कल्याणी को ले जाकर जमीनपर रखा वह बड़ा मनोहर था। न तो वहां प्रकाश था और न ऐसे परखया ही थे जो वहांकी शोभाको देख और समझ सकें। जिस तरह दरिद्रके हृदय के सौन्दर्यका कोई मूल्य नहीं होताउसी तरह उस वनकी शोभा निरर्थक थी। देशमें खानेको अन्न हो वा न हो, पर वह वन विकसित था, जिनकी सुगंधसे वह अन्धकार प्रकाशमय हो रहा था। वनके बीच एक साफ सुथरे और सुकोमल पुष्पोंसे भरे हुए भूमिखण्डमें डाकुओंने कल्याणी और उसकी कन्याको ला रखा था। वे उन्हें चारों ओरसे घेरकर बैठ गये और आपसमें वाद विवाद करने लगे, कि उन दोनोंका क्या करना चाहिये। कल्याणीके शरीरपरके गहने तो उन्होंने पहले ही निकाल लिये थे। कुछ डाकू उन्हींका बंटवारा करने में लगे थे। गहनोंका बंटवारा हो जानेपर एक डाकूने कहा, "भाई, हम सोना चांदी लेकर क्या करेंगे? एक गहना लेकर यदि कोई मुट्ठीभर चावल दे दे तो प्राण बचें। भूख के मारे जान निकली जा रही है। आज केवल पेड़के पत्ते खाकर रह गया हूं।" एकके मुंहसे यह बात निकलते ही सब भोजन! भोजन!! चिल्लाने लगे। हमें सोना चांदी नहीं चाहिये, भूखसे प्राण निकले जा रहे हैं। उनके सरदारने उहें समझा बुझाकर चुप कराना चाहा, पर कोई चुप न हुआ, उलटे सबके सब और जोरसे चिल्लाने और गाली बकने लगे। अन्तमें मार पीटकी नौबत आ पहुंची। जिन लोगोंको बंटवारे में गहने मिले थे, उन्होंने क्रोधमें आकर उन गहनोंको सरदारके ऊपर जोरसे फेंक मारे। सरदारने भी एक दोको खूब पीटा। तब सब मिलकर सरदारपर टूट पड़े और उसे मारने लगे। बेचारा सरदार भी कई दिनोंका भूखा था और कमजोर हो रहा था, इसलिये दो ही चार धौल धप्पेमें उसका काम तमाम हो गया। तब भूखसे पीड़ित, क्रोधित, उत्तेजित और ज्ञानशून्य डाकुओं में से एकने कहा,-"भाइयो! भूखसे प्राण निकले जा रहे हैं। स्यार कुत्तोंका मांस तो बहुत खाया, आओ, आज इसी सालेका मांस खायें।" यह सुनते ही सब “जय काली मैयाकी” कहकर जोरसे चिल्ला उठे। “बम काली! आज मनुष्यका ही मांस उड़ने दो।" यह कहकर वे सब दुबली पतली और प्रेत सदृश काली काली मूर्तियां अन्धकारमें खिल खिलाकर हंसने और ताली बजा बजाकर नाचने लगीं। एकने सरदारकी लाश भूननेके लिये आग जलानेका उपाय करना आरम्भ किया। सूखी लताएँ, लकड़ियाँ और तृण बटोरकर उसने चकमकसे आग पैदाकर उनके ढेरमें आग लगा दी। आग धीरे धोरे जलने लगी और उसके प्रकाशमें पासवाले आम, नीबू, कटहल, ताड़, खजूर और इमलीके पेड़ोंके हरे हरे पत्ते चमकने लगे। कहीं तो पत्ते उजेलेमें चमक उठे, कहीं घास पर रोशनी पड़ने लगी और कहीं अँधेरा, और भी बढ़ गया। आग खूब धधक उठनेपर एकने लाशकी टांग पकड़ी और उसे आगमें डालनेके लिये ले चला। इतने में एक बोल उठा,-"ठहर जा, यार! ठहर जा। आज नरमांस खाकर ही प्राण बचाने हैं, तो फिर इस बूढ़े की सूखी ठठरी जलाकर क्यों खायें? लाओ आज हम जिसे पकड़ लाये हैं, उसीको भूनकर खायें, उसी अल्पवयस्क बालिकाका मुलायम मांस ही खाकर प्राण बचायें।” दूसरेने कहा-“जो कुछ हो, जल्द भून डालो, बाबा! अब तो भूख नहीं सही जाती!” सभीकी जीभसे लार टपक पड़ी और सबके सब उधर ही चले जहां कल्याणी अपनी कन्याके साथ मूर्च्छित पड़ी थी। आकर सबोंने देखा कि वहां कोई नहीं है, न माँ का पता है, न बेटीका। डाकुओंको लड़ाई झगड़ेमें फंसा देख, सुयोग पाकर कल्याणी कन्याको गोदमें लेकर जङ्गलमें भाग गयी थी। शिकारको इस तरह हाथसे निकल गया देख, वे सब प्रेत-मूर्ति डाकू "मारो! मारो!! पकड़ो! पकड़ो!! करते हुए चारों ओर दौड़ पड़े।

सच पूछो तो, अवस्था-विशेषमें मनुष्य भी हिंस्र जन्तु हो ही जाता है।