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आनन्द मठ/नौवाँ परिच्छेद

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आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ २७ से – २८ तक

 

नवां परिच्छेद।

गाड़ीसे नीचे उतरकर महेन्द्रने एक सिपाहीका हथियार छीन लिया और युद्ध करने ही जा रहे थे कि यकाएक उन्हें यह ख्याल हो आया, कि ये लोग डाकू हैं और इन्होंने रुपये लूटने के लिये ही इन सिपाहियोंपर आक्रमण किया है। यही सोचकर वे युद्धभूमिसे हटकर अलग जा खड़े हुए, क्योंकि डाकुओंका साथ देनेसे उन्हें भी उनके पापका भागी बनना पड़ता। यह सोचकर वे तलवार फेक चले ही जा रहे थे, कि इसी समय भवानन्द उनके सामने आ खड़े हुए। महेन्द्रने पूछा-"महाशय! आप कौन हैं?"

भवानन्दने कहा-"यह जानकर तुम क्या करोगे?" महेन्द्र-"मुझे जानना जरूरी है, क्योंकि आज आपने मेरा बड़ा उपकार किया है।"

भवानन्द-"इस बातका ज्ञान भी तुम्हें है, ऐसा तो मैं नहीं समझता, क्योंकि तुम युद्ध के समय तलवार हाथमें रहते हुए भी दूर ही खड़े रह गये। जमींदारोंके लड़के ऐसे ही होते हैं। दूध घी खाने में तो वे बड़ी बहादुरी दिखलाते हैं, पर समर भूमि भा दुर्लभ प्राणा!”

भवानन्दकी बात पूरी होते न होते महेन्द्रने घृणाके साथ कहा-"राम! राम! यह भी कोई काम है! डकैती बड़ा बुरा काम है!"

भवानन्दने कहा,-"डकैती ही सही, पर तुम्हारा तो हमने उपकार ही किया है? अभी हम तुम्हारी और भी बहुत कुछ भलाई करना चाहते हैं।"

महेन्द्र,-"तुम लोगोंने मेरा कुछ उपकार किया है, इसमें कोई सन्देह नहीं, पर अब और कौनसा उपकार करोगे? डाकुओंसे उपकार होनेकी अपेक्षा न होना ही अच्छा है।"

भवानन्द-उपकार ग्रहण करना, न करना तो तुम्हारी इच्छापर निर्भर है। खैर, यदि अपनी कुछ भलाई हमारे हाथों चाहते हो, तो मेरे साथ साथ चलो, मैं तुम्हें तुम्हारी स्त्री कन्यासे मिला दूंगा।"

महेन्द्र घूमकर खड़े हो गये और बोले,-"क्या कहा?"

भवानन्द इस प्रश्नका उत्तर दिये बिना ही चल पड़े। लाचार महेंद्र भी उनके पीछे हो लिये। वे मन ही मन सोचते जाते थे।

“ये तो अजीब तरह के डाकू हैं!"