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आनन्द मठ/3.3

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आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ११३ से – ११५ तक

 

हरे मुरारे! हरे मुरारे!
बांध टूटिगो बालू केरो, पूरन हुए मनोरथ मेरो,
गङ्गाधार ज्वार जब आयो, कौन रोकि तोहे राखि हैं?
हरे मुरारे! हरे मुरारे!"
सारंगीमें भी यही गीत बज रहा था—
"गंगाधार ज्वार जब आयो, कौन रोकि तोहे राखि हैं?
हरे मुरारे! हरे मुरारे।"

जहां घनघोर जङ्गल था, बाहर से देखने पर कहीं कुछ नहीं दिखाई देता था, शान्ति उसी ओर चली गयी। वहां शाखा-पल्लवों के बीच छिपा हुआ छोटासा झोंपड़ा था। उसके खम्भे वगैरह डालों के थे, छाजन पत्तों की, जमीन काठकी और गच मिट्टी की थी। लताद्वार को हटाकर शांति उसी झोपड़े के अन्दर घुसी। वहीं जीवानन्द बैठे हुए सारङ्गी वजा रहे थे।

शान्ति को देखकर जीवानन्द ने पूछा,—"इतने दिन बाद गङ्गा में ज्वार आया है क्या?"

शांति ने हंसकर उत्तर दिया,—"नदी नालों को डुबाकर गंगा में ज्वार आने पर भी कहीं पानी वेग से चलता है?"

जीवानन्द ने उदास होकर कहा,—"देखो शांति! एक दिन व्रतभङ्ग हो जाने के कारण मेरे प्राण तो न्यौछावर हो ही चुके हैं; क्योंकि पाप का प्रायश्चित्त तो करना ही होगा। अबतक तो मैं कभी का प्रायश्चित्त कर चुका होता; पर तुम्हारे ही अनुरोध से नहीं कर सका। पर अब देखता हूं कि बड़ी भारी लड़ाई शीघ्र ही छिड़ा चाहती है। उसी युद्धक्षेत्र में मुझे उस पापका प्रायश्चित्त करना होगा। इन प्राणों को निश्चय ही त्यागना पड़ेगा। मेरे करने के दिन—"

शांति ने उन्हें आगे और कुछ नहीं कहने दिया, झटपट बोल उठी,—"मैं तुम्हारी धर्मपत्नी, सहधर्मिणी और धर्मकी संगिनी हूं। तुमने बहुत बड़ा धर्म का काम अपने सिरपर उठाया है उसी में तुम्हारी सहायता करनेके लिये मैं घर छोड़कर यहां आयी हूं। दोनों जने एक साथ मिलकर धर्मावरण करेंगे, यही सोचकर मैं घर छोड़ जंगलमें आ बसी हूं। मैं तुम्हारे धर्मको वृद्धि करूंगी। धर्म पत्नी होकर तुम्हारे धर्ममें विघ्न क्यों डालूंगी? विवाह लोक, परलोक, दोनोंके लिये किया जाता है। सोचकर देखो, मेरा तुम्हारा विवाह तो इस लोकके लिये हुआ ही नहीं, केवल परलोकके लिये हुआ हैं। परलोकमें हमें दूना फल मिलेगा। फिर प्रायश्चित्तकी बात कैसी? तुमने कौनसा पाप किया है? तुम्हारी प्रतिज्ञा यही थी, कि किसी स्त्रीके साथ एक आसनपर न बैठोगे। अब बतलाओ, कि तुम कहां और कब मेरे साथ एक आसनपर बैठे थे। फिर प्रायश्चित्त कैसा? हाय प्रभो! तुम मेरे गुरु हो, फिर मैं तुम्हें क्या धर्म सिखलाऊंगी। तुम वीर हो, तुम्हें मैं वीरव्रत क्या सिखलाऊंगी?"

आनन्दसे गद्गद हो, जीवानन्द ने कहा, "क्यों नहीं? अभी तो तुमने मुझे सिखलाया!"

शांति प्रफुल्लित चित्तसे कहने लगी,-"और देखो, प्रमो! हमारा विवाह इस लोकके लिये भी निष्फल कैसे हुआ? तुम मुझ प्यार करते हो ही, मैं तुम्हें जी से चाहती ही हूं, फिर इससे बढ़कर इस लोकमें और कौनसा फल चाहिये? बोलो, वन्देमातरम्।"

दोनों व्यक्ति एक स्वरले 'वन्देमातरम्' गाने लगे।