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आनन्द मठ/3.6

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आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १२७ से – १२९ तक

 

एक दूसरेको मारनेवाले या खा जानेवाले जानवरोंकी दौड़-धूप-का शब्द सुनाई देता है। उस निर्जन, अन्धकारपूर्ण खंडहरमें अकेले भवानन्द बैठे हैं। उनके लिये पृथ्वी मानों रही नहीं गयी। अथवा केवल उपादानमयी हो रही है। उस निविड़ अन्धकारमें भवानन्द हथेलोपर सिर रखे सोच रहे हैं—वे ऐसी प्रगाढ़ चिंतामें निमग्न हो रहे हैं, कि न तो उनकी देह हिलती है, न जोर जोरसे सांस चलती है, न किसी बातका भय मालूम होता है। वे मन-ही-मन कह रहे हैं,—"जो होनेवाला है, वह तो होकर ही मैं भागीरथीकी जलतरंगके पास आकर भी छोटेसे हाथीके बच्चे की तरह इन्द्रियस्रोतमें डूब मरा, इसी का बड़ा भारी दुःख रहा। एक क्षणमें यह देह मिट्टीमें मिल जा सकती है। देहका ध्वंस होते ही इन्द्रियोंका ध्वंस हो जायेगा। फिर मैं इन्द्रियोंके वशमें क्यों गया? मेरा मरना ही ठीक है। धर्म-त्यागी कहलाकर जीना! राम राम! मैं तो अब मरूंगीही।"

इसी समय ऊपरसे उल्लू बोल उठा। भवानन्द और जोरसे कह उठे—"ओह! यह कैसा शब्द है! कानोंको ऐसा लगा, मानों यम मुझे पुकार रहा है। मैं नहीं जानता, किसने यह शब्द किया, किसने मुझे पुकारा, किसने मुझे यह उपदेश दिया, किसने मुझे मरनेको कहा। पुण्यमयी अनन्ते! तुम शब्दमयी हो; पर तुम्हारे शब्दका मर्म तो मैं समझ नहीं सकता। मुझे धर्ममें मति दो, पापसे दूर करो। हे गुरुदेव! ऐसा आशीर्वाद करो, जिसमें धर्म में मेरी मति सर्वदा बनी रहे।"

इसी समय उस भीषण वनमें अत्यन्त मधुर, गम्भीर और मर्मभेदी मनुष्य कण्ठ सुनाई पड़ा। मानों किसीने कहा,—"मैं आशीर्वाद करता हूं, कि तुम्हारी मति धर्म में अविचल भावसे बनी रहे।

भवानन्दके शरीरके रोंगटे खड़े हो गये। यह क्या? यह तो गुरुदेवका ही कण्ठ-स्वर है! बोले,—"महाराज! हैं? आइये, आकर इस दासको दर्शन दीजिये।"

पर न तो किसीने दर्शन दिये, न उत्तर दिया। भवानन्दने बार बार पुकारा; पर कोई न बोला। उन्होंने इधर उधर बहुत ढूंढा; पर कहीं किसीको न पाया।

रात बीती, प्रभात हुआ और प्रातःकालके सूर्य उदित होकर जंगली पेड़-पौधोंकी हरी-हरी पत्तियोंपर अपनी किरणें फैलाने लगे, तब भवानन्द वहांसे चलकर मठमें पहुंचे। उस समय उनके कानोंमें “हरे मुरारे! हरे मुरारे!" की ध्वनि सुनाई पड़ी। सुनते ही वे पहचान गये कि यह सत्यानन्दका कण्ठस्वर है। वे समझ गये, कि प्रभु लौट आये हैं।

 

 
सातवां परिच्छेद

जीवानन्दके कुटीसे बाहर चले जानेपर शांति फिर सारंगी की सुरीली ध्वनिके साथ अपना मीठा गला मिलाकर गाने लगी—

"प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदं
विहितवहिवचरित्रमखेदम्।
केशव धृत मीन शरीर,
जय जगदीश हरे!"

गोस्वामी जयदेव विरचित राग, ताल, लययुक्त स्तोत्र; शान्तिदेवीके कण्ठसे निकलकर उस अनन्त काननकी अनन्त नीरवतांको भेदकर वर्षाकालकी उमड़ी हुई नदीकी मलयानिलसे चञ्चल की हुई तरङ्गोंके समान मधुर मालूम होने लगा, तब उसने फिर गाया—