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आवारागर्द/९-हेर फेर

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आवारागर्द
आचार्य चतुरसेन शास्त्री
९ हेर फेर

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ ९९ से – ११० तक

 

 

 

हेर फेर

लाहौर में स्वदेशी प्रदर्शिनी की बड़ी धूम थी। दिन छिपते ही वज़हदार स्त्री-पुरुषों के ठठ-के-ठठ वहाँ जा जुटते थे। इस नुमाइश में उद्योग-धधे, कला-कौशल की कोई ऐसी चीजे नहीं दिखलाई गई थीं, जिससे देश के करोड़ो बेकार युवकों या अभागिनी, असहाय स्त्रियों को कोई पेट भरने का धंधा मिले इसमे सैकड़ों दुकाने ऐसी थी, जिनपर माँग-पट्टी से चाक-चौबन्द, सूट-बूटधारी युवक सुनहरा चश्मा चढ़ाए अपने दिलचस्प ग्राहकों की आवभगत हँस-हँससर और तीन-तीन बल खाकर, करने को डटे खड़े रहते थे। इनकी ग्राहिकाएँ थीं बहारदार लेडियाँ, फैशन की पुतलियाँ या मर्दनुमा साहसी युवतियाँ, जिनका फिजूलखर्ची एक धंधा ही हो गया है। वे सब एक-से-एक बढ़कर साड़ियाँ पहने, ऊँची एड़ी के जूते कसे, तितलियाँ बनी फिर रही थीं। प्रत्येक दुकान पर इन्हीं के मतलब का ढेरों माल भरा हुआ था। जहाँ खड़ी हो जाती, युवक दूकानदार आँखे बिछाते, मुस्किराहट के जाल फैलाते, बलिहारी जाते और झुक-झुककर जमनास्टिक की-जैसी कसरते करते थे। .

इन प्रदर्शिनियों से और कुछ हो चाहे न हो, पर दो काम तो अवश्य हो जाते हैं—एक तो स्त्रियों को फिजूल सामान खरीदने के सबंध में बहुत काफी उत्तेजना मिल जाती है, जो वे सजे-धजे दूकानदारों से दुगने मोल में खरीदती है; दूसरे, यारों को आंखें सेकने का अच्छा स्थान और अवसर मिल जाता हैं।

शाम होते ही युवकों के झुँड-के-झुँड टोली बाँधकर प्रदर्शिनी में आजाते हैं। बीसवीं सदी मे पंजाब ने जो अल्हड़ बछेड़ियाँ पैदा की हैं, वे किस लापरवाही से अपने मनोरजक, धारीदार, घुटनों तक लटकते कुर्तो को हवा में फरफराती, सलवार को हिलाती, दुपट्टी को लापरवाही से हवा से अठखेलियाँ करने का अवसर देती, अपने रूप को रास्ते मे बखेरती फिरती हैं, यह सब देखना इन युवकों का सांध्य कृत्य होता हैं।

एक-एक की नख-शिख-आलोचना होती हैं। किसके आँख, नाक, बाल कैसे हैं? रंग कैसा हैं? नज़र कैसी? कौन किसकी बहू-बेटी, भतीजी-भांजी हैं? किसकी तरफ़ गर्दन मरोड़कर देखा? किसने कटाक्ष-पात किया? ये ही महान् विषय इन पढ़े-लिखे सुसभ्य लाहौरी युवकों की चर्चा के विषय होते हैं। वास्तव में ये प्रदर्शिनियाँ स्वदेशी वस्तुओं की नहीं, प्रत्युत विदेशीनुमा प्यारे स्वदेशी युवक-युवतियों की होती हैं। यही कारण हैं कि इनमें कोई नवीनता न रहने पर भी, फ़िजूल खर्च होने पर भी शाम से जो भीड़ का जमघट जुटता हैं, तो आधी रात तक रहता ही हैं।

(२)

बसतलाल हृष्ट-पुष्ट जवान थे। आँखों में रस था, और चेहरा दमकता हुआ, जिससे प्रतिभा झलकती थी। काव्य के प्रेमी और सौंदर्य के उपासक| उन्हें प्राकृतिक दृश्य देखने का बड़ा शौक था। काश्मीर, मसूरी, शिमला सब उनका देखा हुआ था। वह बनारस के निवासी थे, प्रकृत साहित्यिक थे। हिन्दी के प्रेमी थे, कवि और लेखक भी। अभी अनुभव और विद्या-प्रौढ़ता न थी, पर कलम में ओज और रस था। उनके यश की चाँदनी धीरे-धीरे हिन्दुस्तान भर मे फैलती जा रही थी। अपने तीन-चार लाहौरी मित्रों के साथ एक दिन बसंतलाल भी प्रदर्शिनी में गए। वह पूरव के पढ़े के अभ्यस्त थे। पूर्व भारत में पर्दा उठा है सही, पर उसे पर्दा उठना नही कह सकते। वहां की पर्दे में कचली हुई, मुर्झाई हुई, पिलपिली, बासी ककड़ी के समान स्त्रियों को उन्होंने महिला रूप में देखा था। अब जो यहाँ पंजाब में आए, तो पंजाबी बछेड़ियों को देख- कर दग रह गए! महीन तबियत के आदमी थे, रूप किसी का पसंद न आता था। वह कवित्व की दृष्टि से देखते, एक-आध ऐब दिखलाई ही पड़ जाता। उन्हें यहाँ सब से बुरा तो यह मालूम हुआ कि ये स्वस्थ; सुन्दर, कनक-छरी-सी युवती लड़कियाँ और ललनाएँ किस लापरवाही और फूहड़ ढंग से खोमचे वालों के इर्द-गिर्द बैठकर दनादन पच चाट रही हैं। वह पर्दे के पक्ष-पाती तो नही, पर मर्यादा, सुघराई और शिष्टाचार के हिमायती थे। सोचने लगे, ये हड़दंगी बछेड़िया हैं या भले घर की लड़कियां? किसी भले आदमी की तनख्वाह तो ये आलू-छोलों की चाट मे ही उड़ा दे सकती हैं।

सब मित्र घूम रहे थे। बातचीत का जोर बँधता ही जाता था। विवाद के मुख्य विषय थे टाकी-फ़िल्म और हिन्दी।

एक मित्र ने कहा—"टाकी फिल्मों का जैसे-जैसे ज्यादा जोर बढ़ता जाता हैं, वैसे-वैसे देश में हिन्दी का प्रचार भी खूब बढ़ रहा हैं। हिन्दी-उर्दू का भेद भी मिटता जा रहा हैं।"

दूसरे ने कहा—"अब तो ऐसा मालूम हो रहा हैं कि बहुत

शीघ्र पंजाब में भी हिन्दी-ही-हिन्दी हो जायगी। यहां औरतों ने तो राष्ट्र-भाषा को बहुत कुछ अपना लिया हैं। सिर्फ विलायती सभ्यताप्रेमी मर्द लोगों में ही अभी तक अँगरेज़ी का बोल-बाला हैं। शायद ये लोग अँगरेज़ी से राष्ट्र-भाषा का काम लेना चाहते हैं। इनकी आँखे कब खुलेगी?"

शहर में सुलोचना की ताज़ी फिल्म आई थी, यार लोगों ने उसकी भी चर्चा उठा दी। एक मित्र लगे सुलोचना के नख-शिखं की आलोचना करने। उस आलोचना में कुछ सौंदर्य-ज्ञान था, कुछ भावुकता, कवित्वं और कुछ आवेश। यार लोग सुन रहे थे; हँस रहे थे, फड़क रहे थे। वह मित्र सुलोचना का आपे से बाहर होकर नख-शिख-वर्णन कर रहे थे। एकाएक एक दूसरे मित्र में कहा—"उस्ताद! इस रूप की प्रदर्शिनी में सुलोचना के जोड़ की कोई चीज़ टटोली जाय।" एक ज़ोर के ठहाके के साथ प्रस्ताव का जोरों से अनुमोदन और समर्थन हुआ। मडली सुलोचना की एक प्रतिमूर्ति की तलाश में प्रदर्शिनी में घूमने लगी। वे लोग प्रत्येक स्त्री को, युवती को, कुमारी को देखने—अपनी नज़रों में तोलने लगे।

एकाएक वसंतलाल चिल्ला उठे। जिसे देखकर वह चिल्लाए थे, उसने चौककर उनकी ओर देखा—आँखें चार हुई, और फिर झुक गईं मित्रों ने पूछा—"क्या हुआ?" बसतलाल ने एक युवती की ओर संकेत किया। सचमुच वहाँ ५ साल पहले की सुलोचना खड़ी अपनी माधुरी बखेर रही थी। वही कद, वही रंग-रूप वही सुडोल शरीर, वहीं रसीली आँखे, वही मुस्किराते हुए होठ।'

युवती की अवस्था १९-२० वर्ष की थी। उसे देखकर मिश्र-मडली स्तभित रह गई! ऐसा मनोहर रूप रंग, शरीर सदा देखने को नहीं मिलता। सुंदरी किसी दूकान पर एक जरी-कोर की सफेद साड़ी खरीदने में व्यस्त थी। साथ में माता और एक नौकर था। मित्रों की पार्टी दूर ही से इस रूप-सरिता का रस-पान करने लगी। बसंतलाल के हृदय के किसी अज्ञात स्थल पर एक नवीन वेदना उत्पन्न हुई। वह विकल होकर और भी गंभीरता से उसे देखने लगे। कुछ ही देर यह मूक, किन्तु चचल अभिनय हुआ होगा कि किसी ने पीछे से बसंतलाल के कंधे को छुआ। देखा, उनके चिरपरिचित पंडित धरानन्द हैं। दोनों मित्र मिले। कुशल प्रश्न के बाद पंडितजी का ध्यान उस परिवार की ओर गया, जिस पर मित्र मंडली के नेत्र भ्रमर की भाँति मँडरा रहे थे। उन्होंने कहा—"अरे, माताजी हैं।" वह आगे बढ़े। माताजी से मिले, और बसंतलाल को बुलाकर उनसे मिलाया। परिचय दिया, तारीफ़ की।

माताजी ने कहा—"मुझे तो पढ़ने-लिखने का समय नहीं मिलता, कितु मेरी कन्या आपके लेख बड़े चाव से पढ़ती रहती हैं। आपसे मिलने से बड़ा आनन्द हुआ।"

उन्होंने बसतलाल का कन्या से भी परिचय करा दिया। फिर दोनों मित्रों को चाय का निमत्रण देकर आगे बढ़ गई। बसंतलाल ने सब कुछ पा लिया।

(३)

हुआ ही, साथ ही बहुत-सी गप-शप भी हुई। बसंतलाल ने देखा, हेमलता केवल अद्वितीय सुंदरी ही नहीं, असाधारण बुद्धिमती और विदुषी भी हैं। पीछे उन्हें यह भी मालूम हो गया कि वह बी° ए° की तैयारी में हैं।

कन्या भी बसंतलाल के रूप-गुण, सरलता, और भावुकता से बहुत प्रभावित हुई। उसकी आँखों के लजीले भाव, मद-मंद हँसने की अदा और लण क्षण पर गोरे-गोरे गालों पर खेल करने वाली लाली ने बसंतलाल को कुछ और ही तत्व समझा दिया। बसंतलाल की आत्मा मानो झकझोरी-सी गई। वह कुछ विकल, कुछ चंचल और कुछ अप्रतिभ-से होकर उस दिन वहाँ से उठ आए, पर उस चितेरी की चितवन की कूंची से जो चित्र चित्त पर चित्रित हो गया था, वह मिटाए नहीं मिटता था।

परन्तु मिलने और आने-जाने का रास्ता तो खुल ही गया था। वह खुला ही रहा। प्रायः प्रत्येक संध्या उनकी वहीं बीतती कभी-कभी भोजन भी वहीं होता। अनेक बार उन्हें बालिका से एकांत में बात करने का अवसर भी मिला। अतत उन्होंने अपना निवेदन कन्या से कह दिया। कन्या ने लजीले स्वर मुश्किराकर कहा—"जहाँ माता-पिता विवाह कर दे, वहीं ठीक हैं।" उसकी लाज और मुस्कुराहट की गंगा-यमुना के बीच अनुमति को सरस्वती छिपी हुई सरसा रही थी।

बसंतलाल ने मानो चाँद पाया। उन्होंने धरानदजी के द्वारा सदेश भेजा। इस संदेश पर विचार होने लगा। उनके कुल-वंश और आय-व्यय की जाँच होने लगी। अंत मे एक दिन कन्या की माता ने कह दिया—"और सब तो ठीक है, पर इनकी आमदनी यथेष्ट नहीं, यही बात विचारणीय है।"

बसंतलालजी की आय दो सौ रुपए माहवार थी। यही उनकी सपत्ति थी। इसमें संदेह नहीं कि अपनी मौजूदा आमदनी को लेकर वह रायसाहब की अमीरी में पली पुत्री हेमलता को सुख से नहीं रख सकते थे। पर यह बात उन्होंने हेमलता से कह दी थी, और हेमलता ने उन्हें आश्वासन दिया था—"हम लोग सीधे-सादे ढंग से रहेंगे, लिखे-पढ़गे, काव्य और साहित्य में मस्त रहेंगे, दुनिया को हेच समझेंगे, मैं धन-दौलत नहीं चाहती, तुम्हें प्यार करती हूँ। और, ईश्वर चाहेगा, तो हमारी आमदनी बढ़ते देर न लगेगी। मै विवाह रुपए से नहीं, तुमसे करना चाहती हूँ।"

परन्तु यह सब व्यर्थ हुआ। बसंतलाल की बात स्वीकार नहीं की गई। हेमलता की माता का हठ थी कि २५ हजार मूल्य की जायदाद मेरी लड़की के नाम जो कर देगा, उसी के साथ मैं शादी कर सकती हूँ। यदि वसंतलाल हेमलता से विवाह करना चाहते हों, तो (२५,०००) का एक मकान खरीद कर पहले उसके नाम लिख दे। जो मेरी कन्या को आलीशान मकान में नहीं रख सकता, वह उसे पाने के योग्य कदापि नही।

वसतलाल अति मर्माहत होकर लाहौर से चले आए। चलती बार उन्होंने हेमलता से अंतिम भेंट की, उस में दोनों आंसुओं काही विनिमय कर सके।

(४)

बारह बरस बाद।

वसंतलाल अब हिन्दी-साहित्य-आकाश में सूर्य की भांति देदीप्यमान थे। लाहौर में अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन की धूम थी। बसतलाल सभापति बनकर आए थे उनके रूप-रंग मे बहुत अन्तर हो गया था। अपनी लिखी पुस्तकों से उन्हें हजारों रुपए महीने की आय हो रही थी। कई प्रांतों में उनकी किताबे एम° ए° तक कोर्स में थीं। बड़े-बड़े राज परिवारों में उनकी प्रतिष्ठा थी।

लाहौर नगर में उनका जुलूस बड़ी शान के साथ निकला। सम्मेलन सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। आखिरी दिन उन्हें एक पुर्जा मिला। उसमें केवल इतना लिखा था—"पत्र-वाहक के साथ कुछ क्षणों के लिये आइए। अवश्य।"

वसंतलाल ने पत्र वाहक को देखा, एक वृद्ध नौकर था। पूछने पर उसने बताया, बीबीजी ने बुलाया हैं। बीबीजी कौन हैं? यह वह नही बता सका। उन्होंने इस कार्य के औचित्य पर कुछ विचार किया, उन्हें कौतूहल हुआ, और अंत में उन्होंने वहाँ जाने का निर्णय किया। वह उसके साथ चल दिए।

एक गली में वह उन्हें ले गया। मकान में घुसकर उन्होंने देखा, मकान साधारण और पुराना है, किन्तु खूब साफ हैं। दालान में दो कुर्सियों और एक मेज़ पड़ी थीं मेज़ पे एक साफ कपड़ा बिछा था। भृत्य ने कुर्सी पर बैठने को कहा। बंसतलाल के बैठ जाने पर वह भीतर चला गया, और थोड़ी देर में कुछ फिल लाकर धर दिए। मन न होने पर भी बंसतलाल ने फल खाए। वह समझ ही न सकते थे कि मामला क्या है।

उन्होंने भृत्य से कहा—"मुझे जिन्होंने बुलाया हैं, वह कहाँ हैं? मैं अधिक ठहर नही सकता।"

बूढ़े ने कहा—"वह क्षण-भर में अभी आती हैं।"

क्षण भर में वह आई। वंसतलाल ने पहचान लिया। हेमलता हैं। वह उठ खड़े हुए।

उन्होंने पूछा—"आप? मैंने यही सोचा था।"

हेमलता ने शांत, स्वर में कहा,—'वैठिए, आप प्रसन्न तो हैं?"

वसंतलाल ने देखा, वह दुबली, फीकी; रोगी हो रही हैं। उसके रसीले नेत्रों का वह तेज, सदा हँसते हुए चेहरे की वह चमक सब मिट चुकी हैं। आँखों के चारों ओर कालौस दौड़ रही हैं। वह रूप-लावण्य जाता रहा हैं।

उनका कलेजा हिल गया। हेमलता की बात उन्होंने सुनी नहीं। उन्होंने पूछा—"परन्तु आपको मैं इस दशा में देखने की स्वप्न में भी कल्पना नहीं करता था!"

हेमलता ने हँस कर कहा—"आप साहित्यक हैं अवश्य, किन्तु सभी बातों की कल्पना-तो आप कर नहीं सकते। कवि की कल्पनाएँ तो काल्पनिक होती हैं। वस्तु-दर्शन तो दुखियों को ही होता है।"

बसन्तलाल उस हँसी को न देख सके, उनकी आँखे भर आईं हेमलता भी रोई।

बसंतलाल ने उसे अपने जीवन की व्यथा कहने को विवश किया। उन्होंने पूछा—"तुम्हारे पति कहां हैं?"

"जेल में। कुछ जाल करने के जुर्म में उन्हें ७ वर्ष की जेल हुई हैं। अभी २ वर्ष ही व्यतीत हुआ हैं।"

"मैंने सुना था, उनकी बहुत जायदाद थी, और वह बड़े आदमी थे। किसी स्टेट में सेक्रेटरी थे।"

अपनी जायदाद मेरे नाम लिखकर ही उन्होंने मुझसे व्याह करने में कामयाबी हासिल की थी, क्योकि माताजी की कमजोरी को उन्होंने ठीक समझ लिया था। पर पीछे मालूम हुआ कि जायदाद उनकी सब पहले ही रेहन थी, उन पर काफी कर्ज़ था। उनका वह हिबेनामा पीछे नाजायज ठहरा, सब जायदाद नीलाम हो गई। कुछ भी न वचा। उन्हें शराब पीने की अजहद आदत थी, और शराब के साथ जो दुर्गुण हो जाते हैं, वे भी उनमें आ गए थे। नौकरी जाती रही। मुझे माताजी से जो कुछ मिला था, वह भी खर्च हो गया।"

"माताजी कहाँ हैं?"

उनका तो स्वर्गवास हो गया।

बसंतलाल का कलेजा मुँह को आ रहा था। उन्होंने कहा—"क्षमा करना, मैं जानता चाहता हूँ कि आप की गुज़र कैसे होती हैं? रंग-ढंग से तो कुछ-कुछ समझ गया हूँ।"

हेमलता ने ठंडी सांस भरकर कहा—"यहां कन्या पाठशाला में एक नौकरी मिल गई है। १००) मिलते हैं। पाँच बच्चे हैं। उनकी पढ़ाई में भी काफी खर्च हो जाता हैं।"

बसंतलाल चुपचाप कुछ सोचने लगे। उन्होंने आँख उठाकर हेमलता को देखना चाहा, पर देख न सके।

हेमलता ने हँस कर पूछा—"वह कैसी हैं? कभी दिखलाइगा नहीं?"

बसंतलाल भी हंस दिए। उन्होंने एक बार हेमलता की ओर देखा, और फिर अन्यत्र देखते हुए कहा—"विवाह मेरे भाग्य में न था, लता। मैंने जीवन भर अविवाहित रहने का प्रण करके ही लाहौर छोड़ा था।"

हेमलता के सुन्दर होठ काँपने लगे। उसने उसी भाँति काँपते हुए कहा—"क्यों?"

"क्या भूल गई? उस रोज़ हम लोगों ने क्या प्रतिज्ञा की थी? तुमने कहा था, मर्द कभी प्रतिज्ञा नहीं निबाहते। उस समय मैं चुप हो गया था। आज भी चुप हूँ। जीवन के अन्त में यदि मिल सकोगी, तो कहूँगा—देखो यह मर्द की प्रतिज्ञा!"

हेमलता की आँखो से भर-भर आँसू बहने लगे। वह बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर कुछ कह न सकी। वह बड़ी देर तक रोती रही।

कुछ देर बाद साहस करके बसंतलाल ने कहा—"लता, क्या तुम्हारे मन मे मेरा कुछ आदर हैं?"

"आदर, सिर्फ आदर?" हेमलता ने आँसूभरी आँखों से उन्हें देखकर कहा।

बसंतलाल ने इस बार धरती की ओर ताककर कहा—"हाँ लता, सिर्फ आदर ही की बात मैं पूछता हूँ, और कोई बात जवान पर न लाना।"

हेमलता ने कपित स्वर में कहा—"मैं आपका देवता की भाँति आदर करती हूँ।"

"तब तुम मेरी बात सुनो। पति के लौट आने तक मेरा कुछ धन ग्रहण कर लो।"

हेमलता के आँसू सूख गए। उसने कहा—"मेरा पति पतित तो हैं, पर मैं पति पद की प्रतिष्ठा की रक्षा करूँगी। आपका धन मैं नहीं लूंगी। मुझे कोई कष्ट नही हैं। परन्तु आप मेरी एक बात मानें, तो कहूँ।

"कहो।"

"आप अवश्य ही व्याह कर ले। मैं विनती करती हूँ, हा-हा खाती हूँ, यदि मेरा दुख दूर किया चाहते हो।"

वह धरती मे पछाड़ खाकर गिर पड़ी, फूट-फूटकर रोने लगीं!

बसंतलाल का धैर्य च्युत हो रहा था। उन्होंने कहा—"उठो लता, मैं तुम्हें छू नहीं सकता। मेरे सामने इतना न तड़पो तुम्हारा यह वेश ही मेरे दर्द के लिये बहुत हैं। अपना अनुरोध भी वापस ले लो। जिस प्रतिष्ठा की रक्षा के विचार से तुम मेरा धन नहीं ग्रहण करतीं, उसी प्रतिष्ठा की रक्षा के विचार से इस जन्म में मैं विवाह नहीं कर सकता। हेमलता, ईश्वर जानता हैं, मैं तुम्हारी अपेक्षा अधिक सुखी हूँ। अफसोस यही हैं, तुम्हें उस सुख में से कुछ भी नहीं दे सकता।"

हेमलता कुछ देर धरती में पड़ी रही। बसंतलाल कुछ देर सोचते बैठे रहे। फिर आकर खडे हुए। उन्होंने कहा—"उठो लता तुम महावीर स्त्री हो, तुम धन्य हो। मुझे हँसकर बिटा दो। मैं जा रहा हूँ।"

हेमलता उठ खड़ी हुई। उसने आँचल सिर पर खिसकाकर ठीक किया। उसकी आँखों मे वेदना और करुणा नाच रही थी।

उसने कहा—"जा ही रहे हो?"

"हाँ लता।"

"कभी पत्र लिखूँ?"

"नहीं ऐसा कभी न करना।"

"कभी मिलोंगे?"

"नहीं, कभी नही।"

"कभी नहीं।"

"नहीं, कभी नही।"

कुछ देर वह चुप रही। उसके नेत्रों में एक अद्भुत ज्योति चमकी। उसने धरती पर बैठकर बसंतलाल के चरण छुए, माथा टेका, फिर कहा—

"आशीर्वाद तो दोंगे?"

"सदैव।"