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आवारागर्द/१०-वह कहे तो?

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आवारागर्द
आचार्य चतुरसेन शास्त्री
१० वह कहे तो

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ १११ से – ११८ तक

 

 

 

वह कहे तो?

अनारकली में उस की एक आलीशान कपड़े की दूकान थी। वह एक उच्च वंश का खत्री था। उसकी आयु २२ वर्ष के लगभग होगी। गोर रग, छरहरा बदन, काली, चमकीली आँखे, ऊँची नाक और मोती-से दाँत थे। वह एक लखपती व्यापारी का बेटा था। एकलौता कहना चाहिये। घर से अकेला था। सबका प्यारा, आँखों का तारा। उसकी की शिक्षा बहुत मामूली थी। पुराने विचार के धनी लोग यह समझते हैं कि लड़कों को नौकरी-पेशे के लिये पढ़ाया जाता हैं। पिता ने उसे इतनी ही शिक्षा देना काफी समझा, जिससे वह दूकान के काम-काज और हिसाब किताब में उसकी मदद कर सके। फिर भी वह बुद्धिमान् और प्रतिभा-सपन्न था, उसकी प्रकृति गंभीर थी, और वह निरतर कुछ सोचा करता था। फिर भी उसने दूकान के काम को अनायास ही सँभाल लिया। वह चतुराई और तत्परता से सब काम झटपट कर डालता था। उसके विनयी स्वभाव और सद्वयवहार से ग्राहक और नौकर, सभी सतुष्ट थे। वह सबके विश्वास, प्रेम तथा आदर का पात्र था। उसके पिता को उस पर गर्व था। उसने अपने जीवन भर की कमाई वह दूकान उसे सौप दी थी। वह दूकान पर आता ज़रूर था, परन्तु गद्दी पर बैठा-बैठा सिर्फ माला ही जपा करता था। कार-बार सब कुछ बंसी के हाथ था। हाँ उसका नाम बंसीधर था।

वसी मे एक असाधारण दोष था। उसको दोष कहना चाहिए या नहीं, यह नही कहा जा सकता। परन्तु उसका पिता—जो सब, से अधिक प्यार करता था, और उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाता था—उसके इस दोष की ढोल पीटकर निदा किया करता था, इसलिये हमे भी उसे दोष ही मानना पड़ा। परन्तु आजकल के अशिक्षित नवयुवक उसे दोष नहीं, गुण कहते हैं। हाँ, बंसी जैसे अल्पशिक्षित नवयुवक के लिये यह एक दोष ही समझा जा सकता था, क्यों कि धनी बाप के बेटे के लिए यह एक नई सी बात थी। वह दोष यह था कि वह स्त्रियों से दूर भागता था, और ब्याह के नाम से भड़कता था। मां-बाप व्याह की चर्चा चलाते, तो वह रूठकर खाना-पीना छोड़ देता या रोने लगता। और, दूसरे आदमी अगर इस चर्चा को छेड़ते, तो वह छूटते ही गालियाँ देता और कभी-कभी खीजकर मारने को दौड़ता। फलतः विवाह उसकी एक चिढ़ हो गई थी। विवाह के नाम पर मा-बाप उसकी निदा किया करते और यार-दोस्त चिढ़ाया करते थे।

(२)

दिन बीत रहे थे, और यह बात पुरानी हो रही थी। गर्मी के दिन थे, संध्या का समय। दों स्त्रियों धीरे-धीरे आई, और दूकान पर बैठ गई। दूकान पर बहुत भीड़ थी, बंसी को ग्राहकों से फ़ुर्सत नहीं थी। उन स्त्रियों में एक वृद्धा थी, और दूसरी अज्ञात-यौवना। पंजाब के स्वास्थ्य-वर्द्धक जल-वायु में पलने के कारण उसके चेहरे का रंग सेब की भाँति रंगीन हो रहा था। उस गोरे, सुडौल और आरोग्यता की लाली से भरे हुए चेहरे पर आम की फाँक के समान बड़ी-बड़ी आँखे और कोमल, नोकदार नाक बहुत ही शोभा पा रही थी। बालिका के शरीर में यौवन ऊधम मचा रहा हैं, इसकी मानो उसे कुछ खबर ही न थी। वह अपने चिर-सहचर शैशव का पल्ला पकड़े, मानों उस दूकान पर चली आई थी। वह अपनी दादी के साथ कुछ कपड़ा लेने आई थी। उसे इस बात का खयाल भी न था कि उसका यह छलिया सहचर चाहे जब उसे धोका दे सकता हैं, और अब उसी के भरोसे हाट बाजार मे घूमना उसके लिये निरापद् नही हैं।

बंसी ने उसकी एक झलक देखी। उसे ऐसा मालूम हुआ, जैसे उसकी एक पसली अपनी जगह से हिल गई हो। एक दर्द जो उसके जीवन की नई चीज थी, उसके हृदय में पैदा हुआ। उसका सारा शरीर पसीने से भर गया। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे वह अभी अपनी जगह से गिर जायगा। वह लड़खड़ाता हुआ उठा, और बालिका के बिलकुल नज़दीक आकर बोला—"क्या चाहिए तुम्हें?" उसके नथने फूल गए, और साँस चढ़ गई। उसकी आँखों से ज्वाला की लहर-सी निकलने लगी। ऐसा प्रतीत हुआ, मानो उसे छू लेगा। बालिका बोली—नही। अपरिचित युवक के ऐसे व्यवहार से घबराकर वह सहमी हुई-सी अपनी दादी की ओर देखने लगी। युवक ने बिलकुल पागल की तरह एक के बाद एक थानों का ढेर लगाना शुरू कर दिया। उसके हाथ मशीन की भाँति चल रहे थे। ढेर बढ़ता ही चला जा रहा था। उसकी साँस के साथ ज्वाला निकल रही थी, और हृदय की धुकधुकी बेतरह बढ़ गई थी। उसके पिता और नौकर-चाकरों ने आश्चर्य चकित होकर युवक की इस चेष्टा को देखा। वृद्धा ने क्रोध से लाल होकर, बालिका का हाथ पकड़कर कहा—"चल सुहागी, यहाँ ठहरने का कोई काम नही, ये लुच्चे हैं, दूकानदार नहीं।" बुढ़िया क्रोध की विप-भरी दृष्टि से युवक को देखती हुई, लड़की को एक प्रकार से खींचती हुई उठ कर चल दी। उसके जाने पर बंसी के बाप ने गुस्से से चिल्लाकर कहा—"तुम्हारी यह नालायकी खूब रही। किसी की बहू-बेटी की इज्जत-आबरू अब तुम्हारी दूकान पर आने पर बचना मुश्किल हैं। मेरे ही सामने तुम्हारी यह हरकत।" बूढ़ा क्रोध मे आकर उठा, और बंसी को दोनों हाथ से झकझोर डाला। परन्तु बुड्ढे को ज्यादा ज़ोर न लगाना पड़ा, बंसी गिरकर बेहोश हो गया, उसकी आँखे पलट गई, और साँस ज़ोर-ज़ोर से चलने लगी।

(३)

कई महीने के उपचार से बंसी कुछ स्वस्थ हुआ। जब-तक वह बदहवास रहा, तब तक अस्फुट स्वर से सुहागी का नाम लेकर कभी हँसने लगता, और कभी इधर-उधर देखने लगता। कभी वह किसी वस्तु या आदमी को लक्ष्य करके और उसी को सुहागी समझकर इस तरह बाते करता, मानो वह दूकान पर बैठा हुआ कपड़े का थान बेच रहा हैं। वह हँस-हँसकर थानों की तारीफ करता, और कहता, ले जा सुहागी, यह तेरे ऊपर खूब-सोहेगा।

होश में आने पर बंसी ने फिर सुहांगी का नाम नहीं लिया। धीरे-धीरे वह फिर अपनी दूकान के काम में लग गया। परन्तु उसका चेहरा पीला ही पड़ता गया, और उसकी आँखे गढ़े में धँस गई। उसका खाना-पीना, बातचीत, सब कुछ असंयत हो, गया। मानो वह किसी गूढ़ जगत् में विचर रहा हो। माता-पिता ने बहुत समझाया। विवाह की चर्चा फिर जोरों से चली, पर बंसी ने सुनी अनसुनी कर दी। सुहागी की चर्चा अब सर्वत्र फैल गई हैं। बहुत लोग नहीं जानते कि सुहागी कौन हैं, पर अब रास्ता चलते भी लड़के उसे चिढ़ाते हैं, बंसी अब चिढ़कर किसी को गाली नहीं देता, न मारने चलता हैं, वह केवल मुस्करा देता हैं। वह मुस्कराहट विचित्र सी हैं। उसमें वेदना और उन्माद, दोनो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं।

बंसी की विनय और सहृदयता वैसी ही हैं। वह ठीक समय पर काम भी सब करता हैं, पर उससे भूले बहुत होती हैं। वह अब उतना बुद्धिमान् कुशाग्र-बुद्धि नहीं रह गया।

सुहागी कौन हैं, कहाँ रहती हैं, यह जानने की बंसी ने कभी चेष्टा नही की। एक दिन उसके एक मित्र ने कहा—"बंसी, एक बात सुनोगे?"

"क्या बात?"

"वही सुहागी की बात।"

बंसी मुस्किराकर चुप हो गया।

"सुनोगे?" मित्र फिर कहा।

"कहो।"

"उसका व्याह कब हो रहा है।"

"व्याह?"

"हाँ।"

"किसका?"

"सुहागी का।"

"हुश।" बंसी ने मुस्किराकर मुँह फेर लिया।

मित्र ने फिर कहा—

"क्या विश्वास नही?"

"होगा।" बंसी का स्वर धीमा पड़ गया, जैसे मरते हुए आदमी का हो जाता है।

मित्र ने कहा—"बारात आई हैं। दूल्हा देखोगे?"

"ना।"

"क्या हानि है?"

"ना।"

"सुहागी को देखोगे?"

"ना।"

"एक बार देख न लो?"

"ना।"

मित्र चला गया।

 

(४)

छ: वर्ष बीत गये। बंसी की हालत में कुछ भी सुधार नहीं हुआ। सुहागी का ब्याह हो गया। वह दो बच्चों की माँ है। बंसी की लगन उससे छिपी नहीं। उसकी सहेलियां उसे पहले बंसी की बात कहकर चिढ़ाती थीं। वह उन्हें गाली देती और गुस्सा होती थी। अब वह सिर्फ ज़रा हँस-भर देती हैं। वह बंसी के विषय में किसी से कुछ नहीं पूछती, पर सदैव बंसी के विषय में कुछ-न-कुछ जानने को आतुर रहती हैं। उसकी वह आतुरता अत्यंत गोपनीय है।

वह एक वर्ष बाद फिर लाहौर आई। उसकी सहेलियों ने बंसी के हालत बताए। सुहागी ने एक बार साहस करके अपनी अन्तरंग सखी बुंदन से कहा—"बुंदन, चल, जरा उस तेरे बंसी को देखें तो कैसा हैं।"

"देखोगी? पर अब वह पहले-सा छैल नहीं है।"

"देखूँगी तो भी।"

"कपड़ा खरीदना पड़ेगा।"

"खरीदूँगी।"

"और जो वह उसी तरहॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱ"

"चाहे जो हो, देखूँगी जरूर।"

तीन-चार सखी चलीं—इठलाती, ठठोली मारती। सुहागी ने बढ़िया चोली कसी जरी-काम का सलवार पहना, गोटे की ओढ़नी ओढ़ी। सब गहने सजे। वह सखियों के साथ बंसी को देखने चली। सब हँसती थीं, वह भी हँसती थी। सब कहतीं, वह काठ का उल्लू हैं। सुहागी भी उनके स्वर में स्वर मिलाती थी।

अनारकली में सब उसकी दूकान के सामने आ खड़ी हुई। सुबह का वक्त था। बंसी वहां अकेला ही बैठा था। उसने सुहागी को न पहचाना। वह अब अल्हड़ बालिका न थी, दो बच्चों की माता थी। वह अब कुमारी न थी, युवती थी।

बुंदन ने आगे बढ़कर कहा—"पहचानते हो?"

बंसी ने अकचकाकर कहा—"किसे?"

"सुहागी को।"

"सुहागी को? कौन हैं सुहागी?"

कनक ने मुस्किराकर, उँगली के संकेत से बता कर कहा—"वह सुहागी है।"

"वह।" बंसी की मानो श्वास रुक चली।

कनक ने प्रगल्भता से कहा—"सदा सुहागी-सुहागी बका करते हो, दे दो न यह थान उठाकर उसे।"

बंसी ने सामने पड़ा हुआ मखमल का थान उठाकर सुहागी के आगे धर दिया।

कनक ने कहा—"बस, एक ही थान?"

बंसी ने थानो के ढेर लगा दिए।

सुहागी बोली नहीं, हँसी भी नहीं। वह चुपचाप वहां से चल दी। थान उसने छुए भी नहीं। बंसी मंत्रबद्ध सर्प की

भांति पीछे-पीछे चल दिया। नगर के गली-बाजार-समाप्त हो गए। रावी का किनारा आ गया। सामने रावी का गहरा जल उछलता हुआ जा रहा था।

कनक ने पीछे फिरकर कहा—"हमारे पीछे क्यों लगे हो जाओ अपना रास्ता देखो।"

बंसी ने सूखे कठ से सुहागी की ओर देखकर कहा—"वह कहे, तो लौट जाऊँ"

"वह कहे, तो रावी में कूद पड़ोगे?"

" वह कहे, तो"

हठात् सुहागी की जाबन खुली, उसने कहा—"कूद पड़ो।"

उसी क्षण बंसी अगम जल में था, और दूसरे क्षरण सुहागी भी। दोनों प्रेम-जल-समाधि में लीन थे॥

पंजाब की युवतियाँ रावी के तट पर जब जाती हैं, वे प्रेमियों के गीत गाती हैं। कदाचित दोनों की आत्माये जल-में से उन्हें सुन-सुनकर प्रसन्न होती हैं।