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आवारागर्द/८-जापानी दासी

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आवारागर्द
आचार्य चतुरसेन शास्त्री
८ जापानी दासी

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ ९१ से – ९८ तक

 

 

 

जापानी दासी

यह घटना सन् १९१७ की है। यूरोप का घनघोर महायुद्ध चल रहा था। सारे संसार पर लोहू और लोहे का रंग चढ़ा हुआ था। जर्मनी का आतंक मित्र-राष्ट्रों की नींद हराम किए था। उस समय जापान पर मित्र-राष्ट्रों के, खासकर अग्रेज़ों के, प्राण अटके थे। ग्रेट-ब्रिटेन, जो मित्र-राष्ट्रों का केन्द्र था, जापान की करुणाकोर का दीन भिखारी था। जापान के भ्रू-भंग होते ही एशिया से ब्रिटेन का नाम-निशान मिट सकता था।

जापान ने अपना महत्त्व समझ लिया था। जापान का टापू जैसा क्षुद्र और महासमुद्रों की जल राशि में मग्न एक नगण्य भूमि खंड है, वैसे हीं जापान के निवासी भी नाटे-ठिगने और पीत वर्ण होते हैं। वे इस समय लोहे के फौलादी आदमियों की भांति पृथ्वी-भर में अपने व्यापार साम्राज्य का विस्तार करने पर तुले थे। उनके चारों ओर चांदी थी। अमेरिका, योरोप, एशिया और अफ्रीका, सभी तरफ के कला-कौशल व्यापार भंग थे। यातायात आतंक पूर्ण था। समुद्रीय मार्ग में टारपीडो और विध्वसकों का जाल बिछा था। इस जाल को भेदन करके किसी भी शत्रु-मित्र के पोत का बच निकलना संभव न था। समुद्र में मानों आग लग रही थी। योरोप ने महामद्य पिया था, वह मतवाले की भांति अपना ही रक्त पी रहा था। सुदूर पूर्व की मुर्दार और निस्तेज जातियां भय, शंका और चिन्ता से भरी हुई मत्त योरोप का यह रंण-तांडव देख रहीं थी।

व्यापार ही इस युद्ध का प्रारण हैं, व्यापार ही इसका मूल कारण हैं, यह जापान समझ गया था। वह छोटी-सी पीली जाति, पौनिया नाग की भांति लहरा लहरा कर इस सुयोग से लाभ उठा कर अपने उन्मुक्त व्यापार के लिये विश्वब्यापी द्वार का उद्घाटन कर रही थी। महान रण-पंडित और कट्टर राजनीतिज्ञ लायड जार्ज—जो उस समय मित्र-राष्ट्रों के भाग्य विधाता थे, जापान को अपना परम मित्र घोषित कर रहे थे। वह समझ गये थे, इसी मित्र की बदौलत इस कठिन समय में, एशिया मे ब्रिटिश तलवार का आतंक कायम रक्खा जा सकता हैं।

(२)

राजधानी टोकियो मे लाखों मनुष्य पागल कुत्ते की भांति दिन भर और आधी रात तक दौड़ते रहते थे। साधारण कुली से बड़े-बड़े व्यापारियों तक की यह हालत थी। लोगों को घरों पर जाकर खाने की फुरसत न थी। रुपये का मेह बरस रहा था, किसी चीज़ की मानो कोई दर ही न थी। मिट्टी सोने के मोल बिक रही थी। उस समय जापान सिर्फ एक दूकान थी। और सारा संसार इसका खरीदार था। भोजन के समय होटलों में भीड़ देखने योग्य होती, पर प्रबन्ध और व्यवस्था भी देखने योग्य थी। सभी की सभी इच्छाएं पूर्ण होतीं थीं।

जापान में रहते मुझे बीस वर्ष हो गये थे। जापान की नस-नस से वाकिफ था। मेरे जीवन का मुख्य भाग जापान में व्यतीत हुआ था। जापान ही मेरा घर था। मैं अविवाहित ही रहा। घर से दरिद्रदेव की लात खाकर बचपन हीं में भाग निकला था। यहां विदेश मे लक्ष्मीं की ठोकरे खाने से इतनी फुरसत न मिलती थी कि देश जाकर किसी कन्या-भार-ग्रस्त पिता का कुछ उपकार सकूं। विदेशी रमणी को पत्नी बनाना ठीक नहीं समझा। जवानी की आंधी आई, और वासना के टिम-टिमाते स्नेह-हीन दीपक को एक ही झोंके से बुझाकर चल दी। जीवन अन्तिम रात्रि के शांति वातावरण की भांति बीत रहा था, मन और इन्द्रियों की चंचलता धीमी पड़ गई थी। हृदय अलसाया पड़ा था। सब काम आप ही चल रहा था। रुपयों का ढेर छमाछम नाचता हुआ आप ही मेरे ऊपर आ गिरता था, मुझे कुछ भी न करना पड़ता।

मेरे घर में मुझे छोड़ कर मेरी एक दासी हैं। उसे मैं एक दिन बाजार की एक गली से ले आया था। यह वहाँ उस दिन कुछ रुपया कमाने की इच्छा से अपने यौवन का सौदा सड़क पर बखेरे खड़ी थी। मुझे युवा और सपन्न देख इसने आँखों ही आँखों में मुझे अपने सौदे की तरफ अकर्षित किया। मैने बाते की। और, जाना कि पिता का कर्ज चुकाने को यह कुमारी बालिका आज अपना कौमार्य बेचने आई है। इसका पिता एक किरानी का क्लर्क था। मैं उसके साथ जाकर उससे मिला। कुल सौ येन की उसे जरूरत थी, वह मैने उसे दिए, और सौ येन वार्षिक वृति पर मैंने उसे नौकर रख लिया। यह आज से ३ साल पूर्व की बात हैं। तब से दिन रात मेरे घर रहती हैं। घर का सब काम करती, भोजन बनाती, सफाई करती, कपड़े धोती ओर मेरी सब वस्तुओं को सँभालती हैं। मै यह भूल गया हूँ कि वह मेरी दासी हैं।

इस बीच में मैंने उसे कभी विनय-हीन नहीं देखा। वह सदा हँसती हैं। अपने काम में उसने कभी प्रमाद नहीं किया। वह बिजली की भांति फुर्तीली हैं। उसने कभी मुझे असंतुष्ट नहीं किया। वह मुझे स्वामी कहकर पुकारती हैं, और मैं उसे उसका नाम लेकर। कभी-कभी प्यार मे आकर मैं उसे 'बिजली' कहता हूँ। बिजली का अर्थ मैंने उसे जापानी भाषा में समझा दिया वह इस हिन्दोस्तानी नाम से बहुत खुश है। जिस दिन मैं उसे इस नाम से पुकारता हूँ, वह समझ लेती है, आज मैं उस पर बहुत प्रसन्न हूँ। और, वह उस दिन खूब गुन-गुनाकर गाती हैं, मेरे बिछौने पर नई चादर बिछाती है, तकिए पर सुगंधित सेट छिड़क देती हैं, और मैं शयन करने जाता हूँ, तब वह द्वार पर खड़ी होकर मधुर हास्य से, धीमे स्वर में, बत्ती बुझा देने की आज्ञा माँगती हैं। आज्ञा मिलने पर बत्ती बुझाकर, दुःख की हास्य-रेखा की भाँति अपने सोने के कमरे में चली जाती हैं।

(३)

पंजाब की एक बड़ी फ़र्म से हमारा व्यापार है। वह फ़र्म रेशम की बड़ी करारी फ़र्म हैं। महायुद्ध के कारण भारत मे रेशम के व्यापार को चार चाँद लग रहे हैं। माँग के मारे नाक में दम हैं। सुविधा के ख्याल से इस फ़र्म के एक एजेंट जापान आए। वह पन्द्रह दिन से मेरे घर ठहरे हैं। वह एक ग्रेजुएट हैं। सुन्दर हैं, युवक हैं, अप-टू-डेट हैं। दांत बहुत सुन्दर हैं, बाल और भी साफ। स्त्रियों के बेहद शौकीन हैं। व्यापार की योग्यता तो जो हो, सो ठीक है, स्त्रियों की परख की भारी योग्यता व्यक्त करते हैं। वह आए तो व्यापार करने हैं, हमारा उनका व्यापार-सम्बन्ध हैं भी, पर वह बाते सदैव स्त्रियों की किया करते हैं। उनके कहने का मतलब यह कि उन्होंने भारतवर्ष मे सुना था कि जापान में लड़कियाँ सड़कों की धूल में मिली रहती हैं। यदि किसी सड़क से एक मुट्ठी धूल उठा ली जाय, तो दो-चार सुन्दर युवतियाँ उसमें से निकल आना आश्चर्य की बात नहीं। स्त्री-चर्चा मे मेरा निरुत्साह देख कर उन्हे बड़ी निराशा हुई।

मेरी दासी पर उनकी शुभ दृष्टि हैं, यह मैं उनके आने के दो-चार दिन बाद ही समझ गया। परंतु इस संम्बन्ध में कुछ कहना मैंने ठीक न समझा। मुझे विश्वास था कि उन्हें अपने गौरव और दासी को अपनी रक्षा का काफी ख्याल हैं। दासी को मैंने उनकी सत्र आवश्यकताएँ पूरी करने की खास आज्ञा दे रक्खी थी। वह बहुत ही तत्परता से उनकी ज़रूरतों को रफा करती थी। वह उनकी बातों को न समझ कर घबरा जाती ढ़ी, फिर इशारे से समझाने पर हँस पड़ती थी। उस मधुर हास को बखेर कर जब वह चली जाती, तब यह मेरे नवयुवक मेहमान बटोर कर उसे हृदय में रख लेते थे। कुछ दिन में वह बहुत सा इकट्ठा हो गया। यह तो मैं कह ही चुका कि वह बहुत हँसती थी। अब वह बिखरा हुआ हास्य उनके हृदय में जमा होकर ऊधम मचाने लगा।

(४)

मुझे इन दिनों घर में रहने की बहुत कम छुट्टी मिलती थी। मुझे प्राय दिन-दिन-भर और कभी-कभी तमाम रात बाहर रहना पड़ता था। मेरे यह मेहमान अधिकतर घर में पड़े रहते। उनका विश्वास था, दौड़-धूप की उन्हें क्या आवश्यकता हैं, उसके लिये मैं हूं ही। जापान में आकर घर में पड़ा रहना, दिन में तीन बार मछली, अडा, केक और पुलाव खाना; छः बार चाय पीना, बिजली से दीदार बाजी करना, यही उनकी कर्तव्य-दृष्टि से काफी है।

उस दिन मैं रात को लौट नहीं सकता था। मैंने फोन में इस बात की सूचना बिजली को दे दी थी। मेरे मेहमान को कोई कष्ट न हो, तथा उन्हें खाना खिलाकर सुला दिया जाय, यह भी कह दिया था। आज रात को मैं घर न आ सकूँगा, यह जानकर मेरे मेहमान की धुकधुकी बढ़ गई।

बिजली ने उन्हें सब सूचना दी। वह गरमा-गरम खाना ले आई। खाने के बाद एक कप काफी भी दे गई। इसके बाद ही जब वह उनके शयनगृह के द्वार पर बिजली का बटन पकड़कर खड़ी हुई, और मुस्कराकर बत्ती बुझाने को कहा; तो मेहमान महाशय ने लपककर, उसका हाथ पकड़कर चूम लिया। बिजली कुछ लाज, कुछ आदर से झुकी, शिष्टाचार के खयाल से नाराजी मिश्रित तनिक मुस्कान उसके होठों पर आई। वह बत्ती बुझाकर अपने कमरे में जा सोई।

वह कभी अपना कमरा बंद करके नहीं सोती थी। वह दिनभर की थकी-माँदी सो रही थी। दूध के फेन के समान उसके बिछौने पर चद्रमा की उज्ज्वल, नीली किरणे पड़ रही थीं। उसके सुनहरे बाल बिखर रहे थे, और अर्ध-नग्न वक्षःस्थल साँस के साथ उठ बैठ रहा था। गर्मी थी, और उसके शरीर पर सोने के समय की हलकी पोशाक थी।

मेरे मनचले युवक मेहमान की आँखों में नींद न थी। बिजली की लहर उनके मन मे लहरा रही थी। वह साहस करके उठे। जूता उन्होंने नहीं पहना। वह पंजे के बल ऊपर की मंजिल पर चढ़ गए। उन्हें मालूम था कि वह किस कमरे में सोती हैं। वहाँ जाकर उन्होंने बिजली का उन्मुक्त सौंदर्य आँख भर देखा। वह मुग्ध होकर देखते रह गये!

उन्होंने और भी साहस किया, वह भीतर घुस गये। द्वार बंद कर दिया, और बिजली के पलंग पर बैठ गए।

आहट पाकर वह उठ बैठी। क्षण-भर ही में उसने परिस्थिति को समझ लिया। वह उछल कर खड़ी हो गई। उसके खड़े होने के वेग और आकस्मिक धक्के को मेरे मेहमान न सहन कर सके, वह औधे मुँह गिर गए। बिजली ने लपककर बत्ती जला दी।

बिजली के प्रकाश में वह छातीं पर दोनों हाथ धरकर, दीवार से सटकर खड़ी हो गई, और क्रोध-भरे नेत्रों से घूर घूरकर उन्हें देखने लगी। उसके होठ फड़के, उसने घृणा से होठ हिलाए। और उन्हें बाहर निकल जाने का हुक्म दिया। मेहमान महशय वासना के मद्य में गड़ गये थे। वह निर्लज्ज हँसी हँसते हुए, हाथ फैला कर आगे बढ़े। उन्होंने जेब से नोटा का बंडल निकालकर बिजली के आगे डाल दिया।

बिजली ने उसे पैरों तले कुचल डाला, और दॉत पीसकर कहा—"बाहर जाओ, कुत्ता।" वह टूटी-फूटी हिंदी बोल लेती थी। मेहमान महाशय ने धृष्टता पर कमर कसी थी। वह बलपूर्वक उसे आलिंगन करने आगे बढ़े।

बिजली वहाँ से उछली! उसने पास पड़ी एक कुर्सी उनके सिर में दे मारी। उसने खिड़की खोली, बाहर झांका, और कूद गई।

(५)

प्रातः काल मेरे सेक्रेटरी ने अँधेरे ही मुझे जगाया, और घर पर कुछ दुर्घटना हो गई हैं—पुलिस घर पर आई हैं, इसकी सूचना दी। मैंने आकर देखा। पुलिस के कमिश्नर बिजली का प्रतिम बयान ले रहे हैं। उसकी पसली और रीढ़ की हड्डी चकनाचूर हो गई हैं। वह बड़े कष्ट से साँस ले रही हैं। वह रुक-रुककर बड़े धैर्य से सब घटना बयान कर रही थी। मुझे देखकर वह मुस्कराई। उसने मुझे प्रणाम किया, और अलविदा कहा। इसके बाद उसके प्राण-पखेरू उड़ गए।

पुलिस ने मेरे भी बयान लिए। मुझे सत्य-सत्य सब कुछ कह देना पड़ा। मेहमान साहब को बचाने की काफ़ी चेष्टा की गई, पर वह बच न सके। एक स्त्री की इज्जत के लूटने की चेष्टा करने तथा उसे प्राणांतक खतरे में डालने के अपराध में जापान की स्वाधीन सरकार ने उन्हें ७ वर्ष का कठिन कारागार दिया।

बिजली का एक चित्र मेरे पास है, उसे लेकर मैं देश लौट आया हूँ। वह उसी भांति मेरे साथ है, और तन-मन से मेरी सेवा कर रही है।