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कपालकुण्डला/चौथा खण्ड/७

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कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ ११० से – ११५ तक

 

:७:

सपत्नी संभाषण

“Be at peace: it is your sister that addresses you, Require Lucretia’s love.

—Lucretia.

कपालकुंडला घरसे निकलकर जंगलमें घुसी। वह पहले उस टूटे घरमें पहुँची। वहाँ ब्राह्मणसे मुलाकात हुई। दिनका समय होता तो वह देखती कि उसका चेहरा बहुत उतर गया है। ब्राह्मणवेशीने कपालकुंडलासे कहा—“यहाँ कापालिक आ सकता है, आओ अन्यत्र चलें।” जंगलमें एक खुली जगह थी, चारों तरफ वृक्ष, बीचमें चौरस, साफ और समतल था। वहाँ बैठनेपर ब्राह्मणवेशीने कहा—“पहले मैं अपना परिचय दूँ। मेरी बात कहाँ तक विश्वासयोग्य है, स्वयं समझ सकोगी। जब तुम अपने स्वामोके साथ हिजली देश से आ रही थी, तो राहमें एक यवन कन्याके साथ मुलाकात हुई थी। क्या तुम्हें याद है?”

कपालकुंडला बोली—“जिसने मुझे अलंकार दिये थे?”

ब्राह्मणवेशधारिणीने कहा—“हाँ, मैं वही हूँ।”

कपालकुंडला बड़े आश्चर्यमें आई। लुत्फुन्निसाने उसका विस्मय देखकर कहा—“और सबसे बड़ी अचरज की बात है कि मैं तुम्हारी सौत हूँ।”

कपालकुंडलाने चौंककर कहा—“हैं, यह कैसे?”

इस पर लुत्फुन्निसाने शुरूसे अपना परिचय दिया। विवाह, जातिनाश, स्वामी द्वारा त्याग, सप्तग्राम आगमन, नवकुमारसे मुलाकात और व्यवहार, गत दिवस जंगल में आना, होमकारीसे मुलाकात आदि बातें वह क्रमशः कह गयी। इस समय कपालकुंडलाने पूछा—“तुमने किस अभिप्रायसे हमारे घर छद्मवेशमें आनेकी इच्छा की?”

लुत्फुन्निसाने कहा—“तुम्हारे साथ पतिदेवका चिरविच्छेद करानेके लिए।”

कपालकुंडला सोचमें पड़ गयी बोली—“यह कैसे सिद्ध कर पाती?”

लु०—तुम्हारे सतीत्वके प्रति तुम्हारे पतिको संशयमें डाल देती। लेकिन उसकी जरूरत नहीं; वह राह मैंने त्याग दी है। अतः अगर तुम मेरे कहे मुताबिक कार्य करो, तो सारी कामना सिद्ध हो; साथ ही तुम्हारा भी मंगल होगा।

कपा०—होमकारीके मुँहसे तुमने किसका नाम सुना था?

लु०—“तुम्हारा ही नाम। वह तुम्हारी मंगल या अमंगल कामनासे होम कर रहे हैं, यही जाननेके लिए प्रणाम कर मैं वहाँ बैठी। जब तक उनकी क्रिया समाप्त न हुई, मैं वहीं बैठी रही। होमके अन्तमें छलपूर्वक तुम्हारे नामके साथ होमका अभिप्राय पूछा। थोड़ी ही देरकी बातमें मैं समझ गयी कि होम तुम्हारी अमंगलकामनाके लिए है। मेरा भी वही प्रयोजन था, मैंने यह भी बताया। परस्पर सहायता के लिए वचनबद्ध हुए, विशेष परामर्शके लिए भग्नकुटीमें गये। वहाँ उसने अपना मनोरथ कहा कि तुम्हारी मृत्यु ही उसे अभीष्ट है। इससे मेरा कोई प्रयोजन नहीं। यद्यपि मैंने इस जन्ममें पाप ही किये हैं, लेकिन मैं इतनी पतित नहीं हूँ कि एक निरपराध बालिकाकी हत्याकी कामना करूँ। मैं इसपर राजी नहीं हुई। इसी समय तुम वहाँ पहुँची। शायद तुमने कुछ सुना हो।”

कपा०—केवल तर्क ही मैंने सुना।

लु०—उस व्यक्तिने मुझे अबोध जानकर कुछ शिक्षा देना चाहा। अन्तमें क्या निश्चय होता है, यह जाननेके लिए तुम्हें एकान्तमें बैठाकर मैं गयी।

कपा०—फिर लौटकर क्यों नहीं आयी?

लु०—ठीक है। कापालिकने तुम्हारी प्राप्ति और पालनसे लेकर तुम्हारे भागने तकका सारा हाल कह सुनाया।

यह कहकर लुत्फुन्निसाने कापालिकका शिखरसे गिरना, हाथ टूटना, स्वप्न आदि सब कह सुनाया! स्वप्नकी बात सुनकर कपालकुण्डला चमक उठी; चित्तमें चञ्चलता भी हुई। लुत्फुन्निसाने कहा—“कापालिककी प्रतिज्ञा भवानीकी आज्ञाका प्रतिपालन है। बाहुमें बल नहीं है, इसलिये दूसरेकी सहायता चाहता है। मुझे ब्राह्मणकुमार समझकर सहायताकी आशासे उसने सब कहा। मैं अभी तक राजी नहीं हूँ। आगे भी राजी नहीं हो सकती। इस अभिप्रायसे मैं तुमसे मिली हूँ, लेकिन यह कार्य भी मैंने केवल स्वार्थसे ही किया है। तुम्हें प्राणदान देती हूँ। लेकिन तुम क्या मेरे लिए कुछ करोगी?”

कपालकुण्डलाने पूछा—“क्या करूँ?”

लु०—मुझे भी प्राणदान दो—स्वामीका त्याग करो।

कपालकुण्डला बहुत देर तक कुछ न बोली। बहुत देर बाद बोली “स्वामीको त्याग कर कहाँ जाउँगी?”

लु०—विदेशमें बहुत दूर। तुम्हें अट्टालिका दूँगी, धन दूँगी, दास-दासी दूँगी, रानीकी तरह रहोगी।

कपालकुण्डला फिर चिन्तामें पड़ गई। पृथ्वीमें उसने सब देखा, लेकिन कोई दिखाई नहीं दिया। अन्तःकरणमें देखा नवकुमार कहीं भी न थे, तो क्यों लुत्फुन्निसाकी राहका काँटा बनूँ? फिर बोली—“तुमने मेरी क्या सहायता की है, यह अभी समझ नहीं पाती हूँ। अट्टालिका, धन, दास, दासी नहीं चाहती। मैं तुम्हारे सुखमें क्यों बाधा दूँ! तुम्हारी इच्छा पूरी हो—कलसे इस विध्नकारिणीकी कोई खबर न पाओगी। मैं वनचरी थी, वनचरी हो जाऊँगी।”

लुत्फुन्निसा आश्चर्यमें आई। उसे इतनी जल्दी स्वीकार कर लेनेकी आशा न की थी। मोहित होकर उसने कहा—“बहन! तुमने मुझे जीवनदान दिया है। लेकिन मैं तुम्हें अनाथा होकर जाने न दूँगी। कल सबेरे मैं तुम्हारे साथ एक चतुर दासी भेजूँगी। उसके साथ जाना। वर्द्धमानमें एक बहुत बड़ी प्रधान महिला मेरी मित्र हैं, वह तुम्हारी सारी इच्छा पूरी कर देंगी।”

कपालकुण्डला और लुत्फुन्निसा इस प्रकार निश्चिन्त हो बातें कर रही थीं कि सामने कोई विध्न ही नहीं। उसके स्थानसे जो वन्यपथ आया था, उसपर खड़े होकर कापालिक और नवकुमार उनके प्रति कराल दृष्टिसे देख रहे थे, उसे उन्होंने देखा ही नहीं।

नवकुमार और कापालिक केवल इन्हें देख रहे थे, दुर्भाग्यवश इनकी बातें सुननेकी परिधि से वे दूर थे। कौन बता सकता है कि यदि मनुष्यकी श्रवणेन्द्रिय और आँखें मनुष्य के अन्दर तकका हाल देख-सुन लेतीं तो मनुष्यका दुःख-वेग कम होता या बढ़ता। लोग कहते हैं, संसारकी रचना अपूर्व और कौशलमय है।

नवकुमारने देखा, कपालकुण्डला आलुलायित-कुन्तला है। जब वह उनकी हुई न थी, तबतक भी वेणी बाँधती न थी। उसके बाल इतने लम्बे थे और धीमे स्वरमें बातें करनेके लिये वह इतनी पास बैठी थी कि सारे बाल लुत्फुन्निसाकी पीठ तक उड़कर जा रहे थे। उनका इधर ध्यान न था। लेकिन नवकुमार यह देखकर हताश हो जमीनपर बैठ गये, यह देखकर कापालिकने अपनी बगल से लटकते एक नारियल पात्रको निकलकर कहा—“वत्स! बल खोते हो? हताश होते हो? लो यह भवानी का प्रसाद पियो। पियो, बल प्राप्त करोगे।”

कापालिकने नवकुमारके मुँह के पास पात्र लगा दिया। नवकुमारने अनमने होकर उसे पिया और दारुण प्यास दूर की। नवकुमारको यह मालूम न था कि यह पेय कापालिक की स्वयं तैयार की हुई तेज शराब है। उसे पीते ही बल आ गया।

उधर लुत्फुन्निसाने पहलेकी तरह मृदुस्वरमें कहा—“बहन! जो काम किया है, उसका बदला दे सकनेकी मेरी शक्ति नहीं है। फिर भी, चिर दिनोंतक मैं तुम्हें याद करती रहूँ, तो यही मेरे लिये सुखकर होगा। मैंने सुना है कि जो अलङ्कार मैंने तुम्हें दिये थे, उन्हें तुमने गरीबोंको दे डाला। इस समय मेरे पास कुछ नहीं है। कल दूसरा प्रयोजन सोचकर अपने साथ अंगूठी भर ले आयी थी। भगवान्‌की कृपासे उस पापसे दूर रही। यह अंगूठी तुम रखो। इसके उपरान्त इस अंगूठी को देखकर तुम अपनी मुफलिस बहनको याद करना। आज यदि स्वामी पूछें कि यह अंगूठी कहाँ पायी, तो कह देना—“लुत्फुन्निसाने दिया है।” यह कहकर लुत्फुन्निसाने बहुत धन देकर खरीदी गयी उस अंगूठीको ऊँगलीसे उतारकर कपालकुण्डलाके हाथमें दे दिया। नवकुमारने यह भी देखा। कापालिकने नवकुमार को पकड़ रखा था, उन्हें फिर काँपते देख फिर शराब पिलायी। मदिरा नवकुमारके माथेपर पहुँचकर उनके प्रकृत स्वभावको बदलने लगी। उसने स्नेहांकुर तकको उखाड़ फेंका।

कपालकुण्डला लुत्फुन्निसासे बिदा होकर घरकी तरफ चली। नवकुमार और कापालिक ने लुत्फुन्निसासे छिपकर कपालकुण्डलाका अनुसरण किया।