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कबीर ग्रंथावली/(१०) लै कौ अंग

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लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ १४०

 

 

१०. लै को अङ्ग

जिहि बन सीह न संचरै, पंषि उड़ै नहीं जाइ।
रैनि दिवस का गमि नहिं,तहाँ कबीर रह्या ल्यौ लाइ॥१॥

सन्दर्भ―अगम्य प्रभु की प्राप्ति के लिए द्त्तचित होकर साधना मे लीन होना चाहिए।

भावार्थ―जिस बन मे सिह् नही पहुँच सकता पक्षी भी जहाँ उड़ नही सकते जहाँ रात्रि और दिवस का भी पता नही। सूर्य और चन्द्र्मा का अस्तित्व नही। उस न्थान तक पहुचने के लिए कबीरदास साधना कर रहे हैं।

शब्दार्थ―सीस=सिंह। रैन दिवस=रात दिन अर्थात सूर्य और चन्द्रमा।

सुरति ठीकुली लेज ल्यो,मन् नित डोलनहार।
कॅवल कुँवा मैं प्रेम रस, पीवै बारम्बार॥२॥

सन्दर्भ―साधक का मन बार-बार ईश्वर का स्मरण करता है।

भावार्थ―सहस्त्र दल रूपी कुएँ मे प्रेम का अमृत मय रस भरा हुआ है। साधक सुरति-स्मृति की ढीकुली और लगन की रस्सी से मनके डोल मे इस रस को भरकर बारम्बार पीता है।

विशेष―रुपक अलंकार।

शब्दार्थ―लेज=रस्सी। कमल कुँवा=सहस्त्रदल कमल।

गंग जमुना उर अंतरै, सहज सुनि ल्यौ घाट।
तहाँ कबीरै मठ रच्या, मुनि जन जोवैं बाट॥३॥

सन्दर्भ―जिस स्थान तक पहुँचने के लिए। मुनि लोग प्रतीक्षा किया करते हैं वही पर कबीर दास ने अपने मन को साधना मे लगा दिया है।

भावार्थ―उडा और पिंगला नाडियाँ हृदय गंगा और यमुना के समान प्रवाहित हो रही है शून्य मे ध्यान रूपी घाट है। उसी शून्य स्थान मे कबीर दास ने अपने मन को लगा दिया है। मुनि लोग उस स्थान के लिए प्रतीक्षा ही करते रहते हैं।

शब्दार्थ―गंग यमुन=इडा पिंगला। ल्यौ=ध्यान।