कबीर ग्रंथावली/(९) हैरान कौ अंग
६ हैरान कौ अङ्ग
पंडित सेती कहि रहे, कह्यां न मानै कोइ।
ओ अगाध एका कहै, भारी अचिरज होइ॥१॥
सन्द्र्भ――ईश्वर के विषय मे जो कुछ भी कहा जाय उसी पर लोगो को अश्चय् होता है।
भावार्थ―मैं यदि पण्डितो से उस परमात्मा के अद्भुत स्वरुप का वर्णन करता हूँ तो ये उसका विश्वास ही नही करते। और यदि मैं उनसे यह कहता है कि ब्रह्म असीम, अगाध, और एक है तो सभी पण्डित आश्चर्य करते हैं।
शब्दार्थ―सेति=से।
बसै अपण्डी पण्ड में, तागति लषै न कोइ।
कहै कबीरा संत हौ, घडी अचंभा मोहि॥२॥
सन्दर्भ―ब्रह्म का निवास ह्रदय मे होने पर भी उसको कोई प्राप्त, नहीं कर पाता है।
भावार्थ―निराकार ब्रह्म इसी शरीर मे निवास करता है किन्तु फिर भी इस बात पर कोई ध्यान नही देता हे उनकी गति को कोई देख नहीं पाता है। कबीर दास जी कहते हैं कि मुझे बडा आश्चर्य इस बात पर होता है कि लोग साधना के द्वारा उसे प्राप्त क्यो नही कर पाते है।
शब्दार्थ―अपंडी=पयं=शरीर।