सामग्री पर जाएँ

कबीर ग्रंथावली/(१३) मन को अंग

विकिस्रोत से

लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ १६६ से – १७५ तक

 

१३. मन कौ अङ्ग

मन कै मते न चालिए, छाँड़ि जीव की बाँणिं।
ताकू केरे सूत ज्यूँ, उलटि अपूठा आंणिं॥१॥

सन्दर्भ―जीव ब्रह्म का ही अंग है उसे संसार से हटाकर ब्रह्म मे ही लगा देना चाहिए।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव! तू मन की इच्छानुसार न चल। मन की विषय वासना मे लिप्त रहने की आदत छुडा दे। जिस प्रकार तकुआ का सूत उससे निकाल कर फिर उसी से लपेट दिया जाता है उसी प्रकार तू अपने मन को संसार से विरक्त करके ब्रह्मा से लगा दे।

शब्दार्थ―बाँणि=आदत, स्वभाव। अपूठा= कच्चा।

चिंता चिति निबारिये, फिरि बूझिये न कोइ।
इंद्री पसर मिटाइये, सहजि मिलैगा सोइ॥२॥

संदर्भ―सासारिक चिन्ताओ को छोड़ देने से परमात्मा स्वयं ही प्राप्त हो जाता है।

भावार्थ―अपने मन से संसार की नाना प्रकार की चिन्ताओ को त्याग देने पर फिर किसी की भी परवाह नही रहती है। इन्द्रियो से उत्पन्न विषय वासना रूपी सुख के फैलाव को समाप्त कर देने पर वह परमात्मा बड़ी ही सरलता से प्राप्त हो जाता है।

शव्दार्थ―चिन्ता=सासारिक चिन्ताएँ। सहजि=आसानी से।

आसा का ईंधण करूॅ, मनसा करूॅ विभूति।
जोगी फेरी फिल करौ, यौं बिननाँ वै सूति॥३॥

सन्दर्भ―सत्कर्मों के द्वारा ही ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है।

भावार्थ―आशा का परित्याग कर उसको ईंधन के रूप मे प्रयोग कर मनके अहंकार को जला कर भस्म कर दूँ और योगी बनकर संसार से विरक्त होकर परमात्मा की खोज मे इधर-उधर चक्कर काटता रहूँ। इस प्रकार अच्छे कर्मों रूपी सूत को कात करके ही परमात्मा की प्राप्ति सम्भव हो सकती है।

विशेष―रूपक अलंकार।  

कबीर सेरी सांकड़ी, चंचल मनवां चोर।
गुण गावै लैलीन होइ, कछू एक मन मैं ओर॥४॥

सन्दर्भ―मन मे नाना प्रकार की इच्छाएं भरी रहती हैं इसीलिए प्रभु-प्राप्ति नही हो पाती है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि परमात्मा के समीप पहुँचने का मार्ग बहुत संकरा है। मन चंचल है और चोर के समान लोभी वृत्ति का है। ऊपर से तो यह भगवान के गुणानुवाद गाता है किन्तु आन्तरिक मन मे अनेकानेक इच्छाएं व्याप्त हैं और इसी कारण प्रभु-प्राप्ति मे वाधा पडती है।

शब्दार्थ―सेरी=मार्ग। लैलोन=तल्लीन।

कबीर मारूॅ मन कूँ, टूक टूक ह्वै जाइ।
विप की क्यारी बोह करि, लुणत कहा पछिताइ॥५॥

सन्दर्भ―बुरे कर्मों का परिणाम बुरा ही होता है किन्तु परिणाम भोगने में कष्ट होता है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि इस चंचल वृत्ति वाले मन को इतना मारूँगा कि वह टुकडे-टुकडे हो जायगा। पहले तो यह विषय वासना की क्यारी बोता है फिर उसके परिणाम को भोगने के समय क्यो पछिनाता है। कर्मों का फल तो भोगना ही पड़ेगा।

शब्दार्थ―लुणत=काटते समय।

इस मन कौ विसमल करौ, दीठा करौं अदीठ।
जे सिर राखौं आपणां, तौ पर सिरिज अंगीठ॥६॥

सन्दर्भ―साधना मे शीश समर्पण करना पड़ता है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि अपने चंचल मन को अधमरा कर सासारिक विषयों से विरक्त कर निराकार अदृष्ट प्रभु के दर्शन करूँगा यदि अपने सिर की रक्षा करनी है तो उसके ऊपर अगारे के समान कठिन से कठिन यातनाओ को भी सहन करना पड़ेगा।

शब्दार्थ―विसमिल=घायल। अंगीठ=कष्ट निराकर।

मन जाणैं सब घात, जाणत ही औंगुण करैं।
काहे की कुसलात, कर दीपक कुवै परैं॥७॥

सन्दर्भ―मन राम यूक्त कर भी बुराइयाँ करता है।  

भावार्थ―मन सब बातो को जानते हुए भी नाना प्रकार की बुराइयो को करता है। यदि हाथ मे दीपक लेकर चलने वाला भी कुएँ में गिर पड़े तो उस दीपक से क्या लाभ? उसी प्रकार जान बूझ कर भी यदि मन बुराई करता है तो उसे जानने से क्या लाभ?

शव्दार्थ―जाणत जानना। कुवै=कुएँ मे।

हिरदा भीतरि आरसी, मुख देषणां न जाइ।
मुख तौ तौपरि देखिये, जे मन की दुविधा जाइ॥८॥

सन्दर्भ―सासारिक द्वन्द्वो से छुटकारा तभी मिल सकता है जब हृदय के अंदर ब्रह्म का दर्पण हो।

भावार्थ―हृदय के भीतर ही आत्मा का दर्पण है किन्तु उसमे परमात्मा का मुख दिखाई नहीं पड़ता है यदि मन सांसारिक विषयों से अपनी चचलता का परित्याग कर दे तो ब्रह्म के दर्शन हो सकते हैं।

शव्दार्थ―आरसी=दर्पण, शीशा।

मन दीयाँ मन पाइए, मन बिना मन नहीं होइ।
मन उनमन उस अंड ज्यूॅ, अनल अकासां जौइ॥६॥

सन्दर्भ―प्रभु को अपने मन का प्रेम देकर ही उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है।

भावार्थ―परमात्मा का प्रेम उसमे मन लगाने से ही प्राप्त हो सकता है। यह सत्य है कि जब तक भक्त का मन ईश्वर की ओर नहीं लगता तब तक ईश्वर का मन भी भक्त की ओर नही झुकता किन्तु जब तक मन को इस संसार के भोगो मे लगाए रहोगे तब तक परमात्मा को प्राप्ति असम्भव ही है। संसार से उदासी न हुआ मन उस सृष्टि के समान है जैसे आकाश में ब्रह्म की ज्योति प्रकाशित होती है।

शब्दार्थ―मन=प्रेम का हृदय। अकासी=शून्य प्रदेश।

मन गोरख मन गोविन्दौ, मन ही औघड़ होइ।
जे मन राखैं जतनकरि, तौ आपैं करता सोइ॥१०॥

संदर्भ―मन को वश मे करने पर ही उच्चतम स्थान मिलता है।

भावार्थ―मन ही गोरखनाथ है मन हो पर ब्रह्म है और मन ही औघड़ नाथ है। मन ही इन पदों पर पहुँचाने वाला है। यदि मन प्रयत्न-पूर्वक वश में रखा जाये तो यही इस चराचर लोक का कर्ता, नियामक ब्रह्म बन सकता है।  

शब्दार्थ―औघड़=एक प्रकार के साधु।

एक ज दोसत हम किया, जिस गलि लाल कबाइ।
सब जग धोबी धोई मरै, तौ भी रंग न जाय॥११॥

सन्दर्भ―प्रेम का रंग किसी के छुडाए नहीं छूटता है।

भावार्थ—मैंने एक ऐसा मित्र बनाया है कि जिसके गले मे लाल कपडा बंधा हुआ है अर्थात् जो प्रेम के रग से ओत-प्रोत है। यह प्रेम का रंग इतना पक्का है कि संसार के सब धोवी मिल करके भो यदि इसके रंग को धोकर छुडाना चाहें तो नहीं छुड़ा सकते हैं।

शब्दार्थ―कबाइ=कपडा।

पाँणीं हीं तैं पातला, धूंवाँ हीं तैं भींण।
पवनाँ वेगि उतावला, सोदोसत कविरै कीन्ह॥१२॥

संदर्भ―कबीरदास ने निराकार ब्रह्म से मित्रता जोड़ी है। उसी के गुरणो का वखान है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि जो पानी से भी पतला धुएं से भी हल्का, और पवन के वेग से भी अधिक वेग वाला है ऐसे परमात्मा से मित्रता की है।

शब्दार्थ―उतावला=तीव्र।

कबीर तुरी पलाँणियाँ, चाबक लीया हाथि।
दिवस थकाँ साँई मिलौं, पीछे पड़िहै राति॥१३॥

संदर्भ―इसी जीवन मे परमात्मा के दर्शन करने के लिए मनरूपी घोड़े को कसने के लिए संयम का चाबुक लेना पडेगा।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि मैंने अपने मन रूपी घोड़े को कस करके, पलाद करके, सयम के चाबुक को अपने हाथ में ले लिया है अर्थात् मन पर पूर्ण रूपेण नियन्त्रण कर लिया है। मैं यह चाहता हूँ कि जीवन रूपी दिन का अंत होने के समय तक ही अर्थात् इसी जीवन मे ही परमात्मा के दर्शन कर लूँ क्योकि फिर तो मृत्यु रूपी रात्रि आ जायेगी और जीव को अचेत कर देगी।

शब्दार्थ—तुरी=घोडी। पलाड़ियाँ=कसकर चढ़ने के लिए तैयार कर लिया है।  

मनवाँ तौ अधर बस्या, बहुतक झीणां होय।
आलोकत सचु पाईया, कबहुॅ न न्यारा सोइ॥१४॥

सन्दर्भ—ब्रह्म की प्राप्ति ज्ञान के प्रकाश से ही सम्भव है।

भावार्थ―मन अत्यन्त क्षीण होकर अधर मे निराधार ब्रह्म में रम गया है। प्रकाशमय ब्रह्म को आभा पाकर मन सुख का अनुभव कर रहा है और अब वह कभी भी ब्रह्म से अलग नहीं हो सकता है।

शव्दार्थ=निराधार। सच, सत्य ब्रह्म।

मन न मर्या मन करि, सके न पच प्रहारि।
सील साच सरधा नहीं, इन्द्री अजहुॅ उधारि॥१५॥

संदर्भ―बिना इन्द्रियो पर अधिकार किए भवसागर से पार पान कठिन है।

भावार्थ―हे जीव! तूने न तो मन को वश मे किया है और न काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह को ही प्रहार कर नष्ट किया है। शील, सत्य, और श्रद्धा आदि सद् गुणो का भी लोप हो गया है। कबीरदास जी कहते हैं कि यदि मन इन्द्रियो पर आज भी अपनापूर्ण अधिकार कर ले तो उसका भवसागर से उद्धार हो सकता है, अन्यथा नही।

शब्दार्थ―मन करि=संकल्प कर। पंच―काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह।

कबीर मन बिकरै पड़ या, गया स्वाद कै साथि।
गलका खाया वरजता, अब क्यूँ आवै हाथि॥१६॥

संदर्भ―मन इन्द्रियो के वश में हो गया है अब वह काबू मे नही आ सकता।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि मन विषय-वासना के विकारो मे पड़ा हुआ है वह नानाप्रकार के स्वादो के उपभोग मे पढा हुआ है। जो वस्तु गले तक पहुँच गई है उसके लिए अब मना करने से क्या लाभ हो सकता है। इसी प्रकार जो मन इन्द्रियों के वश में हो गया है वह अब किसी भी प्रकार हाथ मे नही आ सकता है।

शब्दार्थ―विकरै=विकारो मे। वरजता=वर्जित किया जाता हुआ।

कबीर मन गाफिल भया, सुमरिण लागै नाहिं।
घणीं सहैगा सासनां, जम की दरगह माहिं॥१७॥

सौंदर्भ―मनको सांसारिक विषय भोगो के बदले नरक मे यातनाएं भोगनी पढ़ेगी।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि नाना प्रकार की विषय-वासनाओ के पीछे दौडते-दौडते मन इतना गाफिल हो गया है कि ईश्वर के नाम-स्मरण मे उसका मन ही नही लगता है। किन्तु उसे अपने इन पाप कर्मों का भोग यमलोक मे जाकर यातना सहकर सहना पड़ेगा।

शब्दार्थ―घणी=अत्यधिक। साँसना=यातनाएं। दरगह=दरबार।

कोटि कर्म पल मैं करै, बहु मन विषिया स्वादि।
सतगुर सबद न मानई, जनम गॅवाया बादि॥१८॥

सौंदर्भ―मन विषय वासना मे पड़ कर अपना सर्वस्व ही गंवा बैठा है।

भावार्थ―यह मन विषयों के स्वाद मे इतना रमण करने लगा है कि पल भर मे हो करोडो दुष्कर्म कर डालता है। और सतगुरु द्वारा दिये गए उपदेशो की अवहेलना करके व्यर्थं मे ही जीवन को नष्ट कर डाला है।

शब्दार्थ―सबद=शब्द। बादि = व्यर्थं।

मैमंता मन मारि रे, घटहीं मांहै घेरि।
जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दे दे फेरि ॥१९॥

सौंदर्भ―मन को सयम रूपी अंकुश से मार देना चाहिए।

भावार्थ—हे जीव! तू अपने मदमस्त मन को अपने हृदय के भीतर ही घेर कर मार दे। और जब भी यह परमात्मा से विमुख होकर इधर-उधर भागने का प्रयत्न करे उसी समय ईश्वर-स्मरण और सयम का अकुश लेकर इसको उचित मार्ग पर लगा देना चाहिए

शब्दार्थ—मैमत्ता=मदमस्त हाथी। घटही माहै―हृदय के अन्तर से।

विशेष―अनुप्रास और रूपक अलंकार।

मैमंता मन मारि रे, नॉन्हाँ करि करि पीसि।
तव सुख पावै सुंदरी, ब्रह्म झलकै सीसि॥२०॥

सन्दर्भ―मन को वश मे करने से ही ब्रह्म ज्योति का प्रकाश मिलेगा।

भावार्थ―मदमस्त हाथी रूपी मन को संयम के द्वारा इतना कस कर मारो कि सूक्ष्मता को प्राप्त हो जाय। कर्मों को बारीक आटे की तह पीसना चाहिए। तभी आत्मा रूपी सुन्दरी को सुख प्राप्त होगा और सिर से ब्रह्म ज्योति का प्रकाश छिटकता रहेगा ।  

शव्दार्थ―पुन्दरी=आत्मा।

कागद केरो नाॅव री, पांणी केरी गंग।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग॥२१॥

संदर्भ―संसार-सरिता को पार करने के लिए संयम की नौका चाहिए।

भावार्थ―मनुष्य का शरीर कागज की नाव के समान है और यह ससाय रूपी सरिता माया जल से परिपूर्ण है। कबीरदास जी कहते हैं कि इस अगाध सरिता को इस कागज की क्षणिक नौका से कैसे पार किया जा सकता है फिर साथ मे पाँच इन्द्रियों के रूप मे पंच चोर भी हैं जो अवसर देखते ही अच्छे कर्मों को चोरी भी कर लेते हैं।

शब्दार्थ―गंग = गगां, सरिता। पंच=पंचेन्द्रियो।

कबीर यहु मन कत गया, जो मन होता काल्हि।
डूंगरि बूठा मेह ज्यूँ, गया, निबांणां चालि॥२२॥

संदर्भ―मन ब्रह्म की ओर उन्मुख होकर भी माया भिभूत हो जाता है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि जो मेरा निर्मल मन कल (भूतकाल) या वह आज कहाँ चला गया मन की वह निर्मलता कहाँ चली गयी जिस प्रकार टीले पर हुई वर्षा क्षण भर के लिए टीले पर रुककर नीचे की ओर बह जाती है उसी प्रकार मन के ऊपर संतो के सदुपदेशो का प्रभाव क्षण भर के लिए तो हुआ किंतु दूसरे हो क्षरण वह उपदेश मन से निकल गए और मन फिर विषयासक्त हो गया।

विशेष–दृष्टात अलंकार।

शब्दार्थ—डूगरि=टोला। निबाँणाँ चालि=नीचे को ओर चल कर।

मृतक कूॅ धीजौं नहीं, मेरा मन बीहै।
बाजै बाव बिकार की, भी मूवा जीवै॥२३॥

संदर्भ―मन मरे हुए आदमी की भाँति मरी हुई अवस्था में भी जीवित रहता है।

भावार्थ―साधक को अपने मन पर पूर्णरूपेण विश्वास नहीं है वह कहता है कि जिस प्रकार मनुष्य मर जाता है उसी प्रकार मैंने अपने मन को विषयो की ओर से मृतक तुल्य बना दिया है किन्तु फिर भी यदि इसके पास विकारो को दुदंभी फिर से वजने लगे तो जीवित व्यक्ति के समान पुनः पाप कर्म करने लगता है। शब्दार्थ―वाव=दुदुंभी। विकार=सासारिक विषय। मूवा=मृतक।

काटी कूटी मछली छीकै धरी चहोड़ि।
कोई एक अपिर मन बस्या; दह में पड़ी बहोड़॥२४॥

 

संदर्भ―मन सयमित होने पर भी वासना के अवशेष से विकार ग्रस्त हो जाता है।

भावार्थ―मन रूपी मछली को काट कूटकर किसी प्रकार विषय वासना से रहित कर अपने वश मे करके शून्य रूपी छीके मे रखा था किंतु इतने पर भी उसमे वासना का कोई अक्षर अवशिष्ट रह गया था इसलिए वह मन रूपी मछली साधना के छीके से पुनः वासना के जल मे आकर गिर पड़ी। मन फिर विषयो मे आसक्त हो गया।

शब्दार्थ―मछली=मन। दह=तालाव, ससार पक।

कबीर मन पंषी भया; बहुतक चढ़्या अकास।
उहाँ ही ते गिरि पड़्या; मन माया के पास॥२५॥

संदर्भ―मन रूपी पक्षी माया के प्रभाव से नीचे गिर पड़ता है।

भावार्थ―ईश्वर को प्राप्त करने के लिए कबीरदास कहते हैं कि मेरा मन पक्षी की भाँति आकाश तक शून्य तक विचरण करने गया था किन्तु माया के प्रभाव से जब वह वहाँ से गिरा तो बीच मे कही रुका हो नही ठीक नीचे आकर माया के पास ही गिरा।

विशेष―रूपक अलंकार।

भगति दुबारा संकड़ा, राई दुसवैं भाइ।
मन तो मैंगल ह्वै रहयो; क्यूॅ करि सकै समाइ॥२६॥

संदर्भ―भक्ति के सकीर्ण मार्ग मे मन रूपी हाथी कैसे जा सकता है?

भावार्थ―भक्ति के मार्ग का दरवाजा इतना सकीर्ण है कि वह राई के दशमाश के बराबर है और उसमे प्रवेश करने वाला मन मदमस्त हाथी के समान है फिर वह उस भक्ति के मार्ग में प्रवेश कैसे पा सकता है?

शब्दार्थ―मैंगल=मद मस्त हाथी।

करता था तौ क्यूॅ रहया, अब करि क्यूॅ पछताय।
बोवै पेड़ बबूल का, अंब कहाँ ते खाय॥२७॥

संदर्भ―कर्मों के अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है।

भावार्थ―हे जीव! कर्म करते समय तुझे इस बात का बोध क्यो नही हुआ कि बुरे कर्म नहीं करने चाहिए इनका परिणाम बुरा होगा और यदि अब बुरे कर्म किए ही हैं तो फिर पछताने से क्या लाभ? उसके परिणाम तो भोगने ही पड़ेंगे। यदि तूने कुकर्मं रूपी बबूल के वृक्ष लगाए हैं तो खाने के लिए मीठे आम कहाँ से प्राप्त हो सकते हैं।  

विशेष―तुलना कीजिये―

कोउ न काहु सुख दुख कर दाता।
निज कृत कर्मं भोग सुनु भ्राता॥

मानस-अरण्यकाण्ड

शव्दार्थ―अब―आम।

काया देवल मन धजा, बिषै लहरि फहराइ।
मग चाल्यां देवल चलै, ताका सर्बस जाइ॥२८॥

सन्दर्भ―मन के अनुसार कार्य करने पर सर्वस्व नष्ट हो जाता है।

भावार्थ―शरीर रूपी मन्दिर है और उसके ऊपर फहराने वाली ध्वजा मन है। और ध्वजा विषय वासना की चंचल वायु लहरो से फहरने लगती है यदि शरीर रूपी मंदिर मन रूपीध्वजा के कहने से चलायमान हो जाता है तो समझ लेना चाहिए कि उसका सर्वस्व नष्ट हो जायगा।

शब्दार्थ—देवल―देवालय, मन्दिर। धजा=ध्वजा।

विशेष―सागरूपक।

मनह मनोर्थ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ।
पाँणी मैं घीव निकसै, तौ रूखा खाइ न कोई॥२६॥

सन्दर्भ―यदि मन की इच्छाएं पूरी हो जाया करे तो फिर कभी किस बात की?

भावार्थ―मन की इच्छाओ का परित्याग कर देना चाहिए। क्यो कि जो कुछ मन चाहता है वह सब कुछ पूरा हो जाना सम्भव नहीं है। यदि जल को मथने से ही घो निकलने लगे तो इस संसार मे फिर कोई व्यक्ति बिना घी का सूखा भोजन क्यो करे? किन्तु वास्तविकता यह है कि पानी मे घी निकलता नही। मन की इच्छाएं पूरी होती नही।

शब्दार्थ―मनोर्थं=मनोरथ।

काया कसू कमॉणज्यू पेच तत्त करि बाँण।
मारौं तौं मन मृग कौ नहीं तो मिथ्या जाँण॥३०॥

सन्दर्भ―उपदेश को क्रियान्वित भी करना चाहिए।

भावार्थ―इस शरीर को इतना अधिक साधना मे प्रेरित कर दूं कि यह धनुष के समान हो जाय फिर उस पर पंच तत्व का वाण चलाकर मनरूपी मृग को मार डालूँ तब तो मुझे ठीक समझना अन्यथा मेरी उपदेशो को मिथ्या हो समझना।  

विशेष―महात्मा तुलसीदास ने पंचतत्वो की संख्या इस प्रकार गिनाई है―

'छति जल पावक गगन समीरा।
पच रचित अति अधम सरीरा॥

मानस—किष्किन्धा काण्ड।