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कबीर ग्रंथावली/(१४) सूषिम मारग कौ अंग

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लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ १७५ से – १७८ तक

 

 

१४. सूषिम मारग कौ अंग

कौण देस कहाँ आइया, कहु क्यूॅ जांणयां जाई।
उहु मार्ग पावैं नहीं, भूलि पड़े इस मांहि॥१॥

सन्दर्भ―जीव ससार मे भ्रमित होता हुआ भटकता रहता है।

भावार्थ―आत्मा किसी प्रदेश का निवासी है और कहाँ आकर बस गया है कहो इस तत्व को कैसे जाना जा सकता है? जीव को ब्रह्म के पास जाने का मार्ग नहीं मिल पाता इसलिए वह भ्रम मे पडा हुआ इस संसार मे भटक रहा है।

शव्दार्थ—उहु मार्गं=वह मार्गं, ब्रह्म प्राप्ति का मार्गं।

उतीथै कोइ न आवई, जाकूँ बूॅझौं धाइ।
इतथै सबै पठाइये, भार लदा लदाइ॥२॥

सन्दर्भ―ब्रह्म के पास जीव जाकर लौट नही पाता है।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि ब्रह्म के पास पहुँच कर कोई वहाँ से लौटता नही है जिससे जाकर मैं पूछ सकूँ कि ब्रह्म के पास जाने का कौन सा मार्ग है? क्या तरीका है? इस संसार से हो कुकर्मों का बोझा लाद-लाद कर सभी प्राणी जाते हैं।

शव्दार्थ―उती थैं=उधर से। इतीथै=इधर से।

सबकूॅ बूझत मैं फिरौं, रहण कहै नहीं कोइ।
प्रीति न जोड़ी राम सूॅ, रहरण कहाँ थैं होइ॥३॥

सन्दर्भ―जीव की अपनी स्थिति अज्ञात रहती है।  

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि मैंने प्रत्येक व्यक्ति से पूछा किन्तु, किसी ने यह नहीं बताया कि इस संसार मे रहने का वास्तविक ढंग क्या है? किन्तु कोई उचित उत्तर दे नहीं पाया। ब्रह्म से किसी ने प्रेम तो किया नही फिर रहने की वास्तविक स्थिति किसी को कैसे ज्ञात हो सकती है।

चलौ चलौ सब कोइ कहै, मोहिं अंदेसा और।
साहिब सूँ परचा नहीं, ए जाहिंगे किस ठौर॥४॥

सन्दर्भ―ब्रह्म से बिना परिचय हुए यदि जीव वहाँ तक जाए भी तो रहे कहाँ?

भावार्थ―इस संसार के सभी प्रारणी ब्रह्म के पास जाने की बात तो करते हैं किन्तु इस बात मे सदेह है कि क्या वे वास्तव मे वहाँ तक पहुँच भी सकेंगे क्योकि ब्रह्म से उनका परिचय तो है नही फिर ये सब कहाँ जाकर रहेंगे?

शब्दार्थ―पर्चा=परिचय।

आइवे कौं जागा नहीं, रहिवे कौं नहीं ठौर।
कहै कबीरा सन्त हौ, अबिगत की गति और॥५॥

सन्दर्भ―निर्गुण ब्रह्म की गति अगम्य है। साधना मे वाह्याडम्बरों की आवश्यकता नहीं है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि ब्रह्म के पास तक आने के लिए ज्ञान नेत्र खुले नही और इस संसार की विषय वासना मे भी सर्वदा रहने के लिए स्थान नहीं है। हे सन्तो! ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग सामान्य रूप से आने वाला नहीं है, अगम्य है।

शब्दार्थ―जागा नही=ज्ञान नेत्र नही खुले।

कबीर मारिग कठिन है, कोई न सकई जाय।
गये ते बहुड़ नहीं, कूसल कहै को आय॥६॥

सन्दर्भ―ब्रह्म के पास पहुँच कर कोई लौटना नहीं फिर वहाँ के समाचार कैसे मालूम हो?

भावार्थ―कवीर दास जो कहते हैं कि परमात्मा के पास तक पहुँचने का मार्ग अत्यधिक कठिन है वहाँ कोई आसानी से पहुँच नहीं सकता है। और जो वहाँ कठिन साधना करके पहुँच भी गये तो वे आवागमन से मुक्त होकर वहाँ से वापस आए हो नहीं फिर वहाँ के कुशल समाचार कौन आकर कहे। शब्दार्थ―बहुरे=लौटे।  

जन कबीर का सिषर घर, बाट सलैली सैल।
पाँव न टिकै पपीलिका, लोगनि लादे बैल॥७॥

सन्दर्भ―भक्त कबीर के घर तक पुण्यात्मा और सज्जनो के पैर तो जम नही पाते, फिर पापियो का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

भावार्थ―भक्त कबीर का तो वास्तविक घर ब्रह्मरंधू रूपी शिखर पर स्थिति है और वहाँ का मार्ग नाना प्रकार की बाधाओ के कीचड से परिपूर्ण है। वहाँ पर चीटी जैसा छोटा जीव भी अपने पैर रखकर नहीं जा सकता फिर और मनुष्य तो नाना प्रकार के सासारिक कुकर्मों का बोझ लादे हुए हैं कैसे वहाँ पहुँच सकते हैं।

शब्दार्थ―सिषर=शून्य शिखर। सलैली सैल=कीचड़ आदि से दुर्गम पर्वतीय मार्ग। पपोलिका=पिपीलिका=चीटी।

जहाँ न चींटी चढ़ि सकै, राई ना ठहराइ।
मन पवन का गमि नहीं, वहाँ पहुॅचे जाइ॥८॥

सन्दर्भ―जिस ब्रह्म के पास तक चोटो, वायु और मन की गति भी नहीं है वहाँ तक कबीर पहुँच गए हैं।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि जिस शून्य स्थल पर चीटी तक नही चढ सकतो और राई भी नहीं ठहर सकती मन और पवन को जहाँ तक गति नही है उस सूक्ष्म और सकीणं स्थाव तक मैं पहुँच चुका हूँ।

कबीर मारग अगम है, सब मुनिजन बैठे थाकि।
तहाँ कबीरा चलिगया, गहि सतगुर की सांषि॥९॥

सन्दर्भ―सतगुरु के उपदेश को ग्रहण करके हो साधक ब्रह्म तक पहुँच सकता है।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि ब्रह्म-प्राप्ति तक का मार्ग अत्यन्त कठिन है, साधक मुनि भी वहाँ की दुर्गंमता के कारण थक कर बैठ गये हैं जाने की आशा छोड बैठे हैं। ऐसे दुर्गम स्थान पर भी कबीर दास जी सतगुरु के उपदेशो को ग्रहण करके पहुँच गये हैं।

शब्दार्थ―साषि=सीख, उपदेश।

सुर नर था के मुनि जनाँ, जहाँ न कोइ जाइ।
मोटे भाग कबीर के, तहाँ रहे घर छाइ॥१०॥३०२॥

क० सा० फा०-१२  

सन्दर्भ―साधक की साधना की चरमावस्था ब्रह्म प्राप्ति है।

भावार्थ―जिस स्थान तक पहुँचने के लिए देवता, मनुष्य और मुनि सभी थक जाते हैं और थकावट के कारण वहाँ तक पहुँच नहीं पाते हैं। वहीं पर सौभाग्यवश कवीर दास पहुँच भी गए हैं और उनका स्थायी निवास भी हो गया है।

शब्दार्थ―मोटे भाग=बड़े भाग्य।