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कबीर ग्रंथावली/(२) सुमिरन कौ अंग

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लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ ८३ से – १०४ तक

 

२. सुमिरन को अंग

कबिर कहता जात हुँ, सुणता है सय कोइ ।
राम कहें भला होइगा, नहिं तर भला न छोइ ॥२॥

सन्दर्भ—राम नाम पत्याण का अक्ष्य स्त्रोत है । उन्के अभाव मे मानव का भला या कल्याण नहीं होगा । नाम खगता विकारों के लिए औपधि है ।   भावार्थ—कबीरदास कहते है कि मैं यह बराबर केहता जा रहा हुँ और सब मेरा कथन सुनते जा रहे है। राम कहने से, जपने से ही कल्याण होगा। अन्यथा कल्याण नही होगा।

विशेष—"कबीर......हूँ" से तात्पर्य है कि कबीर अनुभव तथा दृढ़ विश्वास को प्रकट कर रहे है ।(२) सुंणता है.......कोई = से तात्पर्य है सब मेरे कथन को सुन रहा है ।(३) राम.....होई = राम नाम जप ही कल्याण का स्त्रोत है । उनके अभाव मे माया के विकार अपना प्रभाव प्रसारित करते जायेंगे ।

शब्दार्थ—सुणता = सुनता । तर = तो । भला = कलयाण ।

कबीर कहै मैं कथि गया, कथि गया ब्रह्म महेस ।
राम नाँव ततसार है, सब काहू उपदेश ॥२॥

सन्दर्भ—विगत साखी मे कबीर ने कहा है "कबीर कहता जात हुँ सुणता है सब कोइ।" यहाँ पर कबीर ने उसी भाव को पुन: व्यक्त किया है कि जो मैं कह रहा हुँ वह परम्परागत या सनातन सत्य है । वह सत्य ब्रह्मा और महेश द्वारा भी समर्पित है । संसार मे राम नाम ही तत्व सार है ।

भावार्थ—कबीर कहते है कि मैं यह कह चुका हूँ और यही मेरा सब को उपदेश है कि संसार मे राम नाम ही तत्व और सार वस्तु हैँ । यही ब्रह्या और महेश का भी कयन है ।

विशेष—प्रस्तुत साखी मे कवि ने परम्परागत चिर समर्थित सत्य की अभिव्यक्ति की है । कबीर नाम के महत्व के सम्बन्ध मे परम्परागत सत्य को प्रकट करते हुए उसके महत्व को उपदेश के रूप मे व्यक्त करते हैं। राम नाम समस्त साधना का तत्व और सार है ।

(२) सत दरिया ने भी इसकी प्रस्तुत विशेषता की ओर संकेत करते हुए कहा है "राम नाम निजु सार है " कबीर दास दरिया के शब्दो का समर्थन करते हुए केहते है "नाम सरोवर सार है सोह सुरत लगाय"।

शब्दार्थ--कथि = कहि । नवि = नाम । तत = तत्व । काहू = को । कहै = कहता है ।

तत तिलक तिहुँँ लोक मैं, राम नाँव निज सार |
जन फबीर मस्तक दिया, सोभा अधिक अपार ॥३॥

सन्दर्भ—संसार मे राम नाम समस्त साधना का तत्व है । बारम्बार कबीर ने इसी भाव पर बल दिया है । जीवन और व्यक्तित्व नाम के सम्पर्क से और भी अधिक सुशोभित हो गया ।   भावार्थ—तीनो लोको मे राम नाम सार तत्व है । जब से कबीरदास ने उसे अपने मस्तक पर धारण किया है , तब से अपार शोभा से युक्त हो गया।

विशेष—प्रस्तुत साखी मे कबीर ने राम नाम की दो विशेष्ताओ का उल्लेख किया है । प्रथम , राम नाम तत्व और सार है । द्वितीय वह तिलक के रुप मे मस्तक् पर धारण करने से व्यक्तित्व की शोभा अभिवृद्ध हो जाती है ।

शब्दार्थ— तिहुं = तीनो । मैं = मे । नाव = नाम । सोभा = शोभा ।

भगति भजन हरि नांव है , दूजा दुक्ख आपार।
मनसा बाचा क्रमनां , कबीर सुमिरण सार ॥४॥

सन्दर्भ— संसार दुखः का सजीव और सक्रिय रुप है। यहाँ हरि नाम स्मरण के अतिरिक्त और है ही क्या? विगत साखो मे कबीर ने राम नाम को सार , तत्व ,तिलक तथा शोभा का आधार माना है। प्रस्तुत अंग कि द्वितीय साखो मे भी कबीर ने कहा है " राम नाम ततसार है ।"ऐसे महत्वपूर्ण राम नाम का ध्यान मनसा, वाचा, कमंणा करना ही दुखः के आगार को विध्वंस करना है।

भावार्थ— ईश्वर का भक्ति और नाम स्मरण पर भजन ही सार तत्व है और सब अपार दुखः का आधार है । काबीर का मत है कि हरि का नाम मनसा, वाचा और कमंरण स्मरण करना सार है।

विशेष—(२)भगति ........ है : से तात्पर्य है कि भक्ति और हरि के नाम का भजन ही सार तत्व है । (२) दूजा ...... अपार भक्ति और हरि नाम स्मरण के अतिरिक्त सब कुछ अपार दुखः क अपार माया है । (३)जिस हरि नाम का इतना महत्व है , जो 'ततसार ' है , जो मुक्ति और भक्ति प्रदान करने वाला है , उसकी साधना मनसा , वाचा कर्मण होनी चाहिए। (४)"मनसा वाचा क्रमना' से तात्पर्य है समस्त चेतना के साथ, निष्ठा और एकाग्रता के साथ,वाणी-वचन , मन तथा कृयात्मक रुप मे अथवा हर प्रकार से । (५) कबीर ....... मार =स्मरण या हरि का भजन सार तत्व है , समस्त साधना का सारांश है। (६)सुन्दर दाग ने कबीर के प्रस्तुत भाव का समर्थन करते हुए कहा है "नाम लिया तिन नव किया सुन्दर जप तप नेम । तोरच अटल समान वर्त तुला बेठि द्त हेम।" शब्दार्थ—भगति = भक्ति । नाव - नाँम । दुखः = दुख।

कबीर सुमिरण सार है , खोर सकल जंजाल।
खादि खति सय सोघिया , दूजा देस्यो काल । (७)॥

सन्दर्भ— कबीर का मन है कि नाम जप हो समस्त मापता रा सार है। दुखके अतिरिक्त समस्त आपनाए ही ग्यान है । दिगनु मात्रा में कबीर कहा है। “भगति भजन हरि नांव है, दूजा दुक्ख अपार।" उसी भाव को अधिक विस्तार के साथ यहां व्यक्त करते हुए कबीर ने पूर्व भाव पर बल दिया है।

भावार्थ — कबीर कहते है कि नाम स्मरण ही समस्त साधना का सार तत्व है। नाम-जप के अतिरिक्त समस्त साधना जंजाल है। मैने आघोपांत समस्त साधनाओ को शोघा (देखा) लिया, नाम के अतिरिक्त सब काल है, विनाशकारी है।

विशेष — (१) सुमिरण सार है-समस्त साधनाओ का सार तत्व। नाम स्मरण समस्त साधना का सारांश है। सुन्दर दास का भी मत है कि "सकल सिरोमनि नाम है, सब धरमन के माहि । अनन्य भक्ति वह जानिये, सुमिरन भूलै नाहि।" (२)"और सकल जजाल" नाम जप के अतिरिक्त और सब जंजाल है, माया है,चाहाचार है।" (३) आदि ...... सोघिया" से तात्पर्य है आघोपांत सब कुछ सब साधना का मूल्यांकन किया। (४)"दूजा....काल" नाम के अतिरिक्त सब काल या विनाशकारी है।

शब्दार्थ—सोघिया= शोघा । दूजा = दुसरा । काल= विनाशकारी ।

च्य्ंता तौ हरि नांव की, और न चिंता दास।
जे कुछ चितवैं राम विन,सोइ काल की पास ॥६॥

सन्दर्भ — विगत साखी की द्वितीय पंक्ति मे कबीर ने राम नाम की महिमा का उल्लेख करते हुए कहा है "आदि अन्त सब सोधिया , दूजा देखौं काल" प्रस्तुत साखी मे कबीर ने उसी भाव को दुसरे शब्दो मे व्यक्त करते हुए कहा है" जे कुछ चितवै रामविन, सोई काल की पास।" सच्चे साधक को हरिनाम की चिन्ता रहती है। हरिनाम के अतिरिक्त जो कुछ अन्य है वह काल या विनाशकारी है।

भावार्थ—हरिभक्त या हरि के दास को एक मात्र चिन्ता हरिनाम या नाम जप को रहती है। इसके अतिरिक्त उसे और कोई चिन्ता नही रहती है। राम के अतिरिक्त और जो कुछ देखा या चिन्तन किया जाता है वह काल का विनाश का वाण है।

विशेष—(१) प्रस्तुत साखी मे कबीर ने हरि के नाम के साधक की निष्ठा तथा लगन की ओर संकेत किया है हरिदास एकग्रता के साथ,निष्ठा के साथ हरि का चिन्तन करता है । (२) राम के नाम या राम की स्थिति से विहीन जो कुछ है,वह सब विनाश या माया है। (३)'नारद पुराण' में भी इसी प्रकार उल्लेख हुआ है "हरे नमि हरे नमि , हरे नमिव के वल्भू। क्लौ नारत्येव नास्त्येव गतिरन्यया।"(४/४९/११५)।   शब्दर्थ-च्यंता=चिन्ता। नांव =नाम। चितवे=देखे। पाप=पाश।

यंच संगी पिव करै,छठा जुसुमिरै मन।
आई सूति कबीर की, पाया राम,रतन॥७॥

प्रसंग— प्रस्तुत परिच्छेद की चतुर्थ साखी मे मामारिक प्राणियो को उपदेश देते हुए कबीर ने कहा है 'मनसा वाचा क्रमना, कबीर सुमिरण सार।" और प्रस्तुत साखो मे कबीर की पंच ज्ञानेंद्रिय और मन पूरणतया पर ब्रह्म मे अनुरक्त हो गया है प्रस्तुत परिच्छेद मे कबीर ने नाम की महत्ता का अनेक बार महत्व वरणन किया है। " राम नॉम ततसार है," 'राम कहे भल होइगा," 'राम नांव निज सार," कबीर सुमिरण सार है," आदि महत्व को हृदयंगम कर लेने के अनन्तर कबीर मुक्ति प्रप्त हुई और उसे राम रतन की प्रप्ति हुई।

भावार्थ—पंच ज्ञानेंद्रिय एव मन राम नाम का स्मरण सतव रूप से कर रहा है। कबीर को समाधि अवस्था मे रामरत्न सम्प्राप्त हुआ।

विशेष— प्रस्तुत साखी मे कबीर ने अपनी उस निष्ठा और एकाग्रता का उल्लेख किया है जिसको सामान्य रूप से सपूदा प्रत्येक सावन प्राणी को होता है। रहस्यवादी के लिए जीवन क्ष्ण धन्य होता है जब वह मनसा, वाचा कमणा ब्रह्म और रावना मे प्रव्रुत्त हो जाता है उसकी समस्त इन्द्रियॉ ब्रह्म के प्रति उन्मुख होकर, ब्रह्माकार बनने की चेष्टा मे अनुरक्त हो जाती है।(२) समाधि की अवस्था मे कबीर को ब्रह्मनुमूति प्राप्त हुई जो साधक की चरम उपलब्दि होता है।

शब्दार्थ— पंच ज्ञानेंद्रिय सगी=पंच । पिव=प्रिय=प्रह। नूति=समाधि। रतन= रत्न।

मेरा मन सुमिरै राम कॅू, मेरा मन रामहिं प्पहि।
अव मन रामहिं है रहा, सीस नवावौ काहि॥८॥

संदर्भ—समाधि मे ब्रह्म का दर्शन प्राप्त कर लेने पर आत्मा ब्रह्म वाण हो जाती है। जब आत्मा परमात्मा मे समाहित हो गई , मन भेद सम्मान होगए और माया जीवन भेद के विनष्ट हो जाने मे उभय एक हो गए तो दान करे और कौन किसकी उपमाना?

भावार्थ—राम की स्मरण करते-करते मेरा मन हो गया है। मन स्वयं राम हो गया तो किसके प्रति बोध कृपा।

विशेष—(१) प्रस्तुत वाणी मे उल्लेख किया है जब वह स्तर पर पहुँच कर कबीर ने कहा था कि "तू तू करता तू मय मुझ् मे रही न हूँ। चारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूं ।" संत मलूकदास् ने भी इसी प्रकार की अनुभुति हो जाने पर लिखा था "हम सवहिन के सबहि हमारे जीव जन्तु मोहिं लगै पियारे ।" इस स्थिति का उद़्भव तब होता है जब साधक की "पच सगी पिव पिव करै , छठा जु सुमिरे-मंन ।" इसी स्थिति मे कबीर ने कहा था "अब मन रामहि ह्वै रह्या , सीस नवावौं काहि।" (२) "अब मन.... काहि "उस परिस्थिति का सूचक है जब साधक अदेव्त् ब्रह्मा मे समाहित हो जाता है । (३)यहाँ पर सावक की उस अवस्था का वर्णन् है जब वह् आन्न्दातिरेक मे उद्घोषित कर उठता है" शिवोऽह्ं । "अह ब्रह्मासी ।"

शब्दार्थ — ह्वै=हो । रह्या=रहा । सीस=शीश ।

तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझमें रही न हूँ ।
वारी फेरी वलि गई, जित देखौ तित तूँ ।६॥

संदर्भ—विगत साखी मे कवि ने उस परिस्थिति का वर्णन किया है, जब "साधक ब्रह्मराधना करता-करता या नाम जप मे इतना अधिक अनुरक्त हो जाता है कि वह ब्रह्माकार या ब्रह्माकार हो जाता है । आत्मा और परमात्मा के मध्य मायाकृत भेद विलीन हो जाता है । प्रस्तुत साखी मे उसी भाव को किंचित अधिक विस्तार और स्पष्टता के साथ अंकित किया गया है ।

भावार्थ—तेरा ध्यान करते-करते मैं 'तू'ही हो गया । मुझमे मेरा पार्थक्य अह या व्यतित्व की मित्रता शेष नही रह गाई ।(फलत:) मेरा बारंबार का आवागमन विनष्ट हो गया । अब तो जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है

विशेष—कबीर की एक बड़ी ही प्रसिद्ध साखी है "लाली मेरे लाल की जित देखू तित लाल । लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।" प्रस्तुत साखी मैं तू तू करता तूभया का भाव बढ़े ही माधुंर्य पूर्ण शब्दों मे, सरल शैली मे व्यक्त कर दिया गया है । कबीर को साखियो मे भाव साम्य है, पर शब्दों की भिन्नता । (२) मुझ... हूँ से तात्पर्य है कि मेरा व्यह, मेरी पार्थक्य की भावना का लोप हो गया । (३) बारी फेरी... गई से तात्पर्य है कि मेरा आवागमन् समाप्त हो गया ।

शब्दार्थ— तू=तुम=राम । हूँ=अह । वारी=आवागमन ।फेरी=फिर गया, समाप्त हो गया । जित=जिधर । तिन=उधर ।

कबीर निरभै रामजपि, जय लग दीवै वाति ।
तेल घट्या बाती बुझी, (तय) सोवेगा दिन राति ॥१०॥

सन्दर्भ्—"गुरुदेव कौ अंग" की तेइसवी साखी मे कवि ने कहा है "चेननि चौकी बैठिकरि, सतगुरु दीन्हाँ घोर । निरभै होइ निसंक भजि केवल कहै कबीर। "प्रस्तुत साखी मे कवि ने पुन: निसक और "निरभै" होकर राम का जप करने का उपदेश दिया है। मानव का जब तक जीवन दीपक जल रहा है, तब तक मानव को नाम जप करना चाहिए।

भावार्थ—कबीरदास का कथन है कि जब तक दीपक में बती है तब तक निर्भय होकर राम का जप कर। तेल के नि:शेष हो जाने पर बत्ती भुझ जायेगा और तू पांव पसार कर दिनरात सोयेगा।

विशेष—प्रस्तुत साखी मे कवि ने निर्भय होकर ब्रह्मा नाम जप का उपदेश दिया है। यह उपदेश कवि ने एक बड़ी ही सरल तथा स्वाभविक अप्रस्तुत योजना के माध्यम से व्यक्ति की है। शरीर रुपी मे प्राण रुपी वर्तिका है और सामर्थ्य रुपी तेल विधमान है इस वसिका और तेल के घट जाने पर मानव मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और वह अनन्त काल तक सोता रहता है ।(२) शरीर से आत्मा के विलग हो जाने पर शरीर निश्चेष्ट हो जाता । जड शरीर के माध्यम से धर्म साधना अस्मभव हो जाता है। इसीलिए कवि ने यहाँ पर जीवन रहते रहते साधन करने के लिए उपदेश दिया है। (३)"(तब) सोवेगा दिन राति" का तात्पर्य यह है कि मृत्यु को प्राप्त होगा । (४) निरक्षर कबीर की अप्रस्तुत योजना कितनी यथार्थ ओर प्रभावशाली है,यह प्रस्तुत साखी से स्पष्ट हो जाउयगा ।

शब्दार्थ—निरभै=निभंय। जपि=जप। लग=तक । दोपै=दीपक मे वाति=वाती=वतिका। घटना=घटा। राती=रात

कबीर सूता क्या करे, जागि न जपै मुरारि ।
एक दिनां भी सोवणां,लवे पाँव पसारि ॥१२॥

सन्दर्भ—विगत साखी मे कवि ने कहा कि "तेन घटया वातो बुझी,(नव)सोवेगा दिन राति।" कर्तव्य ओर साधना से विमुत प्राणियो को चेतावनी प्रदान करते हुई कवि ने पुनः जागृत होकर नाम जपने के लिए मानव समाज को अनुप्राणित करने की चेष्टा की है।

भावार्थ—कबीरदास कहते है कि हे प्राणों सोया हुग तु क्या कर रहा है । जागृत होकर भगवान के नाम का स्मरण क्यो नहीं करता है। अनठोगता एक दिन तो लम्ये पैर पगार कर तुम्मे मोना ही है।

विशेष—(५) प्रस्तुत मागो मे कबीर ने मे प्रसतुत प्रागिदा को सपेत करते हुए कहा है जोयन के परिस्थितियो से दूर रहकर नाम साधन के लिए उपदेश दिया है।(१)"सूता" से तात्पर्य है अज्ञान निशा मे कतंव्य की ओर से विमुख या प्रसुप्त ।(३) जागो से तात्पर्य है सचेत होकर । (४) एक दिन से तात्पर्य है अन्ततोगत्वा । (५)"भी" का तात्पर्य तो ।" (६) "सोवणा" से कवि का आशा है मृत्यु को प्राप्त होना । (७)लबेॱॱॱ पसारि से तात्पयॆ है पैर फैला कर । "लंबे पांव पसारि" का प्रयोग कवि ने कहावत के रूप मे किया है । अशिक्षित कबीर ने प्रस्तुत कहावत का प्रयोग बड़े ही यथार्थ और स्वाभाविक शौली मे किया है।

शच्दार्थ—सूता=सोता=सुप्त। दिना=दिना=दिन । सोवणा=सोवना= सोना । पसारि= पसार फैलाकर ।

कबीर सूता क्या करै, काहे न देखै जागि ।
जाका संग तै वीछुड़या, ताही के संग लागि।।१२॥

सन्दर्भ—कबीर ने प्रस्तुत परिच्छेद की द्शम साखो मे कहा है "कबीर निरभै राम जी, जब लग दीवै वाति। तेल घटया बाति बुझी, (तव) सोवेगा दिन राति।" "सोवेगा दिन राति" चेतावनी प्रस्तुत करने के बाद प्रस्तुत साखी मे कवि ने अज्ञान निशा मे प्रस्तुत, माया मे सलग्न मानव को कतंव्य पथ से विमुख प्रारगी से जाग्रत होकर कर्तव्य पध को देखने का आगृह किया है।

भावार्थ—कबीर कहते है कि प्रणी! तू सोया हुआ क्या कर रहा है। जाग्रत होकर क्यो नही देखता है। जिसके साहचर्य ए॓ तू विमुक्त हुआ है, उसी के संग पुन: जा लग।

विशेष—(१) प्रस्तुत साखी मे कवि ने कर्तव्य एवं नाम जप से विमुख निंदा से अभिभुत है प्राणियो को ज्ञान के नेत्र उद्घाटित करने के लिए आग्रह पूर्ण उपदेश दिया है।(२) 'सुता' से तात्पर्य है अज्ञान निशा मे, माया से परिवेप्ठित सोया हुआ था। चेतनाविहीन यहा 'सुता' शब्द का प्रयोग चेतना वहीन या निश्चेष्ट के लिये अधिक उपर्युक्त प्रतीत होता है। (३)'काहे न जागि' से तात्पर्य है कि प्रबुद्ध होकर ज्ञान के क्षेत्रो से या संचेत होकर क्यो नहीं विवेक पुण कार्य मे सलाग्न होता है।(४) जाकाॱॱ बीछुछ्था' से तात्पर्य है कि जिसके सम्पर्क से तू वियुक्त हुआ है। आत्मा परमात्मा से विमुक्त हो कर माया के द्वारा पथ-भ्रषट कर दी गई है। इसी भाव की अभिव्यक्ति एक साखी मे कबीर ने कहा है 'पुत पियारी पीना पि' गौहनि लागा घाइ। लोग मिठाई हाथि दे,अपर गया भुलाई।' माया कवि मिठाई पाकर आत्मरूपी बालक अपने पिता को बिसर गया। (५)'ताही प मग सागि' से तात्पर्य है कि कवि के साथ लगकर एकाकार हो जा। एक साथ मे इसी स्थिति का वर्णन करते हुए कबीर ने कहा है 'पानी ही थै हिम मय हिम ह्वै गया विलाय। जो कुछ था सोइ भया अब कुछ कहा न जाय।'

शब्दार्थ—सूना= सोता= सोया= सुप्त । जागि = जागकर । जाका = जिसका । तै = तै । बीछुड़या = बिछड़ा । ताही = उसी लागि = लाग = लग।

कबीर सूता क्या करै, उठि न रोवै दुक्ख ।
जाका बासा गोर मैं, सो क्यू सौवै सुक्ख ॥१३॥

सन्दर्भ—नाम जप से विमुख प्राणी को सचेत करते हुए कवि ने विगन साखी मे कहा है कि ' कबीर सूता क्या करै काहे न देखै जागि' तथा ' कबीर सूना क्या करै जागि न जापै मुरारि । ' परन्तु यहा पर कवि ने कहा है ' उठि न रोवै दुक्ख । ' जिसका कदम कब्र मे रखा है, वह सुख से कैसै सो सकता है।

भावार्थ— कबीर दास कहते है कि हे प्राणी ! तू अज्ञान निशा मे पड़ा हुआ क्यो सो रहा है । तू उठकर अपने प्रिय के वियोग मे जो दु:ख का अनुभव हो रहा है उसके प्रति क्यो नहि खेद प्रकट करता। जिसका निवास स्थान कब्र है, वह सुख पूर्वक कैसे सोता है।

विशेष — विगत साखी मे कबीर ने कहा है 'जाकि मग तै बीछुडया ताही कि संग लागि।' प्रियतम से वियुक्त मानव को अपने दु:खो के प्रति खेद प्रकट करना चाहिए। प्रियतम से वियोग होने का दु:ख सर्वत: महान विपत्ति है। परन्तु मानव उस दु:ख को भूलकर माया के आवरण मे अनुरुक्त रहता है। लोभ की मिठाई के पाते ही वह अपने आप को भूल जाता है। कबीर इस प्रकार मे अज्ञान निशा मे आत्म विस्मृत प्राणियो को संचेत करते हुए कर्तव्य पूर्ति की ओर उनमुक्त रहने का उपदेश दिया है। (२) 'जाका ॱॱॱ सुक्ख' से कबीर का तात्पर्य है कि जो मरण्शील है, जिसका निवास स्थान कब्र है। वह सुख पूर्वक कही पर भी हो सकता है।

शब्दार्थ— वासा = निवास स्थान । गोर = कब्र । नै = ने । क्यूं = क्यो ।

कबीर सूता क्या करै,ॱ गुण गोविन्द के गाइ ।
तेरे सिर परि जम खड़ा, खरचघ करे का खाई ॥ १४ ॥

सन्दर्भ—प्रसतुत साखी मे कबीर ने साधन मे विमुक्त प्राणियो को चेतावनी देते हुए यम का स्मरण दिलाया है जो किसी भी दशा मे किसी प्राणी का नही होता है, और गर्व पर माल का प्रहार करता है।

भावार्थ—कबीर कहते है कि हे प्राणी ! तू साधन की निद्रा मे पड़ा क्या कर रहा है। यम तेरे सर पर खड़ा है। तेरे सहारे गर्व करने सा हुआ है।

विशेष—गोविन्द के गुणों का गान करना जीवन का परम पुण्य है। कबीर ने विगत साखियों में सततरूप से सचेत होकर साधन में रत रहने का उपदेश दिया है। कवि कभी कहता है 'जाका वासा गोर मैं सो क्यूँ सोवै सुक्ख', और कभी वह कहता है 'एक दिन' भी सोवणा लबे पाव पसारि।' उसी विचार परम्परा में वह कवि पुनः यहाँ पर कहता है कि 'तेरे सिर परि जम खड़ा खरच करे का खाइ।' (२) 'खरच करे का खाइ' में कवि ने महाजन और कर्जदार का रूपक प्रस्तुत किया है। (३) इसी प्रकार का भाव कबीर ने एक अन्य साखी में व्यक्त किया है 'काल सिहणौं यो खड़ा जागि पियारे म्यंत' तथा 'काल खड़ा सिर ऊपरैं ज्यूं तोरणि आया वीदं (काल-कौ अंग)। (४) सत्य यह है कि 'जाका वासा गोर में, सो क्यूं सोवै सुक्ख।' (५) प्रस्तुत साखी में अशिक्षित कबीर की अप्रस्तुत योजना की यथार्थता तथा सहजता दर्शनीय है।

शब्दार्थ—गाइ = गा = गान कर। परि = पर। जम = यम। खरचा = खर्च व्यय करे। खाइ = खाया है।

कबीर सूता क्या करैं, सूताँ होइ अकाज।
ब्रह्मा का आसण खिस्या, सुण्त काल की गाज॥१५॥

सन्दर्भ—काल का नाम सुनते ही जगत नियंता ब्रह्मा तक विचलित हो उठे इतना जानते रहने पर भी मानव ब्रह्म की आराधना से विमुख होकर भी अज्ञान निद्रा में गाफिल पड़ा रहता है।

भावार्थ—कबीर कहते हैं कि हे प्राणी। तू सोता हुआ क्या कर रहा है। सोते रहने से बड़ा अहित होता है। काल की गर्जना सुनकर ब्रह्मा का आसन विचलित हो गया।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कवि ने काल को प्रबलता और मानव की निष्क्रियता का उल्लेख बड़ी सहज शैली में किया है। (२) मानव काल की प्रबलता से परिचित होने पर भी ब्रह्मनाथ की साधन से विमुख रहता है और अज्ञान निशा में सुषुप्त रहता है। (३) इसीलिए कवि ने पीछे कहा है कि "भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुःख अपार। (४) प्रस्तुत साखी में कवि ने नाम महिमा के साथ ही साथ काल की प्रबलता तथा मृत्यु की अनिवार्य स्थिति का उल्लेख किया है।

शब्दार्थ—सुता = सुप्त। अकाज = अहित। आसण = आसन। खिस्या = खिसका, सरका। सुणत = सुनत, सुनते हो। गाज = गर्जन।

केसौ कहि कहि कूकिये, ना सौइयै असरार।
रात दिवस कैं कृकणों, (मन) कबहूँ लागै पुकार॥१६॥

 

सन्दर्भ- प्रस्तुत साखी में कवि नाम जप के महत्व को उल्लेख करता है । उसका आग्रह पूर्ण अभिमत है कि अज्ञान निशा में सोने से कोई लाभ नही है । रात दिन नाम-जप करने का प्रतिफल यह हो सकता है कि ब्रह्म तक कभी न कभी तो प्रार्थना पहुंच ही जायेगी ।

भावार्थ—केशव का नाम उच्चरित करते रहिए । इतना आग्रह है कि अज्ञान-निद्रा में मत सोइए । दिन-रात के नाम जप से कभी न कभी तो पुकार सुनी ही जायेगी ।

विशेष—(१) सुमिरण कौ अंग की अन्य सखियों के वर्ण्य विषय की तुलना में प्रस्तुत साखो के वर्ण्य-विषय में विशिष्ठता और अभिनवता है । कवि ने यहाँ मानव-समाज से विशेष प्रकार का इस प्रकार (आग्रह) किया है । आग्रह इस वान का है कि "ना सोइए" तथा 'रात दिवस कै कूकणौं (मन) कत्रहूँ लगै पुकार ।' (२) प्रस्तुत साखी में कवि के मस्तिष्क की स्थिरता तथा दृढ़ता के भाव के साथ ही साथ अनन्य विशवास तथा भरोसा का भाव प्रतिविम्बित होना है । कवि को आषवादी विचारधारा भी "कत्रहूँ लगै पुकार" से प्रतिभासित होना है ।

शब्दार्थ—केसौ= केशव । कूकिये= आनन्द से भरे स्वर में पुकारिए । सोइयै= सोइए । असरार = इसरार- आग्रह । कूकणौं= कूक्ने से । पुकार= अर्ज, प्रार्थना । कबहूँ= कभी तो ।

जिहि घटि प्रीति न प्रेम रस,फुर्न रसना नहिं राम ।
ते नर इस स्ंसार में, उपजि पये बेकाम ॥१७॥

सन्दर्भ— राम-नाम का महत्व अकथनी , अवर्णनीय, अनिवर्तनीय, तथा दिव्य है । कबीर ने विगत प्रसंगो में लिखा है कि "राम नाम तनमार हैॱॱॱॱ राम कहै भला होइगा, नहि तर भला न होइॱॱॱॱॱॱभगति भजन हरि नाम हैॱॱॱॱॱ प्रस्तुत साखो में कवि ने कहाँ है कि प्रेम, प्रीति तथा रामनाम के महत्वपूर्ण मत्रं से विहीन मानव का इन समार में अवतरित होना और पसन्द को प्राप्त होना सब बराबर है ।

भावार्थ—जिन प्राणियो के घट या शरीर में न प्रीति है न प्रेम रस और न जिह्वा पर राम नाम है । वे नर इस समार में उत्पन्न होकर भी व्यर्थ हो नष्ट हो गए ।

विशेष—(१) प्रस्तुत साखो को प्रदम पंक्ति बड़ी महत्वपूर्ण है । इस पंक्ति में कवि ने दो सारपूर्ण और तथ्यों की अभिव्यजना को है -(५)" जिन घटी प्रीति न प्रेम रस" (ग)" पूर्ण रचना नहि राम ।" कबीर को दृष्टि में आनंद के सरीर सायंकता तभी है, जब वह प्रेम या प्रीति रस मे ओत-प्रोत हो । वही जीवन धन्य है जो ब्रह्मा के रंग मे अनुरंजीत हो । इतना भी न हो, तो, जिस जिह्वा रामानाम रस से सिश्रित अवश्य होनी चहिए । परन्तु जिनके व्यक्तित्व मे उभय तत्वो का अभाव हो, उन्का संसार से उत्पन्न होना व्यर्थ है । (२) प्रस्तुत साखी मे कवि ने जीवन की सार्थकता का मुल्यांकन स्पष्ट शब्दो मे किया है ।

शब्दार्थ— फुनि=पुनि पुनः । रसना =जिह्वा । उपजि=उत्पन्न हो कर । पये=क्षय को प्राप्त हुए । वेकाम= व्यर्थ ।

कबीर प्रेम ना चषिया,चपि न लीया साल|
सूने घर का पहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव||

सन्दर्भ —अत्यन्त रोचक एवं सुन्दर अप्रस्तुत योजना से सम्पन्न प्रस्तुत साखी मे कबीर ने प्रेम तथा के मधुर स्वाद का उल्लेख किया है। जिन्हे यह महत्वपुर्ण अनुभव तथा सौभग्यपुर्ण परिस्थिति क आनन्द नही मिला, उन अभागो का इस संसार मे आना उसी प्रकार अर्थ विहीन है यथा सूने गृह मे अतिथि क आगमन प्नयॊजन रहित होता है ।

भावार्थ—कबीर का कथन है कि जिन प्राणियो ने प्रेम का आस्वादन नही किया और आस्वादन करके उसके आनन्द का अनुभव नही किया है । उन्का इस सन्सार मे जन्म लेना उसी प्रकार है यथा सुने घर मे पाहुन का आगमन निःसार होना है।

विशेष —(१)यथा शून्य मंदिर मे अतिथि के आगमन पर न कोइ स्वागत कर सकता है न उसके विदा के क्षरगो मे ममत्व पुर्ण अश्रु-प्रवाह कर सकता है, न कोइ स्नेह दे सकता है, न आशा ही कर सकता है , उसी प्रकार है वह प्राणी जिसने यहाँ से प्रेम नही किया (२) 'ज्यूॱॱॱॱॱॱॱॱजाव" से तात्पर्य है यथा खाली हाथ आया है उसी प्रकार उपलब्धि विहीन होकर वह जायेगा । अर्थात उसका संसार मे उत्पन्न होना व्यर्थ ही है।

शब्दार्थ— चपिया =चखिया=आस्वदन किया। लीया=लिया। स्वा =स्वाद। पाहुन्खा=पाहुना अतिथि । ज्यूं=ज्यों। त्युं=त्यों । जाव=जाय।

पहली बुरा कमाइ करि,बाँधी विष की पोट ।
कोटि करम पेलै पलक मैं (जय) आया हरि ओट॥१६॥

 

सन्दर्भ—कबीर का कर्मवाद तथा पुनर्जन्म मे दृढ़ विश्वास है । कर्म का प्रतिफल मानव को उपभोग करना ही पड़ता है। दुष्कर्मो के दुष्प्रभाव का उन्मूलन करने के लिऐ हरि की शरण मे जाना ही अपेक्षित हरि की शरण मे भव की एक भी बाधा नही रह जाती है। प्रस्तुत साखी मे कवि ने इसी भाव को रोचक शैली मे व्यक्त किया है।

भावार्थ— पहले बुरे कर्मो को अर्जित करके विष की पोटली बांधो। हरि की शरण मे आते ही कोटिशः दुष्कर्म पल मे क्षीण हो गाए।

विशेष—(१)कबीर ने प्रस्तुत साखी मे अत्यन्त तर्कपूर्ण ढंग से, अभिनव शैली मे कर्म सिध्दान्त का प्रतिपादन किया है। मानव दुष्कर्मो के प्रभाव से विनाश कि पथ पर अग्रसर होकर माया का चेरा बन जाता है। परन्तु हरि की शरण मे जाने पर दुष्कर्मो के प्रभाव से विलमित्रत हो जाते हैं।(२) कबीर ने कर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए उसकी औषधि हरिनाम की ओर सकेत किया है। पूर्वज के साथ ही यहाँ कर्म सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है।

शब्दार्थ—कमाइ=कमाकर। करि=कर। वाधो=संग्रह की। पोट=पोटली। करम=कर्म। पेलै=फेके, दूर करे। ओट=शरण।

कोटि कम पेलै पलक मै,जे रचक आवै नाउॉ।
अनेक जुग जे पुत्रि करै,नहीं राम विन ठाउॉ॥२०॥

सन्दर्भ—नाम का माहात्म्य अत्यन्त दिव्य एव प्रभावशाली है। ब्रह्म के नाम का लेश मात्र भी ध्यान करने से समस्त दुष्कर्म विलीन हो जाते हैं। युगो तक कृन पुण्य राम-नाम के बिना निसार है।

भावार्थ—कोटिश; दुष्कर्म क्षणमात्र मे विनष्ट हो जाते है यदि क्षण्मात्र 'राम' नाम का स्मरण होता है। अनेक युगो तक पुण्य करते(मनव) को राम नाम के अभाव मे कही ठौर नही है।

विशेष—(२) प्रस्तुत साखी मे राम-नाम का विस्मरण करने वाले प्रणियो के दुर्भाग्य का मूल्यांकन किया गया है। राम नाम के बिना समस्त नमस्त माघन और जप तप व्यर्थ ही नही निस्मार भी है। अनेक युग तक पुण्य करने से अनुरस मानव की साधना अपूर्ण एव अपरिपक्व है यदि रामनाम की साधना करने नही की है।(२) रामनाम के साधना के बिना संसार मे कही और नही है। कबीर ने नाम का महत्व इस काव्य मे अंकित किया है कि इस विशाल संसार मे राम नाम मे विगृत प्राणी के लिए कोइ अवाकाश नहीं है। (३) कोटि क्र्म मे से क्बीर का तात्पर्य यह है कि अनेक दुषकर्म क्षण मे नष्ट हो जाते हैं, प्राभावहीन हो जाते है।

शब्दार्थ—त्रम=कर्म। दुष्कर्म=पेन=नष कर दें।पलक-क्षण। रंचक= लेश्मात्र भी। नाउं=नाम। जुग=युग।पुन्नि= पुन्न=पुण्य। ठाउं=ठांव स्थान

जिही ह्र्री जैसा जाँरिग्याँ,तिन कूँ तैसा लाभ।
ओसो प्यास न भाजई जब लग धसै आभ॥

संदर्भ—कबीर ने प्र्स्तुत साखी मे कहा है कि माधव कि हरि के प्र्ती जैसी भावाना होती है, उसी प्राकार सिद्धि उसे समप्राप्त होती है। केवल अभिलाशा करने मात्र से उपलबिध नहीं होती है' संतुष्ट होती यथार्थ रूप मे उपलबिध हो जाने पर।

भावार्थ—हरि को जिसने जिस रूप में जाना उसको उसी रूप मे लाभ होता है। ओम से प्यासे या पिपासा नहीं दूर होती। जब तक पानी नही प्रवेश करता तब तक पियासा कैसे शांत होगी।

विशेष- कबीर ने प्रस्तुत साखी की प्रथम पंक्ति मे यह भाव व्यक्त किया है कि हरि कि साधना जिसने जिस भाव से की तदनुसार उसे सफलता प्राप्त होती है(2)कबीर की प्रस्तुत पंक्ति पर संसकृति उक्ति याहशी भावना यस्य सिद्धिभंवति ताहशि का पूर्ण प्रभाव है(3)मानव के विश्वास ही वास्तविक रूप से फलदायक होते है। जैसा विश्वास होता है उसी प्रकार की प्राप्ति होती है । (4)"ओ पो प्यास न भाजई" से तैत्पर्य है । माया रूपी ओस के चाटने से भौतिक ताप या लौकिक विषमताएं दूर नही होती है । पयास या अभाव या तृणा तभी दूर होती है जब ब्रह्मभक्ति या सदगुरु के उपदेश रूपी शीतल जल की प्राप्ति होती है।

शब्दार्थ—जिहि=जिसने । जणिया= जनिया-पहचाना । तिन =उन। कूं=को । श्रोसो =श्रोस से ।भाजई = भगती है,दूर होती है । धसै प्रवेश करे श्राभ-जल।

राम पियारा छांडि करि, करै श्रान का जाप|
चेम्वां केरा पृत ज्यूं, कहे कौन सूं बाप||||

संदर्भ—प्रस्तुत पंक्ति साखी में कवि ने राम नाम का अनन्या आदितिय महत्व की और संदेश दिया है राम नाम के जाप से विमुख आन देव की उपासना में अनुरक्त मे मानव की स्थिति वेश्या के पुत्र जैसी है। वह किसे अपना पिता कहे ? इसी प्रकार वहु देवोपासना मे अनुरक्त प्राणी किसे अपना प्रिय देव कहेगा?

भावार्थ—प्रिय राम को छोड़ कर जो अन्य का जप करता है, वह वेश्या पुत्र के सदृश है जो अपने पिता को नही जानता है। यह किसे अपना पिता कहे?

विशेष—(१) प्रस्तुत साखी का पाठ करते ही पाठक के मस्तिष्क पर कबीर क्षत्यधिक स्पष्ट वादिता तथा क्टूलियो की छाप अंकित हो जाती है। "बेस्वा केरा पूत ज्यूं कहै कौन सूं वाप" पत्ति वास्त्व मे कटुना तथा स्पष्ट वादिता से सम्पन्न होते हुए भी अत्यन्त यथाथं तथा सत्य है। यथा वेश्या का पुत्र सब पिता से अनिभिज्ञ होता है तथा बहु देवोपासना मे अनुरत्त किसे अपने स्वामी, प्रभू और देवता मान सकता है। (२) राम पियारा 'तात्पर्य है प्रियराम।' लौकिक जीवन मे जो स्वजन-परिजन प्रिय है उनसे भी प्रियतर, प्रियतम राम (३) "छांदि कर" से तात्पर्य है उपेक्शा करके। (४) आन" का तात्पर्य है अन्य। पर यहां पर उस्का अभिप्राय हो "वहुदेव।" आन क प्रयोग "माया या" माया जनित तत्वो की ओर

शब्दार्थ—पियारा = प्यारा, प्रिय। आन= अण्य। जाप= जप। चेस्त्रां= चेश्या। केरा= का। ज्यूं- ज्यो सू- से।

कबीर आपण राम कहि स्पौरां राम कहाई।
जिहि मुखि राम न ऊबरै, तिहि मुख फेरि कहाइ॥२३॥

सन्दर्भ—राम नाम का महात्म्य तथा गौरव वर्णनातीत है। कबीर ने तो रामनाम के अतिरिक्त अन्य समस्त्र साघना को अपार दुख का द्वार माना है। "भगति भजन हरि नाव है,दूजा दुक्ख अपार।" अत. 'मनसा वाचा कर्मणा कबीर सुमिरण सार ।"अत; कबीर स्वत; राम कहने और दूसरे से प्रयत्न पूर्वक राम कहलाने के पक्ष मे है।

भावार्थ— कबीर कहते है कि स्वत: राम कहिये और दूसरो से। राम नह- लाइये। जिन के मुख से राम नाम का उच्चारण उस्के मुंह मे पुनः (प्रयत्न पूर्वक) नाम उच्चारण कराइये।

विशेष— प्रस्तुत साखी मे कबीर ने दूसरी मे राम नाम के प्रति व्यभिचि समुत्पन्न करने के सम्बन्ध मे उपदेश किये है। "जिहि पुसी राम न ऊचरै" महाए घमो भाच की परि पुष्टि के लिये पर्याप्त है। जिन मुख ने राम नाम का उच्चारण न हो उनमे प्रयत्न पूर्वक नाम उच्चारण करना चाहिये।

का० मा० पा०—७   शब्दार्थ—आपसा=आपन=अपना। कहि = कह। ओरा=औरो=अन्योसे। कहाइ=कहा, कहलाइये। जिहि=जिहु=जिस। मूखि=मुख। ऊचरै=उच्यरै =उचारण हो। फेरि=पुन:।

जैसे माया मन रमैं, यूं जे राम रमाइ।
(तौ) तारा मडंल छाँड़ि करि, जहाँ केसो तहाँ जाइ॥२५।।

सन्दर्भ—यथा मन माया मे रमता है, तथा यदि राम में रम जाय तो मानव लौकिक और सांसारिक सीमाओं का उल्लंघन करके ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाय।

भावार्थ—जिस प्रकार माया मे मन रमता है उसी प्रकार यदि राम में रम जाय, तो लौकिक सीमाओ का अतिक्रमण करके मानव राम में रम जाए।

विशेष—प्रस्तुत साखी मे कवि ने राम नाम और राम के कल्याणकारी व्यक्तित्व का उल्लेख किया है। मनुष्य का मन यदि राम में उसी प्रकार रम जाय यथा माया में रमा हुआ है,तो वह ब्रह्म के साथ एकात्मकता संस्थापित कर सकता है। ‍(२‌) "तारा मण्डल छाँडि करि" से तात्पर्य है लौकिक सीमाएँ। लौकिक सीमाएँ से तात्पर्य है संसार की सीमा। ‍(३) "जहाँ केसो तहां जाइ" से तात्पर्य है जहाँ से आप है वही जायेगा। अर्थात् जिस ब्रह्म का उग्र रूप तू है उसी सर्वात्मा में तू समाविष्ट हो जायेगा। (४) प्रस्तुत साखी में कवि ने बड़े ही सुन्दर और शैली में उस मानव की आलोचना की है। जो माया में अनुरक्त ब्रह्म से विरक्त है।

शब्दार्थ— = रमै = रमे = प्रवृज हो। यूं = इस प्रकार । जे = यदि । रमाइ = रमे । तारा = नक्षत्र । जाइ = जाये।

लुटि सकै तौ लूटियौ, राम नाम है लूटि।
पीछैं ही पछिताहुगे, यहु तन जैहै छूटि।।२५।।

सन्दर्भ—प्रस्तुत साखी में कवि ने राम नाम सुलभता और जीवन की क्षण भंगुरता की ओर संकेत किया है। कवि ने बड़ी स्पष्टता के साथ कहा है जब "यहु तन जैहै छूटि" तब "पीछैं ही पछिताहुगे।"

भावार्थ— राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट ले। अन्यथा जब तन से आत्मा विलग हो जायेगी तब पीछे पछताना पड़ेगा।

विशेष— ‍(१‌) राम नाम का ही सुलभ है। राम नाम बड़ा ही कल्याणकारी तत्व है। इस प्रकार के कल्याणकारी तत्व की उपेक्षा करने के कारण मानव का बड़ा अहित होता है। फिर भी मानव सचेत नहीं होता है (२) पीछे....छूटि न कवि ने यह बताने की चेष्टा की है कि प्राणान्त हो जाने पर पछताना पड़ेगा। प्राणगान्त हो जाने पर पछताने का का कौन सा अवसर है? मृत हो जाने पर संज्ञा विहीन होने पर पछताना शेष रहेगा? इस शंका का समाधान इस प्रकार हो सकता कि यह जीवन माया मे सलग्न रहकर, पथ भ्रष्ट होकर, लक्ष्य विहीन हो जायेगा और पंचतत्व को प्राप्त होकर पुनः जन्म-मरण के क्रम मे निवध्द होगा, एक बार सत्यता पूर्वक ब्रह्म का स्मरण करने पर मानव ब्रह्माकार हो जाता है। परन्तु इसके विपरीत माया मे सलग्न रहने के कारण वह दूसरे जन्म मे भी पश्चाताप की अग्नि मे प्रदग्ध होता रहता है।

शब्दार्थ — लूटियौ = लूटिये। पीछै= मृत्य के अनन्तर। दूसरा जन्म धारनण करने पर।

लूटि सकै तौ लूटियौ, राम नाम भंडार।
काल कंठ तै गहैगा, रुंधै दसू दुवार॥ २६ ॥

संदर्भ — प्रस्तुत साखी मे कबीर ने काल को प्रबलता, मानव जीवन की क्षण भंगुरता, मानव की विवशता और राम नाम की सुलभता की ओर संकेत करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मानव समाज को चेतावनी प्रदान की हैं।

भावार्थ — राम नाम का भण्डार विद्यमान है। उसे लूट सके तो लूट ले। अन्यथा काल कण्ठ से पकड़ लेगा और दसो द्वार रुध देगा।

विशेष — विगत साखी मे कवि ने चेतावनी देते हुए कहा है पीछे ही पछिता हुगे यह तन जैहै छूटि और इस साखी मे उसी भाव की अधिक प्रभावशाली अभिव्यक्ति के साथ 'काल कठ तै गहैगा, रुधै दसू छुवार' के रूप मे प्रस्तुत किया है। (२) कवि ने राम नाम भण्डार का उल्लेख करके राम नाम को प्रचुरता और सुलभता का उल्लेख किया है। राम नाम की सहश सुलभ और प्रभावशाली अन्य तत्व नही है इसीलिए उसने प्रस्तुत परिच्छेद को तेइसवीं साखी मे आदेशात्मक उपदेश दिया है कि 'कबीर आपण राम कहि औरू' राम कहाई। जिंहि मुख राम न आरे, तिहि मुख फेरि कहाइ।' राम नाम से विमुख प्रणियों के लिए कवि ने कहा है 'ते नर उस संसार मे उपजि पये वेकाम।'(३) बाल कट तै गहैगा से तात्पर्य है कि काल कण्ठ से ही पकड कर मृत्यु के मुख मे डाल देगा। (४) रंधै दसू दौवार का तात्पर्य है काल दसो द्वार लयरुद कर देगा। दस द्वार है यहा रन्ध्र, कर्म, नेप, नासिका, मुख, गुदा, शिस्तेन्द्रीय।

शब्दार्थ—गहैगा= पकड़ेगा। रुंधै= अवसद करेगा। दसू= देखो। दुवार= द्वार।  

लंबा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार ।
कहौ संतौ कू पाइये, दुर्लभ हरि दीदार ॥ २७ ।।

संदर्भ— प्रियतमा का प्रदेश बहुत दूर है । वहा का मार्ग अत्यन्त लम्बा

और भांति-भांति की बाधाओ से सम्पन्न है । ऐसी स्थिति से प्रियतम के दुर्लभ दीदार कैसे प्रास होगे ?

भावार्थ—मार्ग लम्बा है, घर दूर पर है, विकट पथ है और अनेक प्रकार के आघात है । हे संतजन ! फिर हरि के दुर्लंभ दीदार कैसे प्राप्त होगे ।

विशेष—, १ ) प्रस्तुत साखी से कवि ने प्रियतम के प्रदेश की दूरी तथा हरि के दर्शनों की दुलंभता का उल्लेख किया है । अथर्ववेद से उसकी सर्वत्र विदधॄयमानता सम्बन्ध मे कहा गया है । ओइम् । यस्तिष्ठति चरति यच्चवच्चति यो निलायं चरति: य: प्रतडूम । दौ सनिनवध्य यन्मन्त्रयेते राजा तदेव वरुणस्तुर्ताय: । उस प्रियतम का प्रदेश कवि ने दूर माना है । ब्रह्म सर्वत्र विधयमान होते हुए भी निकट है । वह ज्ञान चक्षु के द्वारा दृष्टिगत होता हे । अन्यथा वह दूर हो है । (२) उसको प्राप्त करने का मार्ग (साधना) बड़ा लम्बा है । (३) 'विकट पंथ' ' 'मार' से तात्पर्य है साधना का मार्ग अनेक बिधून-बधाओ से सम्पन्न है । माया, तृष्ण, लोभ, काम आधि साधक को उस मार्ग पर गतिशील नही होने देते हैं । (४) दुर्लभ हरि दीदार" से तात्पर्य है प्रियतम के दर्शन साधना, संयम तथा शाक्ति के विना सम्भव नहीं है ।

शब्दार्थ— मऱरग= मार्ग, रास्ता । विकट - कठिन । मार - आघात । दीदार - दर्शन ।

गुण गायें गुण नाम कटै, रटै न राम वियोग ।
अह निसि हरि ध्यावै नहीं, क्या पावै दुर्लभ जोग ।।२८।।

संदर्भ-प्रसतुत साखी मे कबीर ने राम नाम के महत्व का पुन: उल्लेख किया है । राम नाम का प्रभाव वहा व्यापक और असाधारण है । नाम जप के प्रभाव से मध्या के वचनं विच्छिन्न हो जाते । फिर भी मानव इस पुण्य कर्तव्य से विमुख है ।

भावार्थ— राम नाम का गान करने से माया का पाश विरिछंन हो जाते हैं । फिर भी (मानव) राम के वियोग में नाम जप नहीं करना है । जव रात दिन हरि का ध्यान नही करेगा, तव फिर दुर्लभ अनन्त योग कैसे प्राप्त होगा ।

विशेष—(१) प्रस्तुत साखी में कबीर ने 'गुण' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया है प्रथम गुण या अर्थ है हरीनाम के गुण या विशेष ना और द्वितीय स्थान पर 'गुण' शब्द का प्रयोग माया के पास के हेतु । हुआ है (२) गुण......कटे" अशिक्षित कवि कबीर की काव्य प्रतिभा के दर्शन होते हैं। प्रस्तुत पंक्ति से कबीर साहित्य में प्रयुक्त अलंकारों के सहज-रूप के दर्शन होते हैं। सहज अभिव्यक्ति के साथ सहज रूप में अलंकारों का प्रयोग कबीर की विशेषता है। (३) रटे...वियोग से तात्पर्य है राम के वियोग में नाम-जप नहीं करता है। इसी प्रकार प्रस्तुत परिच्छेद की बारहवीं साखी में कवि ने लिखा है "काहे न देखै जागि" और ग्यारहवीं साखी में भी इसी प्रकार कवि ने लिखा है "जागि न जपे मुरारी। (४) अह निमि हरि ध्यावैं नहीं' से तात्पर्य है रात दिन हरि के नाम का जप नहीं करता है। रात दिन के नाम-जप के विषय में कबीर ने बारम्बार उपदेश दिया है। प्रस्तुत परिच्छेद की १६ वीं साखी में कबीर ने इसी प्रकार लिखा है" राति दिवस कै कूकर्मौं (मत) कबहूँ लगै पुकार" (५) 'दुर्लभ जोग' ब्रह्म के साथ दुर्लभ योग या तादात्म्य संस्थापना। ब्रह्म स्वतः दुर्लभ है और उसके साथ योग सत्यापन और भी दुर्लभ है। यहाँ पर कवि ने इसी भाव की ओर संकेत किया है यजुर्वेद में उस ब्रह्म को सर्व व्यापकता के सम्बन्ध में कहा गया है 'सः क्षोतः प्रोतश्च विभुः प्रजासु'। फिर भी वह दुर्लभ उन लोगों के लिए है जो माया-से परिवैष्ठित ही है। (६) सम्पूर्ण साखी में कवि ने नाम-जप के कर्त्तव्य से विमुख प्राणियों को सचेत करने को चेष्ठा को है।

शब्दार्थ—वियोग = वियोग। अह निसि = अहर्निश-दिनरात। दुर्लभ = दुर्लभ।

कबीर कठिनाई खरी सुमिरतां हरि नाम।
सूली ऊपरि नट विद्या, गिरूं त नहीं ठाम॥२९॥

संदर्भ—प्रस्तुत साखी में कबीर के नाम जप या साधन को दुरुहता की ओर संकेत किया है। साधना का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम और दुःसाध्य है यथा शूली पर नट की कला का प्रदर्शन कठिन शूली के ऊपर अपनी कला का प्रदर्शन करने वाला नट लेशमात्र भी असावधान होते ही धराशायी हो जाता है उसी प्रकार साधक अपने से भ्रष्ट होते ही कही पर भी नहीं स्थान पाता है।

भावार्थ—कबीर कहते हैं कि हरि नाम के स्मरण में अनेक कठिनाइयाँ है। यथा शूली के ऊपर नट अपनी कला का प्रदर्शन करता हुआ जब गिरता है तो उसके लिए कोई स्थान नहीं रहता है।

विशेष—प्रस्तुत साखी में की कवि ने साधक तथा नट की तुलना की है साधना में साधक और कला के प्रदर्शन में एकाग्रता अत्याधिक अनिवार्य और संदिग्ध होता है। एकाग्रता विनष्ट होते ही दोनों ही रूपवंचित हो जाते हैं। योग से पवित्र भोगी और शूली पर से पवित्र नट प्राण रहित हो जाता है। इसीलिए कबीर ने ठीक ही कहा है कि ‘ गिरु तो नाही ठाम । (२) "कबीरॱॱॱॱ नाम से तात्पयं है कि हरि नाम स्म्र्र्ग मे बहुत सो कठिनाइयॉ है। काम,क्रोध,मद, मोह, लोभ आदि शत्रु आव्रमर्ग करते है और मन विश्वासघात करता है माया आनी ओर आक्र्शित करती है यही साघन के मार्ग मे कठिनाईयॉ है।

शब्दार्थ — सुमिरता = स्मरन करने मे। सूली=शूली। ठाम=स्थान।

कबीर राम ध्याइ लै, जिभ्या सौं करि मंत।
हरि सागर जिनि बीसरै, छीलर देखी अन्ंत ॥ ३०॥

सन्दर्भ — प्रस्तुत साखी मे कबीर ने राम नाम से अनुराग उत्पन्न करने जप की साधना मे अनुरक्त रहने तथा सांसारिक स्वादों का परित्याग करके हरि राम से प्रेम करने और उसे जिबभा पर धारण करने का उपदेश दिया है। इसी साखी के उतरार्घ मे कवि ने हरि सागर की उपेक्षा करके लौकिक छीलरो से अनुराग करने वालो को चेतावनी भी दी है।

विशेष—(१)'कबीर ॱॱॱ लै' के द्वारा कबीर ने वारम्बार उसी भाव की अभीव्यक्ति की है, जिसका उल्लेख काव्य में प्रस्तुत 'अंग' मे वारम्बार किया है। राम नाम की महत्त्व का उल्लेख करते हुए कबीर ने अनेक बार कहा 'कबीर आपरग राम कहि, और राम कहाइ' तथा ‘ कबीर ने उनेक बार कहा ' कबीर आप्रग राम कहि ,और राम कहाइ' तथा ' कबीर निरभौ राम जपि , जव लग दोवे वाती।, (२) "जीब्या सो करिजजग्यत से ताप्च्ये है कि जीहा के साथ मोत्री करले। यह जीहा जो भैतरीक और लोवीक रसो और स्वादो मै अनुरुत है, ऊस पर आधेकारी तथा सयम स्थापीत करले। यह जीहा जो रसो के पान करने मे अनुरुत है। उसे हरे रस को पान करने मै अनुरस्त करेल।"; (३) 'हरि सगर से तात्पर्य है की वह रुपी सागर । अघाद, अन्त तथा पार होता है, उसी प्रकार हरी या ब्रह्म अन्न्त, अगाध तथा अप्राद है। (४) छ्लर दखी दन्न्त ' तातपर्य है अनेक पोखरे। पोखरे या छीलर प्रयोग यहा पर लोविक या । भौतिक प्रलोभ्नो के लीए वीया गया है तात्पर्य है की लोविक प्रलोभनों के लीए कीया गया है त्तवर्य है की लोविक प्रालोभनो मै प्लवर अलौकिक तत्व को नहि भुलना चाहीए।

शब्दार्थ—व्याह=ध्यान वाले जिभ्या=जिह्वा मंत= मंत्री जिनीमत वीर थे मुल पोलर पोयरे तालाब

कबीर राम रिझाऊं ले, सुख अमृत गुण गाइ।
फूटा नग व्यूं जोड़ी मन संगे संग भलाई।।३६||

 

सन्दर्भ -अमृत के सदृश मधूर एवं कल्याण्कारी रामनाम के रस को जिह्वा पर धारण करके मनुष्य के लिए यह उपयोगी है कि वह राम को रिझा ले तथा फूटे हुए नग को कोने से कोना मिला कर जोड़ लिया जाता है,उसी प्रकार इस मन को उस मन से जोड़ने का यत्न करना चाहिए।

भावार्थ -कबीर दास काहते हैं कि मुख से अमृत तत्व पर ब्रह्य का गुण-गान करके उसे अपने प्रति आकर्षित कर ले । तथा फूटे हुए नग को कोने से कोना मिला कर जोड़ा जाता है, उसी प्रकार मन को ब्रह्य से जोड़ ले।

विशेष-(१)कबीर जनता के कवि हैं । उन्होने जनमाधारख मे प्रचलित उक्तियो और अप्रस्तुत् योजना को लेकर अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्यों को व्यक्त करने को चेष्टा मे आशतीत सफलता प्राप्त की है फूटा नग ज्यूं , जोड़ी मन सधे माधि मिलाइ"मे यह प्रयुक्त अप्रस्तुत योजना सहज होनो के साथ ही साथ औचित्यपूर्ण भी है।(२)फूटे हूए नग को जोड़ने की प्रक्रिया एकाग्रता तथा कौशल को अपेक्षा करती हे । उसी प्रकार ब्रह्य से वियुक्त मन को कौशल एवं एकाग्रता के साथ जोड़ना आवश्यक है।(३)"राम रिझाइ लै वारम्वार प्रार्थना एवं नाम जप के द्वारा ब्रह्म को अपने प्रति आकर्षित एवं प्रसन्न कर ले । सेवा के द्वारा प्रियतम प्रबल को अपने प्रति रिझा लेना चाहिए।(४)मुखि...गाइ से तात्पर्य है मुख ने अमृत तत्व अथार्त ब्रह्य के गुणो का गान कर ले अमृत का अर्थ वह ब्र्ह्य जो अजर अमर अनादि और अन्त है।

शब्दार्थ-रिभ्ताई=प्रसन्न । लै=ले मुखि =मख,मुह । अमृत=अमर । गाइ=गान कर । मघे=सधि ।

कबीर चित चमॅकिया,घहॅ ढिसी नागी लाइ ।
हाथु घडा,वेग लेहु वुक्ताई ॥ ३२ ॥

सन्दर्भ—वासना तृणा और माया की अग्नि या दाह ने मन की एकाग्रता को विनिष्ट कर दिए है यह दाह,सताप या पीटा तभि विनष्ट हो जाती है जब हरिनाम पीतल जल को ग्रहण करके उसे फरने को चेष्टा मे मानव अनुभात्न और दतघित हो ।

भावार्थ-कबीर कहते है कि माया(या वनाना या तृष्णा)वो अग्नि हरिरम की दुआ हओ।हमसे द्वार भगवान को पूजा-पिट करना हो ।

विशेष-(१)भग्वन् को प्रसाद् करने के लिये अछि काम करना पडता है । उस के लिए अछि परिवार ने हम को सहायता देती है। जीवन में घटित करने का प्रयत्न किया है वासनाओं और माया द्वारा प्रदग्ध अग्नि को नाम सुमिरण के जल के द्वारा ही प्रशान्त किया जा सकता है कबीर ने यहाँ पर अत्यन्त सुलभ उक्ति के द्वारा आध्यात्मिक जगत के भाव को प्रभावशाली बनने की चेष्ठा की है। (२) कबीर...लाइ से तात्पर्य है कि वासना की अग्नि चारों दिशाओं, सर्वत्र लगी है और उसके प्रभाव से मन चमत्कृत हो उठा है संसार के सर्वत्र माया की अग्नि प्रज्वलित है। और मन उसमें रमा हुआ था अत्त्यन्त अनुरक्त है। (३) वेगे लेहु बुझाइ-शीघ्र ही इस अग्नि बुझा लो। कबीर ने यहाँ वेगे शब्द का प्रयोग किया है। क्षणभङ्गुर जीवन किसी पल विनष्ट हो सकता हैं। अतः मानव के लिए यह आवश्यक है कि अत्यन्त शीघ्रता के साथ जीवन की बिगड़े क्रम में सुधार के करले। (४) हरि...घड़ा से तात्पर्य है कि हरि नाम रूपी जल का घड़ा हाथ में है।

शब्दार्थ—चमकिया = चमत्कृत। चहुँ = चारों। दिसि = दिशा। लाइ = ज्वाला, अग्नि। हाथू = हाथों में। वेगे = शीघ्र ही। लेहु = लो। बुझाइ बुझा।