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कबीर ग्रंथावली/(३) बिरह कौ अंग

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लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ १०४ से – ११७ तक

 

 

३. विरह कौ अंग

रात्यू रूंनी बिरहिनीं, ज्यूं बंचौ कूं कुंज।
कबीर अंतर प्रजल्या, प्रगठ्या विरहा पुंज॥१॥

सन्दर्भ—क्रौंच पक्षी का विरह जगत प्रसिद्ध है। उसी प्रकार विरहिरनी आत्मा प्रियतम के वियोग में जीवन निशा या विरह निशा भर रुदन करती रही। साधना अन्तस में जब से विरह की भावना उद्दीप्त हुई तब से समस्त कलुष दूर हो गए।

भावार्थ—रात भर विरहिणी रोई यथा क्रौंच पक्षी अपने बच्चों के लिए रोती है। कबीर कहते हैं कि विरह के प्रज्वलित होने पर अंतर प्रज्वलित हो गया।

विशेष—(१) प्रस्तुत साखी में कवि ने विरही साधक तथा क्रौंच की परिस्थिति और विरहानुभूति में साम्य उपस्थित करते हुए दोनों के विषाद का उल्लेख किया है। विरही आत्मा और क्रौंच दोनों प्रिय के वियोग में अत्यन्त व्याकुल रहते है। विरहनिशा भर आत्मा शिव के हेतु रुदन करती रही उसी प्रकार क्रौंच पक्षी की परिस्थिति है। (२) "रात्यू" से तात्पर्य रात भर। यहाँ पर "रात" का प्रयोग कवि ने उसी अर्थ में किया है जिस अर्थ में पाश्चात्य रहस्यवादियों ने "डार्क नाइट" आफ़ दिसोल" अर्थात् आत्मा की अन्धकारपूर्ण रात्रि" का प्रयोग (२) "अन्तर प्रजल्या" से तात्पर्य है अन्तस प्रज्वलित हो गया। विरह पुंज के प्रकट होने पर अन्तस प्रज्वलित हो गया। जो अन्तस वासनाओं का केन्द्र स्थल बना हुआ था, वह विरहाग्नि के प्रज्वलित होने पर अब प्रज्वलित हो उठा।

शब्दार्थ—रात्यूं = रात में। रूनी = रोई। बचौं = कूं = को। कुंज प्रजल्या = प्रज्वलित हुआ। प्रगट्या = प्रकट हुआ। पुंज = घनीभूत।

अंबर कुंजा कुरलियां, गरजि भरे सत्र ताल।
जिनि थैं गोविन्द वीछुटे, तिनके कौंण हवाल॥२॥

सन्दर्भ—आकाश क्रौंच पक्षी के आतं क्रन्दन से परिपूरित हो उठा। फलतः जलद का अन्तस आर्द्र हो उठा और उसके रूदन से जलाशय ओत-प्रोत हो उठे। परन्तु जो प्राणी गोविन्द से विमुख हैं, उनके प्रति कौन संवेदनशील होगा।

भावार्थ—क्रौंच पक्षी ने आकाश में आर्त क्रन्दन किया जिससे आर्द्र होकर घनश्याम ने सरोवरों को जल से ओत-प्रोत कर दिया। परन्तु जो गोविन्द अर्थात् भगवान से विमुख है, उनकी तथा दशा होगी। भगवान से वियुक्त उन प्राणियों पर कौन कृपा भाव प्रदर्शित करेगा।

शब्दार्थ—अम्बर = आकाश। कुंजा = क्रौंच। गरजि = गर्जन करके। पै = से। वीछुटे = विछुड़े = वियुक्त। कौण = कौन। हवाल = हाल।

चकवी बिछुटी रैणी की, आइ मिलि परभाति।
जे जन बिछुटे राम सूं, ते दिन मिले न राति॥३॥

सन्दर्भ— चकवी रात्रि के अभिशप्त क्षणों में अभिशाप वश प्रिय से वियुक्त हो गई, परन्तु सूर्य की किरणों के आलोकमय वातावरण में वह अपने प्रिय से पुनः मिल गई। परन्तु माया के प्रभाव से परम पिता से वियुक्त प्राणी परम प्रिय से कभी नहीं मिल पाती है।

भावार्थ—रात्रि को बिछुड़ी हुई चाकवी, प्रनात के क्षणों में प्रियतम से पुनः मिल गई। परन्तु माया के प्रभाव से भगवान के सम्पर्क से पृथक प्राणी ब्रह्म की शरण में कभी नहीं पहुँच पाता है।

शब्दार्थ—रैणि = रैन = रात्रि। परभाति = प्रभाव। विछूडे़ = विछड़े, वियुक्त। राति = रात = रात्रि।

वासर सुख नाँ रैन सुख, ना सुख सुपिनै माहि।
कबीर बिछुढ्या राम सूँ, नौ सुख धूप न छाँह॥४॥

सन्दर्भ—राम से वियुक्त प्राणी को कभी किसी दशा या परिस्थिति में में सुख नही प्राप्त होता है।

भावार्थ—कबीर कहते हैं कि राम से वियुक्त प्राणी को न रात में सुख है, न दिन में; न वह स्वप्न में शान्ति प्राप्त करते हैं न जाग्रतावस्था में। धूप अथवा छाह में भी वह शान्ति नहीं प्राप्त कर पाता है। तात्पर्य यह है कि ब्रह्म की शरण ही समस्त सुख है। वही सुख निधान है, वही शान्ति-निकेतन है।

शब्दार्थ—बासर = बासर = दिवस। रैन = रात्रि। सुपिनै = स्वप्न में।

विरहिन ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझे धाइ।
एक सवद कहि पीव का, कवर मिलैंगे आइ॥

सन्दर्भ—प्रस्तुत साखी में विरहिणी की व्यग्रता, अधीरता, मानसिक व्यथा को व्यक्त किया गया है।

भावार्थ—विरहिणी मार्ग पर खड़ी पथिकों से पूछ रही है कि प्रिय का समाचार बताइए। वे कब आकर मिलेंगे, अनुग्रहीत करेंगे।

शब्दार्थ— ऊभी = खड़ी। सिरि = सिरे पर। बूझे = पूँछे। घाइ= = दौड़ कर। कबर = कबरे, अरे कब।

बहुत दिनन की जोबती, बाट तुम्हारी राम।
जिब तरसैं तुझ मिलन कूँ, माने नांही विश्राम॥

सन्दर्भ— प्रस्तुत साखी में आत्मा रूपी विरहिणी की विरह भावना बड़े मार्मिक शब्दों में व्यक्त हुई है।

भावार्थ— हे राम! हे प्रिय! बहुत काल से अर्थात् जाने कब से तुम्हारी बाट जोह रही हूँ, तुम्हारी प्रतीक्षा में अनुरक्त हूँ। तुमसे एकात्मकता संस्थापित करने के लिए मेरा जी व्यग्र है और मन में शांति नहीं है।

शब्दार्थ—जोवती = जोहती = प्रतीक्षा करती। वाट = मार्ग। जिव = जी, प्राण। विश्राम = शान्ति।

बिरहिन ऊठै भी पडै, दरसन कारनि राम।
मृवां पीछे देहुगे सो दरसन किहि काम॥७॥

सन्दर्भ—प्रस्तुत साखी में विरहिनी की कृशावस्था, और विरह के दुषप्रभाव का चित्रण किये गये हैं।

भावार्थ—हे राम! विरहिनी तुम्हारे दर्शन के लिए उठते हैं और पुनः गिर पड़ती है। यदि मृत्यु के अनन्तर तुम्हारे दर्शन हुए भी तो किस काम के उससे क्या लाभ होगा।   शब्दार्थ-ऊठै= उठे । भि= फिर । पडै= गिर= गिर पडती है । दरसद=दर्शन। कारनि = कारणी।

मृवा पीछै जिनि मिलै कहै कबीरा राम ।
पाथर घाटा लोह सव (तथ) पारस कौणे काम ॥ ८ ॥

सन्दभॆ- प्रस्तुत साखी का वण्यं-विषय सप्तम साखी के विषय से साम्य रखता है । कवि ब्रह्म अनुग्रह का आकांक्षी हैं, परन्तु शरीर रहते ही ।

भावार्थ-कबीर कहते है कि है राम । पचतत्व में मिल जाने के अनन्तर यदि आपने अनुग्रह किया तो उससे लाभ, उससे प्रयोजन? पारस पत्थर की खोज मे, खोदते-खोदते यदि लौहस्त्र यदि पूर्णतया घिस जाये,और अन्त में पारस के पत्थर प्राप्त भी हो तो उसका क्या प्रयोजन ।

शब्दार्थ--मूवा = मृत्यु । जिनि = मत । पाथर = पत्थर घाटा = क्षीण । कौने = किरु ।


अन्देसडा़ न भाजिसी, सन्देसौ कहियाँ ।
कै हरि आया भाजिसी, के हरि ही पासि गयाँ ।।६१।।

सन्दर्भ—प्रातुत साखी से वियॊगिनी आत्मा की द्वन्द्वात्मक परिस्थिति और अनुभूति का चित्रण हुआ है ।

भावार्थ— साधना के पथ पर प्रतीक्षित विरहिणी, उस पथ के पथिको द्वारा प्रियतम की सेवा मे संदेश भेजती हुई कहती है कि द्वन्द्व या सवल्पविकल्प की स्थिति दूर नहीं होती है। या तो प्रिय कृपा करके अनुग्रह करें या मैं ही प्रिय की सेवा में प्रस्तुत हूँ ।

शब्दार्थ -अदेसटा = अवेणा =चिन्ना,द्वन्द्व् भाजिसी = नाहीं दूर होगा । संदेसौ = सन्देश । कहियॉ =कहना । फै = या ।


आइ न सकौ तुझ पै, सकूॅ न तुझे बुलाइ ।
जियरा यौंही लेहुगे, विरह तपाइ तपाइ ।।१०।।

सन्दर्भ— प्रस्तुत साखी में कवि या साधक की वीरह भावना को ध्यान हुई है साधन अपने हीनताओं के रूप में परिमल है।


भावार्थ —आत्मा रूपि विरहिणी प्रियतम की प्रनि निदेश करति हुई कहती है कि हे प्रिय । मैं तृम्हारे पास् अपनी सीमावों, हीनतावों के कारण नहीं और तुम्हें अपने पास बुला अपने को मना नहीं वरिष्ठ कर पाई प्रत्येक काहे की बिरहा की अग्नि में इसी प्रकार तप तप कर प्राण में लोगे।  

शब्दार्थ— तुझ पै - तुम्हारे पास । तुभ्क = तुम्हे । जियरा - जी, प्राण त्तपाइ - तपा करके ।

यह तन जालौं मुसि करुं ज्यूं धूवाँ जाइ सरग्गि ।
मति वै राम दया करैं, बरसि बुझावे अग्नि ॥

सन्दर्भ— विरहिणी की आकांक्षा का अभिनव स्वरूप । शरीर को विरह की अग्नि मे जलाकर भस्म कर डालने की इच्छा, जिसमे धुवा आकाश की ओर जाय और धुंवे के प्रभाव से प्रिय का ध्यान प्रियतमा की सतप्तावस्या की ओर आकर्षित हो ।

भावार्थ— विरहिणी सोचती है कि इस शरीर को इस शरीर को विराहाग्नि मे प्रदग्व जला दूं जिससे धुवाँ आकाश मे जा पहुँचे। सम्भव है कि धुंवे को देखकर चे राम कृपाचारि, अनुग्रह जल बरसकर मेरे विरह जोवित संताप को दूर कर दें।

शब्दार्थ—जालौ=जला दूं । मसि=स्याही । धूवा=धुवाँ =धूम्र । सरागी=सरग=स्वर्ग=मति=शायद, सम्भव है । अग्नि=आग=अग्नि ।

यहु तन जालौ मसि करौं,लिखौं राम का नाउँ।
लेखणि करूँ करंक की,लिखि लिख राम पठाऊँ॥

संदर्भ—विरहीणि की इच्छाएँ नए-नए रुपों में प्रकट हो रही हैं। यहाँ एक और अभिनव कामना। जिस प्रकार भी-प्रिय का ध्यान आकर्षित हो वह कार्य करना है गंतव्य तक पहुंचना है। लक्ष्य की स्मुप्लब्धि ही व्यय बन गया है।

भावार्थ— विरहिणी की आत्मा इच्छा करती है कि इस शरीर की जलाकर मसि(स्याही)बना डालूँ और अपनी हडूडियों को लेखनी बना कर राम के पास विरह निवेदन करती हुई पत्र लिखूँ।

शब्दार्थ—लेखणि=लेखनी, कलम। करंक=हड्डी।

कबीर पीर पिरावनीं, पंजर पीड़ न जाइ।
एक ज पीड़ परीत की, रही कलेजा छाइ॥१३॥

प्रसंग प्रेम एवं विरह की पीड़ा ने पिंजर या शरीर एवं ममं को अभिभूत कर रखा है।

भावार्थ— कबीर दास कहते हैं कि पीड़ा पंजर या शरीर को दुःख देने वाली है परन्तु प्रेम की पीड़ा ममं या कलेजे को अभिभूत कर रखा है।

शब्दार्थ—पीर=पीट=पीड़ा। पिरावनी=पीड़ा देने वालो। पंजर=शरीर। परोती=प्रोति।  

चोट सताँणी विरह की,सब तन जर जर होइ ।
मारणहारा जाँणि है, कै जिहि लागी सोइ ॥१४॥

प्रसंग— विरह की चोट एव पीड़ा से विरही का समस्त शरीर जंजर हो रहा है।

भावार्थ— विरह की चोट ने मर्म को आहत कर डाला और समस्त शरीर जंजर(अथवा शिथिल ) हो रहा है । इस पीड़ा का अनुभव नही करेगा जिसने शब्द रूपी बाण मार कर प्रेम एवं विरह की पीढ़ा समुत्पन्न की है, या जिसके यह बाण लगा है ।

शब्दार्थ— सतांणी = सतानी = सताने वाली । जरजर = जजंर =विचिल । मारणहारा = मारने वाला। जांणि है = जानि है = जानेगा । कै = या ।

कर कमाण सर साँधि करि, खैचि जुमारया मांहि ।
भीतर भिधा सुमार है, जीव कि जिवै नांहि ॥र१५।।

प्रसंग— सदगुरु ने जब से शब्द रुपी बाण मारा है तब से प्रेम की मधुर पीड़ा, विरह की चोट सवल हो छठी है ।

भावार्थ— सतगगुरु ने हाथ मे कमान लेकर शब्द रुपी बाण शक्ति भर खीचकर मारा है । तब से शब्द रुपी बाण ने ममॆ को आहत कर डाला । अब वियोगी जीवन एवं मृत्य के मध्य मे समय व्यतीत कर रहा है ।

शब्दार्थ— सांधि = संधान = लक्ष्य करके । खैचि= खीच कर शक्ति भर मांहि= आभ्यान्तर मे । भीतर = अन्तम। भिधा भिदा= भद गदा। सुमार=गभींर चोट।

जब हूँ मारया खैचिकर, तब मैं पाई जांणि।
लागी चोट मरम्म की, गई कलेजा छाणि।।१६।।

प्रसंग— शब्द वासा के लगते ही ज्ञान जाग्रत हो गया । अब उस प्रेम और विरह को व्यधा ने ममॆ को आहत कर डाला है ।

भावार्थ— सतगुरु ने जब खीच कर शब्द बाण मुझे मारा तो मै ज्ञान से सम्पन्न हो गया। शब्द बाण के फल स्वरुप मर्म अहत् हो गया और कलेजा पीड़ा अभीभूत हो गया।

शब्दार्थ— मै= मुझे। जांणि = जाण=जान। मरम्म= मर्म = अभिभूत।

जिहि सरि मारि काल्हि, सो सर मेरे मन समझा।
तिहि सरि मारि ,सरबिन सचपाँऊ नहीं ॥१७॥

 

प्रसंग— सतगुरु द्वारा मारा हुआ शब्द रूपी वाण और उससे समुप्तन्न पीडा मन को मधुर प्रतीत होती है।

भावार्थ — हे सतगुरु! जिस शर या वाण से आपने मुझे कल मारा था उसी से आज भी पुनः मर्म की आहत कीजिए। वह शब्द रूपी वाण मेरे मन में बस गया है। शब्द वाण की चोट सहन किए बिना मुझे सुख नहीं मिलता है।

शब्दार्थ — सरि=सर=शर=वाण। काल्हि=कलि=कल=विगत दिन बस्या= बसा=बस गया है। तिहि=तिह=उस। सचपाऊं=सुख।

विरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम वियोगी ना जिवै, जिवै त बौरा होइ।।१६।।

प्रसंग — विरह के प्रभाव से साधक का तन क्षीरग, मन उन्मन प्रतीत होता है। राम वियोगी संसार से वियुक्त होकर जीवन यापन करता है।

भावार्थ— जबसे विरह रूपी सपं शरीर में निवास करने लगा है तब से कौई मंत्र या औपधि काम नहीं देती है। राम का वियोगी संसार से उदासीन हो कर जीवन यापन करता है, वह जीवन्मुक्त होकर संसार से जीवित रहता है।

शब्दार्थ— भुवगम=भुजंग=सपं। मंत्र= औपधि। विवोगी=वियोगी। बौरा=असंतुलित।

विरहा भुवंगम पैसि करि, किया कलेजै घाव।
साघू अंग न मोड़ही, ज्यूँ भावै त्यूँ खाव।।१६।।

संदर्भ— विरहानुभूति साधुजनों को प्रिय लगता है। विरह जनित आनन्द अद्वितीय है।

भावार्थ—विरह भुजंग से जाग्रत होकर ममं को आहत कर डाला है। साधु जन विरह भुजंग से दूर रहने की चेष्टा नहीं करते हैं। उनका समहन शरीर विरह भुजग के प्रसार का क्षेत्र है।

शब्दार्थ— भुवंगम=भुजग- सर्प। पैसि=पैठि, प्रविष्ट होकर। मोड़ही- मोडते है। भावै-रुचिकर लगे। त्यूँ - त्यो तैसे। खाव- खालो।

सब रॅग नंतर बाव तन,विरह बजावै नित्त।
और न कोई सुणि सकै, कै सांई कै चित्त॥१०।।

सन्दर्भ— विरह का शरीर पर एक छत्र साम्राज्य है। शरीर रूपी रवाब को विरह रूपी कलाकार बजा रहा है।  

भावार्थ—विरह शरीर रुपी रवाव को नित्य वजाता है। शिराएं उन वाघय्ंत्र मे तान (या ततु) का काम दे रही है । इस रवाव से प्रस्फुटित राग या तो स्वामी (सत गुरु) सुन पाता है या साधक।

शब्दार्थ— रग = रगे,शिराएं। रवाव= एक विशिष्ट वाद्य यंत्र। तन = शरीर । सुरिग= सुनि=सुन।

विरहा वुरहा जनि कहौ,बिहरा है सुलितान।
जिह् घटि विरह न संचरै,सो घटि सदा मसान ।।२१॥

सन्दर्भ—विरहा शरीर का सुल्तान है।

भावार्थ— विरह चुरा है,ऐसा मत कहो। विरह शरीर का सुलतान है। जिस शरीर मे विरह की गति नही है,वह शरीर स्मशान सहश है।

शब्दार्थ—वुरहा =चुरा है। जिन-मत-। सुलितान = सुलतान=सम्राट। घटि=घट-शरीर। मसान=श्मशान-मरघट।

अंषणियां झांई पड़ी,पंथ निहारि निहारि।
जीभडियाँ छाला पड़या,राम पुकारि पुकारि॥२२॥

सन्दर्भ—प्रिय की प्रतीक्षा करते करते अग-प्रत्यंग,जिथिल और जजंर हो गये है।

भावार्थ—विरह के प्रभाव से वियोगिनी की आंखो मे प्रतिक्षा करते-करते म्फाई पड गई और प्रिय का नाम पुकारते-पुकारते जिह्व मे छाले पड़ गए।

शब्दार्थ—अपणियां-आंखे। झाई-मद । निहारि-देखकर । जोभडियां-जिह्रा।पडया=पडा।

इस तन का दीवा करौ,वाती मेल्यूँ जीव।
लोही सीचौं तेल ज्यूँ,कब मुख देखौ पीव ॥२३॥

सन्दर्भ— विरहिरगी चिर काल तक प्रतोक्षा मे अनुरक्त रहना पाहनो है। शरीर रुपो दीपक में प्राणों की वतिका सुरक्षित रख कर यह प्रिय के दर्द को आलोकित करना चाहती है।

भावार्थ—चिरहिणी कहती है कि इन तन को पोरक चना ढानूं अौर उनके प्रारगा की पतिवा टालपर रऊ नेन मे निपित करते हुए,प्रिय का मुख देखने के लिए मै फिर प्रतीक्षित रहुंगी।

शब्दार्थ—दोवा=दीपक। पगेँ=पमं। बातए=वती। गल्यूं= टाउं सोहो=स्न=रण। सीणो=मिणिल परं।  

नैनां नीझर लाइया,रहट बहै निस जाम।
पपीहा ज्यूँ पिव पिव करौं,कबरु मिलहुगे राम ॥२४॥

सन्दर्भ— विरह के काररग नेत्रो से अश्र निरतर प्रवाहित रहते है ओर प्रारग पपीहे के सहश प्रिय का नाम रटते रहते है।

भावार्थ - प्रिय के वियोग मे नेत्रो से आँसू-निर्भर दिनरात प्रवाहित रह्ते है और प्राण पपीहे के सदृश प्रिय का नाम रटते हैं । हे प्रिय कत्ब मिलोगे ।

शब्दार्य—नीझर =निझर= झरना । रहट = कुआं जल निकालने का यंत्र । निसजाम= निशयाम । कवरु = अरे कब ।

आपडिंयां प्रेम कसाइयां, लोग जांरगौ दुखडि़याँ ।
साँईं अपणै, कारणौ, रोइ रोइ रतडि़याँ ॥ २५ ॥

सन्दर्भ— प्रिय के वियोग मे रूदन करते करते नेत्र आरक्त हो गए हैं ।

भावार्थ— नेत्र प्रेम-विरहाग्नि मे सतप्त होने के कारण लाल हो गए । स्वामी के वियोग के कारण रो रोकर लाल हो गए हैं और लोग जानते हैँ नेत्र दुख रहे हैं ।

शब्दार्थ - अपडिया = अंखडिग्रा = आँखें । कसाइया = कसी गई है । दुखाइयाँ = दुख रही है । रतडियाँ = लाल हो गई है ।

सोइ आंसू सजरणां सोई लोक बिड़ँहि ।
जे लोइगा लोंहीं चुवै,तौ जारणौ हेत हियाँहि ॥ २६ ॥

संदर्भ— आँसु आँसु मे भेद है । वही सच्चे आँसू है जो हृदय से प्रस्फुटित होते हैं ।

कबीर हसणां दूरि करि, करि रोवण सै चित्त ।
बिन रोयां क्यूँ पाइए, प्रेम पीयारा मित्त ॥ २७ ॥

सन्दर्भ—विरहानुभुति का अनुभव किए बिना प्रिय किसे प्राप्त हुआ है ।

भावार्थ—कबीर कहते है कि हे प्राणी लोकिक-भौतिक सुखो का परित्याग करके, विरहानुमूति हृदयगत करके प्रिय के विरह मे प्रिय के हेतु रुद्न कर । बिना रुदन किए कहि प्रिय प्राप्त होते हैं ।

शब्दार्थ— हसरणा = हसना । रोवण= रोवन = रोने। सौ = मे । नित चित्त लगा । रोया = रोये । क्यूँ=क्या । मित्त = मित्र ।

जो रोऊँ वौ बल घटै, हँसौ तोव राम रिसाइ।
मनही मांहि विसूरणां, क्यूँ घूँरग काठहि खाइ ॥ २८

 

सन्दर्भ —विरह की तीव्रता अन्दर ही अन्दर प्रदग्ध रहे ।

भावार्थ — यदि प्रिय के विरह मे रोता है तो वल घटता हे वक्ति क्षोण होती है हंसता हूँ लोकिक आनन्दो मे संलग्न होता हूँ तो प्रिय राम से दूर होना है अत: प्रिय का ध्यान मन ही मन , विरहानुभूति अंतस मे होनी चाहिए । प्रकटिन होने के लिए अवकाश नही है। य या धुन अंदर ही अन्दर काष्ठ को खा जाता हे उसी प्रकार विरहाग्नि अदर ही अदर प्रदग्ध रहे ।

शब्दार्थ — घटै=घटे=अल्प हो । हसौ=हसू । रिमाइ= नाराज हो माहि=मे । विसूरर्णा =स्मरण करना । घुण=घुन ।

हॉसि हॉसि कंत न पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ ।
जो हाँसेही हरि मिलै, दुतौ नही दुहागनि कोइ ॥ १६ ॥

सन्दर्भ— प्रिय या व्रहा साघना से साम्प्राप्ति होता है । वह लौकिक ऐश्बर्य से दूर है ।

भावर्थ— लोकिक आमोद-प्रमोद के मध्य मे प्रिय की प्राप्ति नही होती है प्रिय प्राप्त किया जाना है विरहानुभूति के द्वारा । यदि हंम खेल कर ही प्रिय मिलता तो कौन अभाग्यशाली रहता।

शब्दर्थ—कत=प्रियतम । जिनि=जिन जिसने । तिनि=तिसने । हासे-हो=हंसने से ही । दुहागनि=दुहागिन=दुर्भाग्य्शलिनी ।

हाँसी खेलौं हरि मिलै, कारण सहै परसान ।
काम क्रोध त्रिप्णां तजै,तहि मिलै भगवान ॥३०॥

सन्दर्भ —आमोद-प्रमोद तथा माया मे सलग्त रहकर कही व्रहानुभूति होनी है । कम,क्रोध तथा तृप्णा का परित्याग करने से ही प्रिय के माव तादात्य नहना पिता होता है।

भावार्थ— यहानुभूति हंमो-खेल और माया मे अनुरन रह कर नही होनी हे । कम, क्रोध तथा तृप्णा का महज कर देने ने हो सहानुभूति होनी है।

शब्दार्थ—हानी==हानि धेन मे । पोगा = स्पैन । पर=प्रवर=तेन । मान=धान, तेज धार ।

पुत पियारो पिता कौ,गौहनि लागा घाइ ।
लोभ मिठाई हाथ दे, आपण गया भुलाइ ॥ ३९ ॥

सन्दर्भ— माया अरमाप्ति को पप कर होनी है ।  

भावार्थ-आत्मरुपी पुत्र परमपिता को बहुत प्रिय था । वह परमपिता से अभिन्न था। परनतु माया ने लोभ रुपी मिठाई वालक के हाथ मे पकडा़ दी ,तत्ब से वह अपने पिता को विसर गया ।

शब्दार्थ-पियारो=पियार=प्यार=प्रिय । कौ=को गोहनि। घाइ-दौड़ कर। हाथि=साथ । आपरण=अपना=अपने को अथवा आत्म तत्व को।

डारी खाँड पटकि करि अतरि रोस उपाइ ।
रोवत रोवत मिल गया, पिता पियांरे जाइ ।।३२।।

सन्दर्भ— अन्ततोगत्वा आत्मारूपी बालक चेतन पर सचेत हो गया । ओर वह पुन:पिता से अभिन्न हो गया।

भावार्थ—अन्ततोगत्वा सचेत होकर बालक रूपी अत्मा ने रोषपूर्वक लोभ-मिठाई को पटक(फेक)दिया और रोते- रोते उसे परमपिता की प्राप्ति या अनुभूति हो गई।

शब्दार्थ—खाड= शकर,मिठाई । अतरि= अन्तर अन्तस, हदय। रोम=रोप=असन्तोप । उपाई= उत्पन्न हुआ ।

नैनां अतरि आचरूँ, निस दिन निरपौं तोहि ।
कब हरि दरसन देहुगे, सो दिन आवै मोहि ॥ ३३ ॥

सन्दर्भ— हे प्रभु ! आपको अपने नैनो में बसा लूं,और प्रतिक्षण आपके दर्शन करता रहूँ।।

भवार्थ— हे प्रभु । आपको अपने नेत्रो मे बसा लूं; जिसमे मैं आपको प्रतिक्षण देखा करूं। हे हरि !वह दिन कब आएगा,जब आपके दर्शन प्राप्त होगा।

शब्दार्थ —अतरि= अन्तर मे ।आचरुं=वमा लूं। निरपौ=देखू दरसान=दर्शन । देहुगे=दोगे ।

कबीर देखत दिन गया,निस भी देखत जाइ।
विरहरिग पिव पावे नहीं, जियरा तलपे माइ ॥३२ ॥

सन्दर्भ—प्रतीक्षा करते-करते जीवन बीत गया। विरहणों विरह मे उपलित हे।

भावर्थ—कबीर कहते हे कि प्रिय की प्रतिक्षा करते-करते दिन भी गनीत हो गया और राथि भी अतीत हो गई । विरहिरणो प्रिय के वियोग मे अत्यन्त व्यर्ग है ।

शब्दार्थ—देखत = प्रतीक्षा करते। जियरा = जी, प्राण।

विरहणी थी तौ क्यूँ रही, जली न पिठ के नालि।
रहु रहु मुगध गहेलडी, प्रेम न लाजूँ मारि॥३५॥

सन्दर्भ—सच्ची विरहिणी तो विरहाग्नि में स्वतः प्रदग्ध हो जाती है। तू प्रेम को क्यों लज्जित करता है।

भावार्थ—कबीरदास कहते हैं कि यदि तू विरहिणी थी तो प्रिय के साथ प्रिय की स्मृति में क्यों न जल गई। हे मुग्धा ठहर-ठहर तू प्रेम को लज्जित मत कर।

शब्दार्थ—रही = जीवित रही। नालि। मुगध = मुग्धा, नायिका जिसमें लज्जाधिक्य होता है। गहेलडी। लाजूँ लज्जित कर।

हौं विरहा की लाकड़ी, समझि समभि धूँधाऊँ।
छूटि पड़ौ या विरह तै, जे सारी ही जलि जाऊँ॥३६॥

सन्दर्भ—सच्ची विरहिणी प्रिय के वियोग में शनैः-शनैः जलती है। विरहिणी ये विरहप्रियता प्रमुख होती है ।

भावार्थ—मैं विरहिणी गीली लकड़ी के समान हूँ जो भभक कर नहीं, धीरे-धीरे जलती है। यदि भभक कर जल जाऊँ तो विरह से छुटकारा मिल जायगा। जो मुझे न प्रिय है, न अभीप्सित है।

शब्दार्थ—विरहा = विरह = वियोग। लाकडी = लकड़ी = ईंधन। समझि-समझि = धीरे-धीरे। धूँ घाऊँ धूँ, धूँ करके जलना = धीरे-धीरे जलना। पटौ पडूँ या = इन। सारी = समस्त। जलि = जल।

कबीर तन मन यौं जल्या, विरह अगनि सूँलागि।
मृतक पीड न जांणई, जाणैगी यहु आणि॥३७॥

सन्दर्भ—प्रेम की पीड़ा, विरह की व्यथा विरह ही जान बनता है, या विरहाग्नि स्वतः अपनी प्रवतता का अनुभव करेगी।

भावार्थ—कबीरदास कहते हैं विरहाग्नि के लगने से तन मन इस प्रकार जला कि उनकी कोई सीमा नहीं रही। विरह की व्यथा को मृतक (शुन्य) क्या जाने? विरहाग्नि उसकी ताप की प्रवलता को जानती है।

शब्दार्थ—जल्या = जला प्रदीप हुआ। अगनि = अग्नि, आग। मूँ = से। पीड़ = पीड़ा, व्यथा। जाँणाई = जानई—जानत है। जाणौगी = जानेगी।  

विरह जलाई मैं जलौ, जलती जलहरि जाउँ।
मों देख्याँ जलहरि जलै, सन्तौ कहाँ बुझाऊँ॥३८॥

सन्दर्भ—विरह का प्रभाव, क्षेत्र और स्वरूप व्यापक है, शिष्य ही नहीं, सद्गुरु भी विरह के प्रभाव से पीड़ित है।

भावार्थ—विरह से प्रदग्ध मैं सतगुरु के पास विरहाग्नि प्रशान्त करने के लिए गई। परन्तु मैंने देखा कि सतगुरु स्वतः विरह ज्वर से पीड़ित है। है सन्तों! अब बताओं कि इस विरहाग्नि को कहाँ शांत करूँ?

शब्दार्थ—जलहरि = जलधरि = जलधार—तालाब। देख्या = देख्या—देखा। बुझाऊँ—शान्त करूँ।

परबति परबति मैं फिर्या, नैन गँवाये रोइ।
सो बूटी पाँऊँ नहीं, जातै जीबनि होइ॥३९॥

सन्दर्भ—विरह के कारण स्थान-स्थान पर भटकता रहा पर विरह को प्रशान्त करने वाला परम तत्व न मिला।

भावार्थ—प्रियतम की खोज में एक पर्वत से दूसरे पर्वत, दूसरे से तीसरे पर्वत तक अर्थात् स्थान-स्थान पर भटकता रहा और प्रिय के वियोग में रो रोकर नैन खो दिए परन्तु वह तत्व न प्राप्त हुआ जिससे जीवन प्राप्त होता।

शब्दार्थ—परवति = पर्वत। फिरया = घूमा, भटका। नैन = नयन—नेक। गँवाये = खोये। जातै = जिससे। जीवनि = जीवन, जीवन शक्ति।

फाड़ि पुटोला धज करौं, कामलड़ी पहिराउँ।
जिहि जिहि भेषां हरि मिलैं, सोइ-सोइ भेष कराउँ॥४०॥

सन्दर्भ—प्रियतम की प्राप्ति के लिए समस्त बलिदान निःसार है।

भावार्थ—अपने रेशमी वस्त्रों को फाड कर फेंक दूँ और कमली धारण कर लूँ। जिस-जिस भैष से हरि मिल सके वही-वही भेष धारण कर लूँ।

शब्दार्थ—पुटोला—पटोरा, रेशमी वस्त्र। धज = धज्जी, टुकड़े-टुकड़े। कामलड़ी = कामली = कामरी = कम्मल। भेषा—भेष में।

नैन हमारे जलि गये, छिन-छिन लोडै तउज्झ।
नां तूँ मिलै न मैं खुसी, देसी वेदन भुज्झ॥४१॥

सन्दर्भ—प्रिय के दर्शनों के अभाव में प्रतीक्षा रत मेरे नेत्र प्रदग्ध रहे और अपार वेदना से पीड़ित रहा हूँ।

भावार्थ—हे प्रिय! ये नेत्र आपकी प्रतीक्षा करते-करते प्रदग्ध हो उठे। न तेरे दर्शन प्राप्त होते हैं न प्रसन्नता प्राप्त होती है। मैं विरह वेदना से पीड़ित हूँ।

शब्दार्थ—छिन = क्षण। लोडै = प्रतीक्षा करें। तुज्झ = तुझ। वेदन = वेदना। मुज्झ = मुझे।

भेला पाया श्रम सौं, भौसागर के मांहि।
जे छाँड़ौं तौ डूबिहौं, गर्हौं त डसिये बाँह॥४२॥

सन्दर्भ—इस भव सागर में बड़े श्रम बड़े भाग्य से सतगुरु रूपी जहाज़ मिल गया।

भावार्थ—बड़े परिश्रम करने के अनन्तर भव सागर में सतगुरु रूपी जहाज़ मिल गया। अब यदि इसे छोड़ता हूँ तो भवसागर में डूब जाऊँगा और यदि इस जहाज़ को ग्रहण करता हूँ तो उसके शब्द रूप सर्प, भुवग मुझे डस लेंगे।

शब्दार्थ—भेला = वेडा। सौ = से। छाड़ौ = छोडू। गहो = ग्रहण करूँ।

रैणा दूर विछोहिया, रहु रे संषम झूरि।
देवलि देवलि धाहुड़ी, देसी ऊगे सूरि॥४३॥

सन्दर्भ—हे वियोगी धैर्य धारण कर। सूर्योदय होते ही पुनःप्रिय के दर्शन होंगे।

भावार्थ—हे कृश चक्रवाक। रात्रि ने तुझे प्रिय से वियुक्त कर दिये हैं। तू घर-घर चीत्कार करता फिरा। सूर्य के उदय होते ही पुनः प्रिय से समागम होगा।

शब्दार्थ—रेणा = रैण = रैन = रात्रि। विछोहिया = वियुक्त हुई। सषम = चक्रवाक। झूरि = कृश। देवलि = देवालय = मन्दिर = घर। धाहुड़ी = दहाड़ता = चीत्कार करता। देसी = देगा। ऊगे = उदय। सूरि= सूर्य।

सुखिया सब संसार है, खावै अरू सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवै॥४४॥

सन्दर्भ—चेतन प्राणी संसार को गति देखकर दुःखी रहता है।

भावार्थ—कबीर दास कहते हैं कि समस्त संसार खाता है, पीता है, सोता है और सुख पूर्वक जीवनयापन करता है। केवल मैं दुःखी हूँ और रोता हूँ।

शब्दार्थ—खावै = खात है। सोवे = सोता है। रोवै = रोता है।