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कबीर ग्रंथावली/(५) परचा कौ अंग

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लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ १३१ से – १३३ तक

 

 

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं ।
मुकताहत्त मुकता चुगै, अब उड़ि अनंत न जाहि।।३६।।

सन्दर्भ—मान सरोवर मे आत्मा रूपी हस विश्राम कर रहे हैं।

भावार्थ—मानसरोवार भक्ति के शूद्ध जल से भरा हुआ है।। वहा आत्मा रुपी इंस क्रीड़ा कर रहे है, तथा भक्ति रुपी मोती चुप रहे हैंं अव्र वे उड़कर अनयत्र कही नही जाएंगे।

शब्दार्थ—सुभर=शुद्ध।

गगन गरजि अंमृत चबै, कदली कवल प्रकाश।
तहाँ कभीरा बंदिगी, कै कोेेई निज दास्र।।४०।।

सन्दर्भ—कबीर ब्रह्माण्ड मे स्थिति प्रिय की वन्दगी करता है।

भावर्थ—शूनय शिखर गढ मे अहनदनाद हो रहा है। अमृत की वर्षा हो रही है मौर सहस्त्र दल कमल विकसित हैं। कदली प्रकासित है। वहां पर कबीर,ईश्बराधना मे अनुरक्त है।

शब्दार्थ—गगन = ब्रह्माण्ड ।

नींव विहूॅलां देहुरी,देह विहूँरणां देव।
कबीर तहाँ बिलंबिया,करे अलप की सेव।।४१।।

सनदर्भ—कबीर अलख की सेवा मे अनुरक्त है।

भावार्थ—नीव से रहित देवालय मे निराकार देवता विद्यमान है ऐसे स्थान पर कबीर अलख की सेवा करने मे अनुरक्त है।

शब्दार्थ—देहुरा=देवालय। विहूरंला=रहित=विलंविया=विश्राम किया।

 देवल मांहे देहुरी, तिल जहे बिसतार ।
माहै पाती मांहि जल,माहै पूजणहारं ।।४२।।

सन्दर्भ—निर्गुण ब्रह्म उपासना अन्तस मे हो रहा है ।

भावार्थ—शरीर रूपी देवालय मे हो तिल समान सूक्ष्म विद्यमान हैं हृदय मे ही पुजा के पथ हैं, हृदय में ही जल है, हृदय मे पुजा करने वाला है।

शब्दार्थ—देव=देवालय।

कबीर कवल प्रकासिया, ऊग्या निर्मल सूर।
निस अंधियारी मिटि गई, बागे अनहद नूर॥४३॥

सन्दर्भ—ज्ञान के उदय होते ही हृदय कमल विकसित हो गया।

भावार्थ—जब से निर्मल सूर्य रूपी ब्रह्म का प्रकाश प्राप्त हुआ तब से हृदय कमल प्रकाशित हो गया। समस्त वासनाओं का अन्धकार मिट गया और अनहद नाद की तुरही बजने लगी।

शब्दार्थ—ऊग्या = उदित हुआ।

अनहद बाजै नीझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान।
आबगति अंतरि प्रगटै लागै प्रेम धियान॥४४॥

सन्दर्भ—प्रेम पूर्वक ध्यान लगाने से ब्रह्म प्रकट होता है।

भावार्थ—प्रेम पूर्वक ध्यान लगाने से अविगत ब्रह्म को अनुभूति होती है। अनहृदनाद प्रतिश्रुति होता है और अनहद का झरना बहने लगता है।

शब्दार्थ—नीझर = निर्झर। गियान = ग्यान। आवगति = अनिर्वचनीय।

आकासे मुखि औंधा कुवाँ, पाताले पनिहारि।
ताका पांणीं को हंसा पीवै, बिरला आदि बिचारि॥४५॥

सन्दर्भ—शून्य शिखर गढ़ का सुभग जल हंसात्मा ही पान करती है।

भावार्थ—आकाश में निम्न सुख हुआ है नीचे आत्मारूपी पनिहारी जल जल को प्राप्त करने के लिए आकांक्षी है। इस कुएँ का जल कोई विरली शुद्धता ही ही ग्रहण करती है।

शब्दार्थ—आकासे = आकाश में ब्रह्म रन्ध्र में। औधा = निम्नाभिमुख। पनिहारि = पनिहारी।

सिबसकती दिसि कौण जु जोवै, पछिम दिसा उठै धूरि।
जल मैं स्यंघ जु घर करै, मछली चढ़ै खजूरि॥४६॥

सन्दर्भ—अनहद शब्द के सहारे आत्मा ब्रह्म में लीन हो जाती है।

भावार्थ—शिव और शक्ति को किस दिशा में देखा जा सकता है वह सर्वव्यापी है। जो दिशा विशेष में देखने की चेष्टा करेगा उसके पीछे धूल उड़ने लगेगी। आत्मारूपी मछली अनहदनाद के सहारे ब्रह्म में लीन होगी, शिव और शक्ति की अनुभूति करना उतना ही कठिन है जितना मछली का ख़जूर पर चढ़ना अथवा सिंह का जल में प्रवेश करना।

शब्दार्थ—सकती=शक्ति। स्यंघ=सिंह। मछली=आत्मा।

अंमृत बरिसै हीरा निपजै, घंटा पढ़ै टकसाल।
कबीर जुलाहा भया पारपू, अनभै उतर्‌या पार॥४७॥

सन्दर्भ—ब्रह्म निन्द होते ही दिव्य अनुभूति प्राप्त हो गई।

भावार्थ—ब्रह्म निन्द रूपी अमृत की वर्षा हो रही है और प्रभु दर्शन रूपी हीरा उत्पन्न हो रहा है। अनहद शब्द प्रति श्रुद हो रहा है। कबीर जुलाहा निर्भय होकर इस संसार सागर से पार उतर गया।

शब्दार्थ—बरिसै=बरसत है घटा पड़ै टकसाल=अनहद नाद प्रतिश्रुत हो रहा है।

ममिता मेरा क्या करै, प्रेम उघाड़ीं पौलि।
दरसन भया दयाल का, सूल भई सुख सौड़ि॥४८॥

सन्दर्भ—ब्रह्मानुभूति प्राप्त हो जाने के बाद माया मोह के बन्धन विछिन्न हो गये।

भावार्थ—माया मेरा क्या कर लेंगी अब तो प्रेम का द्वार उन्मुक्त हो गया अब तो दयालु ब्रह्म के दर्शन हो गए, अब दुख भी सुख प्रतीत होने लगे।

शब्दार्थ—ममिता=ममता। उघाड़ी=खोल दिया। पौलि=द्वार।