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कबीर ग्रंथावली/(४) ग्यान विरह कौ अंग

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लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ ११८ से – १३० तक

 

 

४. ग्यान विरह कौ अंग

दीपक पावक आँखिया, तेल भी आँण्या संग।
तीन्यूँ मिल करि जोइया, (तब) उडि उड़ि पड़े पतंग॥१॥

सन्दर्भ—जब से आत्मा चेतन हो गई, तब से वासनाएँ विनष्ट हो गई।

भावार्थ—जीवात्मा ज्ञान की ज्योति से और भक्ति रूपी स्नेह से सम्पन्न हो गया। अब वासना रूपी पतंगे आत्मा जल-जल कर नष्ट होने लगे।

शब्दार्थ—दीपक = जीवात्मा। पावक = अग्नि। आंणिया—आनिया = लाया। आण्या = आना = लाया। तेल = स्नेह, प्रेमी। जोइया = आयोजित किया। पतंग = वासना रूपी पतंगे।

मार्या है जे मरेगा, बिन सर थोथी भालि।
पड्या पुकारै ब्रिच्छ तरि, आजि मरै कै काल्हि॥२॥

सन्दर्भ—शब्द वाण से आहत प्राणी संसार से विलग होकर जीवन यापन करता है।

भावार्थ—शब्द रूपी भाले से आहत प्राणी अब संसार से विलग होकर, पृथक होकर जीवन यापन करता है। वह सद्गुरु के आश्रय में ब्रह्म का स्मरण कर रहा है। वह शीघ्र ही संसार की व्यथाओं से ऊपर उठ जायगा।

शब्दार्थ—विन सर = बिना शर = फलके के बिना। थोथी = झूठी = कोरी। भालि = भाला। ब्रच्छ = वृक्ष, पेड़।

हिरदा भीतरि दौं बलैं, घूँवा न प्रकट होइ‌।
जाकै लागी सो लखै, कै जिहि लाई सोइ॥३॥

सन्दर्भ—हृदय के अन्दर ज्ञान-विरह की ज्योति जल रही है। इसका अनुभव या तो साधक करता है, या सतगुरु।

भावार्थ—हृदय में प्रेम-विरह की अग्नि जल रही है परन्तु उसके लक्षण वाधतः नहीं प्रकट हो रहे हैं। इस अग्नि का वही अनुभव करता है, जिसके अन्तस में यह अग्नि लगी है या वह जिसने इस अग्नि को जाग्रत किया है।  

शब्दार्थ— हिरदा = हृदय । दौ - दावाग्नि । बलै = जलै । लखै = देखै । लाई = लागी ।

भल ऊठी भोली जली, खपरा फूटिम फूटि ।
ओगी था सो रमि गया,आसणि रही विभूति ॥४॥

सन्दर्भ— ज्ञान की अग्नि मे असार तत्व विनष्ट हो गये और योनी ब्रह्मा नन्द मे लीन हो गया ।

भावार्थ — भल अग्नि मे शरीर रुपी भोली जल गयो और खरर फूट गया । योगी ब्रह्म मे रम गया और आगन पर केवल वस्त्र अवशेष रह गई ।

शब्दार्थ - भल- अग्नि । भोली = शरीर । खपरा - खप्पर - खोपड़ी फूटिम = फूटि - फूट गया । जोगी = योगी । आसणि - आमन । विभूति = राख ।

अग्नि जु लागी नीर मैं, कँदू जलिया भारि ।
उतर दषिण के पंडिता, रहे बिचारि बिचारि ॥५॥

संदर्भ - ज्ञान की अग्नि के लगते हो माया और माया के तत्व विनसष्ट हो गये ।

भावार्थ - ज्ञान की अग्नि के लगते हो माया का जल और उसके सहायत तत्व विनष्ट हो गये । इस आश्चर्यजनक कृत्य को उतर दक्षिण के पण्डित देखते हो रह गय ।

शब्दार्थ - नीर = जल, माया का जल । कन्दू = कदँम = कोचढ । भारि = सम्पूर्ण ।

दौ लागी सायर जल्या, पंपो बैठे आइ ।
दाधी देह न पालवैं, सतगुर गया लगाय ॥६॥

सन्दर्भ - ज्ञान की अग्नि के लगते हो माया का मागर जल गया प्रौर आत्मा रुपी पक्षी को मुयित हो गई ।

भावार्थ - ज्ञान को अग्नि के प्रज्यसित हो जाने पर माया का सागर भहमो भूत हो गया ।आत्मा रुपी पक्षी जो माया रुपी सागर के निरट पे , अब निरिचन्त हो गये । ज्ञानागिन से प्रदग्ध देह भौतिक ददद मे है । यह अग्नि सतगुरु ने नना दिया ।

शब्दर्थ - दौ = दावाग्नि । मायर = सागर पंपो = रधो । दापी=दघ । पालयै=चड़ेतौ है ।

गुरु दाधा चेला जल्या, चिरटा लागी आगि
विणका बपुड़ा ऊचरया ,गलि पुरे फै लागी ॥७॥

 

सन्दर्भ - बिरह को अग्नि मे जल कर शिष्य् का भव सागर से उढार हो गया।

भावार्थ- गुरु ने ज्ञान को अग्नि प्रज्वलित की और शिष्य विरह (ज्ञान विगह)को अग्नि मे जल गया। तिनके के समान हल्की, पाप के भार से मुक्त आत्मा को उन्मपित हो गया और वह पूर्ण ब्रह्म से मिल कर एकाकर हो गया।

शब्दार्थ- राधा =दग्ध किया। जल्या= जला। विरहा= विरहग्नि। तिग्ग्का=तिनका। वपुडा= वपुरा=वेचारा। गलि=सहारे। पूरे= पूरग्ँ=प्रहा।

अहिडी दौ लाइया,मृग पुकारे ऱोई।
जा वन मे क्रीला करी,दाभत है वन सोइ ॥५॥

सन्दर्भ- ज्ञानाग्नि के लगते ही इन्द्रिया विषयो से उन्मुक्त हो गयि है।

भावार्थ- सतगुरु= अहेरी ने ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित की,संसार रूपी वन गया और इस माया के वन मे वितरण करने वाले इन्द्रिय रूपी मृग रो उठे। जिस वन मे मृग किड़ा करते थे, अब वह वन जल गया। इस लिए मृग दुखि हो गये।

शब्दार्थ=अहेरी=शिकारि। दौ= दावाग्नि। मृग= इन्द्रिय। कीला= फीढा, सेन। दान्तन=दग्ध।

पारगी मंहि प्रजली, भई अप्रबल आगि।
वहती खलिता रह गई,मंल्ल रहे जल त्यागि॥६॥

सन्दर्भ- माया रूपी जल मे गनाग्नि लगी तो माया के साहयक तरव रुपयनि हो गये और लरमा माया से पुष्क हो गइ।

भावार्थ- मया के सागर मे गानागनि लगी तो पाया कि महयक तरन विनष्ट हो गये और लारमा रूपी नर्दश्थ गया के जल को धोद कर अलग हो गई।

शब्दार्थ- प्रयगि= प्रग्यश्ति हुई। सप्रबल= अत्यन्थ् प्रयल। मसिला=नहीं

समंदर सागी भागि, नदियां जलि कोइला भईं।
देन्पि घपिरा जगि मंधी रुपां घदी गई॥ १०॥

सन्दर्भ- मवर्गार के अग्नि को शग्नि गयी, माया ये ग्रह पर नष्ट हो गये और इयार कि महिमआ अनुकूल हो गई।

भावार्थ—भव सागर में ज्ञान की अग्नि लग गई और फलतः माया की सहायक तत्व विनष्ट हो गये। कबीर ने चेतन होकर देखा कि मछली शब्द रूपी वृक्ष पर आसीन है।

शब्दार्थ—समदर = समुद्र। कोइला = कोयल = काली। मंछी = मछली। रूपा = वृक्ष।

 

५. परचा कौ अंग

कबीर तेज अनंत का मानौं ऊगी सूरज सेखि।
पति सँगि जागी सुंदरी, कौतिग दीठा तेणि॥१॥

सन्दर्भ—ब्रह्म प्रकाश नारायाण ही, वह निर्मल आत्मा द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है।

भावार्थ—ब्रह्म का तेज, प्रकाश मान स्वरूप अनन्त है। वह प्रकाश का समूह मानो सूर्य की श्रेणियाँ एक स्थान पर उदित हुई हो, आत्मा रूपी सुन्दरी ने जाग्रत होकर उस वैभव को देखा, प्रकाश नारायण के दर्शन किये।

शब्दार्थ—अनन्त = ब्रह्म। ऊगी = उगी = विकसित हुई। सूरज = सूर्य। सेणि = श्रेणी। कौतिग= कोतुक = आश्चर्य जनक वस्तु। तेणि = उनके द्वारा।

कौतिक दीठा देह विन, रवि खसि विना उजास।
साहिब सेवा माहिं है, बेपरवाही दास॥२॥

सन्दर्भ—प्रबुद्ध आत्मा ने निराकार ब्रह्म के दर्शन किए। ब्रह्म सेवा, अपनी द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

भावार्थ—प्रबुद्ध आत्मा निराकार ब्रह्म के दर्शन किए वह ब्रह्म रवि एवं शशि के प्रकाश के अभाव में भी प्रकाश मान है। वह स्वयंम् प्रकाश है। प्रभु के दर्शन सेवा में रत सेवक को ही प्राप्त होते हैं।

शब्दार्थ—कौतिक = कौतुक = आश्चर्य, ब्रह्म। दीठा = देखा। देवषित = निर्गुण। उजास= उज्ज्वल बेपरवाही = निश्चित।

पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उसमान।
कहिबे कूं सोभा नहीं देखया ही परबान॥३॥

भावार्थ—ब्रह्म अवर्णनीय स्पष्टनीय है।  

भावार्थ-पर ब्रह्म के तेज,स्वरूप किस प्रकार का है? यह अकथनीय है,अवर्णनीय है। वह अव्यिंजना से परे है,केवल अनुभव करने योग्य है।

शब्दार्थ-उनमान=अनुमान। कूं=को ।सोम=शोभ=देख्या=देखा, देखने से । परवान=प्रमाण ।

अगम अगोघर गमि नहीं,तहाँ जगमगै जोति।
जहाँ कबीरा बंदिगी,(तहां)पाप पुन्य नहीं छोति॥४॥

सन्दर्भ-ब्रह्म प्रकाश स्वरूप है। वह ज्योति का समूह है।

भावार्थ-निर्गुण निराकार ब्रह्म अगम है, अगोचर जहाँ ब्रह्म की ज्योति जगमगाती वहाँ किसी की गति नही है वह पाप-पुण्य कि सीमाओ से परे है। ऐसे ही ब्रह्म ही समक्ष कबीर की प्रार्थना प्रस्तुत होते है।

शब्दार्थ-गमि=गति। ज्योति=प्रकाश। छोति-छूत=अपवित्र।

हदे छाँडि बेहदि गया,हुआ निरंतर बास।
केवल ज फूल्या फूल बिन,को निरपै निज दास॥५॥

सन्दर्भ-साधक ससीम ब्रह्म को त्याग;निःसीम ब्रह्मोपासना मे अनुरक्त हुआ ।

भावार्थ-ससीम ब्रह्मोपासना का परित्याग करके (मैं) निराकार निर्गुण ब्रह्मोपासना मे सलग्न हुआ। और उसी मे मेरा चित, स्थायी रूप से रम गया। निर्गुण ब्रह्म रूपी कमल जो स्वयंम है,उसे कौन देख सकता है, उसका कौन अनुभव कर सकता है? ब्रह्म का सेवक ऐसे ब्रह्म का रहस्य जान सकते है।

शब्दार्थ-हदे=हद=सीमा। वेहदि=निःसीम। फूल्या=फूला। निरपै=देपे

कबीर मन मधफर भया,रहा निरंतर वास।
कवल ज फूल्या जलह बिन,को को देखै निज दास॥६।।

संदर्भ-मन मधुकर हो मग्न निरंतर रूप ने अनुवाद हो गया।

भावार्थ-कबीर कहने हे कि मेरा मन मधुकर निगुंसा ब्रह्म पर घनुगन होकर उसी मे निरन्तर दम गया है । माया रूपी जन के मंहार्द मे परे विरुपिमान निर्गुण ब्रह्म की दर्शन कोई ग्रहण गाहक ही मुक्ता हे।

शब्दार्थ-मदफर=मदुकर,ब्रह्मर।निरंतर=गदत।नषद=वन।  

अंतरि कवल प्रक्रासिया, ब्रहा तहाँ होइ।
मन भवरा तहां लुबाधिया, जांरौगा जन कोइ॥ ७ ॥

संदार्भ— हृदय प्रदेश मे व्रह्म क वास है। मन भ्ंवरा वहा लुब्ध हो गया है।

भावार्थ— हृदय मे कमल प्रकशित हो गया और उसमे ब्रह्म का निवास है। मन रूपी भ्रमर उस पर लुब्ध हो गया। विरला ही साधक इस रहस्य हो जान सकेगा।

शब्दार्थ— अन्तरि = हृदय के अन्तर्गत। कवल = कमल = हृदय पद्म। प्रकाशिया = प्रकाशित हो गया। भवरा = भ्रमर।

सायर नाही सीप बिन, स्वांति ब्ँद भी नांहि।
कबीर मोती नीपजैं सुन्नि सिपर गढ मांहि॥ ८ ॥

सन्दर्भ— शून्य शिखर गढ मे निर्गुण ब्र्ह्म के दर्शन हुए।

भावार्थ— कबीर कह्ते है कि न सागर है, न सीप है न स्वाती का बूंद् है। फिर भी शून्य शिखर गढ मे निर्गुण ब्रह़्म रूपी मोती की उप्लब्धि हो रही है।

शब्दार्थ— सायर = सागर। स्वाति = स्वाती। नीप जै = उपजै। सुन्नि = शून्य।

घट मांहैं औघट लह्या, औघट माहैं घाट।
कहि कबीर परचा भया, गुरू दिखाई बाट॥ ९ ॥

सन्दर्भ— सतगुरु की कृपा से घट मे हो ब्रह़्म के दर्शन हो गए।

भावार्थ— कबीर कह्ते है कि सतगुरु की कृपा से, सतगुरु द्वारा प्रतिदिन मार्ग पर चलकर घट मे ही ब्र्ह़्म के दर्शन हुए और ब्रह्म मे ही अपनी स्थिति दृष्टि गत हुई।

शब्दार्थ— घत = शरीर। औघट = विचित्र् = ब्र्ह्म। बाट = मार्ग। परचा = परिचय।

सूर समांणां च्ंद् में दहूं किया घर एक।
मनफा च्य्ंता तय भया, पछू पूरवला लेख॥ १० ॥

सन्दर्भ— चन्द्रनाटो मे सूर्य नाटो ममाहिन हो गई, तब ब्रह्म के दर्शन हुए।

भावार्थ— जब चन्द्र नाटो मे सूर्य नाटो प्रर्यप्ट हो गई और बन गया तब मन की अभिन्नता और पूनर्जन्म का सेग पूर हुआ सूर्यास्त मुनुरि पूर्ण हुई।  

शब्दार्थ—सूर= सूर्य। चन्द्र= चन्द्र्मा। दहू=दोनो ने। च्यन्ता=चिन्ता

हद छाड़ि बेहद गया, किया सुन्नि असनान।
सुन जन महल न पावई, तहा किया विश्राम॥

सन्दर्भ—निर्गुण निराकार ब्रहा के दर्शन करके शुन्य शिखर गढ मे प्रवेश किया।

भावार्थ श—संसार को सीमित दिशाओ का परिव्याम करके निःसीम ब्रहा मे प्रवेश किया। जिस निगुंरग ब्रहा के अतःपुर मे मुनिजन भी प्रवेश नही कर सक्ते है, वहा मैने विश्राम किया।

शब्दार्थ—हद=सीमा सुन्नी=शून्य असनान=अस्नान तहा=वहा विश्राम= आराम।

देखो कर्म कबीर का, कछु पूरव जनम क खेल।
जाका महल न मुनि लहै,सो दोसत किया आलेख॥

सन्दर्भ—पूर्वजन्म के फल और इस जन्म की साधना के फल। कबीर ब्रह्म से मिलकर अभिन्न हो गए।

भावार्थ—कबीर के कर्म,कृत्य,भाग्य और पूर्वजन्म को साधनात्मक चपलव्धि तो देखो, कि जिस ब्रहा के महल मे मुनि जन प्रवेश नही कर पाते है, उस ब्रह्मा को उसने अभिन्न बना लिया।

शब्दार्थ—कर्म=भाग्य,कृत्य। पूरव=पूर्व। जनम=जन्म। जाका=जिसक दिसत=दिस्त। श्रलेख=अनियंचनीय।

पिंजर प्रेम प्रकासिया,जाग्या जोग अनंत।
संसा खूदा सुख भया, मिल्या पियारा कंत॥

सन्दर्भ—प्रेम के जागृत होते ही अनन्त योग जाग्रत हो गया और संगय मिट गया, ब्रह्मा के साथ अभिन्नता स्थापित हो गई।

भावार्थ—शरीर मे प्रेम के जाग्रत होते ही अनंत प्रेम,ओर अनन सम्बन्ध प्रकट हो गया इस प्रकार संगम मिट गया और प्रिय से एकात्मकता स्थापित हो गया ।

शब्दार्थ—पिंजर=घरीर।प्रकासिया=प्रकाघिन घुप्रा।जाग्या=जगा शाघ हुवा।जोग=पोग एगत्मवा। अनंत=प्रमोम। संसा=मयप।मूह=नष्ट हुवा।पियारा=प्यारा=प्रेम।  

प्यंजर प्रेम प्रकासिया, अंतरि भया उजास।
मुख कस्तूरी महमहीं, बाँणी फूटी वास॥१४॥

सन्दर्भ— के प्रकट होते हो अन्तस उज्ज्वल हो गया और सुन्दर प्रेम से ओत-प्रोत वाणी प्रस्फुटित हुई।

भावार्थ—जब से प्रेम जाग्रत हुआ अन्तस उज्ज्वल हो गया और ब्रह्म रूपी कस्तूरी से सुवासित वाणी प्रस्फुटित हुई।

शब्दार्थ—प्यजर = पिंजर = शरीर। अतरि = हृदय। उजारु = उज्ज्वल। कस्तूरी = कस्तूरी।

मन लागा उन मन्न सौं, गगन पहुँचा जाइ।
देख्या चंद बिहूँणां, चांदिणाँ, तहाँ अलख निरंजन राइ॥१५॥

संदर्भ—मन ने उन्मनी अवस्था में ब्रह्मानुभूति प्राप्त की।

भावार्थ—संसार से उन्मुक्त होकर मन उनमनी अवस्था में पहुँच कर ब्रह्माण्ड में जा पहुँचा। वहाँ पर उसने स्वयं प्रकाश, प्रकाश पुन्ज ब्रह्म के दर्शन किए।

शब्दार्थ—उनमन्न = उन्मन्न। गगन = ब्रह्माण्ड।

मन लागाउन उन मन सौ, उन मन मनहिं विलग।
लूँण बिलगा पाणियाँ, पांणीं लूँ बिलग॥१६॥

संदर्भ—मन ब्रह्म से मिलकर एकाकार हो गया।

भावार्थ—मन उन्मनी अवस्था में प्रविष्ट हुआ और उनमन के साथ मिल कर दोनों अभिन्न हो गए। पानी और नमक मिलकर एक हो गए, एकाकार हो गए।

शब्दार्थ—लूँण = नमक।

पांणीं ही तैं हिम भया हिम ह्वै गया बिलाइ।
जो कुछ था सोई भया, अब कछू कह्या न जाइ॥१७।।

सन्दर्भ—आत्मा और परमात्मा की एकात्मकता अनिर्वचनीय है।

भावार्थ—पानी से ही हिम का निर्माण होता है और हिम पुनः घुलकर पानी के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इसी प्रकार ब्रह्म से उद्भूत होकर आत्मा ब्रह्मकार हो जाती है। आत्मा और परमात्मा का एकाकार होना अनियर्वाचनीय है

शब्दार्थ—पाँणी = पानी।

भली भई जु मैं पड्या, गई दशा सय भूलि ।
पाला गलि पांणी भया, दुलि मिलिया उस कृति॥१८॥

 

सन्दर्भ—सुरति और निरति से परिचय होने पर सम्स्त रहस्य स्वत - उदभासित गया।

भावार्थ—सुरति निरति मे प्रविष्ट हो गई, और निरति के साथ मिलकर एकाकार हो गई। सुरति और निरति का परिचय हो जाने के पश्चात् ब्रह्म के रहस्य का द्वार स्वात: उद्घाटित हो गया।

शब्दार्थ—स्यम = स्वयं।

सुरति सुमांण निरति मैं,श्रजपा मांहै जाप।
लेख समांण अलेख मै,यू आपा मांहे आप॥ २३ ॥

सन्दर्भ—सुरति निरति मे प्रविष्ट हो गई।

भावार्थ—सुरति निरति मे समाहित हो गई और जाप, अजपा जप मे परिवर्तित हो गया। इसी प्रकार साकार निराकर मे विलोन हो गया और आत्मा ईश्वर मे समाहित हो गई।

शब्दार्थ—लेख = साकार। अलेख = निराकर।

आया था संसार में, देषरग कौं बहु रूप।
कहै कबीरा संत हौ, पढ़ि गया नजरि अनुप ॥ २४ ॥

सन्दर्भ—संसार मे माया के विविध रूप देखने के लिए आया था।

भावार्थ—संसार मे माया के बहुरंग रूप को देखने के लिए आया था, परन्तु हे सन्त-जन अनुपम तत्व जब से दृष्टिगत हो गाया, तब से माया की समस्त दशाओ को मैं भूल गया।

शब्दार्थ—देपरग -देखने के लिए।

अंक भरे भरि भेटिया, मन में नाहीं धीर।
कहै कबीर ते क्यू मिले,जब लग दोइ सरीर॥ २५ ॥

सन्दर्भ—ब्रह्म से एकाकार हो कर अभिन्न हो गया।

भावार्थ—प्रेमाधिक्य के कारण प्रिय का बडी व्यग्रता के साथ आलिगन विध, दोनो शरीर एकाकार हो गए। कबीर कहते हैं जब तक प्रेम तत्व को प्रबलता नही होती हे तब तक दोनो एकाकार केसे हो सकते हे?

शब्दार्थ—अंक = गोद।

सचुपाया सुख ऊपना, अरु दिल दरिया पूरि।
सकल पाप सड़जैं गये, जब जाई मिल्या हजूरि॥ २६ ॥

सन्दर्भ—हुजूर के दर्शन होते ही सम्रहन पाप और अलेश स्वतः विचि्छन हो गए।  

संदर्भ—आत्मा और परमात्मा उभय एकाकार हो गए।

भावार्थ—अच्छा ही हुआ जो भय मेरे अन्तस मे समुत्पन्न हो गया, उसके फलस्वरुप मैं सासारिकता से ऊपर होकर ईश्वरोन्मुख हो गया। आत्मा रुपी पाला घुलकर पानी बन गया और ब्रह्म रुपी जल मे मिलकर वह अभिन्न हो गया।

शब्दार्थ—जु=जो । पडया=समुत्प्न्न, आकर उपस्थित हो गया। कुलि=किनारे ।

चौहटै च्यंतामंणि चढ़ी,हाडी मारत हाथि।
मीरां मुझसॅू मिहर करि,इब मिलौ न काहु साथि।।१६।।

संदर्भ—हे ईश्वर अब मैं तुझसे मिलकर अभिन्न हो गया।

भावार्थ—जीवन रूपी चौराहे मे त्रिकुटी नामक स्थान पर जीवन रूपी चौसर के खेत मे पासा फेकते हुए,चिंतामणि हाथ मे लग गई। हे प्रभु !अब तुझे छोड़कर मैं किसी अन्य की अपेक्षा नही रखता हूँ।

शब्दार्थ—च्यंतामणि=चिंतामणि। चढ़ी=प्राप्त हुई।

पंषि उडानीं गगन कॅू,प्यंड रह्या परदेश।
पांणी पीया चंच बिन,भूलि गया यहु देश।।२०।।

संदर्भ—आत्मा ने निगुंण व्रहा के दर्शन प्राप्त किए।

भावार्थ—आत्मा रूपी पक्षो ब्रहाण्ड मे उड़ गई और शरीर इस परदेश मे पड़ा रह गया। वहां पर आत्मा रूपी पक्षी ने चोच के बिना जल पिया।अर्थात् निराकार ब्रह्म के दर्शन किए और इस प्रकार वह अपनी दशा,परिस्थिति को भूल गई।

शब्दार्थ—पंषि=पक्षी,आत्मा। प्यड=शरीर। चंच=चोच।

पंषि उडानीं गगन कूं,उड़ी चढ़ी असमान ।
जिहिं सर मंडल भेदिया,सो सर लागा कान।।२१।।

संदर्भ—आत्मा रूपी पक्षी ब्रह्माण्ड मे जाकर ब्रह्माकार हो गई।

भावार्थ—आत्मा रूपी पक्षी ब्रह्माण्ड मे प्रविष्ट होकर और आगे उड़ती गई जिस बाण ने हृदय मडल को आहत कर दिया था उस बाण के प्रति चित् को भावना और भी प्रगाढ़ हो गई।

शब्दार्थ—सर=बाण।

सुरति समांणी निरति मैं,निरति रही निरधार।
सुरति निरति परचा भया,तब खूले स्यंभ दुवार।।२२।।

 

भावार्थ-कबीर दास कहते हैं कि जब से प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन् हुए तब से हृदय मे शन्ति का साम्राज्य स्थापित हो गाया और समस्त पाप सहज रूप से विनष्ट हो गए ।

शब्दार्थ-सचुपाया=शांति प्राप्त की। ऊपना=उत्पन्न हुआ।

धरती गगन पवन नहीं होता, नहीं तोया, नहीं तारा।
तब हरि हरि के जन होते, कहै कबीर विचार॥२७॥

सन्दर्भ-हरि और हरिजन शाश्वत है।

भावार्थ-धरती गगन पवन, सूर्य जल न होते और यह सृष्टि भी न होती तोभी प्रभु और उनके भक्त इस संसार में अवश्य होते।

शब्दार्थ-तोया=पानी।

जा दिन कृतमनां हुता, होता हट न पट।
हुता कबीरा राम जन, देखै औघट घट॥ २८ ।।

सन्दर्भ-राम और उनके भक्त शाश्वत है।

भावार्थ- जिस दिन यह संसार न होता हाट और वस्त्र न होते, सांसारिक व्यापार न होते कबीर कहते हैं कि उस दिन भी राम और राम के भक्त इस संसार में होते।

शब्दार्थ- कृतम=कृत्रिम

थिति पाई मन थिर भया, सतगुरु करी सहाइ।
अनिन कथा तनि आचरी, हिरदै त्रिभुवन राइ॥२६॥

सन्दर्भ-जब से हरि को कथा का ध्यान किया तब से समस्त ताप नष्ट हो गए।

भावार्थ-सदगुरु की कृपा से मन स्थिर हो गया और हरि की यज्ञगाथा की साधना मे मन अनुरक्त हो गया, तब से हृदय मे भगवान के दर्शन हुए।

शब्दार्थ-थिति=शांति। अमिन=अनन्य।

हरि संगति सीतल भया, मिटी मोह की ताप।
निस बासुरि सुख निध्य लह्या, जब अतरि प्रगट्या आप॥३०॥

सन्दर्भ-प्रभु की शरण मे जाने से समस्त पाप नष्ट हो गए।

भावार्थ-हरि के शरण मे जाते ही समस्त पाप विनष्ट हो गए। मोह की ज्वाला शान्त हो गाई जब से ब्रह्मा के दर्शन हुए तब से दिन-रात सुख की निधि प्राप्त हो गई।

शब्दार्थ—बासुरि = दित। निध्य = निधि।

तन भीतरि मन मानियाँ, बाहरि कहा न जाइ।
ज्वाला तैं फिर जल भया, बुझी बलंती लाइ॥३१॥

सन्दर्भ—अब मन अन्तर्मुखी हो गया।

भावार्थ—हृदय में ही मन मुग्ध होकर सीमित हो गया। अब यह बाहर कही नहीं जाता है। मोह की ज्वाला शान्त हो गई और अग्नि पीतल हो गई।

शब्दार्थ—बाहरि = बाहर।

तत पाया तन बीसर्या, जब मन घरिया ध्यान।
तपनि गई सीतल भया, जब सुनि किया असनान॥३२॥

सन्दर्भ—धैर्यं के जाग्रत होते ही तत्व प्राप्त हो गया।

भावार्थ—जब से मन में प्रभु का ध्यान हुआ, तब से मन में शान्ति स्थापित हुई। ब्रह्म तत्व की प्राप्ति हुई और तन की दशाएंँ भूल गया। समस्त ताप नष्ट हो गए और शून्य सरोवर में स्नान किया।

शब्दार्थ—तत = तत्व।

जिनि पाया तिनि सू गह गह्या रसनां लागी स्वादि।
रतन निराला पाईया, जगत ढंडौल्या बादि॥३३॥

संदर्भ—संसार सागर में भटकते-भटकते हरि रूपी हीरा प्राप्त हो गया।

भावार्थ—जिन्होंने खोज की उन्हें हरि रूपी हीरा मिला और जिसने पाया उसे भली-भाँति ग्रहण किया। मन में जिह्वा में रामनाम रूपी स्वाद लग गया। मैंने तो अद्भुत रत्न प्राप्त कर लिया अब संसार में कौन भटकता फिरे।

शब्दार्थ—मूगह = अच्छी तरह। गह्या = पकड़ा। ढंदौल्या = खोजा।

कबीर दिल स्यावति भया, पाया फल संम्रथ्य।
सायर मांहि ढंढोलतां, हीरै पडि गया हथ्य॥३४॥

संदर्भ—संसार सागर में हरि हीरा प्राप्त हो गया ।

भावार्थ जब से मन में धैर्य और शान्ति स्थापित हो गई तब में हरि रूपी हीरा सम्प्राप्त हो गया। संसार सागर में खोजते खोजते हरि रूपी हीरा प्राप्त हो गया ।  

शब्दार्थ-स्याबित = सम्पूर्ण । ढंढोलता = खोजते हुए ।

जब मैं था तब हरि नहीं,अब हरि हैं मैं नांहि ।
सब अँधियारा मिटि गया जब दीपक देख्यां माहि ॥ ३५ ॥

सन्दर्भ-ह्रदय मे ब्रह्मानुभूति होते ही समस्त अंधकार मिट गया।

भावार्थ-जब तक अहं था तब तक मैं हरि को नहीं प्राप्त कर पाया। अब तो हरि ही हैं मैं नही हूँ, जब से ह्रदय मे स्वय प्रकाश के दर्शन हुए तब से समस्त ताप और पाप नष्ट हो गए ।

शब्दार्थ-मै=अहंमभाव ।

जा कारणि मैं ढूंढता,सनमुख मिलिया आइ।
धन मैली पिव ऊजला,लागि न सकौं पाइ॥ ३६ ॥

सन्दर्भ-प्रिय के साथ कैसे एकाकार होऊ मैं तो मलीन हूँ।

भावार्थ-जिसको मैं ढूंढत फिरता था वह सन्मुख मिल गया,परन्तु पाप से पंकिल आत्मा रूपी प्रिय स्त्री प्रिय के चरणो का स्पर्श कैसे करे।

शब्दार्थ-धन=स्त्री,(आत्मा)। मैली=पापो से युक्त।

जा कारणि मैं जाइ था,सोई पाई ठौर।
सोई फिरि आपण भया,जासू कहता और॥३७॥

सन्दर्भ-आत्मा और परमात्मा मिलकर एकाकार हो गए ।

भावार्थ-जिसके खोज मे मैं भटक रहा था वह अपने स्थान पर प्राप्त हो गया और जिसे मैं विलग समझता था वही अभिन्न हो गया।

शब्दार्थ-जा कारणि-जिसके लिए।

कबीर देख्या एक अंग,महिम कही न जाइ।
तेज पुंज पारस धरणीं,नैनू रहा समाइ॥३८॥

संदर्भ-प्रकाश पुंज परमात्मा नेत्रो मे समाहित हैं।

भावातर्थ-कबीर दास कहते हैं कि मैंने प्रभु के दर्शन एक निष्ठ होकर किए। उनकी महिमा अनिव्ंचीय हैं। वह तेज पुन्ज हैं,पारस है,धनी है,वह नेत्रो मे समाहित हो रहा है।

शब्दार्थ-एक अंग=एक निष्ठ होकर धरणी=स्वामी।