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कबीर ग्रंथावली/(८) जर्णा कौ अंग

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लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ १३७ से – १३८ तक

 

८. जर्णा कौ अंग

भारी कहौं त बहु डरौं, हलका कहूँ तो झूठ।
मैं का जांणौं राम कू, नैनूँ कपहूँ न दीठ॥१॥

सन्दर्भ—ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता है।

भावार्थयदि उस परमात्मा को भारी कहा जाय तो बहुत डर लगता है क्योकि वह निराकार है फिर भारी कैसे हो सकता है? और यदि हल्का कहूँ तो यह भी असत्य हो है। क्योंकि मैंने अपने भौतिक नेत्रों से परमात्मा को देखा ही नहीं है फिर उनके अस्तित्व के विषय में कह कैसे सकता हूँ।

शब्दार्थ—दीठ = देखा।

दीठा है तो कस कहूं, कह्या न को पतियाइ।
हरि जैसा है तैसा रहै, तू हरिष हरिष गुण गाइ॥२॥

सन्दर्भ—ईश्वर के अस्तित्व का बखान कठिन है। उसका स्मरण ही करना चाहिए।

भावार्थ—यदि उस परमात्मा के दर्शन भी हो गए हो तो भी उस अवर्णनीय का वर्णन कैसे किया जा सकता है और यदि किसी प्रकार वर्णन भी कर दिया जाय तो कहने पर विश्वास कौन मान सकता है। परमात्मा जिस प्रकार का है उसे उसी प्रकार का रहने दो हे मन! तू प्रसन्नतापूर्वक उस परमात्मा के गुणों का स्मरण कर।

शब्दार्थ—पतियाह = विश्वास करता है।

ऐसा अद्भुत जिनि क्थौ, अद्भुत राखि लुकाइ।
वेद कुरानौ गमि नहीं, वह्या न को पतियाइ॥३॥

सन्दर्भ—ईश्वर के रूप का वर्णन वेद और कुरान ऐसे धार्मिक ग्रंथ भी नहीं कर पाते हैं फिर और कौन कर सकता है?

भावार्थ—जो ब्रह्म इतना रहस्यमय है रे मन! उसके वर्णन का प्रयास तू न कर। उस रहस्य को रहस्य ही बना रहने दें। वेद और कुरानादि धार्मिक ग्रन्थ जिसके गुणों का वर्णन नहीं कर सके उसका वर्णन कैसे किया जा सकता है और करने पर भी उसका विश्वास कौन करेगा?

शब्दार्थ—जिनि = मत। गमि = पहुँच।

करता की गति अगम है, तूँ चलि अपणै उनमान।
धीरैं धीरैं पाव दे, पहुँचैंगे परवान॥४॥

सन्दर्भ—ईश्वर का दर्शन एक दिन में नहीं होगा प्रयास करने पर कभी न कभी होई जायेगा।

भावार्थ—सम्पूर्ण विश्व के कर्ता परमात्मा की गति अगम्य है हे जीव? तू अपनी शक्ति के अनुसार ही उसको खोजने के लिए चल। धीरे-धीरे चलते रहने पर भी किसी न किसी दिन तो उसके दर्शन हो ही जाएँगे।

शब्दार्थ—उनमान = मार्ग। पखान, ब्रह्म प्राप्ति।

पहुँचैंगे तब कहैंगे, अमड़ैंगे उस ठाँइ।
अजहूँ बेरा समन्द मैं, बोलि बिगूचैँ काँइ॥५॥

सन्दर्भ—बिना परमात्मा ज्ञान के उसके विषय में कुछ भी कहना व्यर्थ है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि उस परमात्मा के विषय में तभी कहा जा सकता है जब हम उस तक पहुँच जाएंगे। अभी तो मैं मंझधार में पड़ा हूँ। साधना के मार्ग में बीच में ही पड़ा हूँ इसलिये इस समय ईश्वर के विषय में कुछ कह कर अन्य मनुष्यों को धोखा क्यों दे।

शब्दार्थ—अमडैंगे = कहेंगे। बिगूचैँ = घोखा दें।