कर्मभूमि/चौथा भाग २
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अमरकान्त के जीवन में एक नया उत्साह चमक उठा है। ऐसा जान पड़ता है कि अपनी जीवन-यात्रा में वह अब एक नये घोड़े पर सवार हो गया है। पहले पुराने घोड़े को एक ओर चाबुक लगाने की जरूरत पड़ती थी। यह नया घोड़ा कनौतियाँ खड़ी किये सरपट भागता चला जाता है। स्वामी आत्मानन्द, काशी, प्रयाग, सभी से उसकी तकरार हो जाती। इन लोगों के पास वही पुराने घोड़े हैं। दौड़ में पिछड़ जाते हैं। अमर उनकी मन्द गति पर बिगड़ता है—इस तरह तो काम नहीं चलने का स्वामीजी। आप काम करते हैं कि मजाक करते हैं। इससे तो कहीं अच्छा था कि आप सेवाश्रम में बने रहते!
आत्मानन्द ने अपने विशाल वक्ष को तानकर कहा—बाबा, मेरे से अब और नहीं दौड़ा जाता। जब लोग स्वास्थ्य के नियमों पर ध्यान न देंगे, तो आप बीमार होंगे, आप मरेंगे। मैं नियम बतला सकता हूँ, पालन करना तो उनके हो अधीन है।
अमरकान्त ने सोचा—यह आदमी जितना मोटा है, उतनी ही मोटी इसकी अक्ल भी है। खाने को डेढ़ सेर चाहिए, काम करते ज्वर आता है। इन्हें संन्यास लेने से न जाने क्या लाभ हुआ।
उसने आँखों में तिरस्कार भरकर कहा—आपका काम केवल नियम बताना नहीं है, उनसे नियमों का पालन कराना भी है। उनमें ऐसी शक्ति डालिए कि वे नियमों का पालन किये बिना रह ही न सकें। उनका स्वभाव ही ऐसा हो जाय। मैं आज पिचौरा से निकला; गाँव में जगह-जगह कूड़े के ढेर दिखाई दिये। आप कल उसी गाँव से हो आये हैं क्यों कूड़ा साफ
नहीं कराया गया? आप खुद फावड़ा लेकर क्यों नहीं पिल पड़े? गेरूए वस्त्र पहन लेने ही से आप समझते हैं, लोग आपकी शिक्षा को देववाणी समझेंगे?
आत्मानन्द ने सफाई दी—मैं कूड़ा साफ करने लगता, तो सारा दिन पिचौरा ही में लग जाता। मुझे पांँच-छ: गाँवों का दौरा करना था।
'यह आपका कोरा अनुमान है। मैंने सारा कूड़ा आध घण्टे में साफ कर दिया। मेरे फावड़ा हाथ में लेने ही की देर थी, सारा गाँव जमा हो गया और बात-की-बात में सारा गाँव झक हो गया।'
फिर वह गूदड़ चौधरी की ओर फिरा—तुम भी दादा, अब काम में ढिलाई कर रहे हो। मैंने कल एक पंचायत में लोगों को शराब पीते पकड़ा। सीताड़े की बात है। किसी को मेरे आने की खबर तो थी नहीं, लोग आनन्द से बैठे थे और बोतलें सरपंच महोदय के सामने रखी हुई थीं। मुझे देखते ही तुरन्त बोतलें उड़ा दी गयीं और लोग गंभीर बनकर बैठ गये। मैं दिखावा नहीं चाहता, ठोस काम चाहता हूँ।
अमर ने अपनी लगन, उत्साह, आत्म-बल और कर्मशीलता से अपने सभी सहयोगियों में सेवा-भाव उत्पन्न कर दिया था और उन पर शासन भी करने लगा था। सभी उसका रोब मानते थे। उसके गुलाम थे।
चौधरी ने बिगड़कर कहा—तुमने कौन गाँव बताया, सौताड़ा? मैं आज ही उसके चौधरी को बुलाता हूँ। वही हरखलाल है। जन्म का पियक्कड़। दो दफ़ा सजा काट आया है। मैं आज ही उसे बुलाता हूँ।
अमर ने जाँघ पर हाथ पटककर कहा—फिर वही डाँट-फटकार की बात? अरे दादा? डाँट-फटकार से कुछ न होगा। दिलों में पैठिये। ऐसी हवा फैला दीजिये कि ताड़ी-शराब से लोगों को घृणा हो जाय। आप दिन-भर अपना काम करेंगे ओर चैन से सोयेंगे, तो यह काम हो चुका। यह समझ लो कि हमारी बिरादरी चेत जायगी, तो बाम्हन ठाकुर आप ही चेत जायेंगे।
गूदड़ ने हार मानकर कहा—तो भैया, इतना बूता तो अब मुझमें नहीं रहा कि दिन भर काम करूँ और रात भर दौड़ लगाऊँ। काम न करूँ, तो भोजन कहाँ से आये? अमरकान्त ने उसे हिम्मत हारते देखकर सहास मुख से कहा--कितना बड़ा पेट है! तो उसे छोटा करना पड़ेगा।
काशी और प्रयाग ने देखा कि इस वक्त सबके ऊपर फटकार पड़ रही है, तो वहाँ से खिसक गये।
पाठशाले का समय आ गया था। अमरकान्त अपनी कोठरी में किताब लेने गया, तो देखा, मुन्नी दूध लिये खड़ी है। बोला--मैंने तो कह दिया था, मैं दूध न पिऊँगा, फिर क्यों लायीं?
आज कई दिनों से मुन्नी अमर के व्यवहार में एक प्रकार की शुष्कता अनुभव कर रही थी। उसे देखकर अब उनके मुख पर उल्लास की झलक नहीं आती। उससे अब बिना विशेष प्रयोजन के बोलते भी कम हैं। उसे ऐसा जान पड़ता है कि यह मुझसे भागते हैं। इसका कारण वह कुछ नहीं समझ सकती। यह काँटा उसके मन में कई दिन से खटक रहा है। आज वह इस काँटे को निकाल डालेगी।
उसने अविचलित भाव से कहा--क्यों नहीं पियोगे; सुनूँ?
अमर पुस्तक का एक बण्डल उठाता हुआ बोला--अपनी इच्छा है, नहीं पीता—तुम्हें मैं कष्ट नहीं देना चाहता।
मुन्नी ने तिरछी आँखों से देखा--यह तुम्हें कब से मालूम हुआ कि तुम्हारे लिए दूध लाने में मुझे बहुत कष्ट होता है। और अगर किसी को कष्ट उठाने ही में सुख मिलता हो तो?
अमर ने हारकर कहा--अच्छा भाई, झगड़ा न करो, लाओ पी लूँ!
एक ही साँस में सारा दूध कड़वी दवा की तरह पीकर अमर चलने लगा, तो मुन्नी ने द्वार छोड़कर कहा--बिना अपराध के तो किसी को सजा नहीं दी जाती।
अमर द्वार पर ठिठककर बोला--तुम तो जाने क्या बक रही हो। मुझे देर हो रही है।
मुन्नी ने विरक्त भाव धारण किया--तो मैं तुम्हें रोक तो नहीं रही हूँ, जाते क्यों नहीं।
अमर कोठरी से बाहर पाँव न निकाल सका।
मुन्नी ने फिर कहा--क्या मैं इतना भी नहीं जानती कि मेरा तुम्हारे
ऊपर कोई अधिकार नहीं है? तुम आज चाहो, तो कह सकते हो, खबरदार, मेरे पास मत आना। और मुँह से चाहे न कहते हो; पर व्यवहार से रोज ही कह रहे हो। आज कितने दिनों से देख रही हूँ; लेकिन बेहयाई करके आती हूँ, बोलती हूँ, खुशामद करती हूँ। अगर इस तरह आँखें फेरनी थीं, तो पहले ही से उस तरह क्यों न रहे। लेकिन मैं क्या बकने लगी। तुम्हें देर हो रही है,जाओ।
अमरकान्त ने जैसे रस्सी तुड़ाने का जोर लगाकर कहा—तुम्हारी कोई बात मेरी समझ में नहीं आ रही है मुन्नी! मैं तो जैसे पहले रहता था, वैसे ही अब भी रहता हूँ। हाँ, इधर काम अधिक होने से ज्यादा बातचीत का अवसर नहीं मिलता।
मुन्नी ने आँखें नीची करके गूढ़ भाव से कहा—तुम्हारे मन की बात में समझ रही हूँ; लेकिन वह बात नहीं है। तुम्हें भरम हो रहा है।
अमरकान्त ने आश्चर्य से कहा—तुम तो पहेलियों में बातें करने लगीं।
मुन्नी ने उसी भाव से जवाब दिया—आदमी का मन फिर जाता है तो सीधी बातें भी पहेली-सी लगती हैं।
फिर वह दूध का खाली कटोरा उठाकर जल्दी से चली गयी।
अमरकान्त का हृदय मसोसने लगा। मुन्नी जैसे सम्मोहन-शक्ति से उसे अपनी ओर खींचने लगी। 'तुम्हारे मन की बात समझ रही हूँ; लेकिन तुम्हें भ्रम हो रहा है।' यह वाक्य किसी गहरे खड्ड की भाँति उसके हृदय को भयभीत कर रहा था। उसमें उतरते दिल काँपता' था, पर रास्ता उसी खड्ड में से जाता था।
वह न जाने कितनी देर अचेत-सा खड़ा रहा। सहसा आत्मानन्द ने पुकारा—क्या आज शाला बन्द रहेगी?