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कर्मभूमि/चौथा भाग १

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हंस प्रकाशन, पृष्ठ २७९ से – २८७ तक

 


चौथा भाग


अमरकान्त को ज्यों ही मालूम हुआ कि सलीम यहाँ का अफ़सर होकर आया है, वह उससे मिलने चला। समझा, खूब गप-शप होगी। यह खयाल तो आया, कहीं उसमें अफ़सरी की बू न आ गयी हो; लेकिन पुराने दोस्त से मिलने की उत्कण्ठा को न रोक सका। बीस-पच्चीस मील का पहाड़ी रास्ता था। ठण्ड खूब पड़ने लगी थी। आकाश कुहरे की धुन्ध से मटियाला हो रहा था और उस धुन्ध में सूर्य जैसे टटोल-टटोलकर रास्ता ढूँढता हुआ चला जाता था। कभी सामने आ जाता कभी छिप जाता। अमर दोपहर के बाद चला था। उसे आशा थी, दिन रहते पहुँच जाऊँगा; किन्तु दिन ढलता जाता था और मालूम नहीं, अभी और कितना रास्ता बाकी है। उसके पास केवल एक देशी कम्बल था। कहीं रात हो गई तो किसी वृक्ष के नीचे टिकना पड़ जायगा। देखते ही देखते सूर्यदेव अस्त भी हो गये। अँधेरा जैसे मुँह खोले संसार को निगलने चला आ रहा था। अमर ने कदम और तेज़ किये। शहर में दाखिल हुआ, तो आठ बज गये थे।

सलीम उसी वक्त क्लब से लौटा था। खबर पाते ही बाहर निकल आया। अमर ने उसकी सज-धज देखी, तो झिझका और गले मिलने के बदले हाथ बढ़ा दिया। अरदली सामने ही खड़ा था। उसके सामने इस देहाती से किसी प्रकार की घनिष्ठता का परिचय देना बड़े साहस का काम था। उसे अपने सजे हुए कमरे में भी न ले जा सका। अहाते में छोटा-सा बाग था। एक वृक्ष के नीचे उसे ले जाकर उसने कहा--यह तुमने क्या धज बना रखी है जी, इतने हूश कबसे हो गये? वाह रे आपका कुर्ता! मालूम होता है, डाक का थैला है, और यह डाबलूश जूता किस दिसावर से मंगवाया है? मुझे डर है, कहीं बेगार में न धर लिये जाओ! अमर वहीं जमीन पर बैठ गया और बोला—कुछ खातिर-तवाज़ा तो की नहीं, उलटे और फटकार सुनाने लगे। देहातियों में रहता हूँ, जेंटलमेन बनूं तो कैसे निबाह हो। तुम खूब आये भाई, कभी-कभी गप-शप हुआ करेगी। उधर की खैरआफ़ियत कहो। यह तमने नौकरी क्या कर ली। डटकर कोई रोजगार करते, सूझी भी तो गुलामी।

सलीम ने गर्व से कहा—गुलामी नहीं है जनाब, हुकूमत है। दस-पाँच दिन में मोटर आयी जाती है, फिर देखना किस शान से निकलता हूँ। मगर तुम्हारी यह हालत देखकर दिल टूट गया। तुम्हें यह भेस छोड़ना पड़ेगा।


अमर के आत्म-सम्मान को चोट लगी। बोला—मेरा खयाल था, और है, कि कपड़े महज़ जिस्म की हिफाजत के लिए है, शान दिखाने के लिए नहीं।

सलीम ने सोचा, कितनी लचर-सी बात है। देहातियों के साथ रहकर अक्ल भी खो बैठा। बोला—खाना भी तो महज़ जिस्म की परवरिश के लिए खाया जाता है, तो सूखे चने क्यों नहीं चबाते? सूखे गेहूँ क्यों नहीं फांकते? क्यों हलवा और मिठाई उड़ाते हो?

'सूखे चने ही चबाता हूँ!'

'झूठे हो। सूखे चने पर ही यह सीना निकल आया है। मुझसे डयोढ़े हो गये, मैं तो शायद पहचान भी न सकता।

'जी हाँ, यह सूखे चनों ही की करामात है। ताकत साफ़ हवा और संयम में है। हलवा-पूरी से ताकत नहीं होती, सीना नहीं निकलता, पेट निकल आता है। २५ मील पैदल चला आ रहा हूँ। है दम? जरा पाँच ही मील चलो मेरे साथ।

'मुआफ कीजिए। किसी ने कहा है—बड़ी रानी, तो आओ पीसो मेरे साथ। तुम्हें पीसना मुबारक हो। तुम यहाँ कर क्या रहे हो?'

'अब तो आये हो, खुद ही देख लोगे। मैंने जिन्दगी का जो नकशा दिल में खींचा था, उसी पर अमल कर रहा हूँ। स्वामी आत्मानन्द के आ जाने से काम में और भी सहूलियत हो गयी है।'

ठण्ड ज्यादा थी। सलीम को मजबूर होकर अमरकान्त को अपने कमरे में लाना पड़ा। अमर ने देखा, कमरे में गद्देदार कोच हैं, पीतल के गमले हैं, जमीन पर कालीन है, मध्य में संगमरमर की गोल मेज है।

अमर ने दरवाजे पर जूते उतार दिये और बोला—केवाड़ बन्द कर दूं, नहीं कोई देख ले, तो तुम्हें शर्मिन्दा होना पड़े। तुम साहब ठहरे।

सलीम पते की बात सुनकर झेंप गया। बोला—कुछ-न-कुछ खयाल तो होता ही है भई, हालांकि मैं फैशन का गुलाम नहीं हूँ। मैं भी सादी जिन्दगी बसर करना चाहता था; लेकिन अब्बाजान की फरमाइश कैसे टालता। प्रिंसिपल तक कहते थे, तुम पास नहीं हो सकते, लेकिन रिजल्ट निकला तो सब दंग रह गये। तुम्हारे ही खयाल से मैंने यह जिला पसन्द किया। कल तुम्हें कलक्टर से मिलाऊँगा। अभी मि० गजनवी से तो तुम्हारी मुलाकात न होगी। बड़ा शौकीन आदमी है। मगर दिल का साफ़। पहली ही मुलाकात में उससे मेरी बेतकल्लुफ़ी हो गयी। चालीस के करीब होंगे, मगर कम्पेबाजी नहीं छोड़ी।

अमर के विचार में अफसरों को सच्चरित्र होना चाहिये था। सलीम सच्चरित्रता का कायल न था। दोनों मित्रों में बहस हो गयी।

सलीम ने कहा—खुश्क आदमी कभी अच्छा अफ़सर नहीं हो सकता।

अमर बोला—सच्चरित्र होने के लिए खुश्क होना जरूरी नहीं।

'मैंने तो मुल्लाओं को हमेशा खुश्क ही देखा। अफसरों के लिए महज कानून की पाबन्दी काफ़ो नहीं। मेरे खयाल में तो थोड़ी-सी कमजोरी इन्सान का जेवर है। मैं जिन्दगी में तुमसे ज्यादा कामयाब रहा। मुझे दावा है कि मुझसे कोई नाराज नहीं है। तुम अपनी बीबी तक को खुश न रख सके। मैं इस मुल्लापन को दूर से सलाम करता हूँ। तुम किसी जिले के अफ़सर बना दिये जाओ तो एक दिन न रह सको। किसी को खुश न रख सकोगे।'

अमर ने बहस को तूल देना उचित न समझा; क्योंकि बहस में वह बहुत गर्म हो जाया करता था।

भोजन का समय आ गया था। सलीम ने एक शाल निकाल कर अमर को ओढ़ा दिया। एक रेशमी स्लीपर उसके पहनने को दिया। फिर दोनों ने भोजन किया। एक मुद्दत के बाद अमर को ऐसा स्वादिष्ट भोजन मिला। मांस तो उसने न खाया; लेकिन और सब चीजें मजे से खायीं। सलीम ने पूछा—जो चीज खाने की थी, वह तो आपने निकालकर रख दी।

अमर ने अपराधी भाव से कहा—मुझे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन भीतर से इच्छा नहीं होती। और कहो, वहाँ की क्या खबरें हैं? कहीं शादी–वादी ठीक हुई? इतनी कसर बाकी है, उसे भी पूरी कर लो।

सलीम ने चुटकी ली—मेरी शादी की फ़िक्र छोड़ो, पहले यह बताओ कि सकीना से तुम्हारी शादी कब हो रही है। वह बेचारे तुम्हारे इन्तजार में बैठी हुई है।

अमर का चेहरा फीका पड़ गया। यह ऐसा प्रश्न था, जिसका उत्तर देना उसके लिये संसार में सबसे मुश्किल काम था। मन की जिस दशा में वह सकीना की ओर लपका था, वह दशा अब न रही थी। तब सुखदा उसके जीवन में एक बाधा के रूप में खड़ी थी। दोनों की मनोवृत्तियों में कोई मेल न था: दोनों जीवन को भिन्न-भिन्न कोण से देखते थे। एक में भी यह सामर्थ्य न थी कि बह दूसरे को हमखयाल बना लेता; लेकिन अब वह हालत न थी। किसी देवी विधान ने उनके सामाजिक बन्धन को और कसकर उनकी आत्माओं को मिला दिया था। अमर को पता नहीं, सुखदा ने उसे क्षमा प्रदान की या नहीं; लेकिन वह अब सुखदा का उपासक था। उसे आश्चर्य होता था कि विलासिनी सुखदा ऐसी तपस्विनी क्योंकर हो गयी और यह आश्चर्य उसके अनुराग को दिन-दिन प्रबल करता जाता था। उसे अब अपने उस असन्तोष का कारण अपनी ही अयोग्यता में छिपा हुआ मालूम होता था। अगर वह अब सुखदा को कोई पत्र न लिख सका तो इसके दो कारण थे। एक तो लज्जा और दूसरी अपनी पराजय की कल्पना। शासन का वह पुरुषोचित भाव मानो उसका परिहास कर रहा था। सुखदा स्वच्छन्द रूप से अपने लिए एक नया मार्ग निकाल सकती है, उसकी उस लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है, यह विचार उसके अनुराग की गर्दन को जैसे दबा देता था। वह अधिक से अधिक उसका अनुगामी हो सकता है, वह उससे पहले समर में कूदी जा रही है, यह भाव उसके आत्मगौरव को चोट पहुँचाता था। उसने सिर झुकाकर कहा—मुझे अब तजर्बा हो रहा है, कि मैं औरतों

को खुश नहीं रख सकता। मुझमें वह लियाकत ही नहीं है! मैंने तय कर लिया है कि सकीना पर जुल्म न करूंगा।

'तो कम-से-कम अपना फैसला उसे लिख तो देते।'

अमर ने हसरत-भरी आवाज में कहा—यह काम इतना आसान नहीं है सलीम जितना तुम समझते हो। उसे याद करके मैं अब भी बेताब हो जाता हूं। उसके साथ मेरी ज़िन्दगी जन्नत बन जाती। उसकी इस वफ़ा पर मर जाने को जी चाहता है कि अभी तक...

यह कहते-कहते अमर का कण्ठ-स्वर भारी हो गया।

सलीम ने एक क्षण के बाद कहा—मान लो उसे अपने साथ शादी करने पर राजी कर लूँ, तो तुम्हें नागवार होगा?

अमर की आँखें-सी मिल गयीं—नहीं भाई जान, बिल्कुल नहीं। अगर तुम उसे राजी कर सको, तो मैं समझंगा, तुमसे ज्यादा खुशनसीब आदमी दुनिया में नहीं है। लेकिन तुम मज़ाक कर रहे हो। तुम किसी नवाबजादी से शादी करने का खयाल कर रहे होगे।

दोनों खा चुके ओर हाथ धोकर दूसरे कमरे में लेटे।

सलीम ने हुक्के का कश लगाकर कहा--क्या तुम समझते हो, मैं मज़ाक कर रहा हूँ? उस वक्त, मैंने ज़रूर मजाक किया था। लेकिन इतने दिनों में मैंने उसे खूब परखा। उस वक्त तुम उससे न मिल जाते, तो इसमें जरा भी शक नहीं है कि वह इस वक्त कहीं और होती। तुम्हें पाकर उसे फिर किसी की ख्वाहिश नहीं रही। तुमने उसे कीचड़ से निकालकर मन्दिर की देवी बना दिया। और देवी की जगह बैठकर वह सचमुच देवी हो गयी। अगर तुम उससे शादी कर सकते हो, तो शौक से कर लो। मैं तो मस्त हूँ ही, दिलचस्पी का दूसरा सामान तलाश कर लूंगा; लेकिन तुम न करना चाहो, तो मेरे रास्ते से हट जाओ। फिर अब तो तुम्हारी बीबी भी तुम्हारे ही पंथ में आ गयी। अब तुम्हारे लिए उससे मुंह फेरने का कोई सबब नहीं है।

अमर ने हुक्का अपनी तरफ़ खींचकर कहा—मैं बड़े शौक से तुम्हारे रास्ते से हट जाता हूँ; लेकिन एक बात बतला दो-तुम सकीना को भी दिलचस्पी की चीज़ समझ रहे हो, या उसे दिल से प्यार करते हो?

सलीम उठ बैठे—देखो, अमर, मैंने तुमसे कभी परदा नहीं रखा इसलिए

आज भी परदा न रखूँगा। सकीना प्यार करने की चीज नहीं, पूजने की चीज है। कम-से-कम मुझे बह ऐसी ही मालूम होती है। मैं कसम तो नहीं खाता कि उससे शादी हो जाने पर मैं कण्ठी-माला पहन लूंगा। लेकिन इतना जानता हूँ कि उसे पाकर मैं ज़िन्दगी में कुछ कर सकूँगा। अब तक मेरी ज़िन्दगी सैलानीपन में गुजरी है। वह मेरी बहती हुई नाव का लंगर होगी। इस लंगर के बगैर नहीं जानता मेरो नाव किस भँवर में पड़ जायेगी। मेरे लिए ऐसी औरत की ज़रूरत है, जो मुझ पर हुकमत करे, मेरी लगाम को खींचती रहे।

अमर को अपना जीवन इसलिए भार था कि वह अपनी स्त्री पर शासन न कर सकता था। सलीम ऐसी स्त्री चाहता था, जो उस पर शासन करे; और मजा यह था कि दोनों एक ही सुन्दरी में मनोनीत लक्षण देख रहे थे।

अमर ने कुतूहल भाव से कहा—मैं तो समझता हूँ, सकीना में यह बात नहीं है, जो तुम चाहते हो।

सलीम जैसे गहराई में डूबकर बोला—तुम्हारे लिए नहीं है मगर मेरे लिए है! वह तुम्हारी पूजा करती है, मैं उसकी पूजा करता हूँ।

इसके बाद कोई दो-ढाई बजे रात तक दोनों में इधर-उधर की बातें होती रहीं। सलीम ने उस नये आन्दोलन की भी चर्चा की, जो उसके सामने शुरू हो चुका था और यह भी कहा कि उसके सफल होने की आशा नहीं है। संभव है, मुआमला तूल खींचे।

अमर ने विस्मय के साथ कहा—तब तो कहो, सुखदा ने वहाँ नयी जान डाल दी।

'तुम्हारी सास ने अपनी सारी जायदाद सेवाश्रम के नाम वक्फ़ कर दी।'

'अच्छा!'

'और तुम्हारे पिदर बुजुर्गवार भी अब कौमी कामों में शरीक होने लगे हैं।

'तब तो वहाँ पूरा इनक़लाब हो गया!'

सलीम तो सो गया, लेकिन अमर दिन-भर का थका होने पर भी नींद को न बुला सका। वह जिन बातों की कल्पना भी न कर सकता था, वह सुखदा के हाथों पूरी हो गयीं। मगर कुछ भी हो, वही अमीरी, जरा बदली

हुई सूरत में। नाम की परवाह है और कुछ नहीं। मगर फिर उसने अपने को धिक्कारा। तुम किसी के अन्तःकरण की बात क्या जानते हो। आज हजारों आदमी राष्ट्र की सेवा में लगे हुए हैं कौन कह सकता है, कौन स्वार्थी है,कौन सच्चा सेवक?

न जाने कब उसे भी नींद आ गयी।