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कर्मभूमि/चौथा भाग ५

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हंस प्रकाशन, पृष्ठ २९९ से – ३१३ तक

 

अमर गूदड़ चौधरी के साथ महन्त आशाराम गिरि के पास पहुँचा। सन्ध्या का समय था। महन्तजी एक सोने की कुरसी पर बैठे हुए थे, जिस पर मखमली गद्दा था। उनके इर्द-गिर्द भक्तों की भीड़ लगी हुई थी, जिसमें महिलाओं की संख्या ही अधिक थी। सभी धुले हुए संगमरमर के फर्श पर बैठी हुई थीं। पुरुष दूसरी ओर बैठे थे। महन्तजी पूरे छ: फीट के विशालकाय सौम्य पुरुष थे। अवस्था कोई पैंतीस वर्ष की थी। गोरा रंग, दुहरी देह, तेजस्वी मूर्ति, वस्त्र काषाय तो थे, किन्तु रेशमी। वह पाँव लटकाये बैठे हुए थे। भक्त लोग जाकर उनके चरणों को आँखों से लगाते थे, पूजा चढ़ाते थे और अपनी जगह पर आ बैठते थे। गूदड़ तो अन्दर जा न सकते थे, अमर अन्दर गया; पर वहाँ उसे कौन पूछता। आख़िर जब खड़े-खड़े आठ बज गये, तो उसने महन्तजी के समीप जाकर कहा--महाराज, मझे आपसे कुछ निवेदन करना है।

महन्तजी ने इस तरह उसकी ओर देखा, मानो उन्हें आँखें फेरने में कष्ट है।

उनके समीप एक दूसरा साधु खड़ा था। उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखकर पूछा--कहाँ से आते हो?

अमर ने गाँव का नाम बताया।

हुकुम हुआ, आरती के बाद आओ।

आरती में तीन घण्टे की देर थी। अमर यहाँ कभी न आया था। सोचा यहाँ की सैर ही कर लें। इधर-उधर घूमने लगा। वहाँ से पश्चिम तरफ़ तो विशाल मन्दिर था। सामने पूरब की ओर सिंहद्वार, दाहिने-बायें दो दरवाजे और भी थे। अमर दाहिने दरवाजे के अन्दर घुसा, तो देखा चारों तरफ़ चौड़े बरामदे हैं और भण्डार हो रहा है। कहीं बड़ी-बड़ी कढ़ाइयों में पूरियाँ कचोड़ियाँ बन रही हैं, कहीं भाँति-भाँति की शाक-भाजी चढ़ी हुई है, कहीं दूध उबल रहा है, कहीं मलाई निकाली जा रही है। बरामदे के पीछे, कमरों में खाद्य सामग्री भरी हुई थी। ऐसा मालूम होता था कि अनाज, शाक-भाजी, मेवे, फल, मिठाई की मंडियाँ हैं। एक पूरा कमरा तो केवल परवलों से भरा हुआ था। इस मौसम में परवल कितने मँहगे होते है; पर यहाँ वह भूसे की तरह भरे हुए थे। अच्छे-अच्छे घरों की महिलाएँ भक्त-भाव से व्यंजन पकाने में लगी हुई थीं। ठाकुरजी के व्यालू की तैयारी थी। अमर यह भण्डार देखकर दंग रह गया। इस मौसम में यहाँ बीसों झावे अंगूर से भरे थे।

अमर यहाँ से उत्तर के द्वार में घुसा, तो यहाँ बाज़ार सा लगा देखा। एक लम्बी क़तार दरज़ियों की थी, जो ठाकुरजी के वस्त्र सी रहे थे। कहीं ज़री के काम हो रहे थे, कहीं कारचोबी की मसनदें और गावतकिये बनाये जा रहे थे। एक कतार सोनारों की थी, जो ठाकुरजी के आभूषण बना रहे थे। कहीं जड़ाई का काम हो रहा था, कहीं पालिश किया जाता था, कहीं पटवे गहने गूंथ रहे थे। एक कमरे में दस-बारह मुस्टण्डे जवान बैठे चन्दन रगड़ रहे थे। सबों के मुँह पर ढाटे बँधे हुए थे। एक पूरा कमरा इत्र और तेल और अगर की बत्तियों से भरा हुआ था। ठाकुरजी के नाम पर धन का कितना अपव्यय हो रहा है, यही सोचता हुआ अमर वहाँ से फिर बीचवाले प्रांगण में आया और सदर द्वार से बाहर निकला।

गूदड़ ने पूछा--बड़ी देर लगाई। कुछ बात-चीत हुई?

अमर ने हँसकर कहा--अभी तो केवल दर्शन हुए हैं, आरती के बाद भेंट होगी। यह कहकर उसने जो कुछ देखा था, विस्तारपूर्वक बयान किया।

गूदड़ ने गर्दन हिलाते हुए कहा--भगवान का दरबार है। जो संसार को पालता है, उसे किस बात की कमी। सुना तो हमने भी है, लेकिन कभी भीतर नहीं गये कि कोई पूछने-पाछने लगे, तो निकाले जायँ। हाँ, घुड़साल और गऊशाला देखी है। मन चाहे तुम भी देख लो।

अभी समय बहुत बाकी था। अमर गऊशाला देखने चला। मन्दिर के दक्खिन पशुशालाएँ थीं। सबसे पहले फ़ीलखाने में घुसे। कोई पच्चीस-तीस हाथी आँगन में जंजीरों में बँधे खड़े थे। कोई इतना बड़ा कि पूरा पहाड़, कोई इतना छोटा जैसे भैंस! कोई झूम रहा था, कोई सूंड़ घुमा रहा था, कोई बरगद के डाल-पात चबा रहा था। उनके हौदे, झूलें, अम्बारियाँ, गहने सब अलग एक गोदाम में रखे हुए थे। हरेक हाथी का अपना नाम, अपने सेवक, अपना मकान अलग था। किसी को मन भर रातिब मिलता था, किसी को चार पसेरी। ठाकुरजी की सवारी में जो हाथी था, वही सबसे बड़ा था। भगत लोग उसकी पूजा करने आते थे। इस वक्त भी मालाओं का ढेर उसके सिर पर पड़ा हुआ था। बहुत से फूल पैरों के नोचे थे।

यहाँ से घुड़साल में पहुँचे। घोड़ों की कतारें बँधी हुई थीं, मानो सवारों की फ़ौज का पंड़ाव हो। पाँच सौ घाड़ा से कम न थे, हरेक जाति के हरेक देश के। कोई सवारी का, कोई शिकार का, कोई बग्घी का, कोई पोलो का। हरेक घोड़े पर दो-दो आदमी नौकर थे। महन्तजी को घुड़दौड़ का बड़ा शौक़ था। इनमें कई घोड़े घुड़दौड़ के थे। उन्हें रोज़ बादाम और मलाई दी जाती थी। गऊशाले में भी चार-पाँच सौ गायें-भैंसें थी। बड़े-बड़े मटके ताजे दूध से भरे रखे थे। ठाकुरजी आरती के पहले स्नान करेंगे। पाँच-पाँच मन दूध उनके स्नान को तीन बार रोज चाहिए, भण्डार के लिए अलग।

अभी यह लोग इधर-उधर घूम रहे थे कि आरती शुरू हो गई। चारों तरफ़ से लोग आरती करने को दौड़ पड़े।

गूदड़ ने कहा--तुमसे कोई पूछता कौन भाई हो, तो क्या बताते?

अमर ने मुसकराकर कहा--वैश्य बताता।

'तुम्हारी तो चल जाती; क्योंकि यहाँ तुम्हें लोग कम जानते हैं। मुझे तो लोग रोज़ ही हाते में चरसे बेचते देखते हैं, पहचान लें, तो जीता न छोड़ें। अब देखो भगवान की आरती हो रही है और हम भीतर नहीं जा सकते। यहाँ के पण्डों-पुजारियों के चरित्र सुनो तो दाँतों उँगली दबा लो; पर वे यहाँ के मालिक हैं, और हम भीतर कदम नहीं रख सकते। तुम चाहे जाकर आरती ले लो। तुम सूरत से भी तो ब्राह्मण जँचते हो। मेरी तो सूरत ही चमार-चमार पुकार रही है।

अमर की इच्छा तो हुई कि अन्दर जाकर तमाशा देखे; पर गूदड़ को छोड़कर न जा सका। कोई आध घण्टे में आरती समाप्त हुई और उपासक लौटकर अपने-अपने घर गये, तो अमर महन्तजी से मिलने चला। मालूम हुआ, कोई रानी साहब दर्शन कर रही हैं। वहीं आँगन में टहलता रहा।

आध घंटे के बाद उसने फिर साधु द्वारपाल से कहा तो पता चला, इस वक्त नहीं दर्शन हो सकते। प्रातःकाल आओ।

अमर को क्रोध तो ऐसा आया कि इसी वक्त महन्तजी को फटकारे; पर ज़ब्त करना पड़ा। अपना-सा मुँह लेकर बाहर चला आया।

गूदड़ ने यह समाचार सुनकर कहा--इस दरबार में भला हमारी कौन सुनेगा?

'महन्तजी के दर्शन तुमने कभी किये हैं?'

'मैंने! भला मैं कैसे करता? कभी नहीं।'

नौ बज रहे थे, इस वक्त घर लौटना मुश्किल था। पहाड़ी रास्ते, जङ्गली जानवरों का खटका, नदी-नालों का उतार। कहीं रात काटने की सलाह हुई। दोनों एक धर्मशाला में पहुँचे और कुछ खा-पीकर वहीं पड़
रहने का विचार किया। इतने में दो साधु भगवान् का ब्यालू बेचते हुए नजर आये। धर्मशाला के सभी यात्री लेने दौड़े। अमर ने भी चार आने की एक पत्तल ली। पूरियाँ, हलवे, तरह-तरह की भाजियाँ, अचार-चटनी, मुरब्बे, मलाई, दही। इतना सामान था कि अच्छे दो खानेवाले तृप्त हो जाते। यहाँ चूल्हा बहुत कम घरों में जलता था। लोग यही पत्तल ले लिया करते थे। दोनों ने खूब पेट-भर खाया और पानी पीकर सोने की तैयारी कर रहे थे कि एक साधु दूध बेचने आया--शयन का दूध ले लो। अमर की इच्छा न थी; पर कुतूहल से उसने दो आने का दूध लिया। पूरा एक सेर था, गाढ़ा, मलाईदार, उसमें से केसर और कस्तूरी की सुगन्ध उड़ रही थी। ऐसा दूध उसने अपने जीवन में कभी न पिया था।

बेचारे बिस्तर तो लाये न थे, आधी-आधी धोतियाँ बिछाकर लेटे।

अमर ने विस्मय से कहा--इस खर्च का कुछ ठिकाना है!

गूदड़ भक्तिभाव से बोला--भगवान् देते हैं और क्या! उन्हीं की महिमा है। हज़ार-दो-हज़ार यात्री नित्य आते हैं। एक-एक सेठिया बीस-बीस हजार की थैली चढ़ाता है। इतना खरचा करने पर भी करोड़ों रुपये बैंक में जमा हैं।

'देखें कल क्या बातें होती हैं।'

'मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि कल भी दर्शन न होंगे।'

दोनों आदमियों ने कुछ रात रहे उठकर स्नान किया और दिन निकलने के पहले ड्योढ़ी पर जा पहुँचे। मालूम हुआ, महन्तजी पूजा पर हैं।

एक घंटा बाद फिर गये तो, सूचना मिली, महन्तजी कलेऊ पर हैं।

जब वह तीसरी बार नौ बजे गया तो मालूम हुआ, महन्तजी घोड़ों का मुआइना कर रहे हैं। अमर ने झुंझलाकर द्वारपाल से कहा--तो आखिर हमें कब दर्शन होंगे?

द्वारपाल ने पूछा--तुम कौन हो?

‘मैं उनके इलाक़े का असामी हूँ। उनके इलाक़े के विषय में कुछ कहने आया हूँ।'

'तो कारकुन के पास जाओ। इलाक़े का काम वही देखते हैं।' अमर पूछता हुआ कारकुन के दफ्तर में पहुँचा, तो बीसों मुनीम लंबी-लंबी बही खोले लिख रहे थे। कारकुन महोदय मसनद लगाये हुक्का पी रहे थे।

अमर ने सलाम किया।

कारकुन साहब ने दाढ़ी पर हाथ फेरकर पूछा--अर्ज़ी कहाँ है?

अमर ने बगलें झाँककर कहा--अर्ज़ी तो मैं नहीं लाया।

'तो फिर यहाँ क्या करने आये?'

'मैं तो श्रीमान् महन्तजी से कुछ अर्ज़ करने आया था।'

'अर्ज़ी लिखाकर लाओ।'

'मैं तो महन्तजी से मिलना चाहता हूँ।'

'नज़राना लाये हो?'

'मैं ग़रीब आदमी हूँ, नज़राना कहाँ से लाऊँ।'

'इसीलिए कहता हूँ, अर्ज़ी लिखकर लाओ। उस पर विचार होगा। जो कुछ हुक्म होगा, वह सुना दिया जायगा।'

'तो कब हुक्म' सुनाया जायगा?'

'जब महन्तजी की इच्छा हो।'

'महन्तजी को कितना नज़राना चाहिए?'

'जैसी श्रद्धा हो। कम-से-कम एक अशर्फ़ी।'

'कोई तारीख़ बता दीजिए, तो मैं हुक्म सुनने आऊँ। यहाँ रोज कौन दौड़ेगा?'

'तुम दौड़ोगे और कौन दौड़ेगा। तारीख़ नहीं बतायी जा सकती।'

अमर ने बस्ती में जाकर विस्तार के साथ अर्ज़ी लिखी और उसे कारकुन की सेवा में पेश कर दिया। फिर दोनों घर चले गये।

इनके आने की ख़बर पाते ही गाँव के सैकड़ों आदमी जमा हो गये। अमर बड़े संकट में पड़ा। अगर उनसे सारा वृत्तान्त कहता है, तो लोग उसी को उल्लू बनायेंगे। इसलिए बात बनानी पड़ी--अर्ज़ी पेश कर आया हूँ। उस पर विचार हो रहा है।

काशी ने अविश्वास के भाव से कहा--वहाँ महीनों में विचार होगा तब तक यहाँ कारिन्दे हमें नोच डालेंगे। अमर ने खिसियाकर कहा--महीनों में क्यों विचार होगा? चार दिन तो बहुत हैं।

पयाग बोला--यह सब टालने की बातें हैं। खुशी से कौन अपने रूपये छोड़ सकता है?

अमर रोज सबेरे जाता और घड़ी रात गये लौट आता। पर अर्ज़ी पर विचार न होता था। कारकुन, उनके मुहरिरों, यहाँ तक कि चपरासियों को मिन्नत-समाजत करता; पर कोई न सुनता था। रात को वह निराश होकर लौटता तो गाँव के लोग यहाँ उसका परिहास करते।

पयाग कहता--हमने तो सुना था कि रुपये में ।।) छूट हो गयी।

काशी कहता--तुम झूठे हो। मैंने तो सुना था, महन्तजी ने इस साल पूरी लगान माफ कर दी।

उधर आत्मानन्द हलक़े में बराबर जनता को भड़का रहे थे। रोज़ बड़ी-बड़ी किसान-सभाओं की ख़बरें आती थीं। जगह-जगह किसान-सभाएँ बन रही थीं। अमर की पाठशाला भी बन्द पड़ी थी। उसे फ़ुरसत ही न मिलती थी। पढ़ाता कौन। रात को केवल मुन्नी अपनी कोमल सहानुभूति से उसके आँसू पोंछती थी।

आख़िर सातवें दिन उसकी अर्ज़ी पर हुक्म हुआ कि सायल पेश किया जाय। अमर महन्त के सामने लाया गया। दोपहर का समय था। महन्तजी खसखाने में एक तख्त पर मसनद लगाये लेटे हुए थे। चारों तरफ़ खस की टट्टियाँ थीं जिन पर गुलाब की छिड़काव हो रहा था। बिजली के पंखे चल रहे थे। अन्दर इस जेठ के महीने में भी इतनी ठंडक थी, कि अमर को सर्दी लगने लगी।

महन्तजी के मुख-मंडल पर दया झलक रही थी। हुक्के का एक क़श खींचकर मधुर स्वर में बोले--तुम इलाके ही में रहते हो न? मुझे यह सुनकर बड़ा दुःख हुआ कि मेरे असामियों को इस समय कष्ट है। क्या सचमुच उनकी दशा यही है, जो तुमने अर्ज़ी में लिखी है?

अमर ने प्रोत्साहित होकर कहा--महाराज, उनकी दशा इससे कहीं ख़राब है। कितने ही घरों में चूल्हा नहीं जलता।

महन्त ने आँखें बन्द करके कहा--भगवान्! यह तुम्हारी क्या लीला है--तो तुमने मुझे पहले ही क्यों न ख़बर दी। मैं इस फ़स्ल की वसूली रोक देता। भगवान् के भण्डार में किस चीज़ की कमी है। मैं इस विषय में बहुत जल्द सरकार से पत्र-व्यवहार करूँगा और वहाँ से जो कुछ जवाब आयेगा, वह असामियों को भिजवा दूंगा। तुम उनसे कहो, धैर्य रखें। भगवान् यह तुम्हारी क्या लीला है?

महन्तजी ने आँखों पर ऐनक लगा ली और दूसरी अर्ज़ियाँ देखने लगे तो अमरकान्त भी उठ खड़ा हुआ। चलते-चलते उसने पूछा--अगर श्रीमान् कारिन्दों को हुक्म दे दें कि इस वक्त असामियों को दिक न करें, तो बड़ी दया हो। किसी के पास कुछ नहीं है; पर मार-गाली के भय से बेचारे घर की चीज़ें बेच-बेचकर लगान चुकाते हैं। कितने ही तो इलाक़ा छोड़-छोड़ भागे जा रहे हैं।

महन्तजी की मुद्रा कठोर हो गयी--ऐसा नहीं होने पायेगा। मैंने कारिंदों को कड़ी ताकीद कर दी है कि किसी असामी पर सख्ती न की जाय। मैं उन सबों से जवाब तलब करूँगा। मैं असामियों का सताया जाना बिल्कुल पसन्द नहीं करता।

अमर ने झुककर महन्तजी को दण्डवत किया और वहाँ से बाहर निकला, तो उसकी बाछें खिली जाती थीं। वह जल्द-से-जल्द इलाके में पहुँचकर यह ख़बर सुना देना चाहता था। ऐसा तेज जा रहा था, मानो दौड़ रहा है। बीच-बीच में दौड़ भी लगा लेता था, पर सचेत होकर रुक जाता था। लू तो न थी पर धूप बड़ी तेज़ थी, देह फुंकी जाती थी, फिर भी वह भागा चला जाता था। अब वह स्वामी आत्मानन्द से पूछेगा, कहिए, अब तो आपको विश्वास आया न कि संसार में सभी स्वार्थी नहीं हैं? कुछ धर्मात्मा भी हैं, जो दूसरों का दुःख-दर्द समझते हैं। अब उसके साथ के बेफ़िकों की ख़बर भी लेगा। अगर उसके पर होते तो उड़ जाता।

सन्ध्या समय वह गाँव में पहुँचा, तो कितने ही उत्सुक, किन्तु अविश्वास से भरे नेत्रों ने उसका स्वागत किया।

काशी बोला--आज तो बड़े प्रसन्न हो भैया; पाला मार आये क्या?

अमर ने खाट पर बैठते हए अकड़कर कहा--जो दिल से काम करेगा, वह पाला मारेगा ही। बहुत से लोग पूछने लगे--भैया, क्या हुकूम हुआ?

अमर ने डाक्टर की तरह मरीज़ों को तसल्ली दी--महन्तजी को तुम लोग व्यर्थ बदनाम कर रहे थे। ऐसी सज्जनता से मिले कि मैं क्या कहूँ; कहा हमें तो कुछ मालूम ही नहीं, पहले ही क्यों न सूचना दी, नहीं हमने वसूली बन्द कर दी होती। अब उन्होंने सरकार को लिखा है। यहाँ कारिंदों को भी वसूली की मनाही हो जायगी।

काशी ने खिसियाकर कहा--देखो, अगर कुछ हो जाय तो जानें।

अमर ने गर्व से कहा--अगर धैर्य से काम लोगे, तो सब कुछ हो जायगा। हल्लड़ मचाओगे, तो कुछ न होगा, उल्टे और डण्डे पड़ेंगे।

सलोनी ने कहा--जब मोटे स्वामी माने!

गूदड़ ने चौधरीपन की ली--मानेंगे कैसे नहीं, उनको मानना पड़ेगा।

एक काले युवक ने जो स्वामीजी के उग्र भक्तों में था, लज्जित होकर कहा--भैया, जिस लगन से तुम काम करते हो, कोई क्या करेगा।

दूसरे दिन उसी कड़ाई से प्यादों ने डांट-फटकार की; लेकिन तीसरे दिन से वह कुछ नर्म हो गये। सारे इलाके में ख़बर फैल गयी कि महन्तजी ने आधी छूट के लिए सरकार को लिखा है। स्वामीजी जिस गांव में जाते, वहाँ लोग उन पर आवाजें कसते। स्वामीजी अपनी रट अब भी लगाये जाते थे। यह सब धोखा है कुछ होना-हवाना नहीं है, उन्हें अपनी बात की आ पड़ी थी। असामियों की उन्हें उतनी फ़िक्र न थी, जितनी अपने पक्ष की। अगर आधी छूट का हुक्म आ जाता, तो शायद वह यहाँ से भाग जाते। इस वक्त तो वह इस वादे को धोखा साबित करने की चेष्टा करते थे, और यद्यपि जनता उनके हाथ में न थी, पर कुछ-न-कुछ आदमी उनकी बातें सुन ही लेते थे। हाँ इस कान सुन कर उस कान उड़ा देते।

दिन गुज़रने लगे, मगर कोई हुक्म नहीं आया। फिर लोगों में सन्देह पैदा होने लगा। जब दो सप्ताह निकल गये, तो अमर सदर गया और वहाँ सलीम के साथ हाकिम जिला मि० ग़ज़नवी से मिला। मि० ग़ज़नवी लम्बे, दुबले, गोरे, शौकीन आदमी थे। उनकी नाक इतनी लम्बी और चिबुक इतना गोल था कि हास्य-मूर्ति-से लगते थे और ये भी बड़े विनोदी। काम उतना ही करते थे, जितना ज़रूरी होता था और जिसके न करने से जवाब तलब हो सकता था; लेकिन दिल के साफ, उदार, परोपकारी आदमी थे। जब अमर ने गाँवों की हालत उनसे बयान की, तो हँसकर बोले--आपके महन्तजी ने फ़रमाया है, सरकार जितनी मालगुजारी छोड़ दे, मैं उतनी ही लगान छोड़ दूंगा। हैं मुन्सिफ़मिज़ाज!

अमर ने शंका की--तो इसमें बेइन्साफ़ी क्या है?

'बेइन्साफ़ी यही है कि उनके करोड़ों रुपये बैंक में जमा हैं, सरकार पर अरबों कर्ज है।'

'तो आपने उनकी तजवीज पर कोई हुक्म दिया?'

'इतनी जल्द! भला छ: महीने तो गुज़रने दीजिए। अभी हम काश्तकारों की हालत की जाँच करेंगे, उसकी रिपोर्ट भेजी जायगी, रिपोर्ट पर गौर किया जायगा, तब कहीं कोई हुक्म मिलेगा।'

'तब तक तो असामियों के बारे-न्यारे हो जायँगे। अजब नहीं कि फ़साद शुरू हो जाय।'

'तो क्या आप चाहते हैं, सरकार अपनी वज़ा छोड़ दे! यह दफ्तरी हुकूमत है जनाब! यहाँ सभी काम ज़ाब्ते के साथ होते हैं। आप हमें गालियाँ दें, हम आपका कुछ नहीं कर सकते। पुलिस में रिपोर्ट होगी, पुलिस आपका चालान करेगी। होगा वही, जो मैं चाहूँगा, मगर ज़ाब्ते के साथ। खैर, यह तो मज़ाक था। आपके दोस्त मि० सलीम बहुत जल्द उस इलाके की तहकीकात करेंगे; मगर देखिए, झूठी शहादतें न पेश कीजिएगा, कि यहाँ से निकाले जायँ। मि० सलीम आपकी बड़ी तारीफ़ करते हैं; मगर भाई, मैं तुम लोगों से डरता हूँ। खासकर तुम्हारे उस स्वामी से। बड़ा ही मुफसिद आदमी है। उसे फँसा क्यों नहीं देते। मैंने सुना है वह तुम्हें बदनाम करता फिरता है।'

इतना बड़ा अफ़सर अमर से इतनी बेतकल्लुफ़ी से बातें कर रहा था, फिर उसे क्यों न नशा हो जाता? सचमुच आत्मानन्द आग लगा रहा है। अगर वह गिरफ्तार हो जाय, तो इलाके में शान्ति हो जाय। स्वामी साहसी है, यथार्थ वक्ता है, देश का सच्चा सेवक है; लेकिन इस वक्त उसका गिरफ्तार हो जाना ही अच्छा।

उसने कुछ इस भाव से जवाब दिया कि उसके मनोभाव प्रकट न हों, पर स्वामी पर वार चल जाय--मुझे तो उनसे कोई शिकायत नहीं है, उन्हें अख़तियार है, मुझे जितना चाहें बदनाम करें।

ग़ज़नवी ने सलीम से कहा--तुम नोट कर लो मि० सलीम। कल हल्के के थानेदार को लिख दो, इस स्वामी की ख़बर ले। बस, अब सरकारी काम ख़त्म। मैंने सुना है मि० अमर, कि आप औरतों को वश में करने का कोई मंत्र जानते हैं।

अमर ने सलीम की गरदन पकड़ कर कहा--तुमने मुझे बदनाम किया होगा।

सलीम बोला--तुम्हें तुम्हारी हरकतें बदनाम कर रही हैं, मैं क्यों करने लगा।

ग़ज़नवी ने बाँकपन के साथ कहा--तुम्हारी बीबी गजब की दिलेर औरत है भई! आजकल म्युनिसिपैलिटी से उनकी ज़ोर-आज़माई है और मझे यकीन है बोर्ड को झुकना पड़ेगा। मगर भई, मेरी बीवी ऐसी होती, तो मैं फ़कीर हो जाता। वल्लाह!

अमर ने हँसकर कहा--क्यों, आपको तो और खुश होना चाहिए था।

ग़ज़नवी--जी हाँ! वह तो जनाब का दिल ही जानता होगा।

सलीम--उन्हीं के खौफ़ से तो यह भागे हुए हैं।

ग़ज़नवी--यहाँ कोई जलसा करके उन्हें बुलाना चाहिए।

सलीम--क्यों बैठे-बिठाये ज़हमत मोल लीजिएगा। वह आई और शहर में आग लगी, हमें बंगलो में निकलना पड़ा।

ग़ज़नवी--अजी, यह तो एक दिन होना ही है। यह अमीरों की हुकूमत अब थोड़े दिनों की मेहमान है। इस मुल्क में अंग्रेजों का राज है; इसलिए, हममें जो अमीर हैं और जो कुदरती तौर पर अमीरों की तरफ खड़े होते, वह भी ग़रीबों की तरफ खड़े होने में खुश है क्योंकि ग़रीबों के साथ इन्हें कम-से-कम इज्जत मिलेगी, उधर तो यह डौल भी नहीं है। मैं अपने को इसी जमाअत में समझता हूँ।

तीनों मित्रों में बड़ी रात तक बेतकल्लुफी से बातें होती रहीं। सलीम ने अमर को पहले ही खूब तारीफ कर दी थी। इसलिए उसकी गँवारू सूरत होने पर भी ग़ज़नवी बराबरी के भाव से मिला। सलीम के लिए हुकूमत नयी चीज़ थी। अपने नये जूते की तरह उसे कीचड़ और पानी से बचाता था। ग़ज़नवी हुकूमत का आदी हो चुका था और जानता था कि पाँव नये जूते से कहीं ज्यादा कीमती चीज़ है। रमणी-चर्चा उसके कुतूहल, आनन्द और मनोरंजन का मुख्य विषय था। क्वाँरों की रसिकता बहुत धीरे-धीरे सूखने वाली वस्तु है। उनकी अतृप्त लालसा प्रायः रसिकता के रूप में प्रगट होती है।

अमर ने ग़ज़नवी से पूछा--आपने शादी क्यों नहीं की? मेरे एक मित्र प्रोफेसर डाक्टर शांतिकुमार है, वह भी शादी नहीं करते। आप लोग औरतों से डरते होंगे।

ग़ज़नवी ने कुछ याद कर के कहा--शांतिकुमार वही तो हैं, खूबसूरत से, गोरे-चिट्टे, गठे हुए बदन के आदमी! अजी, वह तो मेरे साथ पढ़ता था यार। हम दोनों आक्सफोर्ड में थे। मैंने लिटरेचर लिया था, उसने पोलिटिकल फिलासोफी ली थी। मैं उसे खूब बनाया करता था। युनिवर्सिटी में है न? अक्सर उसकी याद आती थी।

सलीम ने उनके इस्तीफे, ट्रस्ट और नगर-कार्य का ज़िक्र किया।

ग़ज़नवी ने गर्दन हिलायी, मानो कोई रहस्य पा गया है--तो यह कहिए, आप लोग उनके शागिर्द है। हम दोनों में अक्सर शादी के मसले पर बातें होती थीं। मुझे तो डाक्टरों ने मना किया था; क्योंकि उस वक्त मुझ में टी० बी० की कुछ अलामतें नजर आ रही थीं। जवान बेवा छोड़ जाने के खयाल से मेरी रूह काँपती थी। तबसे मेरी गुज़रान तीर-तुक्के पर ही है। शांतिकुमार को तो कौमी खिदमत और जाने क्या-क्या खब्त था; मगर ताज्जुब यह कि अभी तक उस ख़ब्त ने उसका गला नहीं छोड़ा। मैं समझता हूँ, अब उसकी हिम्मत न पड़ती होगी। मेरे ही हमसिन तो थे। ज़रा उनका पता तो बताना, मैं उन्हें यहाँ आने की दावत दूंगा।

सलीम ने सिर हिलाया--उन्हें फुरसत कहाँ। मैंने बुलाया था, नहीं आये।

ग़ज़नवी मुसकराये--तुमने निज के तौर पर बुलाया होगा। किसी इंस्टिट्यूशन की तरफ से बुलाओ और कुछ चन्दा करा देने का वादा लो, फिर देखो, चारों हाथ-पाँव से दौड़े आते हैं या नहीं। इन कौमी खादिमों की जान चन्दा है, ईमान चन्दा है और शायद खुदा भी चन्दा है। जिसे देखो,
चन्दे की हाय-हाय। मैंने कई बार इन ख़ादिमों को चरका दिया, उस वक्त इन ख़ादिमों की सूरत देखने ही से ताल्लुक रखती है। गालियाँ देते हैं, पैंतरे बदलते हैं, ज़बान से तोप के गोले छोड़ते हैं, और आप उनके बौखलेपन का मजा उठा रहे हैं। मैंने तो एक बार एक लीडर साहब को पागलखाने में बन्द कर दिया था। कहते हैं अपने को कौम का ख़ादिम और लीडर समझते हैं।

सबेरे मि० ग़ज़नवी ने अमर को अपने मोटर पर गाँव में पहुँचा दिया। अमर के गर्व और आनन्द का वारापार न था। अफ़सरों की सोहबत ने कुछ अफ़सरी की शान पैदा कर दी थी। हाकिम परगना तुम्हारी हालत जाँच करने आ रहे हैं। ख़बरदार, कोई उनके सामने झूठा बयान न दे। जो कुछ वह पूछें, उनका ठीक-ठीक जवाब दो। न अपनी दशा को छिपाओ, न बढ़ा कर बताओ। तहकीकात सच्ची होनी चाहिए। मि० सलीम बड़े नेक और ग़रीब-दोस्त आदमी हैं। तहक़ीक़ात में देर ज़रूर लगेगी; लेकिन राज्य व्यवस्था में देर लगती ही है। इतना बड़ा इलाका है, महीनों घूमने में लग जायँगे। तब तक तुम लोग खरीफ़ का काम शुरू कर दो। रुपये में आठ आने छूट का मैं जिम्मा लेता हूँ। सब्र का फल मीठा होता है, इतना समझ लो।

स्वामी आत्मानन्द को भी अब विश्वास आ गया। उन्होंने देखा, अमर अकेला ही सारा यश लिये जाता है और मेरे पल्ले अपयश के सिवा और कुछ नहीं पड़ता, तो उन्होंने पहलू बदला। एक जलसे में दोनों एक ही मंच से बोले। स्वामीजी झुके, अमर ने कुछ हाथ बढ़ाया। फिर दोनों में सहयोग हो गया।

इधर असाढ़ की वर्षा शुरू हुई, उधर सलीम तहकीकात करने आ पहुँचा। दो-चार गाँवों में असामियों के बयान लिखे भी; लेकिन एक ही सप्ताह में ऊब गया। पहाड़ी डाकबँगले में भूत की तरह अकेले पड़े रहना उसके लिए कठिन तपस्या थी। एक दिन बीमारी का बहाना कर के भाग खड़ा हुआ, और एक महीने तक टाल-मटोल करता रहा। आख़िर जब ऊपर से डाँट पड़ी और ग़ज़नवी ने सख़्त ताकीद की, तो फिर चला। उस वक्त सावन की झड़ी लग गयी थी, नदी-नाले भर गये थे, और कुछ ठण्डक आ गयी थी। पहाड़ियों पर हरियाली छा गयी थी, मोर बोलने लगे थे। इस प्राकृतिक शोभा ने देहातों को चमका दिया था।

कई दिन के बाद आज बादल खुले थे। महन्तजी ने सरकारी फ़ैसले के आने तक रुपये में चार आने छूट की घोषणा कर दी थी और कारिन्दे बकाया वसूल करने की फिर चेष्टा करने लगे थे। दो-चार असामियों के साथ उन्होंने सख्ती भी की थी। इस नयी समस्या पर विचार करने के लिए आज गंगा-तट पर एक विराट् सभा हो रही थी। भोला चौधरी सभापति बनाये गये थे और स्वामी आत्मानन्द का भाषण हो रहा था--सज्जनो, तुम लोगों में ऐसे बहुत कम हैं, जिन्होंने आधा लगान न दे दिया हो। अभी तक तो आधे की चिन्ता थी। अब केवल आधे-के-आधे की चिन्ता है। तुम लोग खुशी से दो-दो आने और दे दो, सरकार महन्तजी की मालगुजारी में कुछ-न-कुछ छूट अवश्य करेगी। अब की छ: आने छूट पर सन्तुष्ट हो जाना चाहिये। आगे की फ़सल में अगर अनाज का यही भाव रहा, तो हमें आशा है कि आठ आने की छूट मिल जायगी। यह मेरा प्रस्ताव है, आप लोग इस पर विचार करें। मेरे मित्र अमरकान्तजी की भी यही राय है। अगर आप लोग कोई और प्रस्ताव करना चाहते हैं तो हम उस पर विचार करने को भी तैयार हैं।

इसी वक्त डाकिये ने सभा में आकर अमरकान्त के हाथ में एक लिफ़ाफ़ा रख दिया। पते की लिखावट ने बता दिया कि नैना का पत्र है। पढ़ते ही जैसे उस पर नशा छा गया। मुद्रा पर ऐसा तेज आ गया, जैसे अग्नि में आहुति पड़ गयी हो। गर्व भरी आँखों से इधर-उधर देखा। मन के भाव जैसे छलांगें मारने लगे। सुखदा की गिरफ्तारी और जेल यात्रा का वृत्तान्त था। अहा! वह जेल गयी और वह यहाँ पड़ा हुआ है। उसे बाहर रहने का क्या अधिकार है। वह कोमलांगी जेल में है, जो कड़ी दृष्टि भी न सह सकती थी, जिसे रेशमी वस्त्र भी चुभते थे, मखमली गद्दे भी गड़ते थे, वह आज जेल की यातना सह रही है? वह आदर्श नारी, वह देश की लाज रखनेवाली, वह कुल-लक्ष्मी आज जेल में है। अमर के हृदय का सारा रक्त सुखदा के चरणों पर गिरकर बह जाने के लिये मचल उठा। सुखदा! सुखदा! चारों ओर वही मूर्ति थी। सन्ध्या की लालिमा से रंजित गंगा की लहरों पर बैठी हुई कौन चली जा रही है? सुखदा! सामने की श्याम पर्वतमाला में गोधूलि का हार गले में डाले कौन खड़ी है? सुखदा! अमर विक्षिप्तों की भाँति कई कदम आगे दौड़ा, मानों उसको पद-रज मस्तक पर लगा लेना चाहता हो।

सभा में कौन क्या बोला इसकी ख़बर नहीं। वह खुद क्या बोला, इसकी
भी उसे खबर नहीं। जब लोग अपने-अपने गांवों को लौटे तो चंद्रमा का प्रकाश फैल गया था। अमरकान्त का अन्तःकरण कृतज्ञता से परिपूर्ण था। उसे अपने ऊपर किसी की रक्षा का साया ज्योत्स्ना की भाँति फैला हुआ जान पड़ा। उसे प्रतीत हआ, जैसे उसके जीवन में कोई विधान है, कोई आदेश है कोई आशीर्वाद है, कोई सत्य है, और वह पग-पग पर उसे सँभालता है, बचाता है। एक महान् इच्छा, एक महान् चेतना के संसर्ग का आज उसे पहली बार अनुभव हुआ।

सहसा मुन्नी ने पुकारा--लाला, आज तो तुमने आग ही लगा दी।

अमर ने चौंककर कहा--मैंने!

तब उसे अपने भाषण का एक-एक शब्द याद आ गया। उसने मन्त्री का हाथ पकड़कर कहा--हाँ मुन्नी, अब हमें वही करना पड़ेगा, जो मैंने कहा। जब तक हम लगान देना बन्द न करेंगे, सरकार यों ही टालती रहेगी।

मुन्नी सशंक होकर बोली--आग में कूद रहे हो, और क्या!

अमर ने ठट्टा मार कर कहा--आग में कूदने से स्वर्ग मिलेगा। दूसरा मार्ग नहीं है!

मुन्नी चकित होकर उसका मुख देखने लगी। इस कथन में हँसने का क्या प्रयोजन है, वह समझ न सकी।