कर्मभूमि/तीसरा भाग ११
११
सावन में नैना मैके आई। ससुराल चार कदम पर थी, पर छ: महीने से पहले आने का अवसर न मिला। मनीराम का बस होता, तो अब भी न आने देता; लेकिन सारा घर नैना की तरफ़ था। सावन में सभी बहुएँ मैके जाती हैं। नैना पर इतना बड़ा अत्याचार नहीं किया जा सकता।
सावन की झड़ी लगी हुई थी। कहीं कोई मकान गिरता था, कहीं कोई छत बैठती थी। सुखदा बरामदे में बैठो हुई आँगन में उठते हुए बुलबुलों की सैर कर रही थी। आँगन कुछ गहरा था, पानी रुक जाया करता था। बुलबुलों का बताशों की तरह उठकर कुछ दूर चला जाना और गायब हो जाना उसके लिए मनोरंजक तमाशा बना हुआ था। कभी-कभी दो बुलबुले आमने-सामने आ जाते और जैसे हम कभी-कभी किसी के सामने आने पर कतराकर निकल जाना चाहते हैं; पर जिस तरफ हम मुड़ते हैं, उसी तरफ वह भी मुड़ता है और एक सेकेंड तक यही दाव-घात होता रहता है वही तमाशा यहाँ भी हो रहा था। सुखदा को ऐसा आभास हुआ, मानों यह जानदार है, मानों नन्हें नन्हें बालक गोल टोपियाँ लगाये जल-क्रीड़ा कर रहे हैं।
इसी वक्त नैना ने पुकारा-भाभी, आओ, नाव-नाव खेलें। मैं नाव बना रही हूँ।
सुखदा ने बुलबुलों की ओर ताकते हुए जवाब दिया--तुम खेलो,. मेरा जी नहीं चाहता।
नैना ने न माना। दो नाव लिये आकर सुखदा को उठाने लगी-- जिसकी नाव किनारे तक पहुँच जाय उसकी जीत। पाँच-पाँच रुपये की बाजी।
सुखदा ने अनिच्छा से कहा- तुम मेरी तरफ़ से भी एक नाव छोड़ दो। जीत जाना तो रुपये ले लेना; पर उसकी मिठाई नहीं आवेगी, बताये देती हूँ।
'तो क्या दवायें आयेंगी?' 'वाह, उससे अच्छी और क्या बात होगी? शहर में हजारों आदमी खाँसी और ज्वर में पड़े हुए हैं। उनका कुछ उपकार हो जायगा।'
सहसा लल्लू ने आकर दोनों नावें छीन ली और उन्हें पानी में डालकर तालियांँ बजाने लगा।
नैना ने बालक का चुम्बन लेकर कहा----वहाँ दो-एक बार रोज इसे याद करके रोती थी। न-जाने क्यों बार-बार इसी की याद आती रहती थी।
'अच्छा मेरी याद भी कभी आती थी?'
'कभी नहीं, हाँ भैया की याद बार-बार आती थी और वह इतने निठुर है कि छ: महीने में एक पत्र भी न भेजा! मैंने भी ठान लिया है कि जब तक उनका पत्र न आयेगा, एक खत भी न लिखूँगी।'
तो क्या सचमुच तुम्हें मेरी याद न आती थी? और मैं समझ रही थी, कि तुम मेरे लिए विकल हो रही होगी। आखिर अपने भाई की बहन ही तो हो! आंख की ओट होते ही गायब।'
'मुझे तो तुम्हारे ऊपर क्रोध आता था। इन छ: महीनों में केवल तीन बार गयीं और फिर भी लल्लू को न ले गयीं।'
'यह जाता, तो आने का नाम न लेता।'
'तो क्या मैं इसकी दुश्मन थी?'
'उन लोगों पर मेरा विश्वास नहीं है, मैं क्या करूँ। मेरी तो यही समझ में नहीं आता कि तुम वहाँ कैसे रहती थीं।'
'तो क्या करती, भाग आती? तब भी तो जमाना मुझी को हँसता।'
'अच्छा सच बताना, पतिदेव तुमसे प्रेम करते हैं?'
'वह तो तुम्हें मालूम ही है।'
'मैं तो ऐसे आदमी से एक बार भी न बोलती।'
'मैं भी कभी नहीं बोली।'
'सच! बहुत बिगड़े होंगे। अच्छा सारा वृत्तांत कहो। सोहागरात को क्या हुआ? देखो, तुम्हें मेरी कसम, एक शब्द भी झूठ न कहना।'
नैना माथा सिकोड़कर बोली-भाभी, तुम मुझे दिक करती हो, लेकर कसम रखा दी। जाओ मैं कुछ नहीं बताती।
अच्छा न बताओ भाई, कोई जबरदस्ती है।'
यह कहकर वह उठकर ऊपर चली। नैना ने उसका हाथ पकड़कर कहा--अब भाभी कहाँ जाती हो, कसम तो रखा चुकी! बैठकर सुनती जाओ। आज तक मेरी और उनकी एक वार भी बोल-चाल नहीं हुई।
सुखदा ने चकित होकर कहा--अरे! सच कहो।
नैना ने व्यथित हृदय से कहा- हाँ बिलकुल सच है भाभी! जिस दिन मैं गयी, उस दिन रात को वह गले में हार डाले, आँखें नशे में लाल, उन्मत्त की भाँति पहुँचे, जैसे कोई प्यादा आसामी से महाजन के रुपये वसूल करने जाय और मेरा धूंँघट हटाते हुए बोले--मैं तुम्हारा धूंँघट देखने नहीं आया हूँ, और न मुझे यह ढकोसला पसन्द है। आकर इस कुरसी पर बैठो। मैं उन 'दकियानूसी मर्दो में नहीं हूँ, जो यह गुड़ियों के खेल खेलते हैं। तुम्हें हँसकर 'मेरा स्वागत करना चाहिए था और तुम धूँघट निकाले बैठी हो, मानो तुम मेरा मुंह नहीं देखना चाहतीं। उनका हाथ पड़ते ही मेरी देह में जैसे किसी सर्प ने काट लिया। मैं सिर से पाँव तक सिहर उठी। इन्हें मेरी देह को स्पर्श 'करने का क्या अधिकार है? यह प्रश्न एक ज्वाला की भाँति मेरे मन में उठा। मेरी आँखों से आँसु गिरने लगे। वह सारे स्वप्न जो मैं कई दिनों से देख रही थी, जैसे उड़ गये। इतने दिनों से जिस देवता की उपासना कर रही थी, क्या उसका यही रूप था! इसमें न देवत्व था, न मनुष्यत्व था, केवल मदांधता थी, अधिकार का गर्व था और हृदयहीन निर्लज्जता थी। मैं श्रद्धा के थाल में अपनी आत्मा का सारा अनुराग, सारा आनन्द, सारा प्रेम स्वामी के चरणों पर समर्पित करने को बैठी हुई थी। उनका यह रूप देखकर, जैसे थाल मेरे हाथ से छुटकर गिर पड़ा और उसका धूप-दीप-नैवेद्य जैसे भूमि पर बिखर गया। मेरी चेतना का एक-एक रोम, जैसे इस अधिकार गर्व से विद्रोह करने लगा। कहाँ था वह आत्म-समर्पण का भाव, जो मेरे अणु-अणु में व्याप्त हो रहा था। मेरे जी में आया, मैं भी कह दूंँ कि तुम्हारे साथ मेरे विवाह का यह आशय नहीं है कि मैं तुम्हारी लौंडी हूँ! तुम मेरे स्वामी हो; तो मैं भी तुम्हारी स्वामिनी हूँ? प्रेम के शासन के सिवा मैं कोई दूसरा शासन स्वीकार नहीं कर सकती और न चाहती हूँ कि तुम स्वीकार करो; लेकिन जी ऐसा जल रहा था कि मैं इतना तिरस्कार भी न कर सकी। तुरन्त वहाँ से उठकर
बरामदे में आ खड़ी हुई। वह कुछ देर कमरे में मेरी प्रतीक्षा करते रहे, फिर झल्लाकर उठे और मेरा हाथ पकड़कर कमरे में ले जाना चाहा। मैने झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और कठोर स्वर में बोली--मैं यह अपमान नहीं सह सकती।
आप बोले--उफ्फोह, इस रूप पर इतना अभिमान!
मेरी देह में आग लग गयी। कोई जवाब न दिया। ऐसे आदमी से बोलना भी मुझे अपमानजनक मालूम हुआ। मैंने अन्दर जाकर किवाड़ बन्द कर लिये और उस दिन से फिर न बोली। मैं तो ईश्वर से यही मनाती हूँ कि वह अपना विवाह कर लें और मझे छोड़ दें। जो स्त्री में केवल रूप देखना चाहता है, जो केवल हाव-भाव और दिखावे का गुलाम है, जिसके लिए स्त्री केवल स्वार्थसिद्धि का साधन है, उसे मैं अपना स्वामी नहीं कह सकती।
सुखदा ने विनोद-भाव से पूछा--लेकिन तुमने ही अपने प्रेम का कौन सा परिचय दिया। क्या विवाह के नाम में ही इतना बरकत है कि पतिदेव आते-ही-आते तुम्हारे चरणों पर सिर रख देते?
नैना गंभीर होकर बोली--हाँ, मैं तो समझती हूँ विवाह के नाम में ही बरकत है। जो विवाह को धर्म का बन्धन नहीं समझता है, उसे केवल वासना की तृप्ति का साधन समझता है, वह पशु है।
सहसा शांतिकुमार पानी में लथपथ आकर खड़े हो गये।
सुखदा ने पूछा--भीग कहां गये, क्या छतरी न थी?
शांतिकुमार ने बरसाती उतार कर अलगनी पर रख दी और बोले--आज बोर्ड का जलसा था। लौटते वक्त कोई सवारी न मिली।
'क्या हुआ बोर्ड में? हमारा प्रस्ताव पेश हुआ!'
'वही हुआ, जिसका भय था।'
'कितने वोटों से हारे!'
'सिर्फ पाँच वोटों से। इन्हीं पांचों ने दगा दी। लाला धनीराम ने कोई बात उठा नहीं रखी।'
सुखदा ने हतोत्साह होकर कहा--तो फिर अब?
'अब तो समाचार-पत्रों और व्याख्यानों से आन्दोलन करना होगा।'
सुखदा उत्तेजित होकर बोली--नहीं, मैं इतनी सहनशील नहीं हूँ। लाला धनीराम और उनके सहयोगियों को मैं चैन की नींद न सोने दूंगी। इतने दिनों सब को खुशामद करके देख लिया। अब अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ेगा। फिर दस-बीस प्राणों की आहुति देनी पड़ेगी, तब लोगों की आँखें खुलेंगी। मैं इन लोगों का शहर में रहना मुश्किल कर दूंगी।
शांतिकुमार लाला धनीराम से जले हुए थे। बोले--यह उन्हीं सेठ धनीराम के हथकण्डे हैं।
सुखदा ने द्वेष-भाव से कहा--किसी राम के हथकण्डे हों, मुझे इसकी परवाह नहीं। जब बोर्ड ने एक निश्चय किया, तो उसकी जिम्मेदारी एक आदमी के सिर नहीं, सारे बोर्ड पर है! मैं इन महल-निवासियों को दिखा दूंगी कि जनता के हाथों में भी कुछ बल है। लाला धनीराम जमीन के उन टुकड़ों पर अपने पाँव जमा न सकेंगे।
शांतिकुमार ने कातर भाव से कहा--मेरे ख्याल में तो इस वक्त प्रोपेगंडा करना ही काफी है। अभी मामला तूल खींच जायगा।
ट्रस्ट बन जाने के बाद से शांतिकुमार किसी जोखिम के काम में आगे कदम उठाते हुए घबराते थे। अब उनके ऊपर एक संस्था का भार था और और अन्य साधकों की भांति वह भी साधना को ही सिद्धि समझने लगे थे। अब उन्हें बात-बात में बदनामी और अपनी संस्था के नष्ट हो जाने की शंका होती थी।
सुखदा ने उन्हें फटकार बतायी--आप क्या बातें कर रहे हैं डाक्टर साहब! मैंने इन पढ़े-लिखे स्वार्थियों को खूब देख लिया! मुझे अब मालूम हो गया कि यह लोग केवल बातों के शेर हैं। मैं भी उन्हें दिखा दूंगी कि जिन गरीबों को तुम अब तक कुचलते आये हो, वहीं अब सांप बनकर तुम्हारे पैरों से लिपट जायेंगे। अब तक यह लोग उनसे रिआयत चाहते थे, अब अपना हक माँगेंगे। रिआयत न करने का उन्हें अख्तियार है, पर हमारे हक से हमें कौन वंचित रख सकता है। रिआयत के लिए कोई जान नहीं देता; पर हक के लिए जान देना सब जानते हैं। मैं भी देखूंगी, लाला धनीराम और उनके पिट्ठू कितने पानी में हैं।
यह कहती हई सुखदा पानी बरसते में कमरे से निकल आयी। एक मिनट के बाद शांतिकुमार ने नैना से पूछा--कहां चली गयीं? बहुत जल्द गरम हो जाती हैं।
नैना ने इधर-उधर देखकर कहार से पूछा, तो मालूम हुआ, सुखदा बाहर चली गयी। उसने आकर शांतिकुमार से कहा।
शांतिकुमार ने विस्मित होकर कहा--इस पानी में कहाँ गयी होंगी। मैं डरता हूँ, कहीं हड़ताल-बड़ताल न कराने लगें। तुम तो वहाँ जाकर मुझे भूल गयीं नैना, एक पत्र भी न लिखा।
एकाएक उन्हें ऐसा जान पड़ा कि उनके मुँह से एक अनुचित बात निकल गयी है। उन्हें नैना से यह प्रश्न न पूछना चाहिए था। इसका वह जाने मन में क्या आशय समझे। उन्हें यह मालूम हुआ, जैसे कोई उनका गला दबाये हुए है। वह वहाँ से भाग जाने के लिए रास्ता खोजने लगे। वह अब यहाँ एक क्षण भी नहीं बैठ सकते। उनके दिल में हलचल होने लगी, कहीं नैना अप्रसन्न होकर कुछ कह न बैठे। ऐसी मूर्खता उन्होंने कैसे कर डाली! अब तो उनकी इज्जत ईश्वर के हाथ है!
नैना का मुख लाल हो गया। वह कुछ जवाब न देकर लल्लू को पुकारती हुई कमरे से निकल गई। शांतिकुमार मूर्तिवत् बैठे रहे। अन्त को वह उठकर सिर झुकाये इस तरह चले, मानों जूते पड़ गये हों। नैना का वह आरक्त मुख-मण्डल एक दीपक की भाँति उनके अन्तःपट को जैसे जलाये डालता था।
नैना ने सहृदयता से कहा--कहाँ चले डाक्टर साहब,पानी तो निकल जाने दीजिए!
शांतिकुमार ने कुछ बोलना चाहा; पर शब्दों की जगह कण्ठ में जैसे नमक का डला पड़ा हुआ था। वह जल्दी से बाहर चले गये, इस तरह लड़खड़ाते हुए कि मानो अब गिरे, तब गिरे। आंखों में आँसूओं का सागर उमड़ा हुआ था।