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कर्मभूमि/तीसरा भाग १२

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हंस प्रकाशन, पृष्ठ २६० से – २६६ तक

 

१२

अब भी मूसलाधार वर्षा हो रही थी। सन्ध्या से पहले सन्ध्या हो गयी थी। और सुखदा ठाकुरद्वारे में बैठी हुई ऐसी हड़ताल का प्रबन्ध कर रही थी

जो म्युनिसिपल बोर्ड और उसके कर्णधारों का सिर हमेशा के लिए नीचा कर दे, उन्हें हमेशा के लिये सबक़ मिल जाय कि जिन्हें वे नीच समझते हैं, उन्हीं की दया और सेवा पर उनके जीवन का आधार है। सारे नगर में एक सनसनी-सी छायी हुई है, मानो किसी शत्रु ने नगर को घेर लिया हो। कहीं धोबियों का जमाव हो रहा है, कहीं चमारों का, कहीं मेहतरों का। नाई-कहारों की पंचायत अलग हो रही है। सुखदा देवी की आज्ञा कौन टाल सकता था? सारे शहर में इतनी जल्द संवाद फैल गया कि यकीन न आता था। ऐसे अवसरों पर न-जाने कहाँ से दौड़नेवाले निकल आते हैं, जैसे हवा में भी हलचल होने लगती है। महीनों से जनता को आशा हो रही थी कि नये-नये घरों में रहेंगे,साफ-सुथरे हवादार घरों में, जहाँ धूप होगी, हवा होगी, प्रकाश होगा। सभी एक नये जीवन का स्वप्न देख रहे थे। आज नगर के अधिकारियों ने उनकी सारी आशाएँ धूल में मिला दीं।

नगर की जनता अब उस दशा में न थी कि उस पर कितना ही अन्याय हो और वह चुपचाप सहती जाय। उसे अपने स्वत्व का ज्ञान हो चुका था। उन्हें मालूम हो गया था कि उन्हें भी आराम से रहने का उतना ही अधिकार है, जितना धनियों को। एक बार संगठित आग्रह की सफलता देख चुके थे। अधिकारियों की यह निरंकुशता, यह स्वार्थपरता उन्हें असह्य हो गयी। और यह कोई सिद्धांत की राजनैतिक लड़ाई न थी, जिसका प्रत्यक्ष स्वरूप जनता की समझ में मुश्किल से आता है। इस आन्दोलन का तत्काल फल उनके सामने था। भावना या कल्पना पर जोर देने की ज़रूरत न थी। शाम होते-होते ठाकुरद्वारे में अच्छा खासा बाजार लग गया।

बोबियों का चौधरी मैकू अपनी बकरे की-सी दाढ़ी हिलाता हुआ बोला, नशे से आँखें लाल थीं -- कपड़े बना रहा था कि खबर मिली। भागा आ रहा हूँ। घर में कहीं कपड़े रखने की जगह नहीं है। गीले कपड़े कहाँ सूखें?

इस पर जगन्नाथ महरा ने डाँटा -- झूठ न बोलो मैकू, तुम कपड़े बना रहे थे अभी? सीधे ताड़ीखाने से चले आ रहे हो। कितना समझाया गया; पर तुमने अपनी टेक न छोड़ी।

मैकू ने तीखे होकर कहा -- लो अब चुप रहो चौधरी, नहीं अभी सारी

कलई खोल दूँगा। घर में बैठकर बोतल के बोतल उड़ा जाते हो और यहाँ आकर सेखी बघारते हो।

मेहतरों का जमादार मतई खड़ा होकर अपनी जमादारी की शान दिखाकर बोला--पंचो, यह बखत बादहवाई बातें करने का नहीं। जिस काम के लिए देवीजी ने बुलाया है, उसको देखो और फैसला करो कि अब हमें क्या करना है। उन्हीं बिलों में पड़े सड़ते रहें, या चलकर हाकिमों से फरियाद करें।

सुखदा ने विद्रोह-भरे स्वर में कहा--हाकिमों से जो कुछ कहना-सुनना था कह-सुन चुके, किसी ने भी कान न दिया। छ: महीने से यही कहा-सुनी हो रही है। जब अब तक उसका कोई फल न निकला, तो अब क्या निकलेगा। हमने आरजू-मिन्नत से काम निकालना चाहा था; पर मालूम हुआ, सीधी उँगली से घी नहीं निकलता। हम जितना दबेंगे, यह बड़े आदमी हमें उतना ही दबायेंगे। आज तुम्हें तय करना है कि तुम अपने हक के लिए लड़ने को तैयार हो या नहीं।

चमारों का मुखिया सुमेर लाठी टेकता, मोटा चश्मा लगाये पोपले मुँह से बोला--अरज-मारूद करने के सिवा और हम कर ही क्या सकते हैं। हमारा क्या बस है?

मुरली खटिक ने बड़ी-बड़ी मूछों पर हाथ फेरकर कहा--बस कैसे नहीं है। हम आदमी नहीं है कि हमारे बाल-बच्चे नहीं है। किसी को तो महल और बँगला चाहिए, हमें कच्चा घर भी न मिले। मेरे घर में पाँच जने हैं। उनमें से चार आदमी महीने भर से बीमार है। उस काल-कोठरी में बीमार न हों, तो क्या हों। सामने से गन्दा नाला बहता है। साँस लेते नाक-फटती है।

ईदू कुँजड़ा अपनी झुकी हुई कमर को सीधी करने की चेष्टा करते हुए बोला--अगर मुकद्दर में आराम करना लिखा होता, तो हम भी किसी बड़े आदमी के घर न पैदा होते? हाफिज हलीम आज बड़े आदमी हो गये हैं, नहीं मेरे सामने जूते बेचते थे। लड़ाई में बन गये। अब रईसों के ठाठ हैं। सामने चला जाऊँ, तो पहचानेंगे भी नहीं। नहीं तो पैसे-धेले की मूली-तुरई उधार ले जाते थे। अल्लाह बड़ा कारसाज है। अब तो लड़का भी हाकिम हो गया है। क्या पूछना है।
जंगली घोसी पूरा कालादेव था, शहर का मशहूर पहलवान। बोला---- मैं तो पहले ही जानता था, कुछ होना-हवाना नहीं है। अमीरों के सामने हमें कौन पूछता है।

अमीर बेग पतली, लम्बी गरदन निकालकर बोला--बोर्ड के फैसले की अपील तो कहीं होती होगी। हाईकोर्ट में अपील करनी चाहिए। हाईकोर्ट न सुने तो बादशाह से फरियाद की जाय।

सुखदा ने मुसकराकर कहा--बोर्ड के फैसले की अपील वही है, जो इस 'वक्त तुम्हारे सामने हो रही है। आप ही लोग हाईकोर्ट है, आप ही लोग जज हैं। बोर्ड अमीरों का मुंह देखता है। गरीबों के मुहल्ले खोद-खोदकर फेंक दिये जाते हैं, इसलिए कि अमीरों के महल बने। ग़रीबों को दस-पाँच रुपये 'मुआवजा देकर उसी जमीन के हजारों वसूल किये जाते हैं। उस रुपये से अफ़सरों को बड़ी-बड़ी तनख्वाह दी जाती है। जिस जमीन पर हमारा दावा था, वह लाला धनीराम को दे दी गयी। वहाँ उनके बँगले बनेंगे। बोर्ड को रुपये प्यारे हैं, तुम्हारी जान को उसकी निगाह में कोई कीमत नहीं। इन स्वार्थियों से इंसाफ की आशा छोड़ दो। तुम्हारे पास कितनी शक्ति है, इसका उन्हें खयाल नहीं है। वे समझते हैं, यह ग़रीब लोग हमारा कर ही क्या सकते हैं। मैं कहती हूँ, तुम्हारे ही हाथों में सब कुछ है। हमें लड़ाई नहीं करनी है, फ़साद नहीं करना है। सिर्फ़ हड़ताल करना है यह दिखाने के लिए 'कि तुमने बोर्ड के फैसले को मंजूर नहीं किया, और यह हड़ताल एक-दो दिन की नहीं होगी। यह उस वक्त तक रहेगी, जब तक बोर्ड अपना फैसला रद्द करके वह ज़मीन न दे दे। मैं जानती हूँ, ऐसी हड़ताल करना आसान नहीं है। आप लोगों में बहुत ऐसे हैं जिनके घर में एक दिन का भी भोजन नहीं है; मगर यह भी जानती हूँ, कि बिना तकलीफ़ उठाये आराम नहीं मिलता।

सुमेर की जूते की दूकान थी। तीन-चार चमार नौकर थे। खुद जूते काट दिया करता था मजूरी से पूंजीपति बन गया था। घासवालों और साईसों को सूद पर रुपये भी उधार दिया करता था। मोटी ऐनकों के पीछे से बिज्जू की भाँति ताकता हुआ बोला--हड़ताल होना तो हमारी बिरादरी में मुश्किल है बहूजी! मैं आपका गुलाम हूँ और जानता हूँ कि आज जो कुछ
-करेंगी, हमारी ही भलाई के लिए करेंगी; पर हमारी बिरादरी में हड़ताल होना मुश्किल है। बेचारे दिन भर घास काटते हैं, साँझ को बेचकर आटा-दाल जुटाते हैं, तब कहीं चूल्हा जलता है। कोई सहीस है, कोई कोचवान, बेचारों की नौकरी जाती रहेगी। अब तो सभी जातिवाले सहीसी, कोचवानी करते है। उनकी नौकरी दूसरे उठा लें, तो बेचारे कहाँ जायेंगे।

सुखदा विरोध सहन न कर सकती थी। इन कठिनाइयों का उसकी निगाह में कोई मूल्य न था। तिनककर बोली--तो क्या तुमने समझा था कि बिना कुछ किये-धरे अच्छे मकान रहने को मिल जायेंगे? संसार में जो अधिक से अधिक कष्ट सह सकता है, उसी की विजय होती है।

मतई जमादार ने कहा--हड़ताल से नुकसान तो सभी का होगा, क्या तुम हुए, क्या हम हुए; लेकिन बिना धुएँ के आग तो नहीं जलती। बहूजी के सामने हम लोगों ने कुछ न किया, तो समझ लो, जनम-भर ठोकर खानी पड़ेगी फिर ऐसा कौन है, जो हम गरीबों का दुख-दरद समझेगा। जो कहीं नौकरी चली जायेगी, तो नौकर तो हम सभी हैं। कोई सरकार का नौकर है, कोई रहीस का नौकर है। हमको यहाँ कौल-कसम भी कर लेनी होगी कि जब तक हड़ताल रहे, कोई किसी की जगह पर न जाय, चाहे भूखों मर भले ही जाय।

सुमेर ने मतई को झिड़क दिया--तुम जमादार बात समझते नहीं, बीच में कूद पड़ते हो। तुम्हारी और बात है, हमारी और बात है। हमारा काम सभी करते हैं, तुम्हारा काम और कोई नहीं कर सकता।

मैकू ने सुमेर का समर्थन किया--यह तुमने बहुत ठीक कहा सुमेर चौधरी! हमीं को देखो। अब पढ़े-लिखे आदमी धुलाई का काम करने लगे हैं। जगह-जगह कम्पनी खुल गयी है। गाहक के यहाँ पहुँचने में एक दिन की भी देर हो जाती है, तो वह कपड़े कम्पनी में भेज देता है। हमारे हाथ से गाहक निकल जाता है। हड़ताल दस-पाँच दिन चली, तो हमारा रोजगार मिट्टी में मिल जायगा। अभी पेट की रोटियाँ तो मिल जाती हैं। तब तो रोटियों के भी लाले पड़ जायेंगे।

मुरली खटिक ने ललकारकर कहा--जब कुछ करने का बूता नहीं तो लड़ने किस बिरते पर चले थे? क्या समझते थे, रो देने से दूध मिल जायगा।
वह जमाना अब नहीं है। अगर अपना और बाल-बच्चों का सुख देखना चाहते हो, तो सब तरह की आफत बला सिर पर लेनी पड़ेगी। नहीं जाकर घर में आराम से बैठो और मक्खियों की तरह मरो।

ईदू ने धार्मिक गम्भीरता से कहा--होगा वही, जो मुक़द्दर में है। हाय-हाय करने से कुछ होने का नहीं। हाफिज़ तकदीर ही से बड़े आदमी हो गये। अल्लाह की रजा होगी तो मकान बनते देर न लगेगी।

जंगली ने इसका समर्थन किया--बस, तुमने लाख रुपये की बात कह दी ईद मियाँ! हमारा दूध का सौदा ठहरा। एक दिन दूध न पहुँचे या देर हो जाय, तो घुड़कियाँ जमाने लगते हैं--हम डेरी से दूध लेंगे, तुम बहुत देर करते हो। हड़ताल दस-पाँच दिन चल गयी, तो हमारा तो दिवाला निकल जायगा। दूध तो ऐसी चीज नहीं कि आज न बिके, कल बिक जाय।

ईदू बोला--वही हाल तो साग-पात का भी है भाई, बरसात के दिन हैं, सुबू की चीज शाम को सड़ जाती है, और सेंत में भी कोई नहीं पूछता।

अमीरबेग ने अपनी सारस की गरदन उठायी--बहूजी, मैं तो कोई कायदा कानून नहीं जानता मगर इतना जानता हूँ कि बादशाह रैयत के साथ इन्साफ़ ज़रूर करते हैं। रात को भेस बदलकर रैयत का हाल चाल जानने के लिए निकलते है। अगर ऐसी अरजी तैयार की जाय जिस पर हम सबके दसखत हों और बादशाह के सामने पेश की जाय, तो उस पर जरूर लिहाज किया जायगा।

सुखदा ने जगन्नाथ की ओर आशा-भरी आँखों से देखकर कहा--तुम क्या कहते हो जगन्नाथ, इन लोगों ने तो जवाब दे दिया?

जगन्नाथ ने बगलें झांकते हुए कहा--तो बहूजी, अकेला चना तो भाड़ नहीं फोड़ता। अगर सब भाई साथ दें, तो तैयार हूँ। हमारी बिरादरी का आधार नौकरी है। कुछ लोग खोंचे लगाते हैं, कोई डोली ढोता है, पर बहुत करके लोग बड़े आदमियों की सेवा टहल करते हैं। दो-चार दिन बड़े घरों की औरतें भी घर का काम-धंधा कर लेंगी। हम लोगों का तो सत्यानाश ही हो जायेगा।

सुखदा ने उसकी ओर से मुँह फेर लिया और मतई से बोली--तुम क्या कहते हो, क्या तुमने भी हिम्मत छोड़ दी? मतई ने छाती ठोंककर कहा--बात कहकर निकल जाना पाजियों का काम है। सरकार आपका जो हुकुम होगा उससे बाहर नहीं जा सकता चाहे जान रहे या जाय। बिरादरी पर भगवान की दया से इतनी धाक है कि जो बात मैं कहूँगा, उसे कोई ढुलक नहीं सकता।

सुखदा ने निश्चय-भाव से कहा--अच्छी बात है, कल से तुम अपनी बिरादरी की हड़ताल करवा दो। और चौधरी लोग जायँ। मैं खुद घर-घर घूमूंगी, द्वार-द्वार जाऊँगी, एक-एक के पैर पड़ूँगी और हड़ताल करके छोडू़ँगी; और हड़ताल न हुई, तो मुँह में कालिख लगाकर डूब मरूँगी। मुझे तुम लोगों से बड़ी आशा थी, तुम्हारा बड़ा जोर था, आभमान था। तुमने मेरा अभिमान तोड़ दिया।

यह कहती हुई वह ठाकुरद्वारे से निकलकर पानी में भीगती हई चली गयी। मतई भी उसके पीछे-पीछे चला गया। और चौधरी लोग अपनी अपराधी सूरतें लिये बैठे रहे।

एक क्षण के बाद जगन्नाथ बोला--बहूजी ने सेर का कलेजा पाया है।

सुमेर ने पोपला मुंह चबलाकर कहा--लक्ष्मी की औतार है। लेकिन भाई, रोजगार तो नहीं छोड़ा जाता। हाकिमों की कौन चलाये, दस दिन, पन्द्रह दिन न सुनें, तो यहाँ तो मर मिटेंगे।

ईदू को दूर की सूझी--मर नहीं मिटेंगे पंचों, चौधरियों को जेहल में ढूंस दिया जायगा। हो किस फेर में। हाकिमों से लड़ना ठट्ठा नहीं।

जंगली ने हामी भरी--हम क्या खाकर रईसों से लड़ेंगे। बहूजी के पास धन है, इलम है, वह अफसरों से दो दो बातें कर सकती हैं। हर तरह का नुकसान सह सकती हैं। हमारी तो बधिया बैठ जायगी।

किन्तु सभी मन में लज्जित थे, जैसे मैदान से भागा सिपाही। उसे अपने प्राणों के बचाने का जितना आनन्द होता है, उससे कहीं ज्यादा भागने की लज्जा होती है। वह अपनी नीति का समर्थन मुंह से चाहे कर ले, हृदय से नहीं कर सकता।

जरा देर में पानी रुक गया और यह लोग भी यहाँ से चलें; लेकिन उनके उदास चेहरों में, उनकी मन्द चाल में, उनके झुके हुए सिरों में, उनके चिन्तामय मौन में उनके मन के भाव साफ झलक रहे थे।