कर्मभूमि/तीसरा भाग ६

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दूसरे दिन मन्दिर में कितना समारोह हुआ, शहर में कितनी हलचल मची, कितने उत्सव मनाये गये, इसकी चरचा करने की जरूरत नहीं। सारे दिन मन्दिर में भक्तों का तांता लगा रहा। ब्रह्मचारी आज फिर विराजमान हो गये थे और जितनी दक्षिणा उन्हें आज मिली, उतनी शायद उम्र भर में न मिली होगी। इससे उनके मन का विद्रोह बहुत कुछ शान्त हो गया; किन्तु ऊँची जातिवाले सज्जन अब भी मन्दिर में देह बचाकर आते और नाक सिकोड़े हुए कतराकर निकल जाते थे। सुखदा मन्दिर के द्वार पर खड़ी लोगों का स्वागत कर रही थी। स्त्रियों से गले मिलती थी, बालकों को प्यार करती थी और पुरुषों को प्रणाम करती थी।

कल की सुखदा और आज की सुखदा में कितना अन्तर हो गया है ? भोगविलास पर प्राण देनेवाली रमणी आज सेवा और दया की मूर्ति बनी हुई है। इन दुखियों की भक्ति, श्रद्धा और उत्साह देख-देख कर उसका हृदय पुलकित हो रहा है। किसी की देह पर साबूत कपड़े नहीं हैं, आँखों से सूझता नहीं, दुर्बलता के मारे सीधे पाँव नहीं पड़ते, पर भक्ति में मस्त दौड़े चले आ रहे हैं, मानों संसार का राज्य मिल गया हो, जैसे संसार से दुःख दरिद्रता का लोप हो गया हो। ऐसी सरल, निष्कपट भक्ति के प्रभाव में सुखदा भी बही जा रही थी। प्रायः मनस्वी, कर्मशील, महत्वाकांक्षी प्राणियों की यही प्रकृति है। भोग करनेवाले ही वीर होते हैं।

छोटे-बड़े सभी सुखदा को पूज्य समझ रहे थे, और उनकी यह भावना सुखदा में एक गर्वमय सेवा का भाव प्रदीप्त कर रही थी। कल उसने जो
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कुछ किया, वह एक प्रबल आवेश में किया। उसका फल क्या होगा, इसकी उसे ज़रा भी चिन्ता न थी। ऐसे अवसरों पर हानि लाभ का विचार मन को दुर्बल बना देता है। आज वह जो कुछ कर रही थी, उसमें उसके मन का अनुराग था, सद्भाव था। उसे अब अपनी शक्ति और क्षमता का ज्ञान हो गया है, वह नशा हो गया है, जो अपनी सुध-बुध भूलकर सेवा-रत हो जाता है, जैसे अपनी आत्मा को पा गयी है।

अब सुखदा नगर की नेत्री है। नगर में जाति-हित के लिए जो काम होता है, सुखदा के हाथों उसका श्रीगणेश होता है। कोई उत्सव हो, कोई परमार्थ का काम हो, कोई राष्ट्र का आन्दोलन हो, सुखदा का उसमें प्रमुख भाग होता है। उसका जी चाहे या न चाहे, भक्त लोग उसे खींच ले जाते हैं। उसकी उपस्थिति किसी जलसे की सफलता की कुंजी है। आश्चर्य यह है कि वह बोलने भी लगी है और उसके भाषण में चाहे भाषा-चातुर्य न हो पर सच्चे उद्गार अवश्य होते हैं। शहर में कई सार्वजनिक संस्थाएँ हैं, कुछ सामाजिक, कुछ राजनैतिक, कुछ धार्मिक, सभी निर्जीव-सी पड़ी थीं। सुखदा के आते ही उनमें स्फूर्ति-सी आ गई है। मादक-वस्तु बहिष्कारसभा बरसों से बेजान पड़ी थी। न कुछ प्रचार होता था, न कोई संगठन। उसका मंत्री एक दिन सुखदा को खींच ले गया। दूसरे दिन ही उस सभा की एक भजन मण्डली बन गई, कई उपदेशक निकल आये, कई महिलाएं घर-घर प्रचार करने के लिए तैयार हो गयीं और मुहल्ले-मुहल्ले पंचायत बनने लगीं। एक नये जीवन की सष्टि हो गयी।

अब सुखदा को ग़रीबों की दुर्दशा का यथार्थ रूप देखने के अवसर मिलने लगे। अब तक इस विषय में उसे जो कुछ ज्ञान था, वह सुनी-सुनाई बातों पर आधारित था। आँखों से देखकर उसे ज्ञान हुआ, देखने और सुनने में बड़ा अन्तर हैं। शहर की उन अंधेरी, तंग गलियों में, जहाँ वायु और प्रकाश का कभी गुज़र ही न होता था, जहाँ की ज़मीन ही नहीं, दीवारें भी मिली रहती थीं, जहाँ दुर्गन्ध के मारे नाक फटती थी, भारत की कम कमाऊ सन्तान रोग और दरिद्रता के पैरों-तले दबी हई अपने क्षीण जीवन को मृत्यु के हाथों से छीनने में प्राण दे रही थी। उसे अब मालूम हआ कि अमरकान्त को धन और विलास से जो विरोध था, वह कितना
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यथार्थ था। उसे खुद अब उस मकान में रहते, अच्छे वस्त्र पहनते, अच्छे-अच्छे पदार्थ खाते ग्लानि होती थी। नौकरों से काम लेना उसने छोड़ दिया। अपनी धोती खुद छाँटती, घर में झाड़ू खुद लगाती। वह जो आठ बजे सोकर उठती थी, अब मुंह-अँधेरे उठती और घर के काम-काज में लग जाती। नैना तो अब उसकी पूजा-सी करती थी। लालाजी अपने घर की यह दशा देख-देख कुढ़ते थे, पर करते क्या? सुखदा का तो अब नित्य दरबार-सा लगा रहता था। बड़े-बड़े नेता, बड़े-बड़े विद्वान् आते रहते थे। इसलिए वह अब बहू से कुछ दबते थे। गृहस्थी के जंजाल से अब उनका मन ऊबने लगा था। जिस घर में उनसे किसी को सहानुभूति न हो, उस घर से कैसे अनुराग होता। जहाँ अपने विचारों का राज हो, वहीं अपना घर है। जो अपने विचारों को मानते हों, वही अपने सगे हैं। यह घर अब उनके लिए सराय-मात्र था। सूखदा या नैना, दोनों ही से कुछ कहते उन्हें डर लगता था।

एक दिन सुखदा ने नैना से कहा--बीबी, अब तो इस घर में रहने को जी नहीं चाहता। लोग कहते होंगे, आप तो महल में रहती है, और हमें उपदेश करती हैं। महीनों दौड़ते हो गये, सब कुछ करके हार गयी; पर नशे बाज़ों पर कुछ भी असर न हुआ। हमारी बातों पर कोई कान ही नहीं देता। अधिकतर तो लोग अपनी मुसीबतों को भूल जाने ही के लिए नशे करते हैं। वह हमारी क्यों सुनने लगे। हमारा असर तभी होगा, जब हम भी उन्हीं की तरह रहें।

कई दिनों से सर्दी चमक गयी थी। कुछ वर्षा हो गई थी, और पूस की ठण्डी हवा आर्द्र होकर आकाश को कुहरे से आच्छन्न कर रही थी। कहीं-कहीं पाला भी पड़ गया था। लल्लू बाहर जाकर खेलना चाहता था--वह अब लटपटाता हुआ चलने लगा था--पर नैना उसे ठण्ड के भय से रोके हए थी। उसके सिर पर ऊनी कनटोप बाँधती हुई बोली--यह तो ठीक है; पर उनकी तरह रहना हमारे लिए साध्य भी है, यह देखना है। मैं तो शायद एक ही महीने में मर जाऊँ।

सुखदा ने जैसे मन-ही-मन निश्चय करके कहा--मैं तो सोच रही हूँ, किसी गली में छोटा-सा घर लेकर रहूँ। इसका कनटोप उतारकर
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छोड़ क्यों नहीं देती; बच्चों को गमलों के पौधे बनाने की ज़रूरत नहीं, जिन्हें लू का एक झोंका भी सुखा सकता है। इन्हें तो जंगल के वृक्ष बनाना चाहिये, जो धूप और वर्षा, ओले और पाले किसी की परवाह नहीं करते।

नैना ने मुस्कराकर कहा--शुरू से तो इस तरह रखा नहीं, अब बेचारे की साँसत करने चली हो? कहीं ठण्ड-वण्ड लग जाय, तो लेने के देने पड़ें।

'अच्छा भई, जैसे चाहो रखो, मुझे क्या करना है।'

'क्यों, इसे अपने साथ उस छोटे-से घर में न रखोगी?'

'जिसका लड़का है, वह जैसे चाहे रखे। मैं कौन होती हूँ !'

'अगर भैया के सामने तुम इस तरह रहतीं, तो तुम्हारे चरण धो-धोकर पीते।'

सुखदा ने अभिमान के स्वर में कहा--मैं तो जो तब थी, वही अब भी हूँ। जब दादाजी से बिगड़कर उन्होंने अलग घर ले लिया था, तो क्या मैंने उनका साथ न दिया था? वह मुझे विलासिनी समझते थे; पर मैं कभी विलास की लौंडी नहीं रही। हाँ, दादाजी को रुष्ट नहीं करना चाहती थी। यही बुराई मुझमें थी। मैं अब भी अलग रहूँगी, तो उनकी आज्ञा से। तुम देख लेना, मैं इस ढंग से यह प्रश्न उठाऊँगी कि वह बिलकुल आपत्ति न करेंगे। चलो, ज़रा डाक्टर शांतिकुमार को देख आवें। मुझे तो इधर जाने का अवकाश ही नहीं मिला।

नैना प्रायः एक बार रोज़ शांतिकुमार को देख आती थी; हाँ सुखदा से कुछ कहती न थी। वह अब उठने-बैठने लगे थे; पर अभी इतने दुर्बल थे कि लाठी के सहारे बगैर एक पग भी न चल सकते थे। चोटें उन्होंने खाई--छ: महीने से शय्या-सेवन कर रहे थे और यश सुखदा ने लूटा। यह दुःख उन्हें और घुलाये डालता था। यद्यपि उन्होंने अंतरंग मित्रों से भी कभी अपनी मनोव्यथा नहीं कही; पर यह कांटा खटकता अवश्य था। अगर सुखदा स्त्री न होती और वह भी प्रिय शिष्य और मित्र की, तो कदाचित् वह शहर छोड़कर भाग जाते। सबसे बड़ा अनर्थ यह था कि इन छ: महीनों में सुखदा दो-तीन बार से ज्यादा उन्हें देखने न गयी थी। वह भी अमरकांत के मित्र थे और इस नाते सुखदा को उन पर विशेष श्रद्धा न थी।

नैना को सुखदा के साथ जाने में कोई आपत्ति न हुई। रेणुकाबाई
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ने कुछ दिनों से मोटर रख लिया था; पर वह रहता था सुखदा ही की सवारी में। दोनों उस पर बैठकर चलीं। लल्लू भला क्यों अकेले रहने लगा था। नैना ने उसे भी ले लिया।

सुखदा ने कुछ दूर जाने के बाद कहा--यह सब अमीरों के चोंचले हैं। मैं चाहूँ तो दो-तीन आने में अपना निर्वाह कर सकती हूँ।

नैना ने विनीत-भाव से कहा--पहले करके दिखा दो, तो मुझे विश्वास आये। मैं तो नहीं कर सकती।

'जब तक इस घर में रहूँगी, मैं भी न कर सकूँगी। इसीलिए तो मैं अलग रहना चाहती हूँ।'

'लेकिन साथ तो किसी को रखना ही पड़ेगा?'

'मैं कोई ज़रूरत नहीं समझती। इसी शहर में हजारों औरतें अकेली रहती हैं। फिर मेरे लिए क्या मुश्किल है। मेरी रक्षा करनेवाले बहुत हैं। मैं खुद अपनी रक्षा कर सकती हूँ। (मुसकराकर) हाँ, खुद किसी पर मरने लगूँ तो दूसरी बात है।'

शांतिकुमार सिर से पाँव तक कंबल लपेटे, अँगीठी जलाये, कुरसी पर बैठे एक स्वास्थ्य सम्बन्धी पुस्तक पढ़ रहे थे। वह कैसे जल्द-से-जल्द भले-चंगे हो जायँ, आज-कल उन्हें यही चिन्ता रहती थी। दोनों रमणियों के आने का समाचार पाते ही किताब रख दी और कम्बल उतार कर रख दिया। अँगीठी भी हटाना चाहते थे; पर इसका अवसर न मिला। दोनों ज्योंही कमरे में आईं, उन्हें प्रणाम करके कुरसियों पर बैठने का इशारा करते हुए बोले--मुझे आप लोगों पर ईर्ष्या हो रही है। आप इस शीत में घूम-फिर रही हैं और मैं अँगीठी जलाये पड़ा हूँ। करूँ क्या, उठा ही नहीं जाता। जिन्दगी के छ: महीने मानो कट गये, बल्कि आधी उम्र कहिये। मैं अच्छा होकर भी आधा ही रहूँगा। कितनी लज्जा आती है कि देवियां बाहर निकलकर काम करें और मैं कोठरी में बन्द पड़ा रहूँ।

सुखदा ने जैसे आँसू पोंछते हुए कहा--आपने इस नगर में जितनी जागृति फैला दी, उस हिसाब से तो आपकी उम्र चौगुनी हो गयी। मुझे तो बैठे-बैठाये यश मिल गया।

शांतिकुमार के पीले मुख पर आत्मगौरव की आभा झलक पड़ी। [ २२० ]
सुखदा के मुँह से यह सनद पाकर, मानो उनका जीवन सफल हो गया। बोले--यह आपकी उदारता है। आपने जो कुछ कर दिखाया और कर रही हैं, वह आप ही कर सकती हैं। अमरकान्त आवेंगे तो उन्हें मालूम होगा कि अब उनके लिए यहाँ स्थान नहीं है। यह साल भर में जो कुछ हो गया, इसकी वह स्वप्न में भी कल्पना न कर सकते थे। यहाँ सेवाश्रम में लड़कों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। अगर यही हाल रहा तो कोई दूसरी जगह लेनी पड़ेगी। अध्यापक कहाँ से आवेंगे, कह नहीं सकता। सभ्य समाज की यह उदासीनता देखकर मुझे तो कभी-कभी बड़ी चिन्ता होने लगती है। जिसे देखिए स्वार्थ में मगन है। जो जितना ही महान् है, उसका स्वार्थ भी उतना ही महान् है। योरप की डेढ़ सौ साल तक उपासना करके हमें यही वरदान मिला है; लेकिन यह सब होने पर भी हमारा भविष्य उज्वल है। मुझे इसमें संदेह नहीं। भारत की आत्मा अभी जीवित है और मुझे विश्वास है, कि वह समय आने में देर नहीं है, जब हम सेवा और त्याग के पुराने आदर्श पर लौट आवेंगे। तब धन हमारे जीवन का ध्येय न होगा। तब हमारा मूल्य धन के काँटे पर न तौला जायगा।

लल्लू ने कुरसी पर चढ़कर मेज़ पर से दावात उठा ली थी और अपने मुँह में कालिमा पोत-पोतकर खुश हो रहा था। नैना ने दौड़कर उसके हाथ से दावात छीन ली और एक धौल जमा दिया। शांतिकुमार ने उठने की असफल चेष्टा करके कहा--क्यों मारती हो नैना, देखो तो कितना महान् पुरुष है, जो अपने मुँह में कालिमा पोतकर भी प्रसन्न होता है, नहीं तो हम अपनी कालिमा को सात परदों के अन्दर छिपाते हैं!

नैना ने बालक को उनकी गोद में देते हुए कहा--तो लीजिए इस महान् पुरुष को आप ही। इसके मारे चैन से बैठना मुश्किल है।

शांतिकुमार ने बालक को छाती से लगा लिया। उस गर्म और गुदगुदे स्पर्श में उनकी आत्मा ने जिस परितृप्ति और माधुर्य का अनुभव किया, वह उनके जीवन में बिलकुल नया था। अमरकान्त से उन्हें जितना स्नेह था, वह जैसे इस छोटे-से रूप में सिमटकर और ठोस और भारी हो गया था। अमर की याद करके उनकी आँखें सजल हो गयीं। अमर ने अपने
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को कितने अतुल आनन्द से वंचित कर रखा है, इसका अनुमान करके वह जैसे दब गये। आज उन्हें स्वयं अपने जीवन में एक अभाव का, एक रिक्तता का आभास हुआ। जिन कामनाओं का वह अपने विचार में संपूर्णत: दमन कर चुके थे, वह राख में छिपी हुई चिनगारियों की भाँति सजीव हो गयीं।

लल्लू ने हाथों की स्याही शांतिकुमार के मुख में पोतकर नीचे उतरने के लिए आग्रह किया, मानो इसीलिए वह उनकी गोद में गया था। नैना ने हँसकर कहा--जरा अपना मुंह तो देखिए डाक्टर साहब ! इस महान् पुरुष ने आपके साथ होली खेल डाली ! बड़ा बदमाश है।

सुखदा हसी रोक न सकी। शांतिकुमार ने शीशे में मुंह देखा, तो वह भी ज़ोर से हँसे। वह कलंक का टीका उन्हें इस समय यश के तिलक से भी कहीं उल्लास-मय जान पड़ा।

सहसा सुखदा ने पूछा--आपने शादी क्यों नहीं की डाक्टर साहब?

शांतिकुमार सेवा और व्रत का जो आधार बनाकर अपने जीवन का निर्माण कर रहे थे, वह इस शय्या-सेवन के दिनों में कुछ नीचे खिसकता हुआ जान पड़ रहा था। जिसे उन्होंने जीवन का मुल सत्य समझा था, वह अब उतना दृढ़ न रह गया था। इस आपत्काल में ऐसे कितने ही अवसर आये, जब उन्हें अपना जीवन भार-सा मालूम हुआ। तीमारदारों की कमी न थी। आठों पहर दो-चार आदमी घेरे ही रहते थे। नगर के बड़े-बड़े नेताओं का आना-जाना भी बराबर होता रहता था; पर शांतिकुमार को ऐसा जान पड़ता था कि वह दूसरों की दया-शिष्टता पर बोझ हो रहे हैं। इन सेवाओं में वह माधुर्य, वह कोमलता न थी, जिससे आत्मा की तृप्ति होती। भिक्षुक को क्या अधिकार है कि वह किसी के दान का निरादर करे। दानस्वरूप उसे जो कुछ मिल जाय, वह सभी स्वीकार करना होगा। इन दिनों उन्हें कितनी ही बार अपनी माता की याद आयी थी। वह स्नेह कितना दुर्लभ था! नैना जो एक क्षण के लिए उनका हाल पूछने आ जाती थी, उसमें उन्हें न जाने क्यों एक प्रकार की स्फूर्ति का अनुभव होता था। वह जब तक रहती थी, उनकी व्यथा जाने कहाँ छिप जाती थी। उसके जाते ही फिर वहीं कराहना, वहीं बेचैनी ! उनकी
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समझ में कदाचित् यह नैना का सरल अनुराग ही था, जिसने उन्हें मौत के मुंह से निकाल लिया लेकिन वह स्वर्ग की देवी! कुछ नहीं!

सुखदा का यह प्रश्न सुनकर, मुसकराते हुए बोले——इसीलिए कि विवाह करके किसी को सुखी नहीं देखा।

सुखदा ने समझा यह उस पर चोट है। बोली——दोष भी बराबर स्त्रियों का ही देखा होगा, क्यों?

शांतिकुमार ने जैसे अपना सिर पत्थर से बचाया--यह तो मैंने नहीं कहा। शायद इसकी उलटी बात हो। शायद नहीं, बल्कि उलटी है।

'खैर, इतना तो आपने स्वीकार किया, धन्यवाद ! इससे तो यही सिद्ध हुआ कि पुरुष चाहे तो विवाह करके सूखी हो सकता है।'

'लेकिन पुरुष में थोड़ी सी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वही पशुता उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम में वह स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुँचेगा, वह भी स्त्री हो जायगा। वात्सल्य, स्नेह, कोमलता, दया इन्हीं आधारों पर यह सृष्टि थमी हुई है, और यह स्त्रियों के गुण हैं। अगर स्त्री इतना समझ ले, तो फिर दोनों का जीवन सुखी हो जाय। स्त्री पशु के साथ पशु हो जाती है, जभी दोनों सुखी होते हैं।'

सुखदा ने उपहास के स्वर में कहा——इस समय तो आपने सचमुच एक आविष्कार कर डाला। मैं तो हमेशा यह सुनती आती हूँ कि स्त्री मूर्ख है, ताड़ना के योग्य है, पुरुषों के गले का बन्धन है और जाने क्या-क्या। बस, इधर से भी मरदों की जीत, उधर से भी मरदों की जीत। अगर पुरुष नीचा है, तो उसे स्त्रियों का शासन क्यों अप्रिय लगे? परीक्षा करके देखा तो होता, आप तो दूर से ही डर गये!

शांतिकुमार ने कुछ झेंपते हुए कहा——अब अगर चाहूँ भी, तो बूढ़ों को कौन पूछता है ?

अच्छा ! आप बूढ़े भी हो गये ? तो किसी अपनी-जैसी बुढ़िया से कर लीजिए न?'

'जब तुम-जैसी विचारशील और अमर-जैसे गम्भीर स्त्री पुरुष में न बनी, तो फिर मुझे किसी तरह की परीक्षा करने की ज़रूरत नहीं रही। [ २२३ ]
अमर जैसा विनय और त्याग मुझमें नहीं है, और तुम जैसी उदार और ...।'

सुखदा ने बात काटी-मैं उदार नहीं हूँ, न विचारशील हूँ। हाँ, पुरुषः के प्रति अपना धर्म समझती हूँ। आप मुझसे बड़े हैं, और मुझसे कहीं बुद्धिमान है। मैं आपको अपने बड़े भाई के तुल्य समझती हूँ। आज आपका स्नेह और सौजन्य देखकर मेरे चित्त को बड़ी शान्ति मिली। मैं आपसे बेशर्म होकर पूछती हूँ, ऐसे पुरुष को, जो स्त्री के प्रति अपना धर्म न समझे, क्या अधिकार है कि वह स्त्री से व्रत-धारिणी रहने की आशा रखे? आप सत्यवादी है। मैं आपसे पूछती हूँ, यदि मैं उस व्यवहार का बदला उसी व्यवहार से दूँ तो आप मुझे क्षम्य समझेंगे?

शांतिकुमार ने निश्शंक भाव से कहा-नहीं।

'उन्हें आपने क्षम्य समझ लिया?'

'नहीं!'

'और यह समझकर भी आपने उनसे कुछ नहीं कहा ? कमी एक पत्र भी नहीं लिखा ? मैं पूछती हूँ, इस उदासीनता का क्या कारण है ? यही न कि इस अवसर पर एक नारी का अपमान हुआ है। यदि वही कृत्य मुझसे हुआ होता तब भी आप इतने उदासीन रह सकते ? बोलिए।'

शांतिकुमार रो पड़े। नारी-हृदय की संचित व्यथा आज इस भीषण विद्रोह के रूप में प्रकट होकर कितनी करुण हो गई थी।

सुखदा उसी आवेश में बोली-कहते हैं, आदमी की पहचान उसकी संगत से होती है। जिसकी संगत आप और मुहम्मद सलीम और स्वामी आत्मानंद जैसे महानुभावों की हो, वह अपने धर्म को इतना भूल जाय, यह बात मेरी समझ में नहीं आती। मैं यह नहीं कहती कि मैं निर्दोष हूँ। कोई स्त्री यह दावा नहीं कर सकती, और न कोई पुरुष ही यह दावा कर सकता है। मैंने सकीना से मुलाकात की है। संभव है, उसमें वह गुण हों जो मुझमें नहीं हैं। वह ज्यादा मधुर है, उसके स्वभाव में कोमलता है, हो सकता है, वह प्रेम भी अधिक कर सकती हो; लेकिन यदि इसी तरह सभी पुरुष और स्त्रियाँ तुलना करने बैठ जायें तो संसार की क्या गति
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होगी? फिर तो यहाँ रक्त और आँसुओं की नदियों के सिवा और कुछ न दिखाई देगा।

शांतिकुमार ने परास्त होकर कहा-में अपनी गलती को मानता हूँ सुखदा देवी! मैं तुम्हें न जानता था और इस भ्रम में था कि तुम्हारी ज्यादती है। मैं आज ही अमर को पत्र...

सुखदा ने फिर बात काटी-नहीं, मैं आपसे यह प्रेरणा करने नहीं आई हूँ, और न यह चाहती हूँ कि आप उनसे मेरी ओर से दया की भिक्षा माँगें। यदि वह मुझसे दूर भागना चाहते हैं, तो मैं उनको बाँधकर नहीं रखना चाहती। पुरुष को जो आजादी मिली है, वह उसे मुबारक रहे; वह अपना तन-मन गली-गली बेचता फिरे। मैं अपने बन्धन में प्रसन्न हूँ। और ईश्वर से यही विनती करती हूँ कि वह इस बन्धन में मुझे डाले रखे। मैं जलन या ईर्ष्या से विचलित हो जाऊँ, उस दिन के पहले वह मेरा अन्त कर दे। मुझे आपसे मिलकर आज जो तृप्ति हुई, उसका प्रमाण यही है कि मैं आपसे वह बातें कह गयी, जो मैंने अभी अपनी माता से भी नहीं कहीं। बीबी आपकी जितना बखान करती थीं, उससे ज्यादा सज्जनता आप में पायी मगर आपको मैं अकेला न रहने दूंगी। ईश्वर वह दिन लाये कि मैं इस घर में भाभी के दर्शन करूं।

जब दोनों रमणियाँ यहाँ से चलीं, डाक्टर साहब लाठी टेकते हुए फाटक तक उन्हें पहुँचाने आये और फिर कमरे में आकर लेटे, तो ऐसा जान पड़ा कि उनका यौवन जाग उठा है। सुखदा के वेदना से भरे हुए शब्द उनके कानों में गूंज रहे थे और नैना लल्लू को गोद में लिये जैसे उनके सम्मुख खड़ी थी।