कर्मभूमि/तीसरा भाग ९

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सुखदा सड़क पर मोटर से उतरकर सकीना का घर खोजने लगी। पर इधर से उधर तक दो-तीन चक्कर लगा आयी, कहीं वह घर न मिला। जहाँ वह मकान होना चाहिए था, वहाँ अब एक नया कमरा था, जिस पर कलई पुती हुई थी! वह कच्ची दीवार और सड़ा हुआ टाट का परदा कहीं न था। आखिर उसने एक आदमी से पूछा, तब मालूम हुआ कि जिसे वह नया कमरा समझ रही थी, वह सकीना के मकान का दरवाजा है। उसने आवाज़ दी और एक क्षण में द्वार खुल गया। सुखदा ने देखा, वह एक साफ़-सुथरा छोटा-सा कमरा है, जिसमें दो-तीन मोढ़े रखे हुए हैं। सकीना ने एक मोढ़े को बढ़ाकर पूछा-----आपको मकान तलाश करना पड़ा होगा। यह नया कमरा बन जाने से पता नहीं चलता।

सुखदा ने उसके पीले सूखे मुंह की ओर देखते हुए कहा- हाँ, मैंने दो-तीन चक्कर लगाये। अब यह घर कहलाने लायक हो गया; मगर तुम्हारी यह क्या हालत है? बिल्कुल पहचानी ही नहीं जाती।

सकीना ने हँसने की चेष्टा करके कहा-मै तो मोटी-ताजी कभी न थी।

'इस वक्त तो पहले से भी उतरी हुई हो।'

सहसा पठानिन आ गयी और यह प्रश्न सुनकर बोली—महीने से बुखार आ रहा है बेटी, लेकिन दवा नहीं खाती। कौन कहे, मुझसे तो बोल-चाल बन्द है। अल्लाह जानता है, तुम्हारी बड़ी याद आती थी [ २४४ ]
बहुजी; पर आऊँ कौन मुंह लेकर। अभी थोड़ी देर हई, लालाजी भी गये है। जुग जुग जियें। सकीना ने मना कर दिया था; इसलिए तलब लेने न गयी थी। वहीं देने आये थे। दुनिया में ऐसे-ऐसे खुदा के बन्दे पड़े हुए हैं। दूसरा होता, तो मेरी सूरत न देखता। उनका बसा बसाया घर मुझ नसीबोंजली के कारण उजड़ गया। मगर लाला का दिल वही है, वही खयाल है, वही परवरिश की निगाह है। मेरी आँखों पर न जाने क्यों परदा पड़ गया था कि मने भोले-भाले लड़के पर बह इलज़ाम लगा दिया। खुदा करे मुझे मरने के बाद कफ़न भी न नसीब हो! मैंने इतने दिनों बड़ी छान-बीन की बेटी! सभी ने मेरी लानत-मलामत की। इस लड़की ने तो मुझसे बोलना छोड़ दिया। खड़ी तो है, पूछो। ऐसी-ऐसी बातें कहती है कि कलेजे में चुभ जाती हैं। खुदा सुनवाता है, तभी तो सुनती हूँ। वैसा काम न किया होता, तो क्यों सुनना पड़ता। उस अँधेरे घर में इसके साथ देखकर मुझे शुबहा हो गया और जब उस गरीबने देखा कि बेचारी औरत बदनाम हो रही है, तो उसकी खातिर अपना धरम देने को भी राजी हो गया। मुझ निगोड़ी को उस गुस्से में यह खयाल भी न रहा कि अपने ही मुंँह तो कालिख लगा रही हूँ।

सकीना ने तीव्र कण्ठ से कहा---अरे, हो तो चुका, अब कब तक दुखड़ा रोये जाओगी। कुछ और बातचीत करने दोगी या नहीं?

पठानिन ने फरियाद की- इसी तरह मुझे झिड़कती रहती है बेटी, बोलने नहीं देती। पूछो, तुमसे दुखड़ा न रोऊँ, तो किसके पास रोने जाऊँ?

सुखदा ने सकीना से पूछा--अच्छा, तुमने अपना वसीका लेने से क्यों इनकार कर दिया था? वह तो बहुत पहले से मिल रहा है!

सकीना कुछ बोलना ही चाहती थी कि पठानिन फिर बोल उठी--- इसके पीछे मुझसे लड़ा करती है बहु। कहती है, क्यों किसी की खैरात लें। यह नहीं सोचती कि उसी से हमारी परवरिश हुई है। बस, आजकल सिलाई की धुन है। बारह-बारह बजे रात तक बैठी आँखें फोड़ती रहती है। जरा सूरंत देखो, इसी वजह से बुखार भी आने लगा है, पर दवा के नाम से भागती है। कहती हूँ जान रखकर काम कर, कौन लाव-लश्कर खानेवाला है। लेकिन यहाँ तो धुन है, घर भी अच्छा हो जाय, सामान [ २४५ ]
भी अच्छे बन जायें। इधर काम अच्छा मिला है, और मजूरी भी अच्छी मिल रही है। मगर सब इसी टीम-टाम में उड़ जाती है। यहाँ से थोड़ी दूर पर एक ईसाइन रहती है, वह रोज सुबह को पढ़ाने आती है। हमारे ज़माने में तो बेटा सिपारा और रोजा-नमाज का रिवाज था। कई जगह से शादी के पैग़ाम आये...

सकीना ने कठोर होकर कहा--अरे, तो अब चुप भी रहोगी। हो तो चुका। आपकी क्या खातिर करूंँ बहन! आपने इतने दिनों बाद मुझ बदनसीब को याद तो किया!

सुखदा ने उदार मन से कहा—याद तो तुम्हारी बराबर आती रहती थी, और आने को जी भी चाहता था; पर डरती थी, तुम दिल में न जाने क्या समझो। यह तो आज मियाँ सलीम से मालूम हुआ कि तुम्हारी तबीअत अच्छी नहीं है। जब हम लोग तुम्हारी खिदमत करने को हर तरह हाज़िर है तो तुम नाहक क्यों जान देती हो।

सकीना जैसे शर्म को निगलकर बोली-बहन, मैं चाहे मर जाऊँ, पर इस गरीबी को मिटाकर छोङूंगी। मैं इस हालत में न होती, तो बाबूजी को क्यों मुझ पर रहम आता, क्यों वह मेरे घर आते; क्यों उन्हें बदनाम होकर घर से भागना पड़ता? सारी मुसीबत की जड़ ग़रीबी है। इसका खातमा करके छोङूंगी।

एक क्षण के बाद उसने पठानिन से कहा--ज़रा जाकर किसी तम्बोलिन से पान ही लगवा लाओ। अब और क्या खातिर करें आपकी।

बुढ़िया को इस बहाने से टालकर सकीना धीमे स्वर में बोली-यह मुहम्मद सलीम का खत है। आप जब मुझ पर इतना रहम करती हैं, तो आपसे क्या पर्दा करूँ! जो होना था, वह तो हो ही गया। बाबूजी यहाँ कई बार आये। खुदा जानता है जो उन्होंने कभी मेरी तरफ़ आँख उठाई हो। में भी उनका अदब करती भी। हाँ उनकी शराफ़त का असर जरूर मेरे दिल पर होता था। एकाएक मेरी शादी का जिक्र सुनकर बाबूजी एक नशे की-सी हालत में आये और मुझसे मुहब्बत जाहिर की। खुदा गवाह है बहन, मै एक हर्फ़ भी ग़लत नहीं कह रही हूँ। उनकी प्यार की बातें सुनकर मुझे भी सुध-बुध भूल गयी। मेरी जैसी औरत के साथ ऐसा [ २४६ ]
शरीफ़ आदमी यों मुहब्बत करे, यह मुझे ले उड़ा। मैं वह नेमत पाकर दीवानी हो गई। जब वह अपना तन-मन सब मुझ पर निसार कर रहे थे, तो मैं काठ की पुतली तो न थी। मुझमें ऐसी क्या खूबी उन्होंने देखी, यह मैं नहीं जानती। उनकी बातों से यही मालूम होता था कि वह आपसे खुश नहीं हैं। बहन, मैं इस वक्त आपसे साफ़-साफ़ बातें कर रही हूँ, मुआफ कीजिएगा। आपकी तरफ़ से उन्हें कुछ मलाल जरूर था और जैसे फ़ाका करने के बाद अमीर आदमी भी ज़रदा पुलाव भूलकर सत्तू पर टूट पड़ता है, उसी तरह उनका दिल आपकी तरफ से मायूस होकर मेरी तरफ़ लपका। वह मुहब्बत के भूखे थे। मुहब्बत के लिए उनकी रूह तड़पती रहती थी। शायद यह नेमत उन्हें कभी मयस्सर ही न हुई। वह नुमाइश से खुश होनेवाले आदमी नहीं हैं। वह दिल और जान से किसी के हो जाना चाहते है और उसे भी दिल और जान से अपना कर लेना चाहते हैं। मुझे अब अफ़सोस हो रहा है कि मैं उनके साथ चली क्यों न गयी। बेचारे सत्तू पर गिरे तो वह भी सामने से खींच लिया गया। आप अब भी उनके दिल पर कब्जा कर सकती हैं। बस, एक मुहब्बत में डूबा हुआ खत लिख दीजिए। वह दूसरे ही दिन दौड़े हुए आयेंगे। मैंने एक हीरा पाया है और जब तक कोई उसे मेरे हाथों से छीन न ले, उसे छोड़ नहीं सकती। महज़ यह खयाल कि मेरे पास हीरा है मेरे दिल को हमेशा मजबूत और खुश बनाये रहेगा।

वह लपक कर घर में गयी और एक इत्र में बसा हुआ लिफ़ाफ़ा लाकर सुखदा के हाथ पर रखती हुई बोली-यह मियाँ मुहम्मद सलीम का खत है। आप पढ़ सकती है कोई ऐसी बात नहीं है, वह भी मुझ पर आशिक हो गये हैं। पहले अपने खिदमतगार के साथ मेरा निकाह करा देना चाहते थे। अब खुद निकाह करना चाहते हैं। पहले चाहे जो कुछ रहे हों; पर अब उनमें वह छिछोरापन नहीं है। उनकी मामी उनका बयान किया करती हैं। मेरी निस्बत भी उन्हें जो कुछ मालूम हुआ होगा, मामा ही से मालूम हुआ होगा। मैंने उन्हें दो-चार बार अपने दरवाजे पर ताकतें झाँकते देखा है। सुनती हूँ, किसी ऊँचे ओहदे पर आ गये हैं। मेरी तो जैसे तकदीर खुल गयी; लेकिन मुहब्बत की जिस नाजुक जंजीर में बँधी हुई हैं, उसे बड़ी से बड़ी ताकत भी नहीं तोड़ सकती। अब तो जब तक [ २४७ ]
मुझे मालूम न हो जायगा कि बाबूजी ने मुझे दिल से निकाल दिया, तब तक उन्हीं की हूँ, और उनके दिल से निकाली जाने पर भी इस मुहब्बत को हमेशा याद रखूंगी। ऐसी पाक मुहब्बत का एक लमहा इन्सान को उम्र-भर मतवाला रखने के लिए काफी है। मैंने इसी मज़मून का जवाब लिख दिया है। कल ही तो उनके जाने की तारीख है। मेरा खत पढ़कर रोने लगे। अब यह ठान ली है कि या तो मुझसे शादी करेंगे या बिन ब्याहे रहेंगे! उसी जिले में तो बाबूजी भी हैं। दोनों दोस्तों में वहीं फैसला होगा। इसीलिए इतनी जल्द भागे जा रहे हैं।

बुढ़िया एक पत्ते की गिलोरी में पान लेकर आ गयी। सूखदान निष्क्रिय भाव से पान लेकर खा लिया और फिर विचारों में डूब गयी। इस दरिद्र ने उसे आज पूर्ण रूप से परास्त कर दिया था। आज वह अपनी विशाल सम्पत्ति और महती कुलीनता के साथ उसके सामने भिखारिन सी बैठी हुई थी। आज उसका मन अपना अपराध स्वीकार करता हुआ जान पड़ा। अब तक उसने इस तर्क से मन को समझाया था कि पुरुष छिछोरे और हरजाई होते ही हैं, इस युवती के हाव-भाव, हास-विलास ने उन्हें मुग्ध कर लिया। आज उसे ज्ञात हुआ कि यहाँ न हाव-भाव है, न हास-विलास है, न जादू-भरी चितवन है। यह तो एक शान्त, करुण संगीत है, जिसका रस वहीं ले सकते हैं , जिनके पास हृदय है। लंपटों और विलासियों को जिस प्रकार के चटपटे, उत्तेजक गाने में आनन्द आता है, वह यहाँ नहीं है। उस उदारता के साथ, जो द्वेष की आग से निकलकर खरी हो गयी थी, उसने सकीना की गरदन में बाँहें डाल दी और बोली--बहन, आज तुम्हारी बातों ने मेरे दिल का बोझ हलका कर दिया। संभव है, तुमने मेरे ऊपर जो इलजाम लगाया है, वह ठीक हो। तुम्हारी तरफ़ से मेरा दिल आज साफ़ हो गया। मेरा यही कहना है। बाबूजी को अगर मुझसे शिकायत हुई थी, तो उन्हें मुझसे कहना चाहिए था। मैं भी ईश्वर से कहती हूँ कि अपनी जान में मैंने उन्हें कभी असन्तुष्ट नहीं किया। हाँ, अब मुझे कुछ ऐसी बातें याद आ रही है, जिन्हें उन्होंने मेरी निठुरता समझा होगा; पर उन्होंने मेरा जो अपमान किया, उसे मैं अब भी क्षमा नहीं कर सकती। उन्हें प्रेम की भूख थी, तो मुझे प्रेम की भूख कुछ कम न थी। मुझसे वह जो
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चाहते थे, वही मैं भी उनसे चाहती थी। जो चीज वह मुझे न दे सके, वह मुझसे न पाकर वह क्यों उद्दण्ड हो गये? क्या इसीलिए कि वह पुरुष हैं, और चाहे स्त्री को पाँव को जुती समझें पर स्त्री का धर्म है कि वह उनके पाँव से लिपटी रहे? बहन, जिस तरह तुमने मुझसे कोई परदा नहीं रखा, उसी तरह मैं भी तुमसे निष्कपट बातें कर रही हूँ। मेरी जगह पर एक क्षण के लिए अपने को रख लो। तब तुम मेरे भावों को पहचान सकोगी। अगर मेरी खता है तो उतनी ही उनकी भी खता है। जिस तरह मैं अपनी तकदीर को ठोंककर बैठ गयी थी; क्या वह भी न बैठ सकते थे। तब शायद सफ़ाई हो जाती। लेकिन अब तो जब तक उनकी तरफ़ से हाथ न बढ़ाया जायगा, मैं अपना हाथ नहीं बढ़ा सकती, चाहे सारी जिन्दगी इसी दशा में पड़ी रहूँ। औरत निर्बल हैं और इसीलिए उसे मान-अपमान का दुःख भी ज्यादा होता है। अब मुझे आज्ञा दो बहन, जरा नैना से मिलना है। मैं तुम्हारे लिए सवारी भेजूंगी, कृपा करके कभी-कभी हमारे यहाँ आ जाया करो।

वह कमरे से बाहर निकली, तो सकीना रो रही थी, न जाने क्यों।