कर्मभूमि/तीसरा भाग ८
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छः महीने गुज़र गये।
सेवाश्रम का ट्रस्ट बन गया। केवल स्वामी आत्मानन्दजी ने, जो आश्रम के प्रमुख कार्यकर्ता और एक छोर समष्टिवादी थे, इस प्रबन्ध से असन्तुष्ट होकर इस्तीफा दे दिया। वह आश्रम में धनिकों को नहीं घुसने देना चाहते थे। उन्होंने बहुत जोर मारा कि ट्रस्ट न बनने पाये। उनकी राय में धन पर आश्रम की आत्मा को बेचना, आश्रम के लिये घातक होगा । धन ही की प्रभुता से तो हिन्दू समाज ने नीचों को अपना गुलाम बना रखा है, धन ही के कारण तो नीच-ऊँच का भेद आ गया है, उसी धन पर आश्रम की स्वाधीनता क्यों बेची जाय ? लेकिन स्वामीजी की कुछ न चली और ट्रस्ट की स्थापना हो गयी। उसका शिलान्यास रखा सुखदा ने। जलसा हुआ, दावत हुई, गाना-बजाना हुआ। दूसरे दिन शांतिकुमार ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
सलीम की परीक्षा भी समाप्त हो गई। और उसने जो पेशीनगोई की थी,वह अक्षरशः पूरी हुई। गज़ट में उसका नाम सबसे नीचे था। शांतिकुमार के विस्मय की सीमा न रही। अब उसे कायदे के मुताबिक दो साल के लिये इंगलैण्ड जाना चाहिए था; पर सलीम इंगलैण्ड न जाना चाहता था। दो-चार महीने के लिए सैर करने तो वह शौक से जा सकता था; पर दो साल तक वहाँ पड़े रहना उसे मंजूर न था। उसे जगह न मिलनी चाहिए थी ; मगर यहाँ भी उसने कुछ ऐसी दौड़-धूप की, कुछ ऐसे हथकण्डे खेले, कि वह इस कायदे से मुस्तसना कर दिया गया। जब सूबे का सब से बड़ा डाक्टर कह रहा है कि इंगलैण्ड की ठण्डी हवा में इस युवक का दो साल रहना खतरे से खाली नहीं, तो फिर कौन इतनी बड़ी जिम्मेदारी
लेता। हाफिज हलीम लड़के को भेजने को तैयार थे, रुपये खर्च करने को तैयार थे; लेकिन लड़के का स्वास्थ्य बिगड़ गया, तो वह किसका दामन" पकङेगे। आखिर यहाँ भी सलीम की विजय रही। उसे उसी हलके का चार्ज भी मिला, जहाँ उसका दोस्त अमरकान्त पहले ही से मौजूद था। उस जिले को उसने खुद पसन्द किया।
इधर सलीम के जीवन में एक परिवर्तन हो गया था। हँसोड़ तो उतना ही था; पर उतना शौकीन, उतना रसिक न था। शायरी से भी अब उतना प्रेम न था। विवाह से जो उसे पुरानी अरुचि थी, वह अब बिल्कुल जाती रही थी। यह परिवर्तन एकाएक कैसे हो गया हम नहीं जानते; लेकिन इधर वह कई बार सकीना के घर गया था और दोनों में गुप्त रूप से पत्र-व्यवहार भी हो रहा था। अमर के उदासीन हो जाने पर भी सकीना उसके अतीत प्रेम को कितनी एकाग्रता से पाले हुए थी, इस अनुराग ने सलीम को परास्त कर दिया था। इस ज्योति से अब वह अपने जीवन को आलोकित करने के लिए विकल हो रहा था। अपने मामा से सकीना के उस अपार प्रेम का वृत्तांत सुन-सुनकर वह बहुधा रो दिया करता। उसका कविहृदय जो भ्रमण की भाँति नये-नये पुष्पों के रस लिया करता था, अब संयमित अनुराग से परिपूर्ण होकर उसके जीवन में एक विशाल साधना की सृष्टि कर रहा था।
नैना का विवाह भी हो गया। लाला धनीराम नगर के सबसे धनी आदमी थे। उनके जेठे पुत्र लाला मनीराम बड़े होनहार नौजवान थे। समरकान्त को आशा न थी कि यहाँ सम्बन्ध हो सकेगा क्योंकि धनीराम मन्दिरवाली घटना के दिन से ही इस परिवार को हेय समझने लगे थे; पर समरकान्त की थैलियों ने अन्त में विजय पायी। बड़ी-बड़ी तैयारियाँ हुई, बड़ी धूम-धाम से विवाह हुआ, दूर-दूर से नातेदारों की टोलियाँ आई; लेकिन अमरकान्त न आया और न समरकान्त ने उसे बुलाया। धनीराम ने कहला दिया था कि अमरकान्त विवाह में सम्मिलित हुआ तो बारात द्वार से लौट आयेगी। यह बात अमरकान्त के कानों तक पहुँच गई थी। नैना न प्रसन्न थी, न दुखी थी। वह न कुछ कह सकती थी, न बोल सकती थी। पिता की इच्छा के सामने वह क्या कहती। मनीराम के विषय में तरह-तरह की बातें सुनी थीं-शराबी है, व्यभिचारी है, मूर्ख है, घमण्डी
है; लेकिन पिता की इच्छा के सामने सिर झुकाना उसका कर्तव्य था। अगर समरकान्त उसे किसी देवता की बलिवेदी पर चढ़ा देते, तब भी वह मुँह न खोलती। केवल विदाई के समय वह रोई; पर उस समय भी उसे यह ध्यान रहा कि पिताजी को दुःख न हो। समरकान्त की आँखों में धन ही सबसे मुल्यवान वस्तु थी। नैना को जीवन का क्या अनुभव था? ऐसे महत्त्व के विषय में पिता का निश्चय ही उसके लिए मान्य था। उसका चित्त सशंक था; पर उसने जो कुछ अपना कर्तव्य समझ रखा था, उसका पालन करते हुए उसके प्राण भी चले जायँ तो उसे दुःख न होगा।
इधर सुखदा और शांतिकुमार का सहयोग दिन-दिन घनिष्ठ होता जाता था। धन का अभाव तो था नहीं, हरेक मुहल्ले में सेवाश्रम की शाखाएँ खुल रही थीं और मादक वस्तुओं का बहिष्कार भी जोरों से हो रहा था। सुखदा के जीवन में अब एक कठोर तप का संचार होता जाता था। वह अब प्रातःकाल और संध्या व्यायाम करती। भोजन में स्वाद से अधिक पोषकता का विचार रखती। संयम और निग्रह ही अब उसको जीवनचर्या के प्रधान अंग थे। उपन्यासों की अपेक्षा अब उसे इतिहास और दार्शनिक विषयों में अधिक आनन्द आता था और उसकी बोलने की शक्ति तो इतनी बढ़ गयी थी कि सुननेवालों को आश्चर्य होता था। देश और समाज की दशा देखकर उसे सच्ची वेदना होती थी और यही वाणी में प्रभाव का मुख्य रहस्य है। इस सुधार के प्रोग्राम में एक बात और आ गई थी। वह थी गरीबों के लिए मकानों की समस्या। अब यह अनुभव हो रहा था कि जब तक जनता के लिये मकानों की समस्या हल न होगी, सुधार का कोई प्रस्ताव सफल न होगा। मगर यह काम चन्दे का नहीं, इसे तो म्युनिसीलिटी ही हाथ में ले सकती थी। पर यह संस्था इतना बड़ा काम हाथ में लेते हुए भी घबराती थी। हाफ़िज हलीम प्रधान थे। लाला धनीराम उप-प्रधान। ऐसे दकियानूसी महानुभावों के मस्तिष्क में इस समस्या की आवश्यकता और महत्त्व को जमा देना कठिन था। दो-चार ऐसे सज्जन तो निकल आये थे, जो जमीन मिल जाने पर दो-चार लाख रुपये लगाने को तैयार थे। उनमें लाला समरकान्त भी थे। अगर चार आने सैकड़े का सूद भी निकलता आये, तो वह सन्तुष्ट थे; मगर प्रश्न था ज़मीन कहाँ से आये। सुखदा का कहना
था, जब मिलों के लिए, स्कूलों और कालेजों के लिए, जमीन का प्रबंध हो सकता है, तो इस काम के लिए क्यों न म्युनिसीपैलिटी मुफ्त जमीन दे।
संध्या का समय था। शांतिकुमार नक़शों का एक पुलिन्दा लिये हुए सुखदा के पास आये और एक-एक नक़शा खोलकर दिखाने लगे। यह उन मकानों के नक़शे थे जो बनाये जायेंगे। एक नक़शा आठ आने महीने के मकान का था, दूसरा एक रुपये किराये का और तीसरा दो रुपये किराये का। आठ आने वाले में एक कमरा था, एक रसोई, एक बरामदा, सामने एक बैठक और छोटा-सा सहन। एक रुपये वाले में भीतर दो कमरे थे और दो रुपये वाले में तीन कमरे।
कमरों में खिड़कियाँ थीं, फर्श और दो फीट ऊँचाई तक दीवारें पक्की। ठाट खपरैल का था।
दो रुपयेवालों में शौच-गृह भी थे। बाक़ी दस-दस घरों के बीच में एक शौच-गृह बनाया गया।
सुखदा ने पूछा--आपने लागत का तख्मीना भी किया है?
'और क्या योंही नकशे बनवा लिये हैं! आठ आनेवाले घरों की लागत दो सौ होगी, एक रुपयेवालों की तीन सौ और दो रुपयेवालों की चार सौ। चार आने का सूद पड़ता है।'
'पहले कितने मकानों का प्रोग्राम है?'
'कम-से कम तीन हजार। दक्खिन की तरफ़ लगभग इतने ही मकानों की जरूरत होगी। मैंने हिसाब लगा लिया है। कुछ लोग तो ज़मीन मिलने पर रुपये लगायेंगे; मगर कम-से-कम दस लाख की जरूरत और होगी।'
'मार डाला। दस लाख! एक तरफ के लिये!'
'अगर पाँच लाख के हिस्सेदार मिल जाय तो बाकी रुपये जनता खुद लगा देगी, मजदूरी में वही किफायत होगी। राज, बेलदार, बढ़ई, लोहार आधी मजदूरी पर काम करने को तैयार हैं। ठेलेवाले, गधेवाले, गाडीवाले, यहाँ तक कि एक और तांगेवाले भी बेगार में काम करने पर राजी हैं।
'देखिये, शायद चल जाय। दो तीन लाख शायद दादाजी लगा दें, अम्मा के पास भी अभी कुछ-न-कुछ होगा ही। बाकी रुपये की फ़िक्र करनी है। सबसे बड़ी जमीन की मुश्किल है।' 'मुश्किल क्या है। दस बँगले गिरा दिये जाँय; तो ज़मीन ही जमीन निकल आयेगी।'
'बँगलों का गिराना आप आसान समझते हैं?'
'आसान तो नहीं समझता; लेकिन उपाय है। शहर के बाहर तो कोई रहेगा नहीं। इसलिये शहर के अंदर ही जमीन निकालनी पड़ेगी। बाज मकान इतने लम्बे-चौड़े हैं कि उनमें एक हजार आदमी फैलकर रह सकते हैं। आपही का मकान क्या छोटा है। इसमें दस ग़रीब परिवार बड़े मजे में रह सकते हैं।'
सुखदा मसकराई--आप तो हम लोगों पर ही हाथ साफ़ करना चाहते हैं!
'जो राह बताये उसे आगे चलना पड़ेगा।'
'मैं तयार हूँ; लेकिन म्युनिसिपैलिटी के पास कुछ प्लाट तो खाली होगे?
हाँ हैं, क्यों नहीं। मैंने उन सबों का पता लगा लिया है। मगर हाफिज जी फ़रमाते हैं, उन प्लाटों की बातचीत तय हो चुकी है।'
सलीम ने मोटर से उतरकर शांतिकुमार को पुकारा। उन्होंने उसे अन्दर बुला लिया और पूछा--किधर से आ रहे हो?
सलीम ने प्रसन्न मुख से कहा--कल रात को चला जाऊँगा। सोचा, आपसे रुखसत होता चलूं। इसी बहाने देवीजी से भी नियाज़ हासिल हो गया।
शांतिकुमार ने पूछा--अरे तो यों ही चले जाओगे भाई क्या? कोई जलसा दावत कुछ नहीं? वाह!
'जलसा तो कल शाम को है। कार्ड तो आपके यहाँ भेज दिया था। मगर आपसे तो जलसे की मुलाकात काफ़ी नहीं।'
'तो चलते-चलाते हमारी थोड़ी-सी मदद करो। दक्खिन तरफ म्युनिसिपैलटी के जो प्लाट हैं, वह हमें दिला दो, मुफ्त में।'
सलीम का मुख गंभीर हो गया। बोला--उन प्लाटों की तो शायद बातचीत हो चुकी है। कई मेम्बर खुद बेटों और बीबियों के नाम से खरीदने को मुंह खोले बैठे हैं।
सुखदा विस्मित हो गयी--अच्छा! भीतर ही भीतर यह कपट-लीला भी होती है? तब तो आपकी मदद की और जरूरत है। इस मायाजाल को तोड़ना आपका कर्तव्य है। सलीम ने आँखें चुराकर कहा--अब्बाजान इस मुआमले में मेरी एक न सुनेंगे। और हक़ यह है कि जो मुआमला तय हो चुका, उसके बारे में कुछ ज़ोर देना भी तो मुनासिब नहीं।
यह कहते हुए उसने सुखदा और शांतिकुमार से हाथ मिलाया और दोनों से कल शाम के जलसे में आने का आग्रह करके चला गया। वहाँ बैठने में अब उसकी खैरियत न थी।
शांतिकुमार ने कहा--देखा आपने! अभी जगह पर गये नहीं पर मिजाज में अफसरी की बू आ गयी। कुछ अजीब तिलिस्म है कि जो उसमें कदम रखता है, उस पर जैसे नशा हो जाता है। इस तजवीज के यह पक्के समर्थक थे; पर आज कैसे निकल गये। हाफ़िज़जी से अगर जोर देकर कहें तो मुमकिन नहीं कि वह राजी न हो जायें।
सुखदा के मुख पर आत्मगौरव की झलक आ गई--हमें न्याय की लड़ाई लड़नी है। न्याय हमारी मदद करेगा। हम और किसी की मदद के मुहताज नहीं है।
इसी समय लाला समरकान्त आ गये। शांतिकूमार को बैठे देखकर जरा झिझके। फिर पूछा--कहिए डाक्टर साहब, हाफिज़जी से क्या बात चीत हुई?
शांतिकुमार ने अब तक जो कुछ किया था, वह सब कह सुनाया।
समरकान्त ने असन्तोष का भाव प्रगट करते हुए कहा--आप लोग विलायत के पढ़े हए साहब, मैं भला आपके सामने क्या मुंह खोल सकता है, लेकिन आप जो चाहें कि न्याय और सत्य के नाम पर आपको ज़मीन मिल जाय, तो चुपके हो रहिए। इस काम के लिए दस-बीस-हजार रुपये खर्च करने पड़ेंगे--हरेक मेम्बर से अलग अलग मिलिए, देखिए, किस मिजाज का, किस विचार का, किस रंग-ढंग का आदमी है। उसी तरह काबू में लाइए--खुशामद से राजी हो खुशामद से, चाँदी से राजी हो चाँदी से, दुआ-तावीज, जन्तर-मन्तर, जिस तरह काम निकले, उस तरह निकालिये। हाफ़िजजी से मेरी पुरानी मुलाकात है। पच्चीस हजार की थैली उनके मामा के हाथ घर में भेज दो, फिर देखें कैसे जमीन नहीं मिलती। सरदार कल्यानसिंह को नये मकानों का ठीका देने का वादा कर लो, वह काबू में आ जायेंगे।
दुबेजी को पाँच तोले चन्द्रोदय भेंट करके पटा सकते हो। खन्ना से योगाभ्यास की बातें करो और किसी सन्त से मिला दो, ऐसा सन्त हो, जो उन्हें दो-चार आसन सिखा दे। राय साहब धनीराम के नाम पर अपने नये मुहल्ले का नाम रख दो। उनसे कुछ रुपये भी मिल जायेंगे। यह है काम करने का ढंग। रुपये की तरफ़ से निश्चिन्त रहो। बनियों को चाहे बदनाम कर लो पर परमार्थ के काम में बनिये ही आगे आते हैं। दस लाख का बीमा तो मैं लेता हैं। कई भाइयों के तो बोट ले आया। मुझे तो रात को नींद नहीं आती। यही सोचा करता हूँ कि कैसे यह काम सिद्ध हो। जब तक काम सिद्ध न हो जायगा, मुझे ज्वर-सा चढ़ा रहेगा।
शांतिकुमार ने दबी आवाज से कहा--यह फन तो मुझे अभी सीखना पड़ेगा सेठजी। मुझे न रक़म खाने का तजरबा है, न खिलाने का। मुझे तो किसी भले आदमी से यह प्रस्ताव करते शर्म आती है। यह खयाल भी आता है कि वह मुझे कितना खुदग़रज समज्ञ रहा होगा। डरता हूँ, कहीं घुड़क न बैठे।
समरकान्त ने जैसे कुत्ते को दुतकारकर कहा--तो फिर तुम्हें ज़मीन मिल चुकी। सेवाश्रम के लड़के पढ़ाना दूसरी बात है, मामले पटाना दूसरी बात है। मैं खुद पटाऊँगा।
सुखदा ने जैसे आहत होकर कहा--नहीं, हमें रिश्वत देना मंजूर नहीं। हम न्याय के लिए खड़े हैं। हमारे पास न्याय का बल है। हम उसी बल से विजय पायेंगे।
समरकान्त ने निराश होकर कहा---तो तुम्हारी स्कीम चल चुकी।
सुखदा ने कहा--स्कीम तो चलेगी, हाँ शायद देर में चले, या धीमी चाल से चले, पर रुक नहीं सकती। अन्याय के दिन पूरे हो गये।
'अच्छी बात है। मैं भी देखूगा।'
समरकान्त झल्लाये हुए बाहर चले गये। उनकी सर्वज्ञता को जो स्वीकार न करे, उससे वह दूर भागते थे।
शांतिकुमार ने खुश होकर कहा--सेठजी भी विचित्र जीव है। इनकी निगाह में जो कुछ है, वह रुपया। मानवता भी कोई वस्तु है, इसे शायद यह मान ही नहीं। सुखदा की आँखें सगर्व हो गयीं-- इनकी बातों पर न जाइए डाक्टर साहब! इनके हृदय में जितनी दया, जितनी सेवा है, वह हम दोनों में मिलकर भी न होगी। इनके स्वभाव में कितना अन्तर हो गया है, इसे आप नहीं देखते। डेढ़ साल पहले बेटे ने इनसे यह प्रस्ताव किया होता, तो आग हो जाते। अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार हो जाना साधारण बात नहीं है, और विशेषकर उस आदमी के लिए, जिसने एक-एक कौड़ी को दाँतों से पकड़ा हो। पुत्र-स्नेह ही ने यह कायापलट की है। मैं इसी को सच्चा वैराग्य कहती हूँ। आप पहले मेम्बरों से मिलिए। अगर जरूरत समझिए तो मुझे भी ले लीजिए। मुझे तो आशा है, हमें बहुमत मिलेगा। नहीं, आप अकेले न जायें। कल सबेरे आइए तो हम दोनों चलें। दस बजे रात तक लौट आयेंगे, इस वक्त मझे ज़रा सकीना से मिलना है। सुना है, महीनों से बीमार है। मुझे तो उस पर श्रद्धा हो गयी है। समय मिला, तो उधर से ही नैना से मिलती आऊँगी।
डाक्टर साहब ने कुरसी से उठते हुए कहा--उसे गये तो दो महीने हो गये, आयेगी कब तक?
'यहाँ से तो कई बार बुलाया गया, सेठ धनीराम बिदा ही नहीं करते।
'नैना खुश तो है?'
'मैं तो कई बार मिली; पर अपने विषय में उसने कुछ नहीं कहा। पूछा तो यही बोली-मैं बहुत अच्छी तरह हूँ। पर मुझे तो वह प्रसन्न नहीं दिखी। वह शिकायत करनेवाली लड़की नहीं है। अगर वह लोग उसे लातों मारकर निकालना भी चाहें तो घर से न निकलेगी, और न किसी से कुछ कहेगी।'
शांतिकुमार की आँखें सजल हो गयीं-उससे कोई अप्रसन्न हो सकता है, मैं तो इसको कल्पना ही नहीं कर सकता।
सुखदा मुसकराकर बोली-उसका भाई कुमार्गी है, क्या यह उन लोगों की अप्रसन्नता के लिए काफी नहीं?
'मैंने तो सुना, मनीराम पक्का शोहदा है।'
'नैना के सामने आपने यह शब्द कहा होता, तो आपसे लड़ बैठती।'
'मैं एक बार मनीराम से मिलूंगा ज़रूर।' 'नहीं आपके हाथ जोड़ती हूँ। आपने उनसे कुछ कहा, तो नैना के सिर जायगी।
'मैं उससे लड़ने नहीं जाऊँगा। मैं उसकी खुशामद करने जाऊँगा! यह कला जानता नहीं; पर नैना के लिए अपनी आत्मा की हत्या करने में भी मुझे संकोच नहीं है। मैं उसे दुखी नहीं देख सकता। निःस्वार्थ सेवा की वह देवी अगर मेरे सामने दुःख सहे, तो मेरे जीने को धिक्कार है।'
शांतिकुमार जल्दी से बाहर निकल आये। आँसुओं का बेग अब रोके न रुकता था।